Monday, 1 May 2017

भारत में कम्युनिस्ट पार्टियां

भारत के इतिहास में बर्ष 1925 का काफी महत्त्व है. इस बर्ष भारत में दो एकदम विपरीत बिचारधाराओं का उदय हुआ, जिनका भारतीय जन मानस पर काफी असर हुआ. 27 सितम्बर 1925 को नागपुर में "विजयदशवी" वाले दिन एक राष्ट्रवादी संगठन "राष्टीय स्वयंसेवक संघ" की स्थापना हुई और 25 दिसंबर1925 को कानपुर में "क्रिसमस" वाले दिन साम्यवादी पार्टी "भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी " की स्थापना हुई.
"राष्टीय स्वयंसेवक संघ" धर्म पर आधारित संगठन था जो अपने देश के महान पूर्वजों के आदर्शों पर चलता था और "भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी " तथाकथित नास्तिको का संगठन तो जो रूस और चीन के तथाकथित महापुरुषों को अपना आदर्श मानता था. आरएसएस की बिचारधारा को दक्षिणपंथ, भाकपा की बिचारधारा को वामपंथ तथा कांग्रेस की बिचारधारा को मध्यमार्गी बिचारधारा कहा जाता था.
कांग्रेस अपने आपको मध्यमार्गी पार्टी कहती थी लेकिन रूस के आदेश पर नेहरू को भी कम्यूनिस्टो से बना कर रखनी पड़ती थी अर्थात कांग्रेस भी पूरी तरह मध्यमार्गी न होकर काफी हदतक वाममार्गी ही थी. यह वामपंथी अपने आपको नास्तिक बताते थे और धर्म को एक नशा बताते थे. लेकिन इस चक्कर में पड़कर केवल हिन्दू ही नास्तिक बने, अन्य धर्म वाले कम्युनिस्ट अपने धर्म का वैसे ही पालन करते रहे.
कांग्रेस और कम्युनिस्टों के एक अघोषित समझौते के चलते , नेहरु ने शिक्षा और पत्रकारिता पर वामपंथियों को हावी हो जाने दिया और उनके साथ मिलकर राष्ट्रवादियों को दबाने का प्रयास किया. साम्यवाद के चक्कर में पड़ने से सबसे ज्यादा नुकशान हिन्दुओं का हुआ. गैर हिन्दू साम्यवादी तो अपने धर्म पर डटे रहे लेकिन साम्यवादी हिन्दू अपने ही धर्म को नुकसान पहुंचाते रहे. जहाँ जहाँ साम्यवाद हावी रहा वहां के हिन्दूओं की दुर्दशा हो गई.
साम्यवादी हिन्दू अपने आपको सच्चा साम्यवादी (नास्तिक) दिखाने के लिए मूर्तिपूजा का बिरोध करते, देवी -देवताओं की गाथा का उपहास उड़ाते, रामायण -महाभारत को काल्पनिक बताते, और तो और गौमांस तक खा लेते थे. जबकि किसी साम्यवादी मुस्लिम ने कुरआन, शरीयत, खतना, तीन तलाक, हलाला, आदि के खिलाफ नहीं बोला और न ही सूअर का मांस खाया. किसी साम्यवादी सिक्ख ने भी पगड़ी अथवा पांच ककार का त्याग नहीं किया.
इन लोगों ने अन्य लोगों को धमकाने के लिए नक्सलवाद को जन्म दिया और उसका इस्तेमाल राष्ट्रवादियों को ख़त्म करने में किया. वामपंथियों का बैसे भी घोषवाक्य यही है कि “सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है" पश्चिम बंगाल और केरल में इनका, कई दशक का शासनकाल, गुंडागर्दी, हत्याओं और अपहरण के कारोबार का जीता-जागता सबूत है. वनवाशी क्षेत्रों में भी इन लोगो ने नक्शल वाद में माध्यम से बहुत नुकशान पहुंचाया है.
इतना कुछ झेलने के बाद, आज हिन्दू जाग उठा है और उसने राष्ट्रवाद को अपनाते हुए धीरे-धीरे साम्यवाद (कन्युनिस्ट पार्टियों ) तथा मध्यमार्ग का दिखावा करने वाले नकली साम्यवाद (कांग्रेस) को देश से उखाड़ना शुरू कर दिया है. आज देश के सर्वाधिक हिस्से में राष्टवाद व्याप्त हो चुका है केवल तोड़े बहुत हिस्से में ही साम्यवाद बचा है . उन जगहों पर भी आने वाले समय में साम्यवाद समाप्त हो जाएगा और केवल राष्ट्रवाद ही रह जाएगा.

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