Wednesday, 14 December 2016

अमर बलिदानी अशफाक उल्ला खान

काकोरी के बलिदानी अशफाक उल्ला खान के जन्मदिवस (22अक्टूबर) पर शत शत नमन
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अशफाक उल्ला खान का जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में कदनखैल, जलालनगर मुहल्ले में 22 अक्टूबर 1900 को हुआ था. उनके पिता का नाम मोहम्मद शफीक उल्ला ख़ाँ तथा माँ का नाम मजहूरुन्निशाँ बेगम था. अशफाक की पारिवारिक प्रष्ठ भूमि (विशेषकर ननिहाल की) अंग्रेज परस्त थी. लेकिन राम प्रसाद विस्मिल के सानिध्य ने उनमे देशभक्ति का जज्बा भर दिया और वे आजाद जी के दल में शामिल हो गए.

उनकी ननिहाल में सभी लोग उच्च शिक्षित थे तथा अंग्रेज सरकार में बड़े पदों पर थे. 1857 के गदर में भी उनकी ननिहाल वालों ने अंग्रेजों का साथ दिया था, इसपर वहां की जनता ने गुस्से में आकर उनकी आलीशान कोठी को आग लगा दी थी. वह कोठी आज भी "जली कोठी" के नाम से मशहूर है. बहरहाल अशफ़ाक़ ने अपनी कुरबानी देकर, अपने पूर्वजों के नाम पर लगे उस बदनुमा दाग को हमेशा - हमेशा के लिये धो डाला था.
गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में उन्होंने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था, लेकिन अचानक आन्दोलन वापस लेने के कारण वे गांधी से खफा हो गए. उनका गान्धी से एक ही सवाल था- "आपने किससे पूछकर असहयोग आन्दोलन वापस लिया ? गांधी से निराश होकर जोशीले युवाओं ने क्रांतिकारी दल की स्थापना करने का संकल्प लिया. सावरकर का साहित्य और आयरलैंड के क्रांतिकारियों की कार्य प्रणाली को उन्होंने अपना आदर्श बनाया.
क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के पिट्ठुओं से से धन लूटकर अपनी ताकत बढाने का निर्णय लिया. इस काम में अशफाक ने आगे बढ़कर हिस्सा लिया. विस्मिल ने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनाई तो उसका बिरोध भी अशफाक ने किया था. उनका मानना था कि सरकारी खजाना लूटने से सरकार पूरी ताकत उनके खिलाफ झोंक देगी लेकिन सबकी इच्छा को देखते हुए अशफाक भी ट्रेन से सरकारी खजाना लूटने के लिए तैयार हो गए.
9 अगस्त 1925 की शाम को काकोरी स्टेशन से, जैसे ही ट्रेन आगे बढी़, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने चेन खींची, अशफ़ाक़ ने ड्राइवर की कनपटी पर माउजर रखकर उसे अपने कब्जे में लिया और राम प्रसाद बिस्मिल ने गार्ड को पटकते हुए खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया. आजाद जी हथौड़े से ताला तोड़ने लगे. तिजोरी तोड़ने में भी अशफाक ने आजाद जी का सहयोग दिया. यह प्रशिद्ध काण्ड "काकोरी काण्ड" के नाम से जाना जाता है.
काकोरी काण्ड के बाद सरकार बुरी तरह से क्रांतिकारियों के पीछे पड़ गई. अशफाक भी अन्य क्रांतिकारियों की तरह फरार हो गए. वे कई दिन नेपाल, वनारस, कानपुर, डाल्टन गंज छुपकर रहे, फिर अपने एक पठान मित्र के पास दिल्ली में रुके. अशफ़ाक़ ने विदेश जाकर लाला हरदयाल से मिलने का मन्सूबा बनाया ही था कि उनके मित्र ने मुखबिरी कर दी और दिल्ली खुफिया पुलिस के उपकप्तान "इकरामुल हक" ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया.
सी०आई०डी० के कप्तान खानबहादुर "तसद्दुक हुसैन" ने अशफ़ाक़ को समझाया - "देखो अशफ़ाक़ भाई! तुम भी मुस्लिम हो और अल्लाह के फजल से मैं भी एक मुस्लिम हूँ, इस बास्ते तुम्हें आगाह कर रहा हूँ. ये राम प्रसाद बिस्मिल बगैरा सारे लोग हिन्दू हैं. ये यहाँ हिन्दू सल्तनत कायम करना चाहते हैं. तुम कहाँ इन काफिरों के चक्कर में आकर अपनी जिन्दगी जाया करने की जिद पर तुले हुए हो. मैं तुम्हें आखिरी बार समझाता हूँ, मियाँ! मान जाओ; फायदे में रहोगे."
इसपर अशफ़ाक़ ने कहा - "खबरदार! जुबान सम्हाल कर बात कीजिये. पण्डित जी को आपसे ज्यादा मैं जानता हूँ. उनका मकसद यह बिल्कुल नहीं है और अगर हो भी तो हिन्दू राज्य तुम्हारे इस अंग्रेजी राज्य से बेहतर ही होगा. आपने उन्हें काफिर कहा इसके लिये मैं आपसे यही दरख्वास्त करूँगा कि - मेहरबानी करके आप अभी इसी वक्त यहाँ से तशरीफ ले जायें, वरना मेरे ऊपर दफा ३०२ (कत्ल) का एक केस और कायम हो जायेगा"
विस्मिल की सलाह पर कि - यदि किसी तरह फांसी रुकती है तो हम आगे बड़े काम कर सकते है, अशफाक माफीनामा देने को तैयार हो गए. अशफ़ाक़ ने पहला माफीनामा 11 अगस्त 1927 व दूसरा माफीनामा 29 अगस्त 1927 को लिखकर भेजा. इसके अलावा एक और मर्सी-अपील अशफ़ाक़ की माँ मुसम्मात मजहूरुन्निशाँ बेगम की तरफ से, वायसराय तथा गवर्नर जनरल को भेजी गयी परन्तु उन पर कोई विचार ही नहीं हुआ.
इसके बाद विधान सभा सदस्यों ने हस्ताक्षर करके "आगरा अवध संयुक्त प्रान्त" के गवर्नर विलियम मोरिस को एक मेमोरेण्डम नैनीताल भेजा. पं० गोविन्द वल्लभ पन्त व सी०वाई० चिन्तामणि ने भी एक प्रार्थना पत्र भेजा किन्तु सब प्रयत्न बेकार गए. होम सेक्रेटरी एच० डब्लू० हेग ने रिपोर्ट में लिखा था- "इन लोगों का उद्देश्य सरकार को उलटना था. यदि इन्हें फाँसी की सजा न देकर जिन्दा छोड दिया गया, तो ये पूरे हिन्दुस्तान में फैल जायेंगे.
काकोरी के इन क्रांतिकारियों के खिलाफ मुकदमा लड़ने वाले सरकारी वकील, जगत नारायन मुल्ला (नेहरु का साला ) ने भी अशफाक को क्रांतिकारियों से अलग करने की बहुत कोशिश की , लेकिन वे अपने निश्चय पर दृढ रहे. 19 दिसम्बर 1927 को उनको फैजाबाद जेल में फांसी दे दी गई. फांसी से पहले उन्होंने कहा- "मेरे ये हाथ इन्सानी खून से नहीं रँगे. खुदा के यहाँ मेरा इन्साफ होगा" और फिर अपने आप ही फन्दा गले में डाल लिया.
जय हिन्द, वंदेमातरम्, भारत माता की जय

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