कई बार विवाह के बाद पति पत्नी के बिचार नहीं मिलते हैं और उनमे झगडे होने लगते हैं. इन झगड़ों को ख़त्म करने के लिए उन दोनों को अलग करना जरुरी हो जाता है. पति पत्नी का रिश्ता ख़त्म कर दम्पत्ति का अलग हो जाना "तलाक" या "विवाह बिच्छेद" कहलाता है.
आज के समय में हमारे देश में अलग अलग समुदायों के लिए "तलाक" के अलग अलग नियम है. इन सभी नियमो में ऐसी कई विसंगतियां है जिनकी बजह से कहीं पुरुष तो कहीं महिला के मानवाधिकार का हनन होता है. इन पर अब गंभीरता से बिचार करना चाहिए.
तलाक को लेकर एक गंभीर चर्चा होनी चाहिए. इस पर हिन्दू / मुस्लिम / इसाई आदि से अलग हटकर सर्वमान्य नियम बनाने चाहिए. जो दम्पत्ति साथ नहीं रहना चाहते उनकी परेशानी और आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, नए नियम बनाने की आवश्यकता है.
जहाँ मुस्लिम समाज में "तलाक" के नियम मुस्लिम महिलाओं के मानवाधिकार का हनन करते हैं, वहीँ हिन्दू समाज के लिए तलाक के नियम इतने जटिल हैं कि- इसमें कई साल निकल जाते और अलग होने के बाद दोबारा शादी करने की उनकी उम्र ही निकल जाती है .
इसके अलावा अपने अपने आपको, कानूनी शिकंजे से बचाने के लिए महिला पुरुष पर दहेज़ का झूठा आरोप लगाने तथा पुरुष महिला के चरित्र पर झूठा आरोप लगाने को मजबूर होता है. अधिकतर ऐसे मामले झूठे होते हैं जो वकीलों के कहने पर डाले जाते हैं.
कई बार तो झूठे / सच्चे आरोपों का ऐसा खतरनाक दौर चलता है जिसमे उस दम्पत्ति के परिवार वाले तथा रिश्तेदार भी प्रताड़ित हो जाते हैं. कई बार तो ऐसे मामलो की परिणति हत्या तथा आत्महत्या के रूप में भी होती है, जो तलाक से भी ज्यादा बुरी स्थिति है.
तलाक को लेकर एक गंभीर बिचार विमर्श होना चाहिए, जिसमे समाज शास्त्री, कानूनविद, धर्मगुरु, तलाक से गुजरे लोग, आदि भी शामिल होने चाहिए. विचार विमर्श करने के बाद ऐसे सरल नियम बनाए जाएँ, जिससे किसी को भी कोई ज्यादा तकलीफ न होने पाए.
कृपया इस पोस्ट साम्प्रदायिक अथवा जातीय नजरिये से न देखा जाए. इस पर केवल मानवाधिकार के नजरिये से बिचार किया जाए.
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