भारत पापिस्तान के बीच हुए युद्ध का यह ऐसा किस्सा है जिससे बहुत कम लोग परिचित है. इस लड़ाई में एक "राजा" और एक "डाकू" ने मिलकर पापिस्तान को मात दी थी और सिंध के बड़े भू-भाग पर भारत का कब्जा हो गया था. वो राजा थे जयपुर के पूर्व महाराज लेफ्टीनेंट कर्नल "सवाई भवानी सिंह" और वो डाकू था "बलवंतसिंह बाखासर". भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 की लड़ाई 3 दिसंबर से 16 दिसंबर के बीच चली थी. महाराज को पता था कि - सेना थार रेगिस्तान की भूल भुलैयों में फंस सकती है जबकि डाकू बलवंतसिंह इस इलाके से अच्छी तरह बाखिफ है. उन्होंने डाकू "बलवंतसिंह" से मदद मांगी. उस समय बलवंतसिंह के ऊपर डाका, हत्या एवं लूटपाट के दर्जनों मुकदमे दर्ज थे. "बलबंत सिंह" का आतंक भारत और पापिस्तान दोनों के सीमावर्ती इलाकों में था. "बलवंत सिंह" पाक सीमा के 100 किमी के दायरे से बहुत अच्छी तरह वाकिफ थे. महाराजा द्वारा प्रेरित करने पर "डाकू बलबंत सिंह" सेना की मदद करने को तैयार हो गया. लेकिन "सवाई भवानी सिंह" के इस प्रस्ताव से राजस्थान के मुख्यमंत्री बरकतुल्लाह खान सहमत नहीं थे.
बरकतुल्लाह खान भी जानते थे कि "बलवंत सिंह" का सहयोग महत्वपूर्ण होगा लेकिन उनको पता था कि - ऐसा करने पर युद्ध के बाद उनके ऊपर लगे केस वापस लेने होंगे, जिससे उनके मुस्लिम कार्यकर्त्ता नाराज हो जाएंगे क्योंकि "बलवंत सिंह" गौहत्यारों पर बहुत सख्त थे. लेकिन "सवाई भवानी सिंह" के जोर देने पर उनको मजबूर होकर मानना पड़ा.
"बलबंत सिंह" ने साफ़ कह दिया कि जिस तरह मैं कहूं वैसे ही करना होगा और एक बार लड़ाई शुरू हो जाने के बाद मेरे ऊपर कोई पीछे हटने का दबाब नहीं डालेगा. सेना की उस ब्रिगेड के पास टैंक नहीं थे बल्कि केवल कुछ जोंगा जीपें थी. राजा भवानीसिंह ने "बलबंत सिंह" को सेना की 1 बटालियन व गोला बारूद के साथ 4 जोंगा जीप हैंडओवर कर दी.
"बलबंत सिंह" ने अपने डाकू साथियों को भी बुला लिया. उन्होंने "भवानी सिंह" को सलाह दी कि - आप जीपों के साइलेंसर निकालकर पापिस्तानी चौकी पर दूर से हमला करते हुए आगे बढिए. ऐसा करने से दुश्मन को लगेगा कि - भारत ने टैंकों के साथ हमला किया है. ऐसा करने से पापिस्तानी भ्रम में आ गए उनको लगा कि - भारत की सेना ने टैंकों के साथ हमला कर दिया है.
उधर जब दुसरी तरफ से बलबंत गोली वारी करते हुए आये, तो पापिस्तानी सेना को लगा कि उनकी अपनी दुसरी बटालियन उनकी मदद को आ रही है और वो उधर से बेपरवाह हो गये. दोनों ने कई पापिस्तानी चौकियों को इसी रणनीति से तबाह किया. इस प्रकार भारतीय सेना, बिना कोई नुकशान उठाये बहुत बड़े इलाके को जीतने में कामयाब रही थी
7 दसंबर की रात को बलबंत सिंह, अपनी बटालियन को लेकर पाकिस्तान के "छाछरो" तक घुस गए. दुसरी तरफ से भवानीसिंह ने भी धावा बाेल दिया. इस हमले में बहुत सारे पापिस्तानी मारे गए और बाक़ी अपनी जान बचाने के लिए भाग खड़े हुए. सुबह 3 बजे तक उन्होंने पाकिस्तान की छाछरो चौकी तथा 100 गांवों पर कब्जा जमा लिया.
यह भारत की पापिस्तान पर बहुत बड़ी जीत थी. युद्ध की समाप्ति तक सिंध के उन 100 गाँवों पर भारतीय सेना और बलबंत सिंह भाखासर के डाकू साथियों का कब्ज़ा बना रहा. देश के लिए दिए गए इस महत्त्वपूर्ण योगदान के बदले, भारत सरकार ने बलवंतसिंह बाखासर और उनके साथियों के खिलाफ दर्ज सभी मुकदमे वापस ले लिए.
इसके अलावा उन्हें राष्ट्रभक्त घोषित कर, दो हथियारों का ऑल इंडिया लाइसेंस भी प्रदान किया. बलबंत सिंह के साथ काम करने वाले सैनिको का कहना था कि- वे युद्ध क्षेत्र में जिस तरह से तुरंत निर्णय लेते थे और खुद आगे बढ़कर नेतृत्व करते थे यह तो उच्च शिक्षित और प्रशिक्षित सैन्य अफसरों में भी बहुत कम देखने को मिलता है.
लेफ्टीनेंट कर्नल महाराज "सवाई भवानी सिंह" को भी युद्ध में असाधारण वीरता का प्रदर्शन करने के लिए महावीर चक्र से सम्मानित किया गया. इसी बीच भारत और पापिस्तान के बीच शिमला समझौता हो गया और वो जीते हुए इलाके, भारत सरकार ने पापिस्तान को वापस कर दिए. इस बात से "बलबंत सिंह भाकासर " बहुत नाराज हुए थे.
उन्होने महाराज "भवानी सिंह" सिंह से इस बात के लिए नाराजगी जताई कि - जब यह सब वापस ही करना था, तो इतने लोगों की जान जोखिम में क्यों डाली ? महाराज भवानी सिंह ने "बलबंत सिंह भाकासर" को समझाया कि - हम सिपाही है हमारा काम है दुश्मन से लड़ना, ऐसे कूटनीतिक फैसलों में हमारा कोई रोल नहीं रहता.
लेकिन बलबंत सिंह भाखासर को इंदिरा गांधी का यह फैसला कभी समझ नहीं आया और वे आजीवन उनसे नफरत करते रहे. आपातकाल के बाद हुए चुनावों (1977) में उन्होंने "जनता पार्टी" का खुला साथ दिया. वे कहते थे मुझे राजनीति का तो कुछ पता नहीं, लेकिन जब हमने दुश्मन को हरा दिया तो उसकी जमीन वापस क्यों की ?
बलबंत सिंह की वीरता के गीत, आज भी बाड़मेर-जैसलमेर व कच्छ-भुज के सीमावर्ती गांवों में गाए जाते हैं. बैसे भी बलवंतसिंह बाखासर कोई लोगों को सताने वाले डाकू नहीं थे बल्कि वे उस इलाके के पुराने जागीरदार थे. कई साल पहले "नेहरु" की पालिसी के कारण, उनकी जागीर छिन गई थी, जिस कारण वे व्यवस्था के खिलाफ बागी हो गए थे.
उनकी इमेज उस इलाके में "रोबिंन हुड" की तरह थी. गरीबों को सताने वाले सरकारी अधिकारियों के प्रति भी वो बहुत बेरहम थे. उस समय तश्कर, भारतीय सीमा में से गायों को पकड़कर पापिस्तान ले जाते थे. उन तश्करों को मारकर उन्होंने कई बार गायों की रक्षा की थी. इसी कारण उनके उनपर ह्त्या और डकैती के केस दर्ज किये गए थे.
"सांचोर" में लगने वाले मेले की वे खुद निगरानी करते थे. उनकी कट्टर हिन्दू सोंच के कारण भी सेकुलर नेता उनको पसंद नहीं करते थे. उनका समर्थन कांग्रेस के बजाय "भारतीय जनसंघ" को होने के कारण भी उनको ज्यादा महत्त्व नहीं दिया गया. उनके पोत्र "रतन सिंह बाखासर" अहमदाबाद में रहते है और "भारतीय जनता पार्टी" के बड़े नेता हैं.