Tuesday, 13 December 2016

शहीद करतार सिंह सराभा



शहीद करतार सिंह सराभा के शहीदी दिवस (16 नबंबर) पर कोटि कोटि नमन
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"करतार सिंह सराभा" का जन्म 24 मई, 1896,को लुधियाना (पंजाब) के लुधियाना के 'सराबा' नामक ग्राम में हुआ था उनके पिता का नाम "मंगल सिंह" तथा माता का नाम "साहिब कौर" था. उनके दो चाचा अंग्रेज सरकार में प्रतिष्ठित पदों पर थे. एक चाचा उत्तर प्रदेश में इंस्पेक्टर के पद पर तथा दूसरे चाचा उड़ीसा (तब उड़ीसा भी बंगाल का ही हिस्सा था) में वन विभाग के अधिकारी के पद पर कार्यरत थे.
लुधियाना से नवीं कक्षा पास करने के बाद वे अपने चाचा के पास उड़ीसा चले गये और वहीं से हाई स्कूल की परीक्षा पास की. 1905 ई. के 'बंगाल विभाजन' के विरुद्ध क्रांतिकारी आन्दोलन प्रारम्भ हो चुका था. क्रांतिकारियों के बिचारो ने बालक "करतार" के दिल-दिमाग पर गहरा प्रभाव डालना शुरू कर दिया था. दसवीं पास करने के बाद परिवार ने उच्च शिक्षा के लिए उन्हें अमेरिका भेज दिया.
अमेरिका में उनका सम्पर्क "लाला हरदयाल" से हुआ, जो अमेरिका में रहते हुए भी भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्नशील रहते थे. उसके बाद उनका सम्पर्क भाई "परमानंद" और "वीर सावरकर के "अभिनव भारत" के कुछ क्रान्तिकारियो से हुआ. उनके ओजस्वी बिचारों से "करतार" के मन में भी देशभक्ति की तीव्र भावनाएं जागृत हुईं. "वीर सावरकर" के ग्रन्थ "1857-प्रथम स्वातंत्र समर" ने उनकी सोंच की दिशा ही बदल दी.
"वीर सावरकर" को कालापानी की सजा हो जाने के बाद, उनके प्रतिबंधित साहित्य को चोरी से छपवाना और प्रसारित करना, बहुत बड़ा देशभक्ति का काम माना जाने लगा था. सराभा ने भी इस काम में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. 25 मार्च, 1913 ई. में एक सभा लाला हरदयाल ने कहा था, "मुझे ऐसे युवकों की आवश्यकता है, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण दे सकें." इस पर सर्वप्रथम सराभा ने ही अपने आपको प्रस्तुत किया.
इस सभा में 'गदर' नाम से एक देशभक्ति पूर्ण समाचार-पत्र निकालने का निश्चय किया गया. इसके पंजाबी संस्करण के सम्पादक का कार्य, करतार सिंह सराभा को दिया गया. उन्होंने अपने सम् बिचारको के साथ "ग़दर पार्टी" का भी गठन किया. 1914 ई. में जब 'प्रथम विश्व युद्ध' प्रारम्भ हुआ, तो अंग्रेजों को युद्ध में बुरी तरह फँसा देखकर 'ग़दर पार्टी' के कार्यकर्ताओं ने भारत में सशत्र बिद्रोह की योजना बनाई.
तब साराभा सहित, लगभग चार हज़ार भारतीय अपना सब कुछ बेचकर, गोला-बारूद और पिस्तोलें ख़रीदकर और जहाज द्वारा अमेरिका से भारत को रवाना हुए. किसी गद्दार की मुखबिरी के कारण भेद खुल जाने से, अनेकों क्रांतिकारियों को भारत के समुद्री तट पर पहुँचने से पूर्व ही बन्दी बना लिया गया. सराभा किसी तरह अपने साथियों के साथ बच निकलने में सफल रहे और पंजाब पहुँचकर, विद्रोह के लिए तैयारियाँ करने लगे.
सराभा ने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, रासबिहारी बोस, शचीन्द्रनाथ सान्याल आदि क्रांतिकारियों से भेंट की और उनके सुझाव पर रासबिहारी बोस ने पंजाब में आकर क्रांतिकारियों का संगठन बनाना शुरू किया. उन्होंने अनेकों फ़ौजी छावनियों के सैनिकों को विद्रोह के लिए तैयार कर लिया. उनकी योजना अनेकों छवनियों में एक साथ विद्रोह करने की थी. योजनानुसार 21 फ़रवरी, 1915 ई. का दिन समस्त भारत में क्रांति के लिए निश्चित किया गया.
लेकिन किसी गद्दार की मुखबिरी के कारण 15 फ़रवरी को ही यह भेद खुल गया. बंगाल तथा पंजाब में सैकड़ो क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया गया. रासबिहारी बोस किसी प्रकार लाहौर से वाराणसी होते हुए कोलकाता और वहाँ से जापान चले गये. रास बिहारी बोस ने करतार को भी काबुल जाने को कहा. वे काबुल के लिए निकले ,लेकिन बजीराबाद पहुँचने के बाद उनके मन में बिचार आया कि - बाजीराबाद के फौजियों से बात की जाए.
वे वजीराबाद की फौजी छावनी में चले गये और वहाँ उन्होंने फौजियों से कहा, "भाइयों, अंग्रेज़ विदेशी हैं. हमें उनकी बात नहीं माननी चाहिए. हमें आपस में मिलकर अंग्रेज़ी शासन को समाप्त कर देना चाहिए". मगर वहां के फ़ौजी प्रभावित नहीं हुए और छावनी में ही सराभा को गिरफ्तार कर लिया गया, तब उन्होंने बड़े गर्व के साथ स्वीकार किया कि - "वे अंग्रेज़ी शासन को समाप्त करने के लिए सैनिक विद्रोह करना चाहते थे".
करतार सिंह सराभा सहित 63 क्रांतिकारियों पर हत्या, डाका, शासन को उलटने का अभियोग लगाकर 'लाहौर षड़यन्त्र' के नाम से मुकदमा चलाया गया. जिनमे से 24 को फांसी की सजा सुनाई गई. फांसी के विरुद्ध अपील की गई, तो सात व्यक्तियों की फाँसी की सज़ा पूर्ववत् रखी गई थी. उन सात व्यक्तियों के नाम थे- करतार सिंह सराभा, विष्णु पिंगले, काशीराम, जगतसिंह, हरिनाम सिंह, सज्जन सिंह एवं बख्शीश सिंह.
अपील पर निर्णय सुनाते समय जज ने कहा था, "इस युवक करतार सिंह साराभा ने अमेरिका से लेकर हिन्दुस्तान तक अंग्रेज़ शासन को उलटने का प्रयास किया. इसे जब और जहाँ भी कोई भी अवसर मिला, इसने अंग्रेज़ों को हानि पहुँचाने का प्रयत्न किया. इसकी उम्र भले ही बहुत कम है, किन्तु अंग्रेज़ी शासन के लिए यह बड़ा भयानक है, अत: ऐसे खतरनाक राजद्रोही को माफ़ नहीं किया जा सकता है"
16 नवम्बर 1915 को उन्हें, उनके साथियों के साथ लाहौर जेल में, फांसी पर चढ़ा कर शहीद कर दिया गया. फाँसी पर झूलने से पूर्व सराभा ने यह शब्द कहे- हे भगवान मेरी यह प्रार्थना है कि मैं भारत में उस समय तक जन्म लेता रहूँ, जब तक कि मेरा देश स्वतंत्र न हो जाये. सरदार भगत सिंह भी उनको अपना आदर्श मानते थे. भारत माँ के इस वीर सपूत को हमारा सादर नमन.

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