Thursday, 15 December 2016

बलवंत सिंह बाखासर ( Balbant Singh Bhakhasar )

भारत पापिस्तान के बीच हुए युद्ध का यह ऐसा किस्सा है जिससे बहुत कम लोग परिचित है. इस लड़ाई में एक "राजा" और एक "डाकू" ने मिलकर पापिस्तान को मात दी थी और सिंध के बड़े भू-भाग पर भारत का कब्जा हो गया था. वो राजा थे जयपुर के पूर्व महाराज लेफ्टीनेंट कर्नल "सवाई भवानी सिंह" और वो डाकू था "बलवंतसिंह बाखासर".                                                                                                                                                                                                                  भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 की लड़ाई 3 दिसंबर से 16 दिसंबर के बीच चली थी. महाराज को पता था कि - सेना थार रेगिस्तान की भूल भुलैयों में फंस सकती है जबकि डाकू बलवंतसिंह इस इलाके से अच्छी तरह बाखिफ है. उन्होंने डाकू "बलवंतसिंह" से मदद मांगी. उस समय बलवंतसिंह के ऊपर डाका, हत्या एवं लूटपाट के दर्जनों मुकदमे दर्ज थे.                                                                                                                                                                                                                    "बलबंत सिंह" का आतंक भारत और पापिस्तान दोनों के सीमावर्ती इलाकों में था. "बलवंत सिंह" पाक सीमा के 100 किमी के दायरे से बहुत अच्छी तरह वाकिफ थे. महाराजा द्वारा प्रेरित करने पर "डाकू बलबंत सिंह" सेना की मदद करने को तैयार हो गया. लेकिन  "सवाई भवानी सिंह" के इस प्रस्ताव से राजस्थान के मुख्यमंत्री बरकतुल्लाह खान सहमत नहीं थे.

बरकतुल्लाह खान भी जानते थे कि "बलवंत सिंह" का सहयोग महत्वपूर्ण होगा लेकिन उनको पता था कि - ऐसा करने पर युद्ध के बाद उनके ऊपर लगे केस वापस लेने होंगे, जिससे उनके मुस्लिम कार्यकर्त्ता नाराज हो जाएंगे क्योंकि "बलवंत सिंह" गौहत्यारों पर बहुत सख्त थे.  लेकिन  "सवाई भवानी सिंह" के जोर देने पर उनको मजबूर होकर मानना पड़ा. 

"बलबंत सिंह" ने साफ़ कह दिया कि जिस तरह मैं कहूं वैसे ही करना होगा और एक बार लड़ाई शुरू हो जाने के बाद मेरे ऊपर कोई पीछे हटने का दबाब नहीं डालेगा.  सेना की उस ब्रिगेड के पास टैंक नहीं थे बल्कि केवल कुछ जोंगा जीपें थी. राजा भवानीसिंह ने "बलबंत सिंह" को सेना की 1 बटालियन व गोला बारूद के साथ 4 जोंगा जीप हैंडओवर कर दी. 

"बलबंत सिंह" ने अपने डाकू साथियों को भी बुला लिया. उन्होंने "भवानी सिंह" को सलाह दी कि - आप जीपों के साइलेंसर निकालकर पापिस्तानी चौकी पर दूर से हमला करते हुए आगे बढिए. ऐसा करने से दुश्मन को लगेगा कि - भारत ने टैंकों के साथ हमला किया है. ऐसा करने से पापिस्तानी भ्रम में आ गए उनको लगा कि - भारत की सेना ने टैंकों के साथ हमला कर दिया है.

उधर जब दुसरी तरफ से बलबंत गोली वारी करते हुए आये, तो पापिस्तानी सेना को लगा कि उनकी अपनी दुसरी बटालियन उनकी मदद को आ रही है और वो उधर से बेपरवाह हो गये. दोनों ने कई पापिस्तानी चौकियों को इसी रणनीति से तबाह किया. इस प्रकार भारतीय सेना, बिना कोई नुकशान उठाये बहुत बड़े इलाके को जीतने में कामयाब रही थी

7 दसंबर की रात को बलबंत सिंह, अपनी बटालियन को लेकर पाकिस्तान के "छाछरो" तक घुस गए. दुसरी तरफ से भवानीसिंह ने भी धावा बाेल दिया. इस हमले में बहुत सारे पापिस्तानी मारे गए और बाक़ी अपनी जान बचाने के लिए भाग खड़े हुए. सुबह 3 बजे तक उन्होंने पाकिस्तान की छाछरो चौकी तथा 100 गांवों पर कब्जा जमा लिया.

यह भारत की पापिस्तान पर बहुत बड़ी जीत थी. युद्ध की समाप्ति तक सिंध के उन 100 गाँवों पर भारतीय सेना और बलबंत सिंह भाखासर के डाकू साथियों का कब्ज़ा बना रहा. देश के लिए दिए गए इस महत्त्वपूर्ण योगदान के बदले, भारत सरकार ने बलवंतसिंह बाखासर और उनके साथियों के खिलाफ दर्ज सभी मुकदमे वापस ले लिए.

इसके अलावा उन्हें राष्ट्रभक्त घोषित कर, दो हथियारों का ऑल इंडिया लाइसेंस भी प्रदान किया. बलबंत सिंह के साथ काम करने वाले सैनिको का कहना था कि- वे युद्ध क्षेत्र में जिस तरह से तुरंत निर्णय लेते थे और खुद आगे बढ़कर नेतृत्व करते थे यह तो उच्च शिक्षित और प्रशिक्षित सैन्य अफसरों में भी बहुत कम देखने को मिलता है.

लेफ्टीनेंट कर्नल महाराज "सवाई भवानी सिंह" को भी युद्ध में असाधारण वीरता का प्रदर्शन करने के लिए महावीर चक्र से सम्मानित किया गया. इसी बीच भारत और पापिस्तान के बीच शिमला समझौता हो गया और वो जीते हुए इलाके, भारत सरकार ने पापिस्तान को वापस कर दिए. इस बात से "बलबंत सिंह भाकासर " बहुत नाराज हुए थे.

उन्होने महाराज "भवानी सिंह" सिंह से इस बात के लिए नाराजगी जताई कि - जब यह सब वापस ही करना था, तो इतने लोगों की जान जोखिम में क्यों डाली ? महाराज भवानी सिंह ने "बलबंत सिंह भाकासर" को समझाया कि - हम सिपाही है हमारा काम है दुश्मन से लड़ना, ऐसे कूटनीतिक फैसलों में हमारा कोई रोल नहीं रहता.

लेकिन बलबंत सिंह भाखासर को इंदिरा गांधी का यह फैसला कभी समझ नहीं आया और वे आजीवन उनसे नफरत करते रहे. आपातकाल के बाद हुए चुनावों (1977) में उन्होंने "जनता पार्टी" का खुला साथ दिया. वे कहते थे मुझे राजनीति का तो कुछ पता नहीं, लेकिन जब हमने दुश्मन को हरा दिया तो उसकी जमीन वापस क्यों की ?

बलबंत सिंह की वीरता के गीत, आज भी बाड़मेर-जैसलमेर व कच्छ-भुज के सीमावर्ती गांवों में गाए जाते हैं. बैसे भी बलवंतसिंह बाखासर कोई लोगों को सताने वाले डाकू नहीं थे बल्कि वे उस इलाके के पुराने जागीरदार थे. कई साल पहले "नेहरु" की पालिसी के कारण, उनकी जागीर छिन गई थी, जिस कारण वे व्यवस्था के खिलाफ बागी हो गए थे.

उनकी इमेज उस इलाके में "रोबिंन हुड" की तरह थी. गरीबों को सताने वाले सरकारी अधिकारियों के प्रति भी वो बहुत बेरहम थे. उस समय तश्कर, भारतीय सीमा में से गायों को पकड़कर पापिस्तान ले जाते थे. उन तश्करों को मारकर उन्होंने कई बार गायों की रक्षा की थी. इसी कारण उनके उनपर ह्त्या और डकैती के केस दर्ज किये गए थे.

 

"सांचोर" में लगने वाले मेले की वे खुद निगरानी करते थे. उनकी कट्टर हिन्दू सोंच के कारण भी सेकुलर नेता उनको पसंद नहीं करते थे. उनका समर्थन कांग्रेस के बजाय "भारतीय जनसंघ" को होने के कारण भी उनको ज्यादा महत्त्व नहीं दिया गया. उनके पोत्र "रतन सिंह बाखासर" अहमदाबाद में रहते है और "भारतीय जनता पार्टी" के बड़े नेता हैं.

Wednesday, 14 December 2016

1971 के युद्ध में जीत की बरसी

1971 के युद्ध में पापिस्तान पर जीत की बरसी ( 16 दिसंबर ) पर देशवाशियों को बधाई 
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1947 में जब भारत से अलग होकर पापिस्तान बना तो उसके दो भाग थे. पूर्वी पापिस्तान (वर्तमान बँगलादेश) और पश्चिमी पापिस्तान (वर्तमान पापिस्तान). आस्तित्व में आने के बाद से ही पश्चिमी पापिस्तान मुख्य भूमिका में रहा और पश्चिमी पापिस्तान के लोग पूर्वी पापिस्तान के लोगों को दुसरे दर्जे का नागरिक मानते रहे.
1970 के आम चुनावों में, पूर्वी पापिस्तान के मुजीब-उर-रहमान की पार्टी अवामी लीग ने बहुमत हासिल किया लेकिन पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो ने, मुजीब को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का पद देने से इनकार दिया. इसके अलाबा राष्ट्रपति याह्या खान ने सेना के जरिए मुजीब उर रहमान के समर्थकों की धरपकड़ शुरू कर दी.
25 मार्च 1971 को पाकिस्तान के जनरल टिक्का खान ने बंगालियों को दबाने के लिए ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया. इसके तहत हजारों बंगालियों को योजनाबद्ध तरीके से मारना शुरू कर दिया गया. लाखों बंगलादेशी अपनी जान बचाने के लिए भारतीय सीमा में भाग आये. भारत ने उनको शरणार्थी का दर्जा देकर भरसक मदद का प्रयास किया.
27 मार्च, 1971 को पाकिस्तानी सेना के मेजर जिया उर रहमान ने बगावत कर दी. जिया उर रहमान ने मुजीब उर रहमान की ओर से बांग्लादेश की आज़ादी का ऐलान कर दिया. पापी सेना के जुल्म के शिकार लोगों ने सेना के खिलाफ बगावत कर दी और मुक्तिवाहिनी नामक छापामार सेना का गठन कर लिया.
पापिस्तानी सेना में मौजूद बंगाली सैनिक सेना को छोड़कर मुक्तिवाहिनी से जुड़ गए. लेकिन पापिस्तान के अत्याचार में कोई कमी नहीं आई. इसी बीच ब्रिटेन के अखबार संडे टाइम्स ने पापिस्तान के बंगालियों पर हो रहे अत्याचार की पूरी खबर छाप दी. इस खबर के बाद पूर्वी भारत के लोग सरकार से बंगालियों को बचाने के लिए हस्तक्षेप करने की मांग मांग करने.
भारत सरकार पहले तटस्थ बनी रही लेकिन जनता के दबाब में उसने मुक्तिवाहिनी को अपना समर्थन देने का ऐलान कर दिया. मुक्तिवाहिनी को भारत के समर्थन देने से पापिस्तान जल-भुन गया. उस समय अमेरिका पापिस्तान का समर्थन करता था और उसने पापिस्तान को पैटर्न टैक, युद्धपोत, लड़ाकू विनाम और पनडुब्बी दे रखे थे,
इन हथियारों के दम पर पापिस्तान अपने आपको भारत से भी ज्यादा ताकत्बर समझता था और भारत से 1948 और 1965 की हार का बदला भी लेना चाहता था. भारत को बंगलादेश में हस्तक्षेप करने से रोकने के लिए, 25 नबम्बर 1971 को पापिस्तान ने अपनी पनडुब्बी PNS गाजी बंगाल की खाड़ी में रवाना कर दिया जिसका निशाना आईएनएस विक्रांत था.
पापिस्तान ने थल सेना, नौसेना और वायु सेना की पूरी तैयारी के बाद, 3 दिसंबर 1971 को ठीक 5 बजकर 40 मिनट भारत के 11 एयर बसों पर एक साथ हवाई हमला बोल दिया. इस हमले को उसने आपरेशन चंगेज खान नाम दिया था. इस हमले के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पापिस्तान का प्रतिकार करने का ऐलान कर दिया.
आधुनिक हथियरों की द्रष्टि से भारत, पापिस्तान से भले ही कमजोर था लेकिन देश के लिए मरने मारने का जो जज्बा भारत की सेना के पास है , वो दुनिया की किसी सेना के पास नहीं है. इस युद्ध की कमान पूरी तरह से जनरल सैम मानेकशा ने सम्हाल ली. उन्होंने देश के नेताओं को अनावश्यक बयानबाजी और हस्तक्षेप करने से रोक दिया.
भारत ने पापिस्तानी को जबाब देना शुरू कर दिया. भारत को युद्ध में पहली बड़ी जीत 5 दिसंबर को ही मिल गई जब आईएनएस राजपूत पापिस्तान की पनडुब्बी PNS गाजी को ध्वस्त करने में कामयाब रहा और उसी रात राजस्थान के लोगोवाला में भारत के 120 जवानो ने पापिसान के 2000 सैनिको वाली टैक ब्रिगेड को नष्ट कर दिया.
सेना तो दुश्मनों से बहादुरी से लड़ ही रही थी, उसके अलावा देश की जनता भी सेना की हर प्रकार से मदद करने में लगी थी, जो देशभक्ति की एक मिशाल है. थार रेगिस्तान के इलाके के एक डाकू बलवंत सिंह बाखासर ने तो वो काम किया कि- जिसकी दुनिया में कहीं मिशाल नहीं है. उसकी मदद से भारतीय सेना पापिस्तान के 100 गावो पर कब्ज़ा करने में कामयाब रही.
मात्र 13 दिन में भारतीय सेना ने , पापिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया. जिस समय लेफ्टिनेंट जनरल जेएफआर जैकब, ढाका पहुंचे थे उस समय उनके पास मात्र 3000 सैनिक थे जबकि पाकिस्तान सेना के प्रमुख जनरल नियाजी के पास करीब 30 हजार फौजी थे. लेकिन "जैकब" के हौशले का सामना वो कायर "नियाजी" नहीं कर सका
जुल्फिकार अली भुट्टो अमेरिका में बैठ कर युद्ध विराम समझौते के लिए कोशिश कर रहे थे. 16 दिसंबर को जैकब ने नियाजी से कहा- आप अगर आत्मसमर्पण करना चाहते हैं तो हम आपकी और आपके आदमियों की सुरक्षा की गारंटी लेते हैं. उसके बाद जनरल नियाजी ने, कमाण्डिंग-इन चीफ जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष आत्म समर्पक कर दिया.
पापिस्तान के इस सरेंडर के साथ ही "बंग्लादेश" नाम के नए देश का जन्म हो गया

जातपात भुलाकर संगठित हो

जातपात भुलाकर संगठित हो और बिधर्मियों के बहकावे में आने से बचें
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हिन्दुओं में फूट डालने के लिए, गैर हिन्दू लोग जातिगत भेदभाव की बातों को बहुत बढ़ा चढ़ा कर लिखते हैं. ये लोग कोशिश करते हैं कि -हिन्दू कभी संगठित न हों और आपस में लड़कर कमजोर होते रहे. जिससे कि - ये लोग हिन्दुओं के ऊपर राज करते रहे. इनका उद्देश्य हमारी किसी बुराई के बारे में बताकर उसको को ख़त्म करना नहीं बल्कि हमको आपस में लड़ाना है.
अक्सर बहुत सारे हिन्दू इनके झांसे में आ भी जाते हैं और असली शत्रु को न पहेचान कर अपने ही भाइयों से ही लड़ने लगते हैं. यही वो कारण है जिसकी बजह से दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लोगों पर मुट्ठीभर बिधर्मियों / लुटेरों / आक्रमणकारियों ने शासन किया है. आप अगर आज भी शत्रुओं की चाल से सावधान नहीं रहे तो ये शत्रु एक दिन आपको मिटाकर रख देंगे.
आप खुद कल्पना कीजिए कि - अकबर के शासनकाल में कितने प्रतिशत मुस्लिम होंगे या 1857 के समय देश में कितने प्रतिशत इसाई (अंग्रेज ) रहे होंगे. मगर यह लोग फिर भी बहुसंख्यक हिन्दुओं पर राज करते रहे क्योंकि हम एक होकर नहीं रहे. दुश्मनों की चालों में फंसकर आपस में ही लड़ते रहे. इन बातों से अब सावधान रहना होगा.
यदि किसी ऐसे मंदिर के बारे में पता चले कि- वहां जातिगत भेदभाव होता है तो उसकी सच्चाई का पता लगाये. यदि बात झूठ हो तो सबको उसकी असलियत बताएं. यदि सच हो तो उसे बंद कराएं अथवा उस मंदिर को मंदिर कहना बंदकर उसका बहिष्कार कर दें. बैसे मंदिरों में भेदभाव केवल उन बिधार्मियों या नास्तिकों को दिखता है जो कभी मंदिर जाते नहीं हैं.
आज आवश्यकता है कि हम अपने सारे भेदभाव ख़त्म कर संगठित हों. जाती का महत्त्व खानदानी पेशे से ज्यादा कुछ न हो. अंतरजातीय विवाह और अंतरजातीय मित्रता को बढ़ावा दें. विधार्मियों की चाल से सावधान रहें, यह आपके कोई सगे नहीं है और न ही इनको आपके हित की चिंता है. इनका उद्देश्य केवल आपको आपस में लड़ाकर कमजोर करना है.
अगर कोई बिधार्मी आपको भड़काए तो उनसे कहिये हम अपने मतभेद खुद सुलझा लेंगे. आप लोग अपना हिसाब -किताब ठीक करिए. हमको सीख देने वाले ये लोगों में तो खुद इतने मतभेद हैं कि - उसके लिए ये लोग एक दुसरे की जान के दुश्मन बने हुए हैं. अपने भेदभाव के चलते इनलोगों तो अनेकों देश के देश बर्बाद कर दिए हैं.

काकोरी काण्ड (9 अगस्त)

1907 से 1915 तक दूसरा स्वाधीनता संग्राम मे अनेकों क्रांतिकारियों को फांसी और कालापानी की सजा हुई. 1915 में गांधीजी का भारत में आगमन हुआ और उन्होंने अहिंसा के द्वारा सुराज हाशिल करने की बात की. एक तो देशवाशियों को उनका अहिंसा का सिद्धांत अच्छा लगा और दूसरे वो सुराज को स्वराज समझ बैठे. इस प्रकार दूसरा स्वाधीनता संग्राम 1915 में लगभग समाप्त हो गया,
अब लोग गांधी जी के दिखाए रास्ते पर चलने लगे. इसी बीच अंग्रेजों ने 1919 में जालियांवाला बाग़ काण्ड जैसा नरसंहार कर दिया,  जिसके कारण सारा देश अंग्रेजों के खिलाफ फिर से हिंसक क्रान्ति की बात करने लगा. दूसरी तरफ तुर्की के खलीफा को हटाये जाने के कारण दुनिया भर के मुस्लमान अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने लगे. भारत के मुस्लमान भी आंदोलन कर रहे थे. 
इसके अलावा प्रथम विश्वयुद्ध में भी अंग्रेजों का काफी नुकशान हुआ था.  ऐसे में गांधी जी को लगा कि - इस समय अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसक आंदोलन किया जाए तो अंग्रेज भी हमारी शर्तों को मानकर, ब्रिटिश शासन के अधीन ही भारत को डोमिनियन स्टेटस देस्टेटस देने को तैयार हो जाएंगे और दूसरी तरफ भारत में क्रांतिकारी बिचारधारा वाले भी काफी हद तक शांत हो जायेंगे  
यह सोंचकर उन्होंने अंग्रेजों से ब्रिटिश शासन के अधीन ही "सुराज" की मांग करते हुए असहयोग आंदोलन प्रारम्भ कर दिया. देश के जोशीले युवा भी इसे स्वराज की लड़ाई समझकर  पूरे जोश के साथ इसमें कूद पड़े. अंग्रेजों ने आंदोलनकारियों पर सख्ती की तो कई जगह उसका प्रतिकार भी किया. कई जगह आंदोलन अहिंसक के हिंसक भी होने लगा था. 
अंग्रेजों के दबाब के कारण गांधी जी अब इस आंदोलन से पीछा छुड़ाना चाह रहे थे. इसी बीच 4 फरवरी 1922 गोरखपुर के पास चौरी चौरा काण्ड हो गया. पुलिस ने आंदोलनकारियों पर अंधाधुंध गोली चला दी जिसमे 250 से ज्यादा लोग मारे गए. अपने साथियों की लाश और घायल साथियों का खून देखकर गुस्साई भीड़ ने पुलिस पर हमला कर दिया,
पुलिस वाले भागकर थाने में छुप गए. तब आंदोलनकारियों ने थाने को आग लगा दी जिसमे 23 पुलिस वाले मारे गए. गांधीजी को  250 से ज्यादा आंदोलनकारियों के मारे जाने का दुःख नहीं हुआ लेकिन 23 पुलिस वालों के मारे जाने पर भूख हरताल पर बैठ गए और चौरी चौरा की हिंसा का बहाना बनाकर 8 फरवरी 1922 को अपना आंदोलन वापस ले लिया.
उस आंदोलन के समय अंग्रेजों ने अनेकों आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया था लेकिन गांधी जी और उनकी कांग्रेस ने यह कह कर उनसे अपना पल्ला झाड़ लिया कि कोई भी हिंसक क्रांतिकारी हमारा नही है. गांधी जी और कांग्रेस की इन बातों से नाराज होकर अनेकों जोशीले लोगों ने कांग्रेस छोड़ दी तथा अपने अपने दल बनाने लगे या अकेले ही अपने स्तर पर कार्यवाही करने लगे. 
ऐसे ही जोशीले युवाओं का एक दल राम प्रसाद विस्मिल और चंद्र शेखर आजाद ने तैयार किया, जिसको नाम दिया "हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन". उनके संगठन से बिस्मिल, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, अशफाक, लाहिड़ी, केशव चक्रवर्त्ती (छद्मनाम), आदि जैसे अनेकों क्रांतिकारी जुड़े हुए थे. ये लोग वीर सावरकर के क्रांतिकारी बिचारो और किताबों का प्रचार प्रसार करते थे. 
इन्होने अपने दल को चलाने के लिए धन  की व्यवस्था करने के लिए अंग्रेजो और अंग्रेजों के चापलूस भारतीयों को लूटना प्रारम्भ कर दिया. इस दल ट्रेन से जाने वाले सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई. 9 अगस्त 1925 की शाम को काकोरी स्टेशन से, जैसे ही ट्रेन आगे बढी़, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने चेन खींची, "अशफ़ाक़" ने ड्राइवर की कनपटी पर माउजर रखकर, उसे अपने कब्जे में लिया.  
राम प्रसाद बिस्मिल ने गार्ड को पटकते हुए खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया. आजाद जी हथौड़े से बक्से का ताला तोड़ दिया. इस प्रकार चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में बिस्मिल, अशफाक, लाहिड़ी,आदि ने सरकारी खजाना लूट लिया था. यह घटना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने ब्रिटेन की संसद तक को हिलाकर रख दिया था. 
बाद में अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी पार्टी "हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन" के कुल 40 क्रान्तिकारियों पर "अंग्रेज सम्राट" के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व मुसाफिरों की हत्या करने का मुकदमा चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल तथा अशफाक उल्ला खाँ को मृत्यु-दण्ड (फाँसी की सजा) सुनायी गयी.
इस मुकदमे में नेहरू के समधी  "जगतनारायण मुल्ला" ने क्रांतिकारियों के खिलाफ सरकारी पक्ष रखने का काम किया था, जबकि क्रान्तिकारियों की ओर से के०सी० दत्त, जय करण नाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की . राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी पैरवी खुद की.
हालांकि ठाकुर रोशन सिंह का काकोरी काण्ड से कोई लेना देना नहीं था. उनको पीलीभीत जिले की एक खांडसारी लूटने के जुर्म में , काकोरी के वीरों के साथ ही फांसी दी गई थी, क्योंकि अंग्रेजों का मानना था कि - दोनों ही काण्ड का उद्देश्य एक ही था. काकोरी काण्ड के एक फरार अभियुक्त केशव चक्रवर्त्ती (छद्मनाम) वास्तव में केशव बलिराम हेडगेवार ही थे.



भारत छोडो आन्दोलन

भारत छोडो आन्दोलन की बर्षगाँठ (9-अगस्त) पर क्रांतकारी शहीदों को कोटि कोटि नमन
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सन 1942 में आज के ही दिन महात्मा गांधी ने "अंग्रेजो भारत छोडो आन्दोलन" का ऐलान किया था. लेकिन उसी दिन गांधी आदि बड़े कांग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिए गए थे. दरअसल यह आन्दोलन कांग्रेस के हाथ से निकल कर, देश की जनता का क्रांतिकारी आन्दोलन बन गया था जिन पर गांधी / कांग्रेस का कोई नियंत्रण नहीं था,
गांधीजी के द्वारा अहिंसक आन्दोलन का आव्हान किया गया था, लेकिन देश के जोशीले युवाओं ने खुलकर अंग्रेजों के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन किये. क्रांतिकारियों ने देशभर में हजारों पुलिस स्टेशन, रेलवे स्टेशन, डाक घर, कार्यालयों एवं अंग्रेजों इत्यादि पर खुलकर हमले किये और उनको बहुत नुकशान पहुंचाया. अनेकों क्रांतिकारी भी मारे गए.
सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस जनआन्दोलन में 940 लोग मारे गये, 1630 लोग घायल हुए,18,000 डी० आई० आर० में नजरबन्द हुए तथा 60,229 गिरफ्तार हुए थे. 1939 से 1944 तक चले दूसरे विश्वयुद्ध में अंग्रेजो को बहुत क्षति उठानी पडी थी, सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज ने भी अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था.
उस समय तक देश की जनता यह मानने लगी थी कि - गांधी के अहिंसा आन्दोलन से कुछ नहीं होगा और सुभाष चन्द्र बोस की तरह खून बहाने के रास्ते पर चलकर ही आजादी मिल सकती है. सुभाष चन्द्र बोस के नारे "तुम मुझे खून दो, मै तुम्हे आजादी दूँगा" तथा "दिल्ली चलो" ने देश की जनता में जोश भर दिया था. उस समय "बोस" युवाओं के नायक बने हुए थे.
ऐसे में मौके की नजाकत को भाँपते हुए 8 अगस्त 1942 की रात में गांधी जी ने, बम्बई से "अँग्रेजों भारत छोड़ो" का नारा दिया और गिरफ्तारी के नाम पर सरकारी सुरक्षा में "आगा खान पैलेस" में चले गये. 9 अगस्त का दिन चुनने की एक ख़ास बजह थी. 1925 में 9 अगस्त को काकोरी ट्रेन काण्ड हुआ था. भगत सिंह द्वारा उसकी बरसी मनाई जाती थी.
भगत सिंह की फांसी के बाद भी देश के क्रांतिकारी 9 अगस्त की यादगार मनाते आ रहे थे. भारत छोड़ो आंदोलन सही मायने में एक जन आंदोलन था. इसको गांधी और कांग्रेस ने शुरू अवश्य किया था. लेकिन इसमें भाग लेने वाले आन्दोलनकारी सुभाष चन्द्र बोस के आदर्श पर चलते थे. गांधी जी जेल (?) से अहिसा का आव्हान करते थे मगर युवा उसे अनसुना करते थे.
भारत छोडो आन्दोलन का श्रेय भले ही गांधी जी को दिया जाता है लेकिन इसमें भाग लेने वाले अधिकांश क्रांतिकारियों ने उग्र बिचारधारा से साथ क्रान्ति की थी. उन लोगों का सिद्धांत अंहिसा के साथ सविनय निवेदन करना नहीं बल्कि अंग्रेजों से युद्ध कर उनको मार भगाना था. इस आन्दोलन ने अंग्रेजो को इतना कमजोर कर दिया कि उनको भागना पडा .
आजाद हिन्द फ़ौज बाहर से सैन्य हमने कर रही थी और देश के अन्दर क्रांतिकारी अंग्रेजों को भारी नुकशान पहुंचा रहे थे. किन्तु दुर्भाग्यवश युद्ध का पासा पलट गया. जर्मनी ने हार मान ली और जापान को भी घुटने टेकने पड़े. सुभाषचन्द्र बोस की मौत की खबर (?) के साथ ही आजाद हिन्द फ़ौज का अभियान और भारत छोडो आन्दोलन समाप्त हो गया.
आन्दोलन के पहले दिन से ही गांधी जी एवं उनके कई निकटवर्ती सहयोगी जेल के नाम पर सरकारी सुरक्षा में विबिन्न पैलेसों और डाक बंगलों में चले गए थे. जो आन्दोलन की समाप्ति के बाद ही बाहर आये. और हां, इस आन्दोलन के दौरान मुस्लिम लीग, क्रान्ति / आन्दोलन से दूर रहकर, अलग पापिस्तान की मांग में लगी रही.

विक्रम साराभाई


अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में भारत को अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर,
महत्वपूर्ण स्थान, दिलाने वाले, महान वैज्ञानिक "विक्रम साराभाई" 
के जन्मदिन पर कोटि कोटि नमन 
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डॉ॰ विक्रम साराभाई का जन्म, अहमदाबाद में 12 अगस्त 1919 को एक समृध्द जैन परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम श्री अम्बालाल साराभाई और माता का नाम श्रीमती सरला साराभाई था. गुजरात कॉलेज से इंटर तक विज्ञान की शिक्षा पूरी करने के बाद वे 1937 में कैम्ब्रिज (इंग्लैंड) चले गए जहां 1940 में प्राकृतिक विज्ञान में ट्राइपोज डिग्री प्राप्त की.
द्वितीय विश्व युध्द शुरू होने पर वे भारत लौट आए और बंगलौर स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान में नौकरी करने लगे जहां वह सी. वी. रमण के निरीक्षण में कॉसमिक रेज़ पर अनुसंधान करने लगे.द्वितीय विश्व युध्द की समाप्ति पर वे कॉस्मिक रे पर डाक्ट्रेट पूरी करने के लिए कैम्ब्रिज लौट गए.
1947 में देश आजाद होने के बाद वे वापस भारत लौट आये. यहां आ कर उन्होंने कॉस्मिक रे पर अपना अनुसंधान कार्य जारी रखा. भारत में उन्होंने अंतर-भूमंडलीय अंतरिक्ष, सौर-भूमध्यरेखीय संबंध और भू-चुम्बकत्व पर अध्ययन किया. डॉ॰ साराभाई एक स्वप्नद्रष्टा और कठोर परिश्रमी थे. भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम उनकी सोंच और परिश्रम का प्रमाण है.
डॉ॰ साराभाई एक महान संस्थान निर्माता थे. डॉ॰ साराभाई द्वारा स्थापित कुछ सर्वाधिक जानी-मानी संस्थाओं के नाम इस प्रकार हैं- भौतिकी अनुसंधान प्रयोगशाला (पीआरएल), अहमदाबाद; भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद; सामुदायिक विज्ञान केन्द्र; अहमदाबाद, दर्पण अकादमी फॉर परफार्मिंग आट्र्स, अहमदाबाद.
विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र, तिरूवनंतपुरम; स्पेस एप्लीकेशन्स सेंटर, अहमदाबाद; फास्टर ब्रीडर टेस्ट रिएक्टर (एफबीटीआर) कलपक्कम; वैरीएबल एनर्जी साईक्लोट्रोन प्रोजक्ट, कोलकाता; भारतीय इलेक्ट्रानिक निगम लिमिटेड (ईसीआईएल) हैदराबाद और भारतीय यूरेनियम निगम लिमिटेड (यूसीआईएल) जादुगुडा, बिहार.
साराभाई ने सामाजिक और आर्थिक विकास की विभिन्न गतिविधियों के लिए अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी में छिपी हुई व्यापक क्षमताओं को पहचान लिया था. साराभाई ने देश की रॉकेट प्रौद्योगिकी को भी आगे बढाया. उन्होंने भारत में उपग्रह टेलीविजन प्रसारण के विकास में भी अग्रणी भूमिका निभाई थी. साराभाई ने देश में विज्ञान की शिक्षा के प्रसार में भी अपना योगदान दिया था.
डॉ॰ साराभाई का कोवलम, तिरूवनंतपुरम (केरल) में 30 दिसम्बर 1971 को देहांत हो गया. उनके सम्मान में तिरूवनंतपुरम में स्थित्त थुम्बा इक्वेटोरियल रॉकेट लाउंचिंग स्टेशन (टीईआरएलएस) का नाम बदलकर विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र रख दिया गया है. भारत के अंतरिक्ष में अपनी पैठ बनाने में उनका सबसे बड़ा योगदान है.

पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस 14-अगस्त?

पाकिस्तान अपना स्वतंत्रता दिवस 14-अगस्त को क्यों मनाता है ?
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भारत अपना स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को मनाता है लेकिन पाकिस्तान अपना स्वतंत्रता दिवस 14-अगस्त को मनाता है. भारत के लोगों की तो छोडिये, पापिस्तान तक के लोगों को इसकी सही जानकारी नहीं है. पाकिस्तान की जनता भी अनजाने में गर्व से कहती फिरती है कि - उनका देश भारत से एक दिन पहले आजाद हो गया था.
पूरा हिन्दुस्थान ( भारत +पाकिस्तान ) एक साथ एक ही समय आजाद हुआ था और इसकी आधिकारिक घोषणा लालकिले की प्राचीर से की गई थी. पाकिस्तान की आजादी की घोषणा अलग से नहीं की गई थी. 14-अगस्त-1947 की रात को 12 बजे का गजर बजते ही, पूरे हिंदुस्थान (भारत+पाकिस्तान) को ब्रिटिश हुकूमत से आजाद मान लिया गया था.
पाकिस्‍तान के पहले पोस्‍टल स्‍टांप में भी, 15 अगस्‍त ही मुल्‍क के स्‍वतंत्रता दिवस के रूप में लिखा गया. आज भी स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर, रेडियो पाकिस्तान, हर साल "जिन्ना" द्वारा दिया गया, जो राष्ट्र के नाम पहला बधाई संदेश सुनाता है, उसमे भी वो कह रहे होते हैं कि -"15 अगस्त की आज़ाद सुबह पूरे राष्ट्र को मुबारक हो ".
उसके बाबजूद पाकिस्‍तान अपना स्वतंत्रता दिवस भारत के साथ 15-अगस्त को नहीं मनाता है, इसकी एक नहीं बल्कि कई बजहें हैं.पाकिस्‍तान का जन्म ही, भारत के साथ उसकी ईर्ष्या और नफरत के कारण हुआ था. उसके बाद आजाद होते ही, कश्मीर के कबायली युद्ध में भारत से मिली पराजय से उसकी नफरत और ज्यादा बढ़ गई थी.
पापिस्तान का हमेशा प्रयास रहता था कि - वह अपने को भारत से अलग दिखाए. इसके अलावा जिन्नाह को 15-अगस्त की तारीख से नफरत की एक और बजह भी थी. जिस जिन्नाह के कारण भारत टूटा, हजारों लोग मारे गए, लाखों लोग बेघर हुए, करोड़ों की सम्पत्ति स्वाहा हो गई, उस जिन्नाह की बेटी ने पापिस्तान जाने से इनकार कर दिया था.
जिन्नाह की इकलौती बेटी "डीना" ने पारसी व्यवसायी "नेविल वाडिया" ( बाम्बे डाइंग के मालिक और नुस्ली वाडिया के पिता) से विवाह करके भारत में रहने का फैसला कर लिया था. इस बात पर जिन्नाह को बहुत ही शर्मिंदगी थी. "डीना" का जन्मदिन भी 15-अगस्त को होता था और बेटी से नाराजगी के कारण वे इस दिन को सेलीब्रेट नहीं करना चाहते थे.
इसी बीच जब दोनों देशो ( भारत - पाकिस्तान) का अंतर्राष्ट्रीय टाइम सेट किया गया, तो उसे भारत से आधा घंटा पीछे रखा गया. लियाकत अली खान ने जिन्नाह से कहा कि - पिछले बर्ष जब आजादी मिली थी, तो हमारे नए टाइमजोन के हिसाब से हमारे यहाँ रात के 11.30 हो रहे थे अर्थात उस समय तक 14-अगस्त थी.
इसके अलावा संयोग से 14 अगस्त 1948 को, रमजान का 27वां दिन पड़ रहा था , जो कि इस्‍लामी कैलेंडर के अनुसार एक खास और पवित्र दिन "शब-ए-कद्र" कहलाता है. इन सभी बातों के कारण पाकिस्तान ने एक दिन पहले स्‍वतंत्रता दिवस मनाने का निर्णय लिया था. उसके बाद हमेशा के लिए पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस 14-अगस्त मान लिया गया.
लेकिन अनाधिकृत स्तर पर पाकिस्तान में भी यह झूठ फैलाया गया कि - पाकिस्तान भारत से एक दिन पहले आजाद हो गया था. इसलिए पाकिस्तान की आम जनता तक यही समझती है कि - पाकिस्तान भारत से एक दिन पहले आजाद हो गया था और इस बात को लेकर अक्सर अपने मिथ्याभिमान का प्रदर्शन करती रहती है .

भारत का राष्ट्रीय ध्वज

संघ को बदनाम करने के लिए कांग्रेसी और वामपंथी कैसे कैसे झूठ बोलते है इसकी मिशाल उनके एक फोटो कमेन्ट से मिलती है. इस फोटो में वे लोग यह कहकर संघ की आलोचना कर रहे हैं कि- 1929 में कांग्रेस के आव्हान पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया जा रहा था तो डा. हेडगेवार ने शाखाओं में भगवा ध्वज पूजने का आदेश दिया था.
पहली बात तो यह कि - उस समय तिरंगा झंडा राष्ट्रीय ध्वज नहीं था. तिरंगा झंडा को 22 जुलाई, 1947 को राष्ट्रीय ध्वज स्वीकार किया गया था और 15 अगस्त 1947 अधिकृत रूप से अंगीकृत किया गया था. हालाकि उस समय भी भारत की प्राचीन परम्परा को मानने वाले लोग, राष्ट्रीय ध्वज के रूप में भगवा ध्वज ही चाहते थे.
1921 कांग्रेस ने जिसे अपना झंडा बनाया था "पिंगली वेंकैया" ने डिजाइन किया था. इसमें दो रंग थे लाल रंग हिन्दुओं के लिए और हरा रंग मुस्लिमों के लिए. बाद में गांधी की सलाह पर इसमें ऊपर सफ़ेद रंग भी मिला दिया. 1929 में भी कांग्रेस का यही ध्वज था. ऊपर सफ़ेद, बीच हरा तथा सबसे नीचे लाल और बीच में चरखे का रेखाचित्र .
वर्ष 1931 में उस झंडे को बदल दिया गया. इसमें उपर केसरिया, बीच में सफ़ेद तथा सबसे नीचे हरा रंग था और मध्य में चरखा बना हुआ था. कांग्रेस ने इसको राष्ट्रीय ध्वज बनाने के लिए प्रस्तावित किया. लेकिन 22 जुलाई, 1947 को इसमें से चरखा हटाकर बीच में अशोक चक्र बनाया गया और राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया.
अब आती है बात 1929 में शाखा में भगवा ध्वज लगाने की तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में अपने संगठन का ध्वज "भगवा ध्वज" स्वीकार किया था जो भारत की हजारों साल पुरानी पहेचान है. पौराणिक काल से लेकर ऐतहासिक काल तक सभी देशभक्तों ने भगवा ध्वज को हाथ में लेकर स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी और शहीद हुए थे.
"मेरा रंग दे बसन्ती चोला" क्रांतिकारियों का मूलमन्त्र हुआ करता था. अंग्रेजों द्वारा घोषित राष्ट्रीय ध्वज को छोड़कर भारत के पारम्परिक "भगवा ध्वज" को फहराना उस समय बहुत ही साहसिक बात थी. मुघल थे या अंग्रेज सभी ने भारत की इस प्राचीन पहेचान को मिटाने का प्रयास किया था लेकिन देशभक्तों ने इसे ज़िंदा रखा.
भारत की प्राचीन पहचान भगवा ध्वज थी लेकिन मुस्लिम्स और भारतीय मूल के ईसाईयों को जोड़ने के लिये हरा और सफ़ेद रंग शामिल किया गया था. लेकिन ईसाईयों द्वारा अंग्रेजों का साथ देने और मुसलमानों द्वारा अलग पापिस्तान लेने के कारण अधिकाँश परम्परावादी भारतीय चाहते थे कि - भारत का राष्ट्रीय ध्वज भगवा हो.
लेकिन जब "तिरंगा" राष्ट्रीय ध्वज घोषित हो गया तो सभी ने इसको स्वीकार कर लिया. अब रही बात शाखा में इसको न लगाने की तो शाखा तो क्या किसी भी निजी संस्थान द्वारा इसका उपयोग नहीं किया जा सकता है. एक झंडा संहिता और इसके अनुसार आम आदमी अपने घर या संस्थान में केवल 15 अगस्त और 26 जनवरी को ही फहरा सकता है.
और हाँ गुलाम भारत में और भी कई झंडे प्रस्तावित हुए थे जिनमे 1904 भगिनी निवेदिता द्वारा बनाया, 1907 मैडम कामा द्वारा और 1917 में डॉ॰ एनी बीसेंट द्वारा बनाया गया झंडा प्रमुख है. उसके अलावा महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी और लक्ष्मीबाई को अपना आदर्श मानने वाले क्रांतिकारी भगवा ध्वज को ही अपना ध्वज मानते थे.

रक्षा बंधन महत्व

"रक्षा बंधन" के पवित्र पर्व पर सभी भाई बहनों को हार्दिक शुभकामनाये
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दुनिया में भारत ही एक मात्र ऐसा देश है जहां भाई बहन के पवित्र रिश्ते को और भी मजबूत बनाने के लिए रक्षा बंधन जैसा त्यौहार मनाया जाता है. रक्षा बंधन भाई - बहन के प्रेम के नवीनीकरण का पर्व है. इसके अलावा यह त्यौहार यह प्रेरणा भी देता है कि - पराई स्त्रियों में भी अपनी बहन का स्वरूप ही देखें. सगे भाई बहन के अतिरिक्त अनेक भावनात्मक रिश्ते भी इस पर्व से बँधे होते हैं, जो धर्म, जाति और देश की सीमाओं से परे हैं.
रक्षाबन्धन पर्व सामाजिक और पारिवारिक एकबद्धता या एकसूत्रता का सांस्कृतिक उपाय रहा है. विवाह के बाद बहन पराये घर में चली जाती है परन्तु इस त्यौहार के बहाने प्रतिवर्ष अपने सगे ही नहीं रिश्तों के भाइयों और मुह्बोले भाइयों को भी उनके घर जाकर राखी बाँधती है. इस प्रकार अपने रिश्तों का नवीनीकरण करती रहती है. दो परिवारों का और कुलों का पारस्परिक मिलन होता है. इस प्रकार जो कड़ी टूट गयी है उसे फिर से जागृत किया जाता है.
रक्षाबंधन एक भारतीय त्यौहार है जो श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है. प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर लड़कियाँ और महिलाएँ पूजा की थाली सजाती हैं. पहले अभीष्ट देवता की पूजा की जाती है, इसके बाद रोली या हल्दी से भाई का टीका करके चावल को टीके पर लगाया जाता है और सिर पर छिड़का जाता है, उसकी आरती उतारी जाती है, दाहिनी कलाई पर राखी बाँधी जाती है, तत्पश्चात भाई भी अपनी बहनों को उपहार देते हैं.
राखी सामान्यतः बहनें भाईयों को बाँधती हैं , परन्तु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा भी सम्मानित सम्बन्धियों (जैसे - पुत्री द्वारा पिता आदि ) को भी राखी बाँधने का प्रचलन है. अब तो प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों को राखी बाँधने की परम्परा भी प्रारम्भ हो गयी है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुरुष सदस्य भी परस्पर भाईचारे एवं एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना को बढाने के लिये एक दूसरे को भगवा रंग की राखी बाँधते हैं.
रक्षाबन्धन आत्मीयता और स्नेह के बन्धन से रिश्तों को मज़बूती प्रदान करने का पर्व है. इसका उद्देश्य समाज के विभिन्न वर्गों के बीच भी एकसूत्रता और भाईचारा को बढ़ाना है. बहने भी अपने भाइयों को ऐसी प्रेरणा दे कि उनके भाई अन्य स्त्रियों में उनका ही रूप देखें. आजकल महिलाओं की इज्ज़त भी केवल इसलिए ही खतरे में हैं क्योंकि - आजकल "रक्षाबंधन" के बजाय "वैलेंटाइन डे" का महत्त्व बढ़ गया है.

रक्षा बंधन की महानता

"रक्षा बंधन के महापर्व" का पौराणिक और ऐतहासिक महत्त्व
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देवासुर संग्राम में दानव हावी होते जा रहे थे. इन्द्र की पत्नी इंद्राणी ने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया. उन लोगों का विश्वास था कि- इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे. उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा निरंतर चली आ रही है.
विष्णु के वामन अवतार के समय, बिष्णू को सर्वस्व दान देने के बाद, बलि ने बिष्णु को अपना द्वारपाल बनाने का वरदान मांग लिया था. तब लक्ष्मी ने वलि को राखी बाँधकर, वलि अपना भाई बनाया तथा उपहार स्वरूप विष्णु को वरदान के बंधन से मुक्त कराया था. जिस दिन लक्ष्मी जी ने राजा बलि को राखी बाँधी उस दिन श्रावण पूर्णिमा थी.
महाभारत में रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक वृत्तान्त भी मिलता है. जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई थी उस समय द्रौपदी ने अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी थी. श्री कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया था.
एक अन्य प्रसंगानुसार अलेक्जेंडर (सिकन्दर) की पत्नी ने अपने पति के, हिन्दू शत्रु पुरूवास को राखी बाँधकर अपना मुँहबोला भाई बनाया था और अपने पति की प्राणरक्षा का वचन लिया था. युद्ध में एकबार सिकंदर को मारने की स्थति में होने के बाबजूद पुरूवास ने अपनी मुहबोली बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकन्दर को जीवन-दान दिया था.
राखी के साथ एक प्रसिद्ध कहानी जुड़ी हुई है. मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्व सूचना मिली. उस समय रानी लड़ऩे में असमर्थ थी. तब उसने मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेज कर रक्षा की याचना की. हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ाई लड़ी.
राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएँ उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ साथ हाथ में रेशमी धागा भी बाँधती थी. इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हे विजयश्री के साथ वापस ले आयेगा. भारत /पाक/चीन युद्ध के समय भी देश की महिलाओं ने सैनिको को राखी बाँध कर उनके विजयी होने की कामना की तथा उनका हौशला बढाया था.
"स्वतन्त्रता संग्राम" में भी इस पर्व का सहारा लिया गया था. रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करने के लिए तथा लोगों में एकता का भाव जगाने के लिए, राखी का उपयोग किया था. संघ द्वारा मनाये जाने वाले 6 त्योहारों में एक त्यौहार रक्षा बंधन भी है. स्वयंसेवक एक दुसरे की कलाई में कलावा (मौली) बांधकर एक दुसरे की रक्षा का सकल्प लेते हैं.

पंजाब के लोग नशेड़ी नहीं बल्कि मेहनती, धार्मिक और समाजसेवी हैं

राहू / केतु पंजाब के बारे में यह भ्रम फैलाने में लगे हैं कि - पंजाब के लोग नशेड़ी हैं. एक नशेड़ी ने तो यहाँ तक बोल दिया कि - पंजाब के 80% लोग नशेड़ी हैं. उस नशेड़ी को शायद यह भी नहीं पता होगा कि प्रतिशत निकालते कैसे हैं. पंजाब को बदनाम करने की, राहू / केतु की इस साजिश का जबाब, समय आने पर पंजाब की जनता अवश्य देगी.
पंजाब के लोग केवल भारत में ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में अपनी मेहनत और उध्मीयता के लिए विख्यात हैं. अन्य राज्यों से आकर यहाँ बसने वाले लोग भी, यहाँ के माहौल में रहकर बैसे ही उद्यमी बन चुके हैं. आज पंजाब भारत के सबसे सफल राज्यों में से एक है. यहाँ पर प्रति व्यक्ति आय और यहाँ रहने वालों जीवन स्तर भी उच्च दर्जे का है.
यहाँ के लोग नशेड़ी नहीं बल्कि सबसे ज्यादा दानवीर और धार्मिक प्रवृत्ति के हैं. पंजाब भारत का एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ कभी कोई भूखा नहीं मर सकता. विभिन्न गुरुद्वारों / मंदिरों के अलावा भी यहां जगह जगह लंगर लगते हैं जिसमे श्रद्धालु दानवीर लोग आम जनता को भोजन कराते हैं. सबसे भव्य धार्मिक आयोजन पंजाब में ही होते हैं.
पंजाब में एक से बढकर एक भव्य गुरुद्वारे / मंदिर / गौ-शालाये हैं जो दानवीरों के सहयोग से ही बने हैं. पंजाब में शायद ही ऐसा कोई घर होगा जिसका कोई न कोई सदस्य किसी न किसी धार्मिक, सामाजिक, समाजसेवी संस्था से न जुड़ा हो. ऐसी संस्थाओं से जुड़े लोग नशा नहीं करते बल्कि इन लोगों को केवल एक ही नशा होता है और वो है दूसरों की सेवा करने का.
कोई प्राक्रतिक आपदा हो या भीषण दुर्घटना, यहाँ के लोग बिना किसी सरकारी मदद का इन्तजार किये, अपने खुद के निजी संशाधनो से, मदद करने निकल पड़ते हैं. आप रोज अखबार में खबर पड़ते होंगे कि - फलां राज्य में नकली शराब पीने से इतने लोगों की मौत हो गई , लेकिन क्या आपने कभी पंजाब की ऐसी कोई खबर कभी पढ़ी है ? नही न ?
इंफ्रास्ट्रक्चर की द्रष्टि से देखें तो, इसमें भी पंजाब का कोई मुकाबला नहीं है. सडक, बिजली, नहर, रेल नेटवर्क, आदि के मामले में पंजाब अन्य राज्यों से बहुत आगे है और इसी कारण यहाँ उद्योग, व्यापार, रोजगार और प्रति व्यक्ति आय सबसे ज्यादा है. यह सब काम नशेड़ियों ने नहीं किये हैं बल्कि जोश और होश वालों ने किये हैं.
यह सत्य है कि यहाँ बहुत सारे लोग शराब पीते हैं, लेकिन वो छुपकर नहीं बल्कि खुलेआम परिवार के बीच बैठकर पीते हैं. किसी मेहमान के आने पर घर में पीते समय औरतें झगडा नहीं करती हैं बल्कि खुद ही नमकीन, सलाद और नास्ता बनाकर देती हैं. इस तरह घर मे पीने वाला व्यक्ति कभी भी आउट होकर हंगामा नहीं करता है.
कृषि हो या उद्योग, सारे भारत की एक चौथाई से ज्यादा जरूरतों को, केवल पंजाब के ही लोग पूरा कर देते हैं. ऐसे पंजाब को झूठा बदनाम करने वालो को, पंजाब की जनता कभी माफ़ नहीं करेगी. मैं तो लगभग सारे भारत में घूमा हूँ और हर जगह लोगों को छुपकर बैद्ध/ अबैद्ध शारब पीकर हंगामा तथा घरों में मारपीट करते देखा है.

सुभाष चन्द्र बोस की शहादत

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के आफ़िसयली शहीदी दिवस (18 अगस्त) पर कोटि कोटि नमन .
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सरकारी घोषणा के हिसाब से आज (18 अगस्त) नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का शहीदी दिवस है, हालांकि यह तथ्य आज भी विवादास्पद है कि- 18 अगस्त, 1945 के दिन नेताजी की हवाई दुर्घटना में म्रत्यु हो गई थी. यह भारत के इतिहास का सबसे बडा अनुत्तरित रहस्य बना हुआ है कि उस दुर्घटना में नेता जी की म्रत्यु हुई अथवा कहीं लापता हो गए ?
उनका आगे क्या हुआ यह भी आम जनता को कुछ भी प्रामाणिक रूप से ज्ञात नहीं है केवल अलग अलग कयास लगाए जाते हैं. देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है. जय गुरुदेव से लेकर गुमनामी बाबा तक के नेताजी होने के कई दावे हुये हैं लेकिन इनमें से सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है.
सुभाषचन्द्र बोस भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता थे. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, उन्होंने आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था. उनके द्वारा दिया गया "जय हिन्द" का नारा, भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया हैं. उन्होंने जर्मन और जापान के सहयोग से गुलाम भारत पर अंग्रेजों के खिलाफ सैन्य आक्रमण किया था.
स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए, 1956 और 1977 में दो बार एक आयोग को नियुक्त किया गया लेकिन दोनो बार यही घोषणा कि गई कि नेताजी उस दूर्घटना में ही मारे गये थे. लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी, उस ताइवान देश की सरकार से तो, इन दोनो आयोगो ने बात तक ही नहीं की थी.
1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया. ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बताया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया था. इस प्रकार नेताजी की मौत का सवाल फिर अनुत्तरित रह गया.
एक मान्यता ये भी है कि विश्वयुद्ध में जापान के घुटने टेक देने के बाद नेताजी, आगे की लड़ाई लड़ने की तैयारी के लिए रूस चले गए थे और अपने विश्वस्तों के माध्यम से अपनी मौत की खबर फैला दी थी. पहले रूस ने उनकी मदद की लेकिन बाद में भारत के आजाद होने पर नेहरु से उनको ज्यादा फायेदा महसूस हुआ और उन्होंने नेताजी को कैद में दाल दिया.
बहरहाल जो भी हुआ हो लेकिन 18 अगस्त की हवाई दुर्घटना में नेताजी की मौत पर न तो इंगलैंड को भरोसा था और न ही अमेरिका को. नेहरु और गांधी को भी इस बात पर विशवास नहीं था और उन्होंने आजादी के बाद भी नेताजी के पकडे जाने पर, उनको अंग्रेजों को सौंपने का बचन दिया था. यदि अंग्रेजो को उनकी मौत का विस्वास होता तो यह शर्त नहीं रखते
आजादी के बाद नेताजी के विश्वस्त साथी रहे "शाहनवाज खान" से उम्मीद थी कि - वे नेताजी के बारे में सही तथ्य सामने लाने का प्रयास करेंगे. मगर उन्हें आजाद भारत में नेताजी के बजाय नेहरु का साथ देने में ज्यादा लाभ दिखाई दिया. नेहरु द्वारा आजाद हिन्द फ़ौज के सेनानियों को "स्वतंत्रता सेनानी" मानने से इनकार करते समय भी वे खामोश रहे.
जनता के दबाब में नेताजी का पता लगाने के लिए बनी कमेटी के वे अध्यक्ष भी रहे, मगर उन्होंने केवल टाइम पास किया और कोई ठोस जांच नहीं की. बोस के बारे में हमेशा से ही रहस्य बना रहा है और यह साबित नहीं हो सका है कि उनकी मौत किस तरह हुई. जापान सरकार का दावा है कि - उनकी अस्थियाँ वहाँ के एक बौद्ध मंदिर में सुरक्षित रखी गई हैं.

शहीद "राजगुरू"

अमर शहीद "राजगुरू" के जन्मदिन (24-अगस्त) पर, कोटि कोटि नमन
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आजादी की लड़ाई के हर मौके पर, हर समय अपनी सहभागिता करने के लिए बेचैन रहने वाले, इस लड़ाई में जान देने व लेने का कोई अवसर हाथ से जाने न देने के लिए तत्पर रहने वाले और अवसर न मिलने पर नाराज हो जाने वाले, मस्त स्वभाव के क्रांतिवीर "शिवराम हरि राजगुरू" के जन्मदिन पर कोटि कोटि अभिनंदन है.
"राजगुरू" का जन्म 24-अगस्त,1908 को पूना के खेडा गाँव में हुआ था. इनके पिता का नाम हरिनारायण राजगुरू था. "शिवराम हरि राजगुरू" प्रसिद्ध विद्वान "कचेश्वर पण्ड़ित" के वंशज थे. शिवाजी महाराज के प्रपौत्र श्री शाहू जी महाराज ने कचेश्वर पण्ड़ित को अपना गुरू बनाकर राजगुरू की उपाधि प्रदान की थी.
इन्हें कसरत का बेहद शौक था और छत्रपति शिवाजी की छापामार युद्ध-शैली के बडे प्रशंसक थे. लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और वीर सावरकर के बिचार उनको उद्देलित करते रहते थे. 1924 में रत्नागिरी जेल में "वीर सावरकर" से मिले. "सावरकर" ने उन्हें वाराणसी जाकर चन्द्र शेखर आजाद से मिलने की सलाह दी.
सावरकर की बात मानकर वे, पन्द्रह वर्ष की उम्र में ही पैदल ही घर से निकल पड़े और नाशिक पहुंचे. नासिक से किसी तरह झांसी, कानपुर, लखनउ और अंत में काशी पहुंचे. काशी में अहिल्या घाट पर रहने लगे. यहां गोरखपुर के साप्ताहिक पत्र "स्वदेश" के सहसंपादक मुनीश्वर अवस्थी के सहयोग से क्रांति दल के विधिवत सदस्य बनें.
भगवानदास माहौर, सदाशिव राव मलकापुरकर और शिव वर्मा ने अपनी क्रान्ति जीवन के संस्मरण लिखे थे, जो सन् 1959 में प्रकाशित हुए थे. उसमें उन्होंने राजगुरू के बारे में लिखा-जब भी कभी किसी क्रान्तिकारी काण्ड को करने की बात होती थी तो, उसे अंजाम देने की बात करने,सबसे पहले राजगुरु ही आगे आते थे.
एक बार क्रांतिकारी यतीनदास ने कहा कि - इसे मरने की इतनी जल्दीे क्यों पडी रहती है तो "राजगुरू" ने कहा था कि - बस एक बार देश के लिए मर जाऊं, फिर तो हमेशा के लोगों के दिलों में जीता रहूँगा. उन्होंने यतीनदास से बम बनाना सीखा था. भगत सिंह द्वारा असेम्बली में फेंके गए बम, राजगुरु द्वारा बनाय हुए थे.
उन्होंने चन्द्र शेखर आजाद से पिस्तौल चलाना सीखा तथा कुछ ही समय में संगठन के सबसे अच्छे निशाने बाज बन गए थे. सांडर्स बध में भी वे सरदार भगत सिंह के साथ थे. 23 मार्च 1931 को उन्हें सांडर्स बध केस में भगत सिंह तथा सुखदेव के साथ लाहौर सेण्ट्रल जेल में फाँसी के तख्ते पर लटका दिया गया था.
फांसी के फंदे पर झूल कर, उन्होंने अपणा नाम को हिन्दुस्तान के अमर शहीदों की सूची में अहमियत के साथ दर्ज करा दिया. अपनी ही कही बात कि - "एक बार देश के लिए मर जाऊं फिर, लोगो के दिलों में जीता रहूंगा" को उन्होंने सार्थक कर दिया. आज "राजगुरु" दुनिया में नहीं है, लेकिन देशभक्तों के दिलों में वे हमेशा राज करते रहेगे.

संतों का स्वदेशी अभियान

भारत की स्वाधीनता की लड़ाई हो या आजाद भारत के विकास की, देश के सभी महापुरुषों ने स्वदेशी को अपना प्रमुख मुद्दा बनाया था. देश की जनता भी स्वदेशी का महत्व समझती है लेकिन स्वदेशी सामान में सही गुणवत्ता न मिल पाने, मंहगी कीमत, देशी कम्पनियों के छोटे होने तथा भ्रामक प्रचार के चलते फंसकर विदेशी सामान खरीदती रहती है.
स्वदेशी के लिए अनेकों आन्दोलन चलाये गए मगर वे सब अंततः असफल ही साबित हुए. पिछली असफलताओं से सबक लेकर एक सन्त "बाबा रामदेव" ने इस बार एक नए तरीके से स्वदेशी आन्दोलन चलाया. उन्होंने जनता को हर उस सामान का देशी विकल्प उपलब्ध कराया , जिन चीजो की देश की जनता को आदत पड़ चुकी थी.
बाबा रामदेव ने देशभर में प्रवास कर पहले लोगों को जाग्रत किया. अपना स्वयं का एक विशाल संस्थान बनाया. आवश्यक वस्तुओं को बनाने का कारखाना लगाया. पतंजलि ब्रांड को गुणबत्ता और कीमत के मामले में मल्टी नेशनल कंपनीज से बेहतर बनाया. उन्होंने अपने ब्रांड "पतंजलि" को सारे देश में प्रतिष्ठित ब्रांड के रूप में स्थापित किया.
इनकी सफलता के बाद देश भर की ढेरों कम्पनिया जो या तो बंद हो चुकी थीं या बड़ी मुश्किल से चल पा रही थीं, वे पतंजलि से कोलोब्रेशन करने को दौड़ पडी. बाबा रामदेव और उनकी प्रोफेशनल टीम ने अपने मानकों के हिसाब से माल बनबाना शुरू किया और विशाल प्रोफेशनल नेटवर्क के जरिये उसे देश के कोने कोने में पहुंचा दिया.
वे बीमार औए बंद स्वदेशी कम्पनिया फिर से चल पडी हैं. लाखों भारतीयों को रोजगार तथा शुद्ध और सस्ते उत्पाद मिलने लगे. बाबा रामदेव की देखा देखी और भी कई संत जैसे - श्री श्री रविशकर, आशाराम, गुरमीत बाबाराम रहीम, आदि ने भी अपने प्रोडक्ट बनाने और बेचने शुरू कर दिए , जिनको कम से कम उनके चेले तो खरीद ही लेते हैं.
इसका बहुत बड़ा असर मल्टी नेशनल कम्पनीज की सेल पर पडा है. स्वदेशी उत्पादों की विक्री बढ़ी है. इस तरह से देश का पैसा अब देश में ही रहने लगा है. जो विदेशी कम्पनिया हमारी परम्पराओं का मजाक उड़ाया करती थीं, आज वो कम्पनी भी अपने टूथपेस्ट में चारकोल, नीम, नमक, बबूल, लौंग, आदि मिलाने को मजबूर हो गई हैं.

मदर टेरेसा का सच

अंग्रेजों का मानना था कि - यदि भारतीयों का धर्म परिवर्तन कराकर ईसाई बना लिया जाए तो, स्वाधीनता संग्राम खुद व खुद ख़त्म हो जाएगा. अंग्रेजों ने पूरे भारत में अनेकों जगह खासकर SC / ST बहुल इलाकों में अनेको मिशनरियां स्थापित कीं जो गरीब लोगों को बहलाकर / धमकाकर / लालच देकर उनका धर्म परिवर्तन कराया करती थी.
उनमे से ही एक थी तथाकथित मदर "टेरेजा". 1910 में युगोस्लाविया में जन्मी मदर टेरेसा 1929 में भारत आकर कोलकाता में बस गई थी. उनका मुख्य काम सेवा की आड़ में भारतीयों का धर्म परिवर्तनं कर उनको इसाई बनाना था. वे निरंतर इस काम में लगी रहीं. देश आजाद हो जाने के बाद भी उन्होंने, वापस जाने के बजाय, धर्म परिवर्तन का मिशन चलाये रखा.
पेशे से डॉक्टर और कुछ समय मदर टेरेसा की संस्था "मिशनरीज ऑफ चैरिटी" में काम कर चुके "डा. अरूप चटर्जी" का दावा है कि - मदर द्वारा गरीबों के लिए किए गए काम को बहुत ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया था. डा. अरूप चटर्जी की चर्चित किताब "मदर टेरेसा : द फाइनल वरडिक्ट" , मदर टेरेसा की कार्य प्रणाली पर कई सवाल उठाती है.
देश आजाद हो जाने के बाद अपने धर्म परिवर्तन के मिशन को जारी रखने के लिए उन्होंने 1950 में उन्होंने "मिशनरीज ऑफ चैरिटी" की स्थापना की थी. डा. चटर्जी ने लिखा है कि - टेरेसा कहती थीं कि वे कलकत्ता की सड़कों से बीमारों को उठाती थी लेकिन असल में, कोई उनके पास फोन करता था तो कहा जाता था कि 102 नंबर पर फोन कर लो.
डा. चटर्जी के मुताबिक़ संस्था के पास कई एंबुलेंस थी लेकिन उनका काम था अपने स्टाफ और ननो को जगह जगह जाना. डा.चटर्जी ने संस्था के इस दावे पर भी सवाल उठाया कि - वह कोलकाता में रोज हजारों लोगों को खाना खिलाती थीं, जबकि उनकी किचन में लगभग तीन सौ लोगों का ही खाना बनता था. जिसमें फ़ूड कार्ड धारक ईसाई ही खा सकते थे.
ब्रिटेन की मेडिकल पत्रिका "लैंसेट" के सम्पादक "डॉ रॉबिन फॉक्स" ने 1991 में टेरेजा के कोलकाता स्थित केंद्रों का दौरा किया था. फॉक्स ने पाया कि - वहां साधारण दर्दनिवारक दवाइयाँ तक नहीं थी. उनके मुताबिक इन केंद्रों में बहुत से मरीज ऐसे थे जिनकी बीमारी ठीक हो सकती थी लेकिन उनको बिना इलाज के कुछ दिन के मेहमान की तरह रखा जाता था.
एक टीवी कार्यक्रम के दौरान डा. अरूप चटर्जी ने कहा था कि - संस्था के केंद्रों में मरीजों की हालत बहुत खराब थी. वे रिश्तेदारों से नहीं मिल सकते थे, न ही कहीं घूम या टहल सकते थे. वे बस पटरों पर पड़े, पीड़ा सहते हुए अपनी मौत का इंतजार करते रहते थे. मिशनरीज ऑफ चैरिटी के केंद्रों में गरीबों का जानबूझकर ठीक से इलाज नहीं किया जाता था.
मदर टेरेसा पीड़ा को अच्छा मानती थी. उनका मानना था कि पीड़ा आपको जीसस के करीब लाती है, जो मानवता के लिए सूली चढ़े थे. गरीबों की मदद करने से ज्यादा दिलचस्पी मदर टेरेसा की इसमें थी कि- बीमार गरीबों की पीड़ा का इस्तेमाल करके, रोमन कैथलिक चर्च के कट्टरपंथी सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया जाए और इसाइयत को फैलाया जाए..
जबकि मदर टेरेजा खुद बीमार होती थी तो इलाज करवाने देश-विदेश के महंगे अस्पतालों में चली जाती थी. डा. चटर्जी ने लिखा है कि - मदर टेरेसा बीमार बच्चों की मदद तब करती थी, जब उनके मां-बाप वह फॉर्म भरने के लिए तैयार हो जाते थे, जिसमें लिखा होता था कि - वे बच्चों से अपना दावा छोड़कर उन्हें मदर की संस्था को सौंपते हैं.
1994 में मदर टेरेसा पर बनी एक चर्चित डॉक्यूमेंटरी "हैल्स एंजल" में भी कुछ ऐसे ही आरोप लगाए गए थे. इस डाक्यूमेंट्री की स्क्रिप्ट राइटर "क्रिस्टोफर हिचेंस" द्वारा 1995 में एक किताब भी लिखी थी. "मदर टेरेसा इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस" नाम की इस किताब में हिचेंस का कहना था कि- मीडिया ने मदर टेरेसा का मिथक गढ़ दिया है जबकि सच्चाई इसके उलट है.
वरिष्ठ साहित्यकार "विष्णु नागर" लिखते हैं कि- यह कहना कि मदर टेरेसा सड़क पर पड़े, मौत से जूझ रहे सभी गरीबों की मसीहा थी, गलत है. उन्होंने गरीबों-बीमारों के लिए 100 देशों में 517 चैरिटी मिशन जरूर स्थापित किए थे मगर ऐसे कई मिशनों का दौरा करने के बाद डॉक्टरों ने पाया कि ये दरअसल जीवनदान देने से ज्यादा मृत्युदान देने के मिशन हैं .
80 के दशक में ब्रिटेन के एक चर्चित अखबार "ब्रिटेन" में छपे एक लेख में चर्चित नारीवादी और पत्रकार "जर्मेन ग्रीअर" ने भी कुछ ऐसी ही बातें कही थी. ग्रीअर ने मदर टेरेसा को एक धार्मिक साम्राज्यवादी कहा था, जिसने सेवा को मजबूर गरीबों में ईसाई धर्म फैलाने का जरिया बनाया और ईसाई देशों से मिलने वाले चंदे से अपना बड़ा साम्राज्य खडा किया.
डा. चटर्जी के अनुसार, मदर टेरेसा ऐसे लोगों से भी फंडिंग लेती थी, जिनकी आय के स्रोत संदिग्ध थे. उनको गरीबों की मदद करने के लिए अकूत पैसा मिला लेकिन उसका एक बड़ा हिस्सा उन्होंने खर्च ही नहीं किया. उनकी संस्था को कांग्रेस सरकार का भी संरक्षण प्राप्त था, इसलिए मदर टेरेसा ने इंदिरा द्वारा लगाए आपातकाल का खुलकर समर्थन किया था.
उनके साथ 9 साल काम करने वाली सुजैन शील्ड ने 1989 में कहा था कि - अनेकों दवा निर्माता कम्पनिया अपनी नई दवाओं का ट्रायल मदर टेरेजा के हस्पतालों में भर्ती, गरीब मरीजों पर करते थे और इसके लिए संस्था को मोटी रकम भी दिया करते थे. इन ट्रायल में मरीजों को कई बार असहनीय पीड़ा होती थी और कई बार म्रत्यु भी हो जाती थी.
कुछ समय पहले, वेटिकन सिटी के पोप ने मदर टेरेसा को चमत्कारी संत घोषित किया था. पोप द्वारा उनको केवल इसलिए संत घोषित किया गया ताकि भारत में उनका नाम लेकर इसाइयत को बढ़ावा दिया जा सके. जिस कथित 'चमत्कार' के कारण 2003 में वेटिकन ने उन्हें धन्य घोषित किया उसे तर्कवादियों ने सिरे से खारिज कर दिया था.
उनको इस आधार पर संत घोषित किया गया था कि - पेट के ट्यूमर से जूझ रही पश्चिम बंगाल की एक महिला "मोनिका बेसरा" ने एक दिन अपने लॉकेट में मदर टेरेसा की तस्वीर देखी और उनका ट्यूमर अपने आप पूरी तरह से ठीक हो गया. लेकिन डाक्टरों की रिपोर्टों के मुताबिक मदर टेरेसा की मृत्यु के कई साल बाद भी मोनिका दर्द सहती रही.
कई लोग हैं जो मानते हैं कि - मदर टेरेसा को संत बनाने के पीछे वेटिकन की मजबूरी भी है. भारत के चर्चों में लोगों का आना लगातार कम हो रहा है. उनको पता है कि - भारत के लोग चमत्कारी संतों पर बहुत जल्द विशवास कर लेते हैं. ईसाई धर्म और इसके केंद्र वेटिकन सिटी, चर्च में लोगों का विश्वास लौटाने के लिए ऐसा कदम उठाना जरूरी था. .
प्रसिद्ध लेखिका तसलीमा नसरीन ने वेटिकन के टेरेसा को संत घोषित करने के फैसले पर अफसोस जताते हुए अपने ट्वीट में लिखा था कि, “मदर टेरेसा को संत बनाया जाएगा, ऐसी औरत जिसने भ्रष्ट लोगों से पैसा ले लिया, जिसने गरीब व बीमार लोगों को बिना चिकित्सा उपलब्ध करवाए मरने के लिए छोड़ दिया वह अब संत हो जायेगी”
आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि ‘‘मदर टेरेसा की सेवा में केवल एक ही उद्देश्य हुआ करता था, कि - जिसकी सेवा की जा रही है उसका ईसाई धर्म में धर्मांतरण किया जाए". भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ का कहना है कि - पूर्वोत्तर भारत में उनके द्वारा किये गए ईसाईकरण ने ही, वहां अलगाव की स्थिति पैदा की है.
हमारी भारतीय संस्कृति बहुत महान है, इसमें अनेको संत हुए हैं जिन्होंने सच्चे दिल से दीन-दुखियों की, अपने तन-मन-धन से सेवा की है. अनेको गुरुद्वारों, मंदिरों एवं स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा निरंतर लंगर लगाये जाते हैं जिनमे बिना किसी भेदभाव के भोजन कराया जाता है. ऐसे ही अनेकों संस्थाओं द्वारा गरीबो का निशुल्क इलाज किया जाता हैं.

वर्णव्यवस्था और जातिवाद

अक्सर लोग वर्ण व्यवस्था और जातिवाद को एक ही चीज समझ लेते हैं जबकि ये दोनों बिलकुल अलग अलग बातें हैं. मानव जीवन को सुव्यवस्थित करने के प्रथम प्रयास में, उसकाल के समाज शास्त्रियों , मानव प्रव्रत्ति. उनके व्यवसाय, उनके रहन सहन आदि के आधार पर जो उनका वर्गीकरण किया था उसे वर्ण व्यवस्था कहा जाता है.
शिक्षण, लेखन, चिकित्सा, शोध, कर्मकांड, आदि जैसे बौद्धिक कार्य करने वालों को "ब्राह्मण" कहा गया. राष्ट्र और समाज की सुरक्षा एवं सञ्चालन को अपना धर्म मानने वालों को "क्षत्रीय" कहा गया, व्यापार करने वालों को "वैश्य" एवं उत्पादन, सेवा, आदि जैसे कार्यों से अपनी जीविका चलाने वालों को "शुद्र" नाम दिया गया.
एक वर्ण का व्यक्ति भी दुसरे वर्ण की प्रव्रत्ति का हो सकता था. परशुराम जैसे ब्राह्मण क्षत्रियों वाले कार्य करते रहे. रावण जैसे ब्राह्मण ने शक्तिशाली साम्राज्य बनाया था. वे लोग लोग युद्धकला के माहिर थे . विश्वामित्र जैसे क्षत्रीयकुल में जन्म लेने वाले राजा ने अपने तप के बल पर ब्राह्मणत्व प्राप्त किया और बाद में ब्रह्मऋषि कहलाये.
निषाद कन्या सत्यवती का विवाह हस्तिनापुर के सम्राट शांतनु से हुआ था. राम के साथ युद्ध में लड़ने वाले लोग बन-नर (अर्थात वनवासी लोग थे). गाय चराने और दूध बेंचने का कार्य करने वाले वर्ग के श्री कृष्ण और श्री बलराम को उस काल के समस्त क्षत्रीय और ब्राह्मण उनकी क्षमताओं के कारण , उनको भगवान् की तरह पूजते थे.
जिस कर्ण और एकलव्य को द्रोणाचार्य ने राजपुत्र न होने के कारण ( अर्थात उनकी महंगी फीस न दे पाने में समर्थ होने के कारण) अपने गुरुकुल में जगह नहीं दी थी उन्होंने भी महाभारत का युद्ध क्षत्रियों के साथ और क्षत्रियों की तरह लड़ा था. राम के द्वारा शबरी, केवट, सुग्रीव, वाल्मीकि आदि को महत्त्व देना समाज की एकरूपता का ही प्रतीक है .
कहने का तात्पर्य यह कि- वर्ण व्यवस्था के केवल मानव स्वभाव को समझने के लिए वर्गीकरण किया गया था, उनमे कहीं कोई भेदभाव नहीं था, धीरे-धीरे ऐसा होने लगा कि एक जैसा कार्य करने वाले (लगभग सामान आर्थिक स्तर के लोग) एक साथ रहने लगे, पिता की कला उसका बेटा सीखने लगा तो कार्य के आधार पर उसे जाती कहा जाने लगा.
पेशे को जाती कहने के बाद भी कोई आपसी विवाद नहीं था. यह फूट पड़ी भारत पर विदेशी हमलावरों के हमले के बाद. उन विदेशियों ने एक को पुचकारने दूसरे को दुत्कारने की नीति को अपनाकर भारत के लोगो को ही एक दूसरे का दुश्मन बना दिया और खुद राज करने लगे. "फूट डालो और राज करो' के द्वारा अल्पसंख्यकों ने बहुसंख्यकों पर राज किया .
बहुत तेजी से बढ़ने वाली आवादी होने के बाजजूद भारत में मुस्लिमो की संख्या आज भी 20% है तो सोंचो अकबर के समय में कितने प्रतिशत रहे होंगे? मानसिंह और प्रताप को लड़ाकर, बीरवल को ऊंचा स्थान देकर और अन्य हिन्दुओं को दबाकर , तानसेन और बैजू को लड़ाकर , अकबर हमेशा अपना उल्लू सीधा करता रहा और शासन करता रहा.
भारत में मुघलों के आने से पहले शौचालय नहीं थे और न ही लोग जूते पहना करते थे. युद्ध में हारे हुए हिन्दू लड़ाकों को मजबूर किया जाता था कि या तो इस्लाम कबुल कर लो अन्यथा मैला उठाने या मृत जानवरों का चमड़ा उतारने का घ्रणित कार्य करो. जिन लोगों ने धर्म छोड़ने के बजाय गन्दा काम करना मंजूर किया था वे ही लोग दलित कहलाते हैं.
मुघलों ने अपनी चालाकी से देश में ऐसा माहौल बनाया था कि - भारत की जनता एक दूसरे की जाती से नफरत करने लगी. कभी ब्राह्मणों को लाभकारी पद दिए जाते और दलितों को सताया जाता , तो कभी रोज सवा मन जनेऊ उतारने के अभियान चलाये जाते. कभी वैश्यों को लाभ दिए जाते , तो कभी वैश्यों की सम्पत्ति लूट ली जाती.
धीरे धीरे देश की जनता एक जैसा पेशा करने वालों के रूप में बंट गई. अपने पेशे के अलावा दुसरे पेशे वाले को शक की नजर से देखने लगे और कालांतर में यही शक जातीय नफरत में बदलता चला गया. जिस वर्ण व्यवस्था का आविष्कार प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए किया था वही व्यवस्था कालान्तर में आपसी जातीय नफरत में बदल गई.
आज जरूरत है कि - जाती शब्द को मिटा दिया जाए और कहीं जरूरत हो तो भी इसे केवल "खानदानी पेशा" कहा जाए. जन्म के आधार पर कोई भेदभाव न किया जाए केवल व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर ही किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता का निर्धारण हो. जाति के आधार पर उंच नीच करने वालों का ही सामाजिक बहिष्कार किया जाए .
पेशे के कारण बन जाने वाले स्वभाव को समझने के लिए, लोगों का वर्गीकरण किया गया था. जातिवाद तो भारत के दुश्मनों ने भारतीयों को आपस में लड़ाकर उनपर शासन करने के लिए फैलाया था. जिन हिन्दुओं ने गुलामी के दिनों में अपना धर्म छोड़ा था, उनके वंशज अगर स्वेच्छा से मूलधर्म में वापस आना चाहें, तो उनका भी स्वागत करना चाहिए.

भारत माँ की बहादुर बेटी "नीरजा"

भारत माँ की बहादुर बेटी "नीरजा" के शहीदी दिवस (5-सितंबर) पर कोटि कोटि नमन *********************************************************************************
भारत माँ की बहादुर बेटी "नीरजा भनोट" का जन्म "7-सितंबर - 1964" को चंडीगढ के "हरीश भनोत" के यहाँ हुआ था. पतली दुबली नाजुक सी नीरजा को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि एक दिन उसे भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान "अशोक चक्र" मिलेगा. बचपन से ही उसकी आकाश को छूने की तमन्ना थी, जो उसने 16 जनवरी 1986 एयरलाइन पैन एम "एयर होस्टेस" बन पूरी की.
5 सितम्बर-1986 को "पैन एम 73" यात्री विमान करांची, पाकिस्तान के एयरपोर्ट पर अपने पायलेट का इंतजार कर रहा था. विमान में लगभग 400 यात्री बैठे हुये थे, तभी अचानक 4-इस्लामी आतंकवादियों ने पूरे विमान को गन प्वांइट पर ले लिया. उन आतंकवादियों ने पाकिस्तानी सरकार पर दबाव बनाया कि - वो जल्द से जल्द विमान में पायलट को भेजे , किन्तु पाकिस्तानी सरकार ने मना कर दिया.
तब आतंकियों ने विमान परिचारिकाओं से कहा कि - वो सभी यात्रियों के पासपोर्ट एकत्रित करे, ताकि वो किसी अमेरिकन को मारकर पाकिस्तान पर दबाव बना सके. नीरजा ने सभी यात्रियों के पासपोर्ट एकत्रित किये और विमान में बैठे 5 अमेरिकी यात्रियों के पासपोर्ट छुपाकर बाकी सभी के पासपोर्ट आतंकियों को सौंप दिये. उसके बाद आतंकियों ने एक ब्रिटिश नागरिक को विमान के गेट पर लाकर पाकिस्तानी सरकार को धमकी दी कि -यदि पायलट नहीं भेजे तो वह उसको मार देगे.
किन्तु नीरजा ने उस आतंकी के साथ धैर्यपूर्ण ढंग से बात करके उस ब्रिटिश नागरिक को भी बचा लिया. धीरे - धीरे 16 घंटे बीत गये और पाकिस्तान सरकार और आतंकियों के बीच बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला. नीरजा को पता लग चुका था कि आतंकवादी सभी यात्रियों को मारने की सोच चुके हैं. अचानक नीरजा को ध्यान आया कि - प्लेन में फ्यूल किसी भी समय समाप्त हो सकता है और उसके बाद अंधेरा हो जायेगा.
नीरजा ने अपनी सहपरिचायिकाओं को यात्रियों को खाना बांटने के लिए कहा और साथ ही विमान के आपातकालीन द्वारों के बारे में समझाने वाला कार्ड भी देने को कहा. उसने सर्वप्रथम खाने के पैकेट आतंकियों को ही दिये क्योंकि उसका सोचना था कि भूख से पेट भरने के बाद शायद वो शांत दिमाग से बात करे. नीरजा ने जैसा सोचा था वही हुआ. प्लेन का फ्यूल समाप्त हो गया और चारो ओर अंधेरा छा गया.
नीरजा तो इसी समय का इंतजार कर रही थी उसने तुरन्त विमान के सारे आपातकालीन द्वार खोल दिये. योजना के अनुरूप ही यात्री तुरन्त उन द्वारों के नीचे कूदने लगे . वहीं आतंकियों ने भी अंधेरे में फायरिंग शुरू कर दी जिसमे कुछ यात्री घायल भी हो गये. नीरजा ने अपने साहस से लगभग सभी यात्रियों को बचा लिया था और अब विमान से भागने की बारी नीरजा की थी किन्तु तभी उसे बच्चों के रोने की आवाज सुनाई दी .
दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना के कमांडो भी विमान में आ चुके थे. उन्होंने तीन आतंकियों को मार गिराया. मगर एक आतंकी बच गया था. तब तक नीरजा उन तीन बच्चों को खोज चुकी थी और उन्हें लेकर विमान के आपातकालीन द्वार की ओर बढ़ने लगी कि अचानक बचा हुआ चौथा आतंकवादी उसके सामने आ खड़ा हुआ. नीरजा ने बच्चों को आपातकालीन द्वार की ओर धकेल दिया और स्वयं उस आतंकी से भिड़ गई.
लेकिन कहाँ वो निर्दयी आतंकवादी और कहाँ वो नाजुक सी लड़की, आतंकी ने कई गोलियां उसके सीने में उतार डाली. मरते मरते भी नीरजा उस आतंकी को कसकर पकडे रही और आतंकी को सम्हलने का मौक़ा नही दिया. उस चौथे आतंकी को भी पाकिस्तानी कमांडों ने मार गिराया किन्तु वो नीरजा को न बचा सके. नीरजा अगर चाहती तो वो आपातकालीन द्वार से सबसे पहले भाग सकती थी किन्तु वो भारत माता की सच्ची बेटी थी.
नीरजा ने पहले आतंकियों से बात करके उनका मन बदलने की कोशिश की, फिर अमरीकियों के पासपोर्ट छुपाकर उन अमरीकियों को बचाया. खाना खिलाने के बहाने समय खराब कर फ्यूल ख़त्म होने का इन्तजार किया और अँधेरा होते ही आपातकालीन द्वार खोल कर यात्रियों को भागने का रास्ता दिया. उसके बाद भी स्वयं को बचाने के स्थान पर बच्चॊ की खातिर, नीरजा आतंकियों से उलझ गयी और अपना बलिदान दे दिया .
"भारत सरकार" ने नीरजा को सर्वोच्च नागरिक सम्मान "अशोक चक्र" प्रदान किया. उसकी बहादुरी पर "पाकिस्तान की सरकार" ने नीरजा को "तमगा-ए-इन्सानियत" प्रदान किया. उनके सम्मान में भारतीय डाक-तार विभाग ने वर्ष 2004 में एक डाकटिकट जारी किया. मैं नीरजा को अपने समय की सबसे बड़ी नायिका मानता हूँ, जिसने इस्लामी आतंकियों से 400 यात्रियों को जान बचाते हुए, अपना जीवन बलिदान कर दिया.
नीरजा के सम्मान में एक फिल्म भी बनी है, जिसमे सोनम कपूर ने नीरजा की भूमिका निभाई है. गुणवत्ता के हसाब से ज्यादा अच्छी फिल्म न होने के बाबजूद दर्शकों ने इसको सुपरहिट कराया क्योंकि उनको नीरजा से प्रेम था.