गुरु अर्जुनदेव के शहीदी दिवस ( जेष्ठ शुक्ल चतुर्थी ) पर भावभीनी श्रद्धांजली
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सिक्ख गुरु परम्परा में "गुरु अर्जुनदेव" पांचवें स्थान पर आते हैं. गुरु अर्जन देव सिक्खों के चौथे गुरु, "गुरु रामदास" के पुत्र थे. उनका जन्म 15 अप्रैल 1563 गोइंद्वाल साहब में हुआ था. वे सन 1581 ई. में गुरू गद्दी पर बैठे थे . पवित्र ग्रन्थ 'गुरु ग्रंथ साहब' आज जिस रूप में उपलब्ध है, उसका संपादन "गुरु अर्जुनदेव" जी ने ही किया था.
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सिक्ख गुरु परम्परा में "गुरु अर्जुनदेव" पांचवें स्थान पर आते हैं. गुरु अर्जन देव सिक्खों के चौथे गुरु, "गुरु रामदास" के पुत्र थे. उनका जन्म 15 अप्रैल 1563 गोइंद्वाल साहब में हुआ था. वे सन 1581 ई. में गुरू गद्दी पर बैठे थे . पवित्र ग्रन्थ 'गुरु ग्रंथ साहब' आज जिस रूप में उपलब्ध है, उसका संपादन "गुरु अर्जुनदेव" जी ने ही किया था.

अमृतसर के स्वर्ण मंदिर और तरन तारन के भव्य गुरुद्वारे के साथ विशाल सरोवर बनवाने का श्रेय भी उनको को ही जाता है. गुरु अर्जुन देव का बहुत ज्यादा प्रभाव था. उनके शिष्यों में सिक्ख और हिन्दुओं के अलावा बहुत से मुस्लिम भी शामिल हो गए थे. गुरु जी का बढ़ता प्रभाव सत्ता से नजदीकी वाले (अ)धार्मिक नेताओं को रास नहीं आ रहा था.
उन दिनों दिल्ली पर अकबर का शासन था. कुछ असामाजिक तत्वों ने अकबर बादशाह के पास यह शिकायत की कि - ग्रंथ में इस्लाम के खिलाफ लिखा गया है. अकबर ने जांच करने पर शिकायत को झूठा पाया, लेकिन अकबर का पुत्र जहांगीर गुरु अर्जुन देव के खिलाफ ही रहा और उनके खिलाफ कार्यवाही करने का मौक़ा तलाश करने लगा.
अकबर की म्रत्यु के बाद जहांगीर दिल्ली का शासक बना. वह बहुत ही ज्यादा कट्टर था, उसे अपने धर्म के अलावा, कोई अन्य कोई धर्म पसंद नहीं था. जहाँगीर ने अपने चापलूस "चंदू" के माध्यम से कहलवाया कि - अपने ग्रन्थ में मोहमद साहिब की स्तुति लिखनी होगी, जिसे गुरु अर्जुन देव ने अस्वीकार कर दिया.
इसी बीच जहाँगीर के एक बेटे खुसरो ने बगावत कर दी थी. खुसरो ने गुरु अर्जुन देव से सहायता मांगी. जहाँगीर को यह शक था कि - गुरू जी ने बाग़ी शहजादा खुसरो की मदद की थी. शेखुलर इतिहासकार जिस जहाँगीर को इन्साफ का पुजारी बताते है, उस जहाँगीर ने बिना "गुरु जी" पक्ष जाने को यातना देकर मारने का फरमान दे दिया.
जहागीर के चमचे "चंदू" ने गुरु जी को अकेले बुलाकर लालच दिया कि - अगर आप मेरी बेटी का रिश्ता अपने बेटे के साथ कर दें और अपने ग्रंथ में मोहमद साहिब की स्तुति लिखने को तैयार हों तो मैं आपकी सजा माफ़ करा दूंगा. इस पर गुरुजी ने कहा - प्राणी मात्र के उद्धार के लिए हमें करतार से जो प्रेरणा मिलती है इसमें हम केवल वही लिख सकतें हैं.
तब उनको गर्म तबे पर बिठाया गया, गर्म रेत डाली गई, देग में गर्म पानी में उबाला गया मगर गुरुजी सारी यातनाएं झेलने के बाद भी अधर्मियों के आगे नहीं झुके. अगले दिन फिर जहाँगीर का चमचा "कमीना चंदू" फिर अपनी बात मनाने के लिए गुरु जी के पास पहुँचा तो गुरु जी ने उससे रावी में स्नान करने की इच्छा व्यक्त की.
अनुमति मिलने पर गुरु जी पांच सिखों सहित रावी तट पर आ गए और "जपुजी साहिब" का पाठ करके "भाई लंगाह" को कहा कि - अब हमरी परलोक गमन कि तैयारी है. आप जी श्री हरिगोबिंद को धैर्य देना और कहना कि शोक नहीं करना, करतार का हुकम मानना. हमारे शरीर को जल प्रवाह ही करना, संस्कार नहीं करना.
इसके पश्चात गुरु जी ने रावी में प्रवेश करके अपना शरीर त्याग दिया. उस दिन ज्येष्ठ सुदी चौथ संवत 1553 विक्रमी थी. गुरु जी का ज्योति ज्योत समाने का सारे शहर में बड़ा शोक बनाया गया. गुरु जी के शरीर त्यागने के स्थान पर गुरुद्वारा "ढ़ेरा साहिब" लाहौर के शाही किले के पास ही विद्यमान है. गुरु जी की धर्मनिष्ठा को कोटि कोटि नमन
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