Wednesday, 14 December 2016

काकोरी काण्ड (9 अगस्त)

1907 से 1915 तक दूसरा स्वाधीनता संग्राम मे अनेकों क्रांतिकारियों को फांसी और कालापानी की सजा हुई. 1915 में गांधीजी का भारत में आगमन हुआ और उन्होंने अहिंसा के द्वारा सुराज हाशिल करने की बात की. एक तो देशवाशियों को उनका अहिंसा का सिद्धांत अच्छा लगा और दूसरे वो सुराज को स्वराज समझ बैठे. इस प्रकार दूसरा स्वाधीनता संग्राम 1915 में लगभग समाप्त हो गया,
अब लोग गांधी जी के दिखाए रास्ते पर चलने लगे. इसी बीच अंग्रेजों ने 1919 में जालियांवाला बाग़ काण्ड जैसा नरसंहार कर दिया,  जिसके कारण सारा देश अंग्रेजों के खिलाफ फिर से हिंसक क्रान्ति की बात करने लगा. दूसरी तरफ तुर्की के खलीफा को हटाये जाने के कारण दुनिया भर के मुस्लमान अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने लगे. भारत के मुस्लमान भी आंदोलन कर रहे थे. 
इसके अलावा प्रथम विश्वयुद्ध में भी अंग्रेजों का काफी नुकशान हुआ था.  ऐसे में गांधी जी को लगा कि - इस समय अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसक आंदोलन किया जाए तो अंग्रेज भी हमारी शर्तों को मानकर, ब्रिटिश शासन के अधीन ही भारत को डोमिनियन स्टेटस देस्टेटस देने को तैयार हो जाएंगे और दूसरी तरफ भारत में क्रांतिकारी बिचारधारा वाले भी काफी हद तक शांत हो जायेंगे  
यह सोंचकर उन्होंने अंग्रेजों से ब्रिटिश शासन के अधीन ही "सुराज" की मांग करते हुए असहयोग आंदोलन प्रारम्भ कर दिया. देश के जोशीले युवा भी इसे स्वराज की लड़ाई समझकर  पूरे जोश के साथ इसमें कूद पड़े. अंग्रेजों ने आंदोलनकारियों पर सख्ती की तो कई जगह उसका प्रतिकार भी किया. कई जगह आंदोलन अहिंसक के हिंसक भी होने लगा था. 
अंग्रेजों के दबाब के कारण गांधी जी अब इस आंदोलन से पीछा छुड़ाना चाह रहे थे. इसी बीच 4 फरवरी 1922 गोरखपुर के पास चौरी चौरा काण्ड हो गया. पुलिस ने आंदोलनकारियों पर अंधाधुंध गोली चला दी जिसमे 250 से ज्यादा लोग मारे गए. अपने साथियों की लाश और घायल साथियों का खून देखकर गुस्साई भीड़ ने पुलिस पर हमला कर दिया,
पुलिस वाले भागकर थाने में छुप गए. तब आंदोलनकारियों ने थाने को आग लगा दी जिसमे 23 पुलिस वाले मारे गए. गांधीजी को  250 से ज्यादा आंदोलनकारियों के मारे जाने का दुःख नहीं हुआ लेकिन 23 पुलिस वालों के मारे जाने पर भूख हरताल पर बैठ गए और चौरी चौरा की हिंसा का बहाना बनाकर 8 फरवरी 1922 को अपना आंदोलन वापस ले लिया.
उस आंदोलन के समय अंग्रेजों ने अनेकों आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया था लेकिन गांधी जी और उनकी कांग्रेस ने यह कह कर उनसे अपना पल्ला झाड़ लिया कि कोई भी हिंसक क्रांतिकारी हमारा नही है. गांधी जी और कांग्रेस की इन बातों से नाराज होकर अनेकों जोशीले लोगों ने कांग्रेस छोड़ दी तथा अपने अपने दल बनाने लगे या अकेले ही अपने स्तर पर कार्यवाही करने लगे. 
ऐसे ही जोशीले युवाओं का एक दल राम प्रसाद विस्मिल और चंद्र शेखर आजाद ने तैयार किया, जिसको नाम दिया "हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन". उनके संगठन से बिस्मिल, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, अशफाक, लाहिड़ी, केशव चक्रवर्त्ती (छद्मनाम), आदि जैसे अनेकों क्रांतिकारी जुड़े हुए थे. ये लोग वीर सावरकर के क्रांतिकारी बिचारो और किताबों का प्रचार प्रसार करते थे. 
इन्होने अपने दल को चलाने के लिए धन  की व्यवस्था करने के लिए अंग्रेजो और अंग्रेजों के चापलूस भारतीयों को लूटना प्रारम्भ कर दिया. इस दल ट्रेन से जाने वाले सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई. 9 अगस्त 1925 की शाम को काकोरी स्टेशन से, जैसे ही ट्रेन आगे बढी़, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने चेन खींची, "अशफ़ाक़" ने ड्राइवर की कनपटी पर माउजर रखकर, उसे अपने कब्जे में लिया.  
राम प्रसाद बिस्मिल ने गार्ड को पटकते हुए खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया. आजाद जी हथौड़े से बक्से का ताला तोड़ दिया. इस प्रकार चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में बिस्मिल, अशफाक, लाहिड़ी,आदि ने सरकारी खजाना लूट लिया था. यह घटना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने ब्रिटेन की संसद तक को हिलाकर रख दिया था. 
बाद में अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी पार्टी "हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन" के कुल 40 क्रान्तिकारियों पर "अंग्रेज सम्राट" के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व मुसाफिरों की हत्या करने का मुकदमा चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल तथा अशफाक उल्ला खाँ को मृत्यु-दण्ड (फाँसी की सजा) सुनायी गयी.
इस मुकदमे में नेहरू के समधी  "जगतनारायण मुल्ला" ने क्रांतिकारियों के खिलाफ सरकारी पक्ष रखने का काम किया था, जबकि क्रान्तिकारियों की ओर से के०सी० दत्त, जय करण नाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की . राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी पैरवी खुद की.
हालांकि ठाकुर रोशन सिंह का काकोरी काण्ड से कोई लेना देना नहीं था. उनको पीलीभीत जिले की एक खांडसारी लूटने के जुर्म में , काकोरी के वीरों के साथ ही फांसी दी गई थी, क्योंकि अंग्रेजों का मानना था कि - दोनों ही काण्ड का उद्देश्य एक ही था. काकोरी काण्ड के एक फरार अभियुक्त केशव चक्रवर्त्ती (छद्मनाम) वास्तव में केशव बलिराम हेडगेवार ही थे.



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