Saturday, 20 May 2017

रुस्तम-ए-ज़मां, पहलवान "गामा"



'रुस्तम-ए-ज़मां' गामा के जन्मदिन (22 मई ) और पुण्यतिथि (21 मई ) पर श्रद्धांजली *************************************************************************************
भारतीय ही नहीं बल्कि विश्व कुश्ती में भारत के 'रुस्तम-ए-ज़मां' गामा पहलवान का नाम अमर है. लेकिन आज की पीढ़ी उन महान खिलाड़ियों की भूलती जा रही है . शारीरिक ताक़त के लिए जिस प्रकार आजकल “दारा सिंह” की मिसाल दी जाती है, कुछ समय पहले तक 'गामा पहलवान' का नाम लिया जाता था. गामा को 'शेर-ए-पंजाब', रुस्तम-ए-हिन्द, 'रुस्तम-ए-ज़मां' (विश्व केसरी) और 'द ग्रेट गामा' जैसी उपाधियाँ दी गयीं. गामा शायद विश्व के एक मात्र पहलवान थे जिन्होंने अपने जीवन में कोई कुश्ती नहीं हारी थी .
गामा का असली नाम गुलाम मोहम्मद था. उनका जन्म 22 मई 1880 को अम्रतसर में, एक कुश्तीप्रेमी मुस्लिम परिवार में हुआ था. उन के पिता ' मुहम्मद अज़ीज़' और भाई 'इमामबख़्श' भी पहेलवान थे. गामा और उनके भाई 'इमामबख़्श' ने शुरू-शुरूमें कुश्ती के दांव-पेच पंजाब के मशहूर 'पहलवान माधोसिंह' से सीखने शुरू किए. दस वर्ष की उम्र में गामा ने जोधपुर ( राज.) में कई पहलवानों के बीच शारीरिक कसरत के प्रदर्शन में भाग लिया. वहां गामा को उनकी अद्भुत शारीरिक क्षमताओं को देखते हुए पुरस्कृत किया गया.
गामा की क्षमताओं को देखते हुए दतिया के “महाराजा भवानीसिंह” ने गामा और उनके भाई को पहलवानी की सारी सुविधायें प्रदान की. प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद मात्र 19 साल की उम्र में , गामा ने रुस्तम-ए-हिन्द “पहलवान रहीमबख़्श' को चुनौती दे डाली. यह कुश्ती 'ऐतिहासिक घंटों तक चली और अंत में बराबर छूटी. अगली बार जब गामा और रहीमबख़्श की कुश्ती हुई तो गामा ने रहीमबख़्श को हरा दिया. तीस साल का होते होते भारत के लगभग सभी बड़े पहलवानों को हराकर वे एक विख्यात पहलवान बन चुके थे.
1910 में बंगाल के एक लखपति 'सेठ शरदकुमार मित्र' कुछ भारतीय पहलवानों के साथ उनको और उनके भाई लन्दन लेकर गए . लन्दन के पहलवान गुलाम भारत के पहलवानों को अपने बराबरी का नहीं मानते थे इसलिए उन्होंने भारतीय पहलवानों से मुकाबला करने से मना कर दिया. तब गामा ने अंग्रेज पहलवानों को खुली चुनौती दे डाली कि - जो पहलवान अखाड़े में मेरे सामने पाँच मिनट तक टिक जाएगा, उसे 'पाँच पाउंड' नकद इनाम दिया जाएगा. कई छोटे-मोटे पहलवान गामा से लड़ने को तैयार हुए लेकिन टिक नहीं सके.
उसके बाद गामा ने सभी को खुली चुनौती दी. अमेरिका के पहलवान 'बैंजामिन रोलर' ने चुनौती स्वीकार की. गामा ने रोलर को 1 मिनट 40 सेकेण्ड में पछाड़ दिया. गामा और रोलर की दोबारा कुश्ती हुई, जिसमें रोलर 9 मिनट 10 सेकेण्ड ही टिक सका. तब दंगल के आयोजकों के कान खड़े हुए और उन्होंने गामा को सीधे विश्व विजेता “स्टेनली जिबिस्को” से लड़ने को कह दिया. 10 सितम्बर 1910 को गामा और 'स्टेनिस्लस ज़िबेस्को' की कुश्ती हुई, 1मिनट से भी कम समय में गामा ने स्टेनिस्लस ज़िबेस्को को नीचे दबा लिया.
जेबिसको ढाई घंटे बैसे ही पडा रहा उसको डर था कि ज़रा भी दांव चला तो गामा उसे चित कर देगा. वह कुश्ती को अनिर्णीत घोषित की गई और फैसले के लिए दूसरे दिन की तारीख़ तय की गई. दूसरे जिबिस्को मैदान में ही नहीं आया और आयोजको को “गामा” को विश्व-विजयी घोषित करना पडा. 17 सितम्बर 1910 को दोबारा उनके बीच कुश्ती की घोषणा हुई, लेकिन ज़िबेस्को गामा का सामना करने नहीं पहुँचा. गामा को विजेता घोषित कर दिया गया और इनाम की राशि के साथ ही 'जॉन बुल बैल्ट' भी गामा को दे दी गई.
इस यात्रा के दौरान गामा ने अनेक पहलवानों को धूल चटाई, जिनमें 'बैंजामिन रॉलर', 'मॉरिस देरिज़, 'जोहान लेम' और 'जॅसी पीटरसन' जैसे नामी पहलवान थे. इसके बाद गामा ने कहा कि वो एक के बाद एक लगातार बीस पहलवानों से लड़ेगा लेकिन कोई सामने नहीं आया. 1922 में गामा का फिर जिबेसको से मुकाबला पटियाला में हुआ, इस बार गामा ने केवल ढाई मिनट में ही जिबिस्को को पछाड़ दिया. इंग्लैंड के 'प्रिंस ऑफ़ वेल्स' ने 1922 में भारत की यात्रा के दौरान गामा को चाँदी की बेशक़ीमती 'गदा' प्रदान की.
1928 में गामा का मुक़ाबला पटियाला में एक बार फिर ज़िबेस्को से हुआ जिसमे 42 सेकेण्ड में गामा ने ज़िबेस्को को धूल चटा दी. गामा की विजय के बाद पटियाला के महाराजा ने गामा को आधा मन भारी चाँदी की गदा और '20 हज़ार रुपये' नकद इनाम दिया. 1929 में गामा ने 'जेसी पीटरसन' को डेढ़ मिनट में पछाड़ दिया. इसके बाद गामा को किसी ने चुनौती नहीं दी. गामा अपने पहलवानी जीवन में हमेशा अजेय रहे, जो किसी भी पहलवान के लिए आज भी असम्भव है.
इतनी महान उपलब्धियों के बाबजूद उनका आखिरी समय बहुत मुश्किल रहा. भारत में उनको बहुत ही प्यार, सम्मान और ईनाम मिला लेकिन फिर भी देश आजाद होते समय उनको भी अन्य कई मुसलमानों की तरह यह लगा कि – हिन्दुस्थान में उनके साथ अन्याय होगा और इस्लामी देश पापिस्तान में उनको खुशहाली मिलेगी, मगर हुआ उसका उलट. हिन्दुस्थान में जहाँ उनको सब कुछ मिला वो सब पापिस्तान में छीन लिया गया. पापिस्तान में उस महान पहलवान को गुमनामी में धकेल दिया गया.
उनका सगा भाई जो उनकी कुश्तिया और ईनाम मैनेज करता था वो उनकी सारी दौलत को दाबकर बैठ गया. (पापिस्तान के वर्तमान प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पत्नी गामा के भाई की ही नातिन है ). आख़िरी दिनों में गामा को रावी नदी के किनारे एक छोटी-सी झोंपड़ी बनाकर रहना पड़ा. अपनी अमूल्य यादगारों और तमग़े बेच-बेचकर अपनी ज़िन्दगी के आखिरी दिन गुज़ारने पड़े. वहां गामा को पूंछने वाला कोई नही था. किसी पत्रकार को उनके बारे में पता लगा तो उसने उनकी कहानी को अखबार में छापा.
उनकी हालत की ख़बर पाकर भारतवासियों का दु:खी होना स्वाभाविक था. भारत से अनेको हाथ “गामा’ की मदद को उठे, जिनमे महाराजा पटियाला और बिडला बंधू प्रमुख थे. बीमारी, उपेक्षा, धोखे, आदि से त्रस्त होकर, वह महान पहलवान 21 मई, 1960 को दुनिया से प्रस्थान कर गया. जो महान इंसान दुनिया में किसी बड़े से बड़े पहलवान से नहीं हारा, वो अपनों की उपेक्षा से हार गया. जब गामा जैसी महान हस्ती के साथ ऐसा हुआ तो सोंचिये भारत से पापिस्तान गए अन्य लोगों के साथ क्या हुआ होगा ?

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