Monday, 15 May 2017

खान अब्दुल गफ्फार खान

स्वतंत्रता सेनानी "खान अब्दुल गफ्फार खान" की पुण्यतिथि (20 जनवरी) पर श्रद्धांजलि
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ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान एक महान राजनेता थे जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था. उनको "सीमान्त गांधी" तथा "बादशाह ख़ान" के नाम से भी जाना जाता है. उनका प्रभाव सबसे ज्यादा पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्र के पख्तूनो पर था लेकिन बलूचिस्तान के बलोच भी उनका बहुत सम्मान करते थे.
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान का जन्म 6 फ़रवरी, 1890 ई. को पेशावर, तत्कालीन ब्रिटिश भारत तथा आज के पाकिस्तान में एक संपन्न परिवार में हुआ था. उनके परदादा आबेदुल्ला खान और दादा सैफुल्ला खान पख्तूनो के उग्र नेता थे. दोनों ने ही पख्तूनो के हित में अनेको जातीय लड़ाइया एवं अंग्रेजों के जुल्म के खिलाफ भी अनेकों लडाइयां लड़ी थी.
अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने पर, जातीय हिंसा के आरोप में उनके परदादा को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था, हालांकि उनकी इन लड़ाई में कई अंग्रेज मारे गए थे लेकिन फिर भी इसे केवल जातीय हिंसा माना जाता है स्वाधीनता संग्राम का हिस्सा नहीं माना जाता है. उनके पिता बैरम खान अपने पिता और दादा से उलट बिलकुल शांत स्वभाव के थे.
उन्होंने अपने बेटे "खान अब्दुल गफ्फार खान" को लड़ाई झगडे के माहौल से दूर रखा तथा पढने के लिए ईसाई मिशनरी स्कूल में भेजा. ऐसा करने से उनके रिश्तेदार नाराज भी हो गए थे. स्कूली शिक्षा के बाद उच्च शिक्षा के लिए वे अलीगढ़ भी गए. शिक्षा समाप्त होने के बाद वे देशसेवा में लग गए. वे गांधी जी के बिचारों से बहुत ज्यादा प्रभावित थे.
पेशावर में जब 1919 ई. में फौजी कानून (मार्शल ला) लागू किया गया उस समय उन्होंने शांति के लिए एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया मगर अंग्रेजों ने इसे राजद्रोह मानकर जेल में बंद कर दिया. जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने "खुदाई खिदमतगार" नाम का एक सामाजिक संगठन बनाया जो कुछ समय बाद राजनैतिक संगठन में बदल गया.
खिलाफत आन्दोलन में भी उन्होंने बढचढ कर हिस्सा लिया. यह आन्दोलन तुर्की के निर्वासित सुलतान को फिर से गद्दी पर बिठाने के लिए था. इस आन्दोलन के असफल हो जाने पर जब मुस्लिम्स ने अपना गुस्सा हिन्दुओं पर दिखाते हुए मालाबार, मुल्तान, कोहाट जैसे दंगे कर दिए तो उनसे नाराज होकर उन्होंने खुद को खिलाफत से अलग कर लिया.
1930 ई. में सत्याग्रह करने पर वे पुन: जेल भेजे गए. जेल में उन्होंने सिक्खों के कुछ ग्रंथ और गीता का अध्ययन किया. वे जेल में ही लोगों को गीता, कुरान तथा ग्रंथ साहब आदि की शिक्षाएं देने लगे. 29 मार्च1931, गांधी और इरविन के बीच हुए, गोलमेज समझौते के बाद उनको जेल से रिहा कर दिया गया और वे फिर से सामाजिक कार्यों में लग गए.
1937 के प्रांतीय चुनावों में जीत के बाद कांग्रेस ने उनको पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत का मुख्यमंत्री बनाया. 1942 ई. के भारत छोडो आन्दोलन के दौरान उनको फिर गिरफ्तार कर लिया गया और फिर वे आजादी के समय 1947 ई. में ही छूटे. वे देश के विभाजन के बिरोधी थे मगर विभाजन के बाद उन्होंने पापिस्तान में ही रहने का निश्चय किया.
पापिस्तान में उन्होंने अल्पसंख़्यक पख़्तूनों के अधिकारों और पाकिस्तान के भीतर स्वायत्तशासी पख़्तूनिस्तान के लिए लड़ाई जारी रखी. वे पापिस्तान को लेकर हमेशा कहते थे कि - उनको भेड़ियों के सामने डाल दिया गया है. पापिस्तानी शासन के खिलाफ बोलने कारण उनको पापिस्तान छोड़ने को मजबूर किया गया और वे अफगानिस्तान चले गए.
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को वर्ष 1987 में भारत सरकार की ओर से भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया. सन 1988 में पाक़िस्तान सरकार ने उन्हें पेशावर में उनके घर में नज़रबंद कर दिया. जहां 20 जनवरी 1988 को उनकी मृत्यु हो गयी और उनकी अंतिम इच्छानुसार उन्हें जलालाबाद अफ़ग़ानिस्तान में दफ़नाया गया.

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