स्वाभिमानी वीर भाई महताब सिंह और भाई सुक्खा सिंह की वीरता को सादर नमन
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किसी जालिम का नाम लेते समय अक्सर उसकी तुलना नादिर शाह से की जाती है. लेकिन नादिर शाह के अधिनस्त नबाब / सूबेदार लोग भी कोई कम जालिम और अधर्मी नहीं थे. लाहौर का सूबेदार जकारिया खान बहुत ही जालिम और अधर्मी था. उसने सिक्खों पर बहुत जुल्म किये. सिक्खों का सर काटकर लाने वालों को बहुत इनाम दिया करता था.
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किसी जालिम का नाम लेते समय अक्सर उसकी तुलना नादिर शाह से की जाती है. लेकिन नादिर शाह के अधिनस्त नबाब / सूबेदार लोग भी कोई कम जालिम और अधर्मी नहीं थे. लाहौर का सूबेदार जकारिया खान बहुत ही जालिम और अधर्मी था. उसने सिक्खों पर बहुत जुल्म किये. सिक्खों का सर काटकर लाने वालों को बहुत इनाम दिया करता था.
जकारिया खान के सिपाही भी गांव-गांव घूम कर सिखों को पकड़ लाते और फिर उन्हें लाहौर की घोड़ों की मण्डी में लाकर, सार्वजनिक रूप से कत्ल कर दिया जाता था. इससे उस स्थान का नाम "शहीदगंज' विख्यात हो गया था. जुल्म से परेशान होकर बहुत से हुए सिक्ख पहाड़ों, जंगलों तथा रेगिस्तानी इलाकों में छिपने के लिए विवश हो गए.
लेकिन फिर भी ये लोग मौक़ा मिलते ही अपने ठिकानो से निकलकर अक्सर मुगल सैनिको पर हमला करते और फिर छुप जाते थे. उन केशधारी सिक्खों को सामान्य हिन्दू-समाज से भी छुपने और जीवन यापन में सहायता मिलती रहती थी. यहां तक कि पंजाबी हिन्दू परिवारों में यह प्रथा ही बन गयी कि अपने बड़े बेटे को वे सिख पंथ को अर्पित कर देते थे.
नादिरशाह के निर्देश पर जकरिया ने सिखों के विरुद्ध अपने अभियान को और ज्यादा तेज कर दिया था. उसने अम्रतसर के दरबार साहब के आसपास सैनिक चौकियां बिठा दीं और किसी भी सिक्ख और हिन्दू के लिए यहाँ प्रवेश निषेध कर दिया. उसने इस इलाके का जिम्मा मस्सा खान रंगर को दे दिया जो उसी की तरह जालिम और अय्याश था.
उसने दरबार साहिब के आस-पास के सारे पवित्र क्षेत्र को अस्तबल बना दिया और श्री हरिमंदिर साहब को दुराचार का अड्डा बना दिया. जिस स्थान पर श्री गुरुग्रंथ साहब का पाठ होता था वहां पर वो चारपाई डालकर बैठकर हुक्का पीता था और सामने वैश्याएं नाचतीं थी. इस प्रकार उसने महान पवित्र स्थान को अय्याशी के अड्डे में बदल दिया.

उनके सवाल पर उस व्यक्ति ने भाई महताब सिंह पर व्यंग्य करे हुए कहा - "नहीं अब वहां कोई स्वाभिमानी सिक्ख नहीं है सब अपनी जान बचाने के लिए राजस्थान भाग आये हैं. समाचार-वाहक की यह बात उसके दिल को हिला गई. वह तत्काल उठ खडे हुए और तलवार उठाकर बोले- "ठीक है, मैं जाऊंगा और मस्सा रंगड़ का सर काट कर आऊंगा'
उनके एक मित्र "भाई सुक्खा सिंह" भी उनके साथ चलने को तैयार हो गए और अपने घोड़ों पर सवार होकर अमृतसर की ओर चल पड़े. अमृतसर के निकट एक स्थान पर रूककर उन्होंने मुसलमानों का वेश धारण कर ऐसा रूप बना लिया जैसे वे कोई मुसलमान लम्बरदार हों और अपने इलाके का भूमिकर (लगान ) अदा करने के लिए जा रहे हों .
अमृतसर पहुंचने के बाद श्री हरिमंदिर साहब के क्षेत्र में दाखिल होते समय पहरेदारों से कहा कि हम अपने इलाके का लगान देने के लिए आये हैं और जल्दी ही वापस भी लौटना चाहते हैं. तब उनको अन्दर जाने की अनुमति मिल गई. अपने घोड़े उन्होंने मुख्य द्वार पर बांध दिए. भाई सुक्खा सिंह दरवाजे के पास खड़े हो गए और भाई महताब सिंह अन्दर चले गए.

उधर मस्सा रंगड़ के कई साथियों को सुक्खा सिंह ने यमलोक पहुंचा दिया. शेष भयभीत होकर भाग खड़े हुए. इसके पूर्व कि लोग कुछ संभल पाते, दोनों वीर मस्सा का सर एक थैले में डाल बड़ी तेजी के साथ बाहर निकल आए और घोड़ों को एड़ लगाकर दुश्मनों की आंखों से ओझल हो गए. पहरेदार इतना
डर गए थे कि उनका पीछा करने का किसी को साहस ही न हुआ.
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