महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था. उनके पिता का नाम राणा उदय सिंह तथा माता का नाम राणी जयवन्ता बाई था. उनको बचपन में सभी स्नेह से "कीका" के नाम से पुकारते थे. महाराणा प्रताप की जयंती विक्रमी सम्वत् कॅलण्डर के अनुसार प्रतिवर्ष ज्येष्ठ, शुक्ल पक्ष तृतीया (इस बार 28 मई) को मनाई जाती है.
प्रताप का नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है. वे केवल वीर योद्धा ही नहीं थे बल्कि बहुत ही कुशल राज्य संचालक एवं प्रजापालक थे. जातिवाद का तो जैसे उनके यहाँ कोई स्थान ही नहीं था. सवर्ण से लेकर, कोल-भील जैसी बनबाशी जातियों के वीर देशभक्त, उनके एक इशारे पर जान देने और शत्रु की जान लेने को तैयार रहते थे.
युद्ध में भारी हानि उठाने के बाद जब सेना को पुनर्गठित करने की आवश्यकता हुई तो - भामाशाह जैसे धनवान व्यापारी ने अपनी सारी दौलत प्रताप को समर्पित कर दी. उसके अलावा बनियों और किसानो ने अपनी तरफ से हर संभव योगदान दिया, जिसके द्वारा प्रताप ने शक्तिशाली सेना बनाकर शत्रु का सामना किया और मेवाड़ को आजाद कराया.
जालिम शहंशाह "अकबर" सारे हिन्दुस्थान पर कब्जा करना चाहता था, इसमें सबसे बड़ी बाधा प्रताप जैसे स्वाभिमानी योद्धा थे. अकबर ने युद्ध / छल / विवाह द्वारा काफी बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया था. अकबर ने प्रताप को भी प्रलोभन दिया कि- वो अगर अकबर की आधीनता स्वीकार कर ले तो उन्हें राजपुताना का सरदार बना दिया जाएगा.
अकबर को लगता था जैसे उसने मानसिंह जैसे कायरों को अपने साथ मिला लिया था वो सभी को मिला लेगा. मगर प्रताप हिन्दुस्थान के उन स्वाभिमानी योद्धाओं में से थे जो "आन के लिए जान" की भी परवाह भी नहीं करते हैं. प्रताप, अकबर से युद्ध के लिए तैयार हो गए. अकबर ने लालच देकर प्रताप के भाई शक्ति को भी अपने साथ मिला लिया था.

महाराणा प्रताप और अकबर की सेना का केवल एक दिन का "हल्दीघाटी का युद्ध", विश्व के महान युद्धों में गिना जाता है. अकबर की तोपखाने से लैस 80 हजार की सेना का सामना प्रताप के 20000 सेना ने किया था. इस युद्ध में अपनी बहादुरी के लिए इंसान तो क्या, जानवरों को भी ( घोडा- चेतक और हाथी - रामप्रसाद) तक को याद किया जाता है.
युद्ध के समय चेतक द्वारा छलांग लगाकर, सलीम (कुछ इतिहासकार मानते हैं कि -मानसिंह) के हाथी के सर पर पैर रख देना और प्रताप द्वारा भाले से बार करना बहुत ही रोमांचकारी द्रश्य माना जाता है. इस "वार' में सलीम का महावत मारा गया लेकिन सलीम बचकर भाग गया था. लेकिन हाथी की सूंड में बंधी तलवार से चेतक भी घायल हो गया था.
चेतक के इस बलिदान ने, मुघलों की तरफ से लड़ रहे "शक्ति सिंह" का भी ह्रदय परिवर्तन कर दिया, प्रताप को अश्वहीन लड़ते देख "शक्ति" ने उनको अपना घोडा सौंप दिया और क्षमा मांगी. युद्ध की समाप्ति तक प्रताप भी घायल हो गए थे. मुग़ल सैनिक प्रताप को मारना चाहते थे क्योंकि प्रताप के मरते ही राजपुताना का संघर्ष ख़त्म हो जाना था.
घायल प्रताप को अकेले, कई मुग़ल सैनिकों से लड़ते देख, झाला सरदार 'मन्नाजी' तेज़ी से आगे बढ़े और प्रताप के सिर से मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया और तेज़ी से लड़ते हुए मुग़ल सैनिको को अपने पीछे ले गए. अपने प्राण देकर महाराणा के प्राणों की रक्षा कर "झाला" ने स्वामिभक्ति और देशभक्ति की एक मिशाल कायम की.
हल्दीघाटी के युद्ध में राजपूत योद्धा बहुत बहादुरी से लडे, मगर विशाल तोपखाने से सुसज्जित 80000 की सेना का मुकाबला, 20 हजार सैनिक केवल तीर-तलवारों और भालों से भला कब तक करते. महाराणा प्रताप चित्तौड़ छोड़कर वनवासी हो गए. अरावली की गुफ़ाएँ ही अब उनका आवास थीं, कहते हैं तब उन्होंने घास तक की रोटी भी खाई.
संकट की इस घड़ी में हिन्दुस्थान के गौरव "भामाशाह" ने महाराणा प्रताप के चरणों में अपनी समस्त सम्पत्ति रख दी. मेवाड़ के अनेकों किसानों और व्यापारियों ने भी अपनी सम्पत्ति देशरक्षा की खातिर प्रताप को सौंप दी. इसकी सहायता से प्रताप ने पुनः एक शक्तिशाली सेना तैयार की और आजादी का संघर्ष प्रारंभ कर दिया.
महाराणा ने चित्तौड़ के अलावा, लगभग सारे मेवाड़ को आजाद कराकर उदयपुर को राजधानी बनाया. 24 वर्ष उन्होंने मेवाड़ में "भगवा ध्वज" को सम्मान के साथ ऊँचा उठाये रखा. अकबर का भी प्रताप पर सीधा हमला करने का फिर कभी साहस नहीं हुआ. वह दौर प्रताप के साथ, उनका साथ देने वाले अनेकों महान वीरों के लिए भी याद किया जाता है.
प्रताप ने कसम खाई हुई थी कि - वे जबतक चित्तौड़ को आजाद नहीं करा लेंगे तब तक जमीन पर सोयेंगे और साधारण बर्तनों में साधारण भोजन ही करेंगे. विशाल मेवाड़ को जीतने के बाद भी , चित्तौड़ को वापस न जीत पाने के कारण , उन्होंने अपनी भीष्म प्रतिज्ञा का अंतिम समय तक पालन किया था.

जय शिवा सरदार की , जय राणा प्रताप की,
भारत माता की जय, वन्दे मातरम..........
भारत माता की जय, वन्दे मातरम..........
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