अक्सर लोग वर्ण व्यवस्था और जातिवाद को एक ही चीज समझ लेते हैं जबकि ये दोनों बिलकुल अलग अलग बातें हैं. मानव जीवन को सुव्यवस्थित करने के प्रथम प्रयास में, उसकाल के समाज शास्त्रियों , मानव प्रव्रत्ति. उनके व्यवसाय, उनके रहन सहन आदि के आधार पर जो उनका वर्गीकरण किया था उसे वर्ण व्यवस्था कहा जाता है.
शिक्षण, लेखन, चिकित्सा, शोध, कर्मकांड, आदि जैसे बौद्धिक कार्य करने वालों को "ब्राह्मण" कहा गया. राष्ट्र और समाज की सुरक्षा एवं सञ्चालन को अपना धर्म मानने वालों को "क्षत्रीय" कहा गया, व्यापार करने वालों को "वैश्य" एवं उत्पादन, सेवा, आदि जैसे कार्यों से अपनी जीविका चलाने वालों को "शुद्र" नाम दिया गया.
एक वर्ण का व्यक्ति भी दुसरे वर्ण की प्रव्रत्ति का हो सकता था. परशुराम जैसे ब्राह्मण क्षत्रियों वाले कार्य करते रहे. रावण जैसे ब्राह्मण ने शक्तिशाली साम्राज्य बनाया था. वे लोग लोग युद्धकला के माहिर थे . विश्वामित्र जैसे क्षत्रीयकुल में जन्म लेने वाले राजा ने अपने तप के बल पर ब्राह्मणत्व प्राप्त किया और बाद में ब्रह्मऋषि कहलाये.
निषाद कन्या सत्यवती का विवाह हस्तिनापुर के सम्राट शांतनु से हुआ था. राम के साथ युद्ध में लड़ने वाले लोग बन-नर (अर्थात वनवासी लोग थे). गाय चराने और दूध बेंचने का कार्य करने वाले वर्ग के श्री कृष्ण और श्री बलराम को उस काल के समस्त क्षत्रीय और ब्राह्मण उनकी क्षमताओं के कारण , उनको भगवान् की तरह पूजते थे.
जिस कर्ण और एकलव्य को द्रोणाचार्य ने राजपुत्र न होने के कारण ( अर्थात उनकी महंगी फीस न दे पाने में समर्थ होने के कारण) अपने गुरुकुल में जगह नहीं दी थी उन्होंने भी महाभारत का युद्ध क्षत्रियों के साथ और क्षत्रियों की तरह लड़ा था. राम के द्वारा शबरी, केवट, सुग्रीव, वाल्मीकि आदि को महत्त्व देना समाज की एकरूपता का ही प्रतीक है .
कहने का तात्पर्य यह कि- वर्ण व्यवस्था के केवल मानव स्वभाव को समझने के लिए वर्गीकरण किया गया था, उनमे कहीं कोई भेदभाव नहीं था, धीरे-धीरे ऐसा होने लगा कि एक जैसा कार्य करने वाले (लगभग सामान आर्थिक स्तर के लोग) एक साथ रहने लगे, पिता की कला उसका बेटा सीखने लगा तो कार्य के आधार पर उसे जाती कहा जाने लगा.
पेशे को जाती कहने के बाद भी कोई आपसी विवाद नहीं था. यह फूट पड़ी भारत पर विदेशी हमलावरों के हमले के बाद. उन विदेशियों ने एक को पुचकारने दूसरे को दुत्कारने की नीति को अपनाकर भारत के लोगो को ही एक दूसरे का दुश्मन बना दिया और खुद राज करने लगे. "फूट डालो और राज करो' के द्वारा अल्पसंख्यकों ने बहुसंख्यकों पर राज किया .
बहुत तेजी से बढ़ने वाली आवादी होने के बाजजूद भारत में मुस्लिमो की संख्या आज भी 20% है तो सोंचो अकबर के समय में कितने प्रतिशत रहे होंगे? मानसिंह और प्रताप को लड़ाकर, बीरवल को ऊंचा स्थान देकर और अन्य हिन्दुओं को दबाकर , तानसेन और बैजू को लड़ाकर , अकबर हमेशा अपना उल्लू सीधा करता रहा और शासन करता रहा.
भारत में मुघलों के आने से पहले शौचालय नहीं थे और न ही लोग जूते पहना करते थे. युद्ध में हारे हुए हिन्दू लड़ाकों को मजबूर किया जाता था कि या तो इस्लाम कबुल कर लो अन्यथा मैला उठाने या मृत जानवरों का चमड़ा उतारने का घ्रणित कार्य करो. जिन लोगों ने धर्म छोड़ने के बजाय गन्दा काम करना मंजूर किया था वे ही लोग दलित कहलाते हैं.
मुघलों ने अपनी चालाकी से देश में ऐसा माहौल बनाया था कि - भारत की जनता एक दूसरे की जाती से नफरत करने लगी. कभी ब्राह्मणों को लाभकारी पद दिए जाते और दलितों को सताया जाता , तो कभी रोज सवा मन जनेऊ उतारने के अभियान चलाये जाते. कभी वैश्यों को लाभ दिए जाते , तो कभी वैश्यों की सम्पत्ति लूट ली जाती.
धीरे धीरे देश की जनता एक जैसा पेशा करने वालों के रूप में बंट गई. अपने पेशे के अलावा दुसरे पेशे वाले को शक की नजर से देखने लगे और कालांतर में यही शक जातीय नफरत में बदलता चला गया. जिस वर्ण व्यवस्था का आविष्कार प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए किया था वही व्यवस्था कालान्तर में आपसी जातीय नफरत में बदल गई.
आज जरूरत है कि - जाती शब्द को मिटा दिया जाए और कहीं जरूरत हो तो भी इसे केवल "खानदानी पेशा" कहा जाए. जन्म के आधार पर कोई भेदभाव न किया जाए केवल व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर ही किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता का निर्धारण हो. जाति के आधार पर उंच नीच करने वालों का ही सामाजिक बहिष्कार किया जाए .
पेशे के कारण बन जाने वाले स्वभाव को समझने के लिए, लोगों का वर्गीकरण किया गया था. जातिवाद तो भारत के दुश्मनों ने भारतीयों को आपस में लड़ाकर उनपर शासन करने के लिए फैलाया था. जिन हिन्दुओं ने गुलामी के दिनों में अपना धर्म छोड़ा था, उनके वंशज अगर स्वेच्छा से मूलधर्म में वापस आना चाहें, तो उनका भी स्वागत करना चाहिए.
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