Wednesday, 31 May 2017

पुष्यमित्र शुंग

सनातन धर्म के महान रक्षक “
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चक्रवर्त्ती “सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य” और उनके पोते “सम्राट अशोक” ने अपने बाहुवल और राजगुरु चाणक्य के बुद्धिबल के योग से एक शक्तिशाली साम्राज्य खडा किया था. लेकिन अशोक का मन युद्ध से उचट जाने और बौद्ध बन जाने के बाद, सनातन धर्म की उपेक्षा होने लगी तथा बौद्ध मत को महिमामंडित तथा बौद्धों का तुष्टीकरण होने लगा.

सनातन धर्म को मानने वालों को, अपना धर्म छोकर बौद्ध बनने पर मजबूर किया जाने लगा था.अशोक के शासनकाल में तो लोग मजबूरी में खामोश रहे लेकिन अशोक के कमजोर उत्तराधिकारियों के समय में अनेको राजा सर उठाने लगे. मौर्यवंश के सबसे कमजोर शासक “वृहदरथ” के समय तक बिदर्भ, कलिंग, स्यालकोट जैसे कई राज्य स्वतंत्र हो गए.

अहिसावादी होने के कारण बौद्ध लोग सेना तथा सैनिकों को सम्मान नहीं देते है इस कारण सेना में भी बौद्ध शासको के खिलाफ “बगावत” की भावना पनपने लगी थी. साम्राज्य पर मौर्य बंश की पकड़ कमजोर होने लगी थी. “वृहदरथ” के कुशासन से परेशान प्रजा, राजा “वृहदरथ” से ज्यादा उसके सेनापति “पुष्यमित्र शुंग” को पसंद करती थी.
सेना और जनता का दिल जीत चुके सेनापति पुष्यमित्र शुंग” ने एक दिन राजा वृहदरथ का बध कर दिया और स्वयं राजा बन गया. देश की जनता और सेना राजा “वृहदरथ” इतना ज्यादा निराश थी कि – उसने ख़ुशी से “पुष्यमित्र शुंग” को अपना राजा स्वीकार कर लिया. राजा बनते ही “पुष्यमित्र शुंग” ने सनातन धर्म को पुनः स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया.
“पुष्यमित्र शुंग” जन्म से ब्राह्मण था और कर्म से क्षत्रीय. उसने सेना को पुनः सगठित किया और स्वतंत्र हो चुके बिदर्भ, कलिंग, स्यालकोट, आदि राज्यों को फिर से मगध में मिला लिया. “पुष्यमित्र शुंग” के समय में यवनों के भी कई हमले हुये मगर अपनी वीरता और चतुराई से उसने हर हमले को नाकाम कर यवनों को भागने पर मजबूर कर दिया. “पुष्यमित्र शुंग”  के शासन काल में बौद्ध बने सनातनियों ने पुनः घर वापसी कर ली 
“पुष्यमित्र शुंग” ने वैदिक / सनातन धर्म की स्थापना के लिए बहुत काम किये. उसने जगह जगह मंदिर और यग्यशालाओं का निर्माण किया. बौद्ध शासन में बंन्द कर दिए गए प्राचीन वैदिक / सनातन धर्म के अनुष्ठान करने प्रारम्भ कर दिए गए. अपने राज्य का विस्तार करने के लिए उसने रामायण में वर्णित “अश्वमेघ यग्य” का दो बार आयोजन किया.
इस यग्य के प्रधान पुरोहित महर्षि “पतंजली” थे. उनके यग्य के घोड़े को सिन्धू नदी के तट पर यवनों ने पकड़ लिया था तब उनके पौत्र “वसुमित्र” ने भीषण युद्ध में यवनों को परास्त कर घोड़े को छुडाया और सिंध तक मगध राज्य का विस्तार किया. कुछ बर्ष बाद उन्होंने पुनः अश्वमेघ यग्य किया, लेकिन तब किसी ने घोड़े को पकड़ने का साहस नहीं किया.
उनके समय में योग और आयुर्वेद का बहुत विकास हुआ. सड़कों के किनारे छायादार ब्रक्ष लगवाये गए. मार्ग में हर पांच कोस की दूरी के बाद एक छोटी सी चौकी बनाई जहाँ व्यापारी अपने काफिले के साथ सुरक्षित रूप से, रात्री विश्राम कर सकें. “पुष्यमित्र शुंग” के शासन काल में भारत पुनः एक शक्तिशाली और सम्रद्ध राष्ट्र बन गया था.

पुष्यमित्र की महानता का सबसे बड़ा परिचय इस बात से मिलता है कि - उसके राज में सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार करते हुए भी, कभी महात्मा बुद्ध का अपमान नहीं किया गया और बल्कि महात्मा बुद्ध को भी विष्णु का अवतार घोषित कर, उनको भगवान् का दर्जा दिया गया. उसके राज में किसी भी बौद्ध मठ और स्तूप में कोई छेड़छाड़ की गई.
“पुष्यमित्र शुंग” में बौद्ध मठों और स्तूपों को भी भगवान का घर कह कर सम्मान दिया गया और उनको भी तीर्थ घोषित किया गया. पुष्यमित्र के शासन काल में बौद्ध बने ज्यादातर सनातनियों ने पुनः घर वापसी कर ली थी लेकिन वे लोग सनातन धर्म के देवी देवताओं की तरह, भगवान् बुद्ध की पूजा करने के लिए भी स्वतंत्र थे
पुष्यमित्र ने 36 वर्ष (185-149 ई. पू.) तक राज्य किया. उसका साम्राज्य हिमालय से नर्मदा नदी तक और सिन्धु से पूर्वी समुद्र तक विस्तृत था. पुष्यमित्र एवं उसके उत्तराधिकारियों के शासनकाल में लगाए गए शिलालेखों से उसके समय में विशाल, मजबूत और सम्रद्ध भारतबर्ष का परिचय मिलता है. सनातन धर्म के महान रक्षक की जय हो.

गुरु अर्जुनदेव

गुरु अर्जुनदेव के शहीदी दिवस ( जेष्ठ शुक्ल चतुर्थी ) पर भावभीनी श्रद्धांजली
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सिक्ख गुरु परम्परा में "गुरु अर्जुनदेव" पांचवें स्थान पर आते हैं. गुरु अर्जन देव सिक्खों के चौथे गुरु, "गुरु रामदास" के पुत्र थे. उनका जन्म 15 अप्रैल 1563 गोइंद्वाल साहब में हुआ था. वे सन 1581 ई. में गुरू गद्दी पर बैठे थे . पवित्र ग्रन्थ 'गुरु ग्रंथ साहब' आज जिस रूप में उपलब्ध है, उसका संपादन "गुरु अर्जुनदेव" जी ने ही किया था.
आध्यात्मिक जगत में "गुरु अर्जुनदेव" जी को बहुत ऊंचा स्थान प्राप्त है. उन्हें ब्रह्मज्ञानी भी कहा जाता है. ग्रंथ साहिब का संपादन गुरु अर्जुन देव जी ने भाई गुरदास की सहायता से 1604 में किया था. गुरुग्रंथ साहिब में तीस रागों में गुरु जी की वाणी संकलित है. गणना की दृष्टि से श्री गुरुग्रंथ साहिब में सर्वाधिक वाणी पंचम गुरु की ही है.
अमृतसर के स्वर्ण मंदिर और तरन तारन के भव्य गुरुद्वारे के साथ विशाल सरोवर बनवाने का श्रेय भी उनको को ही जाता है. गुरु अर्जुन देव का बहुत ज्यादा प्रभाव था. उनके शिष्यों में सिक्ख और हिन्दुओं के अलावा बहुत से मुस्लिम भी शामिल हो गए थे. गुरु जी का बढ़ता प्रभाव सत्ता से नजदीकी वाले (अ)धार्मिक नेताओं को रास नहीं आ रहा था.
उन दिनों दिल्ली पर अकबर का शासन था. कुछ असामाजिक तत्वों ने अकबर बादशाह के पास यह शिकायत की कि - ग्रंथ में इस्लाम के खिलाफ लिखा गया है. अकबर ने जांच करने पर शिकायत को झूठा पाया, लेकिन अकबर का पुत्र जहांगीर गुरु अर्जुन देव के खिलाफ ही रहा और उनके खिलाफ कार्यवाही करने का मौक़ा तलाश करने लगा.
अकबर की म्रत्यु के बाद जहांगीर दिल्ली का शासक बना. वह बहुत ही ज्यादा कट्टर था, उसे अपने धर्म के अलावा, कोई अन्य कोई धर्म पसंद नहीं था. जहाँगीर ने अपने चापलूस "चंदू" के माध्यम से कहलवाया कि - अपने ग्रन्थ में मोहमद साहिब की स्तुति लिखनी होगी, जिसे गुरु अर्जुन देव ने अस्वीकार कर दिया.
इसी बीच जहाँगीर के एक बेटे खुसरो ने बगावत कर दी थी. खुसरो ने गुरु अर्जुन देव से सहायता मांगी. जहाँगीर को यह शक था कि - गुरू जी ने बाग़ी शहजादा खुसरो की मदद की थी. शेखुलर इतिहासकार जिस जहाँगीर को इन्साफ का पुजारी बताते है, उस जहाँगीर ने बिना "गुरु जी" पक्ष जाने को यातना देकर मारने का फरमान दे दिया.
जहागीर के चमचे "चंदू" ने गुरु जी को अकेले बुलाकर लालच दिया कि - अगर आप मेरी बेटी का रिश्ता अपने बेटे के साथ कर दें और अपने ग्रंथ में मोहमद साहिब की स्तुति लिखने को तैयार हों तो मैं आपकी सजा माफ़ करा दूंगा. इस पर गुरुजी ने कहा - प्राणी मात्र के उद्धार के लिए हमें करतार से जो प्रेरणा मिलती है इसमें हम केवल वही लिख सकतें हैं.
तब उनको गर्म तबे पर बिठाया गया, गर्म रेत डाली गई, देग में गर्म पानी में उबाला गया मगर गुरुजी सारी यातनाएं झेलने के बाद भी अधर्मियों के आगे नहीं झुके. अगले दिन फिर जहाँगीर का चमचा "कमीना चंदू" फिर अपनी बात मनाने के लिए गुरु जी के पास पहुँचा तो गुरु जी ने उससे रावी में स्नान करने की इच्छा व्यक्त की.
अनुमति मिलने पर गुरु जी पांच सिखों सहित रावी तट पर आ गए और "जपुजी साहिब" का पाठ करके "भाई लंगाह" को कहा कि - अब हमरी परलोक गमन कि तैयारी है. आप जी श्री हरिगोबिंद को धैर्य देना और कहना कि शोक नहीं करना, करतार का हुकम मानना. हमारे शरीर को जल प्रवाह ही करना, संस्कार नहीं करना.
इसके पश्चात गुरु जी ने रावी में प्रवेश करके अपना शरीर त्याग दिया. उस दिन ज्येष्ठ सुदी चौथ संवत 1553 विक्रमी थी. गुरु जी का ज्योति ज्योत समाने का सारे शहर में बड़ा शोक बनाया गया. गुरु जी के शरीर त्यागने के स्थान पर गुरुद्वारा "ढ़ेरा साहिब" लाहौर के शाही किले के पास ही विद्यमान है. गुरु जी की धर्मनिष्ठा को कोटि कोटि नमन

महारानी अहिल्याबाई होलकर

रानी अहिल्याबाई छोटे से राज्य इंदौर की रानी थी, लेकिन उन्होंने जिस तरह से अपने राज्य का कुशल संचालन किया तथा उसे सशक्त और सम्रद्ध बनाया, उसके लिए उनका नाम महान साम्राज्ञी के रूप में लिया जाता है. उन्होंने मुग़ल काल में तोड़े गए अनेको मंदिरों का पुनरुद्धार कराया था, इसके लिए उनको हिन्दू ह्रदय साम्राज्ञी भी कहा जाता है.
अहिल्याबाई का जन्म 31 मई सन् 1725 में एक साधारण परिवार में हुआ था, लेकिन उनकी विद्वता से प्रभावित होकर, इन्दौर के महाराजा "मल्हार राव होल्कर" ने अपने पुत्र "खंडेराव" का विवाह उनसे से करवा दिया. उनके एक पुत्र (मालेराव) और एक पुत्री (मुक्ताबाई) थी. राजा मल्हार राव ने अपनी पुत्रबधू को सैन्य प्रशिक्षण भी दिल्बाया.

जब वे मात्र 29 बर्ष की थीं और बच्चे भी बहुत छोटे थे, तब ही सन 1754 में उनके पति "खंडेराव" का देहांत हो गया. पति के देहांत के बाद उन्होंने राज्य का संचालन सम्हाला और अपने स्वसुर के मार्गदर्शन में, उन्होंने इतनी कुशलता से राज्य का प्रशासन चलाया कि - उनकी गणना आज दुनिया के आदर्श शासकों में की जाती हैं.
रानी अहिल्याबाई भगवान शिव की भक्त थीं. उन्होंने भगवान् शिव को राज्य का राजा घोषित किया था तथा स्वयं उनकी सेविका बनकर राज्य का संचालन किया. उनका रहन-सहन बिल्कुल सादा था. जितनी कुशकता से वे राज्य का संचालन करती थी उतनी ही निष्ठा से वे भगवान का पूजन और श्रेष्ठ धर्मग्रंथो का अध्ययन करती थीं.
उन्होंने अपने राज्य के प्रशासन को जिला, तहसील और पंचायत में बाँट दिया. जिलों का कार्य उनके मंत्री देखते थे लेकिन अंतिम निर्णय रानी अहिल्याबाई का ही होता था. उनके शासन में व्यवसाय का बहुत विस्तार हुआ. दूर दूर से आकर कारीगर वहां बसने लगे और देखते ही देखते मालवा बस्त्र निर्माण का केंद्र बन गया.
उस समय नियम था कि पति की म्रत्यु के बाद यदि पुत्र न हो तो सम्पति पर सरकार का कब्जा हो जाता था उन्होंने विधवा को सम्पत्ति का अधिकार दिलवाया. वे युद्ध के समय में हाथी पर बैठकर स्वयं युद्ध का नेत्रत्व करती थीं. वे भगवान शिव की भक्ते थीं और इसलिए उन्हों ने 1777 में विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया.
इसके अलावा उन्होंने काशी, गया, सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, द्वारिका, बद्रीनारायण, रामेश्वर, जगन्नाथ पुरी इत्यादि प्रसिद्ध तीर्थस्थानों पर मंदिर बनवाए और तीर्थयात्रियों के लिए धर्म शालाएं खुलवायीं. कलकत्ता से बनारस तक की सड़क, बनारस में अन्नपूर्णा का मन्दिर , गया में विष्णु मन्दिर उनके बनवाये हुए हैं.
इसके अतिरिक्त इन्होंने अनेको नदियों पर घाट बनवाए, कुओं औरबावड़ियों का निर्माण करवाया, मार्ग बनवाए, भूखों के लिए अन्नक्षेत्र (लंगर) खोले, प्यासों के लिए प्याऊ बिठलाईं, मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति की तथा शास्त्रों के मनन-चिंतन और 
प्रवचन की भी अनेकों व्यवस्थाएं कीं. 13 अगस्त सन् 1795 को उनका स्वर्गवास हो गया.

Sunday, 28 May 2017

गौ-ह्त्या का उद्देश्य

गौ-ह्त्या का उद्देश्य : सस्ता मांस नहीं बल्कि हिन्दुओं को अपमानित करना है
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भारत में प्राचीन काल में गौ-हत्या होती थी या नहीं, यह विवाद का बिषय हो सकता है लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि - महाभारत काल (श्री कृष्ण के समय) से गौ-ह्त्या पूर्ण रूप से प्रतिबंधित हो गई थी और गायों को पूजने की परम्परा बन गई थी. तब से लेकर अब तक भारतीयों द्वारा गाय को देवी का दर्जा मिला हुआ है.
भारत में गौ-हत्या और गौ-मांस भक्षण मोहम्मद गौरी के आक्रमण के बाद प्रारम्भ हुआ. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की सलाह मानकर, गायों को आगे रखकर हिन्दुओं पर हमला करके ही गौरी ने बिजय पाई थी. उसने हारे हुए हिन्दुओ को मुसलमान समय, उनकी धार्मिक आस्था को तहस नहस करने के लिए गौ-मांस खिलाया था.
हिन्दुओं को गौ-मांस खिलाने का उद्देश्य, प्रोटीन खिलाकर तगड़ा बनाना नहीं था बल्कि उनकी धार्मिक आस्था को मटियामेट करना था. जैसे कभी किसी से लड़ाई होने पर किसी के द्वारा किसी की माँ अथवा बहन को गाली देना, उसकी माँ अथवा बहन के साथ कुछ करना नहीं होता है बल्कि सामने वाले बिरोधी के स्वाभिमान पर चोट करना होता है.
पहले कई बार पढने / सुनने को मिलता था कि - बकरीद के मौके पर मुस्लिम बहुल इलाकों में गायों को सरेआम सड़कों पर दौडाया, उनको घायल किया और सरेआम काट दिया. वो उनका कोई धार्मिक रिवाज नहीं था बल्कि हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए किया जाता था. राष्ट्रवादी सरकार बन्ने के बाद ऐसी खबरे आनी बंद हो चुकी हैं.
अंग्रेजों ने भी भारतीयों को अपमानित करने के लिए यही तकनीक इस्तेमाल की. उन्होंने मुह से खोलने बाले कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी लगाई. ऐसा नहीं था कि - गाय और सूअर की चर्बी से कारतूस बढ़िया हो जाता था. उनको तो सिर्फ एक चिकना और गाढा पदार्थ ही चाहिए था, जो खनिज अथवा पेट्रोलियम ग्रीस से भी काम चल सकता था.
अंग्रेजों ने जानबूझकर कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी लगाईं. अगर चर्बी जरुरी थी तो वे चाहते तो दो तरह के कारतूस भी बना सकते थे. दो अलग रंग के पैकेट बना सकते थे. कारतूस के पैकेट लाल हरे दो रंग के बना सकते थे. लाल रंग का पैकेट में सूअर की चर्बी और हरे रंग के पैकेट में गाय की चर्बी लगा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.
अंग्रेज भारतीयों की अंतरआत्मा को कुचलने, उनको गुलाम होने का बार-बार अहेसास कराने के लिए गाय और सूअर की चर्बी बाला कारतूस बनाते थे. आज भी जो लोग गौ-ह्त्या करते हैं या गौ-मांस की वकालत करते हैं उनका उद्देश मांस नहीं बल्कि हिन्दुओं को अपमानित करना तथा हिन्दुओं के स्वाभिमान को कुचलना है है.
आज केरल में कांग्रेसियों ने गाय के बछड़े को काटा है और उसका वीडियों वायरल किया है. ऐसा करके उन्होंने और कुछ नहीं बल्कि केंद्र की भाजपा सरकार को चुनौती दी है कि - आप चाहे कुछ भी कर लो हमें रोक नहीं पाओगे. ऐसी हरकतें करके कांग्रेस मुसलमानों को दिखाना चाहती है कि - केवल वही भाजपा को टक्कर देने में सक्षम है.

स्वातंत्र्यवीर सावरकर

द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम के सूत्रधार "स्वातंत्र्यवीर सावरकर" के जन्मदिवस (28 मई) पर कोटि कोटि नमन
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1857 की क्रान्ति की असफलता के बाद अधिकाँश भारतीय निराश होकर बैठ गए थे. वे यह मान चुके थे कि अंग्रेजों को पराजित करना असंभव है. तब पचास साल बाद महान स्वतंत्रता सेनानी "स्वतंत्र्यवीर सावरकर" ने देश को इस भ्रम से निकालने और देश को पुनः एक और बड़ी क्रान्ति के लिए खडा करने का कार्य किया. स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर ने अपना सारा जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया था.
बहुत से लोग यह समझते हैं कि - देश में आजादी के आन्दोलन की शुरुआत कांग्रेस और गांधीजी ने की थी. जबकि 1885 में जन्मी कांग्रेस का अपने जन्म के तीन दशक बाद तक, इसमें कोई योगदान नही था. कान्ग्रेस पार्टी अंग्रेजों द्वारा बनाये गये, अंग्रेज टाईप भारतीयों का क्लब मात्र थी. गांधी जी तो भारत में आये ही 1915 में थे. कांग्रेस के संस्थापक महासचिव एक अंग्रेज "ए ओ ह्यूम" थे, यह मात्र एक कुलीन वर्ग की संस्था थी. आजादी की लड़ाई में कांग्रेस बहुत बाद में शामिल हुई थी.
वीर सावरकर द्व्रारा "अभिनव भारत" की स्थापना, पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली, "1857 - प्रथम स्वातंत्र समर" ग्रन्थ लिखना, नाशिक षड्यंत्र, कालापानी की सजा आदि जैसी बड़ी घटनाओं के होने के समय तक तो गांधीजी का भारत में आगमन तक नही हुआ था. "सावरकर" ने 1904 में "अभिनव भारत" नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की थी, जिसने देशविदेश में क्रान्ति की लहर पैदा करदी थी.
1905 में उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई (गांधीजी से बहुत पहले) . सावरकर ने अंग्रेजों द्वारा प्रचारित ग़दर से सम्बंधित घटनाओं का अध्ययन कर उनका भारतीय सोंच के साथ बिश्लेषण किया और "गदर" को "भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम" सिद्ध किया. 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई थी, जिसने विदेशों में रह रहे भारतीय भी माहौल बनाया.
उन्होंने "1857- प्रथम स्वातंत्र समर" नाम का ग्रन्थ लिखकर देशवाशियों में क्रान्ति की ज्वाला को भड़का दिया था. सभी क्रांतिकारी उसका धर्मग्रन्थ जैसा सम्मान करते थे. इसके लिए अंग्रेजों ने उन्हें कालापानी जेल भेज दिया, कालापानी का जेल अधीक्षक "मिर्जाखान" क्रांतिकारियों पर बहुत जुल्म करता था. मिर्जाखान ने उन पर भी खूंखार कैदियों की तरह अमानवीय अत्याचार किये. 4- जुलाई,1911 से लेकर 21 मई, 1921 तक दस साल पोर्ट ब्लेयर की "कालापानी" जेल में रहकर अमानवीय यातनाएं झेलीं.
देश को आजादी दिलाने में उनके ग्रन्थ का बहुत बड़ा योगदान था. इस ग्रन्थ को चोरी छुपे छपवाना और प्रचारित करना उस युग में महान क्रांतिकारी कार्य माना जाता था. सावरकर के ग्रन्थ से नाराज अंग्रेज उन्हें बड़ी सजा देना चाहते थे, लेकिन किताब लिखना इतना बड़ा गुनाह नहीं था कि उन्हें उम्रकैद/फांसी दी जा सके, इसलिए उन्हें "नासिक" के कलेक्टर "जैकसन" की हत्या के षडयंत्र का आरोप लगाकर कालापानी की सजा दी गई थी,
आजाद भारत में कांग्रेस सरकार ने भी उनका महत्व कम करने की सदैव कोशिश की. 1913 की याचिका को, कांग्रेसी उनका माफीनामा बताकर देश को गुमराह करते रहते हैं, जबकि वह याचिका भी खारिज कर दी गई थी, और सावरकर को उसके 8 साल बाद तक कालापानी तथा 3 साल तक रत्नागिरी जेल में रखा गया था. जेल से रिहाई के बाद भी उनपर खुफिया पुलिस की नजर रहती थी, पहले अंग्रेज सरकार फिर नेहरु सरकार द्वारा
अंग्रेजी सरकार लम्बे समय तक केस चलाने के बाबजूद उन्हें "नासिक षड्यंत्र" में गुनाहगार साबित नही कर सकी और रिहा करना पडा. लेकिन कालापानी से रिहा होने के बाद भी तीन साल रत्नागिरी जेल में रखा गया. क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा के कहने पर, "सरदार भगत सिंह" भी "वीर सावरकर से जेल में मिले थे. सावरकर ने ही भगत सिंह को 'चन्द्र शेखर आजाद" के गुट में शामिल होने की सलाह दी थी.
सावरकर प्रारम्भ में पूरी तरह से धर्म निरपेक्ष थे. उन्होंने अपने ग्रन्थ में 1857 की लड़ाई में शामिल होने वाले सभी मुस्लिम वीरो को भी बहुत सम्मान दिया था. अंग्रेजी इतिहास में गलत बताये गए बहादुर शाह जफ़र, वाजिद अली शाह, बेगम हजरत महल, आदि को उन्होंने महान क्रान्तिकारी लिखा था. लेकिन 1921-24 में मालावार, कोहाट, मुल्तान, में हुए दंगे में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार ने उनकी सोंच को हिन्दू हितैषी बना दिया था.
सावरकर अखंड भारत के पक्षधर थे लेकिन उनका यह भी मानना था कि - अंग्रेजों को भगाने और मुसलमानों को अलग मुस्लिमराष्ट्र ( पाकिस्तान) दिए जाने के बाद, शेष भारत को हिन्दुराष्ट्र घोषित किया जाना चाहिए. सावरकर का कहना था कि - राज्य की सीमायें नेताओं के सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं. सावरकर के अनुसार अंग्रेजों और अंग्रेजों के पिट्ठू राजाओं / नेताओं को कोई हक़ नहीं कि वे आजाद भारत की सीमाएं तय करें.
प्रथम स्वाधीनता संग्राम के वीरों सम्मान दिलाने वाले सावरकर को, आजाद भारत में खुद वह सम्मान नही मिला जिसके वे हक़दार थे. गांधीजी की ह्त्या के बाद 5 फ़रवरी 1948 को उन्हें भी प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के तहत गिरफ्तार कर लिया गया था, जिसमे वे निर्दोष साबित हुए. 4 अप्रैल 1950 को पाकिस्तानी प्रधान मंत्री "लियाक़त अली ख़ान' के दिल्ली आगमन पर भी उन्हें बेलगाम जेल में बंद कर दिया था.
10 नवम्बर 1957 को नई दिल्ली में आयोजित हुए, "1857" के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के "शाताब्दी समारोह" में वे मुख्य वक्ता रहे. 8 - अक्टूबर 1959 को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी०.लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया. 26 फ़रवरी 1966 को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः 10 बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को प्रस्थान किया.
राष्ट्र के महानायक को हम उनके जन्मदिवस पर एक बार फिर कोटि कोटि नमन करते हैं

महाराणा प्रताप की महानता

महाराणा प्रताप 'महान' केवल एक जाति (राजपूत), एक राज्य (राजस्थान) या एक देश ( भारत) के लिए ही आदर्श नहीं है बल्कि समस्त संसार के हर उस देशभक्त के लिए आदर्श हैं जो कम संशाधन होने के बाद भी बड़े से बड़े ताकतवर से टकराकर उससे जीतने का हौसला रखता है.
मराराणा प्रताप "महान" का आदर्श सामने रखकर वियेतनाम जैसे छोटे से देश ने अमेरिका जैसी महाशक्ति को युद्ध में हराया था. वियेतनाम के लोग आज भी "महाराणा प्रताप" को अपना गुरु मानते हैं. वियतनाम से आने वाला कोई भी राजनयिक या पर्यटक हल्दीघाटी / उदयपुर अवश्य जाता है.
महाराणा प्रताप को केवल राजपूत तक सीमित करना उनका मान कम करना है. महाराना प्रताप की सेना में कोल और भीलों की संख्या राजपूतों से भी ज्यादा थी. उनकी देशभक्ति से प्रभवित होकर भामाशाह जैसे धनवान वैश्यों ने अपनी सारी दौलत उनको सौंप दी थी.
महाराणा प्रताप के सैनिकों को, किसान और आम गृहस्त अपने से पहले भोजन कराते थे. महाराणा प्रताप से प्रभावित होकर लोहारों ने अपना घर त्याग दिया था जगह जगह घूमकर काम करते थे तथा प्रताप और उनके सैनिको के लिए हथियार बनाते थे. उनका संकल्प था कि देशभक्तों को हथियार की कमी नहीं होने देंगे.
ऐसे ही एक बार एक राजपूत योद्धा ने प्रताप से कहा कि - आप इन कोल भीलों को हमारी बरावरी में क्यों रखते हैं. तो प्रताप उठे और उन्होंने एक भील को उठाया और अपनी छाती से लगाया और बोले जो भी हमारी छाती से लग गया , वो क्षत्रीय बन गया. उनके बाद अभिवादन में छाती से लगाना शुरू कर दिया गया.
महाराणा प्रताप "महान" ने कसम खाई थी कि जब तक चित्तौड़ को आजाद नहीं करा लेंगे, तब तक जमीन पर सोयेंगे और साधारण बर्तनों में साधारण भोजन ही करेंगे. सारा मेवाड़ जीतने के बाद भी वे चित्तौड़ को आजाद नहीं करा पाए थे. जब अंतिम समय में उनको विस्तर पर लेटने को कहा तो, उन्होंने मना कर दिया और बोले चित्तौड़ अभी आजाद नहीं है.
उन्होंने 24 साल उदयपुर से राज्य किया. उनका राज्य इतना सम्रद्ध और शक्तिशाली था कि - अकबर की भी दोबारा हमला करने की हिम्मत नहीं हुई

Friday, 26 May 2017

भूपेन हजारिका ब्रिज



नार्थईस्ट का नार्थईस्ट, ब्रह्मपुत्र के कारण उत्तर / दक्षिण में बंटा हुआ है. इस क्षेत्र के लोग लम्बे समय से ब्रह्मपुत्र पर पुल बनाने की मांग नेहरु / इंदिरा के समय से ही करते आ रहे थे. नरसिम्हाराव सरकार में जब डा. मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने थे तब डा. मनमोहन सिंह असम की राज्यसभा सीट से ही सांसद बने थे.
उस समय असम के लोगों ने डा. मनमोहन सिंह के सामने यह मांग रखी थी. तब उन्होंने आश्वासन भी दिया मगर इसपर कोई काम नहीं हुआ. 2003 में तिनसुकिया से असम गण परिषद के विधायक "जगदीश भुइयां" और सांसद अरुण शर्मा ने तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के सामने इस पुल को बनाने की फिर से मांग रखी.
उन्होंने अप्रेल 2003 में एक पत्र लिखकर, तत्कालीन अटल सरकार के पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्री "सीपी ठाकुर" से इस पुल के निर्माण की मांग की थी. अटल सरकार ने, अगस्त - 2003 में इस पुल के निर्माण के लिए फिजिबलिटी स्टडी करने का आदेश दे दिया. 2004 में रिपोर्ट तैयार हो गई, लेकिन इससे पहले कि काम शुरू होता सरकार चली गई.
उसके बाद वो फिजिबलिटी रिपोर्ट 5 साल ठन्डे बस्ते में पडी रही. असम के स्थानीय नेताओं ने असम से राज्यसभा सांसद और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह पर इसके लिए दबाब बनाया, तो मनमोहन सिंह कैबिनेट ने जनवरी, 2009 में धौला-सदिया पुल बनाने की सैद्धांतिक मंजूरी दी, लेकिन 2 साल तक कोई काम शुरू नहीं हुआ.
2011 में पुल बनाने का काम शुरू हुआ और इसे दिसंबर, 2015 में पूरा करने का लक्ष्य रखा गया, लेकिन अप्रेल 2014 तक 20 % काम भी पूरा नहीं हुआ. मई 2014 में मोदी सरकार आ गई. मोदी की नार्थईस्ट पर विशेष नजर थी. नार्थईस्ट में भाजपा को आगे बढाने के लिए उन्होंने इस पुल को माध्यम बनाया और इस पुल पर काम को तेज कराया.
पिछले तीन साल से से नार्थईस्ट के नार्थईस्ट में यह पुल घर घर में चर्चा का बिषय था. नार्थईस्ट ( खासकर - अरुणाचल, असम, मणिपुर) में भाजपा का प्रभाव बढ़ने के पीछे, इस पुल के निर्माण में तेजी का योगदान भी नकारा नहीं जा सकता है. आज ( 26 मई 2017) को अपनी सरकार के तीन साल पूरे होने पर, प्रधानमंत्री मोदी ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया.
तिनसुकिया के लोगों की भावना का ध्यान रखते हुए उन्होंने इस पुल का नाम किसी राजनेता के नाम पर रखने के बजाय वहां के लोकप्रिय व्यक्तित्व "भूपेन हजारिका" के नाम पर रखा. इस क्षेत्र के लोगो में भूपेन हजारिका के प्रति जो सम्मान है उसको देखते हुए इससे बेहतर कोई नाम हो ही नहीं सकता था. भारत माता की जय, वन्देमातरम्..

भुपेन हजारिका

आज मोदी जी ने असम में तिनसुकिया के पास एक विशाल पुल का उदघाटन किया. इस पुल को नाम दिया गया है "भुपेन हजारिका ब्रिज". कई मित्रों के लिए यह नाम बिलकुल अपरिचित सा लगा और उन्होंने पूंछा कि- यह भूपेन हजारिका आखिर कौन थे ? भूपेन जी पर मैंने पहले भी लेख लिखा था, ढूँढने पर मिल जाएगा.
उसमे मैंने उनके बारे में काफी विस्तार से लिखा था. फिलहाल संक्षेप में मैं उनके बारे में थोड़ा सा बताने का प्रयास कर रहा हूँ. भूपेन जी असम राज्य के एक बहुमुखी प्रतिभावान कलाकार थे. वे असमिया भाषा के कवि, लेखक, गीतकार, पत्रकार, गायक, संगीतकार, फिल्म निर्माता के साथ साथ असम की संस्कृति के अच्छे जानकार भी थे.
अपनी मूल भाषा असमिया के अलावा भूपेन हजारिका ने हिंदी, बंगला समेत कई अन्य भारतीय भाषाओं में गाने गाये हैं. "दिल हूम हूम करे", "ओ गंगा तू बहती है क्यों" तथा "वैष्णव जन तो तेने कहिये " जैसे हिन्दी गीतों में हम उनकी आवाज का जादू महेसूस कर सकते हैं.
भूपेन हजारिका का जन्म 18 सितम्बर 1926 को असम के तिनसुकिया जिले के सदिया कसबे में हुआ था. उनके पिताजी का नाम नीलकांत एवं माताजी का नाम शांतिप्रिया था. गीत संगीत की उनकी पहली शिक्षिका उनकी माता ही थीं. उन्होंने दस साल की आयु में एक गीत लिखा और स्कूल में गाया था. उस गीत को एक स्थानीय पत्रिका ने छापा भी था.
13 साल की उम्र में उन्होंने असमिया भाषा की दूसरी फिल्म "इंद्रमालती" में काम भी किया. प्रतिभावान कलाकार होने के साथ साथ वे पढ़ाई में भी बहुत होशियार थे. उन्होंने तेजपुर से मैट्रिक, गुवाहाटी से इंटरमीडिएट, बनारस हिन्दू विश्वविध्यालय (BHU) से राजनीति शास्त्र M.A. तथा न्यूयार्क की कोलंबिया यूनिवर्सिटी से PHD की डिग्री हाशिल की.
वे भारत के ऐसे विलक्षण कलाकार थे जो अपने गीत खुद लिखते थे, खुद ही संगीतबद्ध करते थे और खुद ही गाते थे. उन्हें दक्षिण एशिया के श्रेष्ठतम जीवित सांस्कृतिक दूतों में से एक माना जाता था. उनको 1975में क्षेत्रीय फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार, 1991 में दादा साहब फाल्के अवार्ड तथा 2011 में पद्मविभूषण सम्मान दिया गया.
5 नवम्बर 2011 को 85 साल की आयु में मुम्बई में उनका देहांत हो गया था. सौभाग्य से मुझे असम के तिनसुकिया जाने का अवसर मिला है और मैंने देखा है कि - बहाँ के लोग उनका कितना सम्मान करते हैं. तिनसुकिया को ब्रह्मपुत्र पार वाले क्षेत्र से जोड़ने वाले पुल को, सरकार ने उनका नाम देकर बहुत अच्छा काम किया है

सती रामरखी देवी

सती रामरखी देवी के आत्म वलिदान दिवस (26 मई) पर सदर नमन
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मुगल शासक औरंगजेब ने 1675 में, "गुरु तेगबहादुर" जी का शीश काटकर शहीद किया था. तब उसने उनसे पहले उनके तीन शिष्यों भाई मतिदास, भाई सतीदास और भाई दयाला जी को भी बुरी तरह से तड़पा तड़पा कर शहीद किया था. इन बलिदानियों के परिवार की, देश और धर्म के लिए बलिदान देने की परम्परा आगे भी चलती थी.
भाई मतिदास जी के एक वंशज, भाई बाल मुकुंद ने भी 8 मई, 1915 को अपने साथियों के साथ देश के लिए बलिदान दिया था. अंग्रेजो के शासनकाल में 23 दिसम्बर 1912, को चार क्रांतिवीरों ( भाई बालमुकुंद, अवधबिहारी, वसंत कुमार विश्वास तथा मास्टर अमीरचंद) ने दिल्ली में वायसराय लार्ड हार्डिंग की शोभायात्रा पर बम फेंका था.
इस मामले में उन चारों को गिरफ्तार कर लिया गया और फांसी की सजा सुना दी गई. 8 मई, 1915 को चारों को फांसी पर चढ़ा दिया गया. यहाँ मैं उन चारो महान शहीदों की गाथा के साथ, एक ऐसी सती महिला की गाथा सुनाना चाहता हूँ जो उस घटना से जुडी हुई है और जिसने पतिव्रता धर्म का पालन करते हुए अपना बलिदान दिया था.
भाई बालमुकुंद का विवाह कम आयु में ही, लाहौर की "रामरखी" से हो गया था. उन दिनों विवाह कम आयु में हो जाते थे लेकिन गौना ( लड़की का ससुराल जाना ) कई साल बाद होता था. भाई बालमुकुंद और रामरखी का गौना होने से पहले ही, भाई बालमुकुंद जेल चले गए. जेल में रामरखी भी अपने परिवार वालों के साथ उनसे मिलने आई.
रामरखी ने अपने पति बालमुकुंद से पूछा कि- वे क्या खाते हैं और कहां सोते हैं ? तब बालमुकुंद जी ने बताया कि - सोने के लिए उन्हें दो कम्बल मिले हुए हैं और भोजन केवल एक समय मिलता है. रामरखी ने उनसे अपनी रोटी दिखाने का आग्रह किया. रोटी दिखाने पर रामरखी ने उसका एक टुकडा तोड़कर अपने पल्लू से बाँध लिया.
दिल्ली से लाहौर आने के बाद रामरखी ने भी अपने घर में, सभी सुख सुविधाओं का त्याग कर दिया और केवल दो कम्बल ले लिए. वे घर की एक कोठरी में, कैदियों की तरह जमीन पर एक कम्बल बिछाने तथा एक कम्बल ओढकर सोने लगी. इसके अलावा जैसी रोटी का टुकडा वे जेल से लाइ थी बैसी ही मोटी रोटी ( वो भी केवल एक टाइम) खाने लगी.
इस प्रकार उन्होंने अपने आपको अपने पति से आत्मसात कर लिया. वे दिन भर पूजा-पाठ में लगी रहती थी. इस तरह कई महीने बीत गए. 8 मई 1915, को भाई बालमुकुंद और साथियों को फांसी दे दी गयी. फांसी वाले दिन से रामरखी ने अन्न-जल त्याग दिया. वे केवल पूजा में ही बैठी रहती. इस प्रकार की कठोर तपस्या में 17 दिन बीत गये.
26 मई को उन्होंने अपनी कोठरी की सफाई की, फिर स्नान किया और साफ वस्त्र पहने. उसके बाद अपने घर के सभी बड़ों को प्रणाम करने के बाद अपने स्थान पर लेट गईं. उन्होंने अपनी सांस को ऊपर चढ़ा लिया और उनकी आत्मा परमात्मा में समा गई. इस प्रकार रामरखी ने अपना नाम भारत की महान सती नारियों की परम्परा में लिखा लिया.
भारत माता की जय , वन्देमातरम

Tuesday, 23 May 2017

हिन्दू धर्म के पुनर्गठन की आवश्यकता

आज एक बार फिर हिंदू धर्म के पुनर्गठन की आवश्यकता है - जिसमें सभी को समान अधिकार मिल सके और साथ ऐसे हिंदू जो अन्य धर्म में चले गए हैं उनका शुद्धिकरण करके उनको वापस हिंदू बनाया जा सके. प्रत्येक धर्म में अपनी कुछ मान्यताये और विशवास होते है. समय के साथ साथ बहुत सारी मान्यताएं और आवश्यकताएं बदलती रहती हैं.

परिवर्तन जीवंत्ता का परामान है. हिंदू धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो हमेशा ही समय की आवश्यकता के अनुसार अपने आपको परिवर्तित करता रहा है. शायद अन्य किसी पंथ के लोगो में इतना साहस नहीं ऐ कि वो अपनी मान्यताओं की समीक्षा या पुनर्बिचार कर सके. हिंदू धर्म में हमेशा ही समय के हिसाब से परिवर्तन होते रहे हैं.

उदाहरण के लिए - कभी जब यहाँ भारत ने जनसँख्या को बढाने की आवश्यकता थी, तो यहाँ बहु विवाह और अनेक बच्चों की परम्परा थी. जब जनसँख्या नियंत्रण करने की आवश्यकता हुयी तो एक विवाह और दो बच्चो का नियम बना दिया. कभी धोती कुरता पहनते थे, लेकिन आज जींस शर्त को भी अपना लिया गया है.

तिलक, चोटी, माला और जनेऊ रखने के लिए भी कोई कट्टर नियम नहीं है. कभी युद्ध में पति के मारे जाने के बाद उनकी बिध्वाओं ने, अत्याचारी मुस्लिम हमलावरों से अपनी इज्ज़त बचाने के बचने के लिए सती प्रथा को अपनाया और आज हमलावरों का खतरा न रहने पर, विधवा के पुनरविवाह को भी मान्यता मिल गयी है .

कभी कुल की शुद्धता के लिए अपनी जाति में ही विवाह का नियम था, आज समाज में एकता के लिए अंतरजातीय विवाह को मान्यता प्रदान है. कभी जंगली जानवरों से आवादी को सुरक्षित करने के लिए शिकार को महिमामंडित किया, लेकिन जानवर कम होने पर प्रक्रति का संतुलन बनाने के लिए शिकार को प्रतिबंधित कर दिया.

इसी तरह अब एक बार फिर समीक्षा करने की आवश्यकता है कि - हम फिर अपनी मान्यताओं और परम्पराओं की समीक्षा करें और उनमे से अप्रासंगिक प्रावधानों को हटाकर समयानुकूल प्रावधानों का समावेश करें. कर्मकाण्ड और अनुष्ठान की विधियों का भी मूल्यांकन और संशोधन करने की परम आवश्यकता है.

विदेशी और विधर्मी लोग, कुछ भ्रांतियों का लाभ उठाकर हिन्दुओं को तोड़ने में हमेशा कामयाब हुए हैं. हमें उन भ्रांतियों को भी दूर करना होगा, जिससे कमजोर तबके के लोगों को विधर्मियों के बहकाबे में आकर धर्म परिवर्तन करने से रोका जाए. साथ ही भुत काल में धर्म परिवर्तित करने वाले हिंदुओं की घर वापसी कराई जाए.

Monday, 22 May 2017

आरक्षण का सकारत्मक लाभ कैसे उठाये ?

आरक्षण को कोसने के बजाय, आरक्षण को हिंदुत्व बचाने के हथियार के रूप में इस्तमाल करना चाहिए. जो आरक्षण जातिवाद को बढावा देने वाला बना हुआ है उसको जातिवाद ख़त्म करने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है. बस हमें इसमें थोड़ा सा फेर-बदल करना होगा. आरक्षण की नियमवाली में कुछ सुधार किये जा सकते हैं.
1. आरक्षण ख़त्म करने की शुरुआत मंदिर से करनी चाहिए. पुरोहित और पुजारी बन्ने के लिए, पाठ्यक्रम निर्धारित कर, विभिन्न धार्मिक केन्द्रों में, बाकायदा ट्रेनिग सत्र चलाये जाने चाहिए. इन प्रशिक्षण केन्द्रों में प्रशिक्षित होने के लिए शिक्षार्थी के लिए कोई जाति बंधन न हो. प्रशिक्षित और संस्कारी होने कोई भी हिन्दू, धार्मिक अनुष्ठान करा सके.
2. कोई भी सवर्ण लड़का (अथवा लड़की), अगर किसी आरक्षित वर्ग की लड़की (अथवा लड़के) से विवाह करता ( या करती) है, तो उनको तथा उनकी संतान को भी आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए. ऐसा करने से अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा मिलेगा , जो आगे जाकर जाति के चक्रव्यूह को तोड़ने में बहुत सहायक साबित होगा.
3. यदि पुराने समय में कोई व्यक्ति हिन्दू धर्म को छोड़ गया था और आज उनके बच्चे घर वापसी करना चाहते हैं, तो ऐसे लोगो के लिए, एक अलग से आरक्षण की व्यवस्था कर, उनको आरक्षण देना चाहिए. यदि आप ऐसा करते हैं, तो ऐसे लोगों को घर वापसी करने की प्रेरणा मिलेगी. इसका लाभ हर हाल में हिन्दू धर्म और हिन्दुस्थान को मिलेगा.
4. सभी पंथ यह दावा करते हैं कि -जाति केवल हिन्दुओं में होती है, उनके यहाँ जाति नहीं होती है, इसलिए हिन्दू के अतिरिक्त किसी भी अन्य पंथ वाले व्यक्ति को जातिगत आरक्षण नहीं देना चाहिए. अगर आरक्षित कैटेगिरी का व्यक्ति हिन्दू धर्म को छोड़ता है तो उसका और उसके परिवार का आरक्षण हमेशा के लिए रद्द कर दिया जाय.
5. जाति शब्द को ख़त्मकर उसको खानदानी पेशा कर दिया जाए. किसी भी फ़ार्म में "जाति" वाला कालम न रखकर वहां "खानदानी पेशा" शब्द लिखा जाए. बैसे भी पुजारी, पुरोहित, सैनिक, व्यापारी, दूकानदारी, सफाई का काम, लोहार, कुम्हार, सुनार, चर्मकार, कृषि, मल्लाह, शिक्षण, पशुपालन, आदि सभी प्रकार के कार्य, केवल धंधा है कोइ जाति नहीं.

Sunday, 21 May 2017

हिन्दुओ : जातिपात छोड़कर संगठित हो

ब्राह्मण के घर जन्मी गैर संसकारी संताने भी अपने को श्रेष्ठ ब्राह्मण बताते फिरेते हैं. हड्डी के ढाँचे जैसा शरीर लेकर घूम रहे क्षत्रीय पुत्र भी अपने आपको बड़ा सूरमा बताते घूमते है, व्यापार करने के बजाय दूसरों की नौकरी (गुलामी) करने वाले बड़े गर्व से अपने आपको भामाशाह समझते हैं और शेष आरक्षण के लिए लड़ते नजर आते हैं.
हिन्दू जातपात को भूलकर एकजुट तब ही होते हैं जब कोई भारी मुसीबत आई हुई हो वरना जातियों के नाम पर आपस में ही लड़ते रहते हैं. किसी ने सच ही कहा है कि - चार हिन्दू एक साथ, एक दिशा में, केवल तब ही चलते हैं, जब उनके कंधो पर अपने किसी प्रिय की अर्थी हो. अर्थात हिन्दू केवल तब ही एकजुट होते हैं जब उनपर कोई बड़ी मुसीबत आई हो.
गजनवी के भांजे "सैयद सालार मसूद" जब अयोध्या विध्वंश के लिए निकला तो उसका सामना दलित राजा सुहेल देव पासी के नेतत्व में 17 राजाओं ने मिलकर किया. तैमूर जब दिल्ली को लूटने के बाद हरिद्वार विध्वंस को निकला तो उसको महावली जोगराज गुर्जर, हरवीर जाट, दुर्जनपाल अहीर, दलित "धूला धाड़ी" और नागा साधुओं ने मिलकर किया.
जालिम शहंशाह अकबर ने जुल्म ढाय तो, प्रताप "महान" के नेतृत्व में राजपूत से लेकर कोल-भील ने मिलकर उनका मुकाबला किया तथा बनियों और किसानो ने उनको भोजन और धन उपलब्ध कराया. औरंगजेब ने जब हिन्दुस्थान पर कहर बरपाया तो पंजाब, ब्रज, बुंदेलखंड, महाराष्ट्र के सभी वर्गों के लोगों ने मिलकर उसका सामना किया.
अंग्रेजों से मुकाबला करने में क्रांतिकारियों ने जाती / धर्म छोड़कर जो एक जुटता दिखाई थी, उसकी मिशाल तो सदियों तक दी जाती रहेगी. आजाद भारत में भी जिन -जिन जगहों पर, हिन्दुओं ने दंगा झेला है , वहां पर कोई भी हिन्दू जातिवाद की बात नहीं करता. लेकिन सामान्य जीवन जीते समय, वे सदैव एक दुसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते है.
तब वे भूल जाते हैं कि जिनको वो नीचा दिखा रहे हैं वो भी हमारे अपने हैं. गुलामी के दौर में, विधर्मी शासकों द्वारा , हमारे वर्ण व्यवस्था को जाती प्रथा में बदला गया और विदेशी / विधर्मी शासकों ने हमें जाती के नाम पर आपस में लड़ाकर खुद शासन किया. लेकिन अनेकों कुरबानिया देने के बाद जब आजादी मिली तो फिर से आपस में लड़ना शुरू कर दिया.
आजाद भारत में जब जातियों को मिटाकर सबको एक समान घोषित करने की आवश्यकता थी, तब कुछ तथाकथित महान (?) बुद्धिजीवियों ने आरक्षण का बिषबीज बोकर समाज को छिन्न-भिन्न कर दिया. देश की जनता को इन धूर्तों ने जाती में बाँट दिया. ये शातिर समाज को जातियों के नाम पर लड़कर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं.
जातियों के नाम पर आदोलन (दंगा फसाद) करना देश को कमजोर कर रहा है. हिन्दुस्थान की शत्रु शक्तिया बहुत चालाकी से हिन्दुस्थानियों को आपस में लड़ाने के प्रयास में लगी हुई हैं. आरक्षण समर्थक और आरक्षण बिरोधी दोनों को ही भडकाने का प्रयास लगातार चल रहा है . यदि समय रहते नहीं सम्हले तो देर से हुई एकजुटता भी आपको बचा नहीं पायेगी.

पूजा सामिग्री पर टैक्स तथा मांस के टैक्स फ्री का सच

सरकार की आलोचना करना, बिरोधी पार्टियों का हक़ भी है और कर्तव्य भी. लोकान्त्रिक देश में विपक्षी पार्टियों का सरकार की नीति का बिरोध करने के लिए जागरूक होना ही चाहिए. इससे किसी भी योजना के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू सामने आ जाते हैं.
पिछले दशको में सशक्त विपक्ष की भूमिका जनसंघ / भाजपा तथा भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी ने बहुत अच्छे से निभाई है. समय के फेर ने आज भाजपा को सत्ता में तथा कांग्रेस को विपक्ष में पहुंचा दिया और दुर्भाग्य तथा गलतियों के कारण वामपंथी लगभग ख़त्म हो चुके हैं
कांग्रेस इतने साल सत्ता में रही है कि - उसे विशवास ही नहीं हो रहा कि - अब उसकी कुछ भूमिका विपक्ष के रूप में भी है. ये लोग बिरोध भी करते हैं तो ऐसी बातें करते हैं कि - सरकार को घेरने के बजाय खुद ही फंस जाते हैं क्योंकि वो बिना होमवर्क आरोप लगाते हैं.
अभी परसों से GST को लेकर, अंधबिरोधियों ने जो आरोप लगाना शुरू किया उसने उनको ही उलझा दिया. अंधबिरोधियों का कहना है कि - केंद्र सरकार ने पूजा सामिग्री पर टैक्स लगा दिया है और बीफ को टैक्स फ्री कर दिया है. इसको लेकर मजाक उड़ा रहे हैं.
अब ज़रा इनके इस आरोप कि - पूजा सामिग्री पर टैक्स और मांस को टैक्स फ्री रखने पर चर्चा करते हैं. अपने देश में हमेशा से ही रॉ खाद्यान जैसे - दाल, चावल, आटा, सब्जी, कच्चे मसाले, चिकन, मटन, बीफ, पोर्क, नमक, आदि पर कभी कोई टैक्स नहीं रहा है.
क्योंकि इसे प्राथमिक आवश्यकता माना गया है. किसी भी सरकार को इन पर टैक्स लगाना ही नहीं चाहिए. अब बात करते है पूजा सामिग्री की. तो पूजापाठ का अधिकाँश सामान कुटीर उद्योग में तैयार होता है और कुटीर उद्योग GST में भी टैक्स के दायरे से बाहर है.
केवल ऐसा सामान जो बड़ी फैक्ट्रीज में तैयार होता है और प्रोफेसनल तरीके से पैकेट बंद मिलता है जैसे - कपूर, अगरबत्ती, धूपबत्ती, चायनीज मूतियाँ, आदि टैक्स है, और इन पर भी आज कोई नया नहीं बल्कि बर्षो से टैक्स लगता चला आ रहा है.
इन चीजो पर पहले से ही टैक्स है. और इन पर टैक्स का रोना ज्यादातर वो लोग रो रहे हैं जो खुद को नास्तिक बताते हैं. जिन मांसाहारियों को मॉस उत्पादों पर टैक्स न होने का दुःख है वो चाहे तो, अपने पैसे प्रधानमंत्री रिलीफ फंड में दान दे सकते हैं.

Saturday, 20 May 2017

खावर कुरैशी

जो आज पापिस्तान का वकील है, उसे UPA सरकार अपना वकील बनाकर हार भी चुकी है
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कुलभूषण जाधव का मामला "इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस" में जाने के बाद दो नाम बहुत ज्यादा चर्चा में आये हैं. पहला नाम है भारत के वकील "हरीश साल्वे" का और दुसरा नाम है पापिस्तान के वकील "खावर कुरैशी" का. पहले दिन की पेशी में साल्वे ने जिस तरह से कुरैशी को पछाड़ा है उससे आम आदमी भी इसको उत्सुकता से देख रहा है.
हरीश साल्वे के बारे में तो टीवी, अखबार, सोशल मीडिया में इतना ज्यादा आ रहा है कि - आज उनका नाम बच्चे बच्चे की जुबान पर है. अब जरा थोड़ा सा उनके प्रतिद्वंदी "खावर कुरैशी" के बारे में भी जान लिया जाए. यह पापिस्तानी मूल का नागरिक है और अब इंग्लैण्ड में जाकर बस गया है. इसके बाबजूद पापिस्तान के प्रति बहुत बफादार है.
यह पापिस्तान के लिए भारत के खिलाफ पहले भी अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय में केस लड़ चुके हैं. पापिस्तान सरकार ने हैदराबाद के निजाम की सम्पत्ति पर दावा करने का केस जब लड़ा था तब भी भारत के खिलाफ पापिस्तान का वकील "खावर कुरैशी" ही था. इस बात से तो नहीं मगर अब जो बता रहा हूँ उससे आपको अवश्य आश्चर्य होगा.
2004 में UPA सरकार ने विवादास्पद दाभोल परियोजना के मामले में "एनरान" कम्पनी के खिलाफ तत्कालीन भारत सरकार ने भी "खावर कुरैशी" को अपना वकील बनाया था. यह मुकदमा भारत हार गया था और अन्तराष्ट्रीय अद्दालत ने भारत को कई सौ करोड़ का जुर्माना किया था. एक पापिस्तानी मूल के नागरिक को अपना वकील UPA ही बना सकती थी.
भारत द्वारा पापिस्तानी मूल के "खावर कुरैशी" को अपना वकील बनाना गैर कानूनी भले ही न हो लेकिन अनैतिक तो है ही. जिस देश से दशकों से दुश्मनी हो उसके मूलनिवाशी के सामने अपने देश के न जाने कितने गोपनीय दस्ताबेज रखने पड़े होंगे. उस केस में भारत की हार का मुख्य कारण भारत की तरफ से सही पैरवी नहीं करना माना गया था.
मैं इसके बारे में और जानकारिया निकालने की कोशिश कर रहा हूँ . बैसे मुझे जिस बात का संदेह है उनकी पुष्टि करने के बाद विस्तार से लिखूंगा. इस वकील के नाम में कुरैशी सरनेम होने के कारण यह संदेह हुआ है . हो सकता है यह संदेह गलत भी साबित हो. इसलिए आगे जो लिख रहा हूँ उसपर केवल बिचार कर सकते है, एकदम सही नहीं मान सकते हैं.
आप लोगों को पता ही होगा कि - लाहोर कोर्ट में "भगतसिंह राजगुरु सुखदेव" को फांसी की सजा सुनाने वाला जज कोई अंग्रेज नहीं था बल्कि एक मुस्लिम था और उसका सरनेम भी कुरैशी था. बाद में पापिस्तान बन्ने के बाद उसको महत्वपूर्ण पद दिए गए. राजनैतिक रंजिश के चलते जुल्फकार अली भुट्टो ने जस्टिस कुरैशी की ह्त्या करवा दी थी.
मुस्लिम लीग की सरकार बन्ने के बाद जस्टिस कुरैशी का बेटा भी उच्च पद पर रहा. तब भुट्टो को जस्टिस कुरेशी की ह्त्या की साजिश के जुर्म में फांसी चढ़ा दिया गया था. कुछ साल बाद जब बेनजीर भुट्टो की सरकार बनी तो वो बाला कुरैशी अपने परिवार के साथ इंगलैंड जाकर बस गया. मुझे सदेह है कि कहीं "खावर कुरैशी" उसी का बेटा तो नहीं है ?
इस बारे में खोजने की कोशिश कर रहा हूँ. पुष्टि होने के बाद उसपर अवश्य लिखूंगा. अब अगर ये मान भी लेते हैं कि - "खावर कुरैशी", भगत सिंह को फांसी की सजा सुनाने वाले जस्टिस कुरैशी का पोता नहीं भी है तो देश की कांग्रेस के नेतृत्व वाली UPA सरकार को एक पापिस्तानी मूल के नागरिक को अपना वकील करने चुनने की क्या जरूरत थी ?
कांग्रेस पार्टी में तो कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, अभिषेक मनु संघवी, अदि जैसे एक बढ़कर एक बड़े वकीलों की भरमार है तो कांग्रेस पार्टी के वकील ने ऐसे मामलो में एक विदेशी वकील ( वो भी पापिस्तानी मूल का) की सेवाये क्यों लीं ?क्या ये तथाकथित बड़े वकील अपने बनाए जजों के सामने मुकदमा लड़ लड़ कर ही, बड़े वकील बने हुए हैं ?

अटल जी को, भगत सिंह के खिलाफ गवाह बताने वाले, प्रोपोगंडे की पोल खोल


 अटल जी को, भगत सिंह के खिलाफ गवाह बताने वाले, प्रोपोगंडे की पोल खोल 
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हमेशा केवल झूठ वोलने लोग कैसी कैसी मनगढ़ंत बाते लिखते हैं और उनके अंधे फालोअर उनका बिना जाने समझे प्रचार करने लग जाते हैं यह देखकर कई बार तो उनकी हालत पर तरस आता है. पिछले कई दिनों से कुछ ऐसे ही लोगों की पोस्ट में अटल बिहारी बाजपेई जी पर झूठे आरोप लगाने वालों के बारे में पढ़ रहा था.
इन मूर्खों ने आजकल एक प्रोपगंडा छेड़ा हुआ है कि - अटल बिहारी बाजपेई की मुखबरी की बजह से सरदार भगत सिंह गिरफ्तार हुए थे, और अटल जी की गवाही की बजह से ही भगत सिंह राजगुरु सुखदेव को फांसी हुई थी. यह ऐसे अकल के अंधे लोग हैं जो अपना दिमांग लगाए बगैर ही कोई बात जो बीजेपी के बिरोध में बोलने लग जाते है.
इन अकल के अन्धो को उन पोस्ट्स पर बार बार जबाब दिया है लेकिन इनको अगर इतनी समझ ही होती तो समस्या क्या थी. पोस्ट के रूप में उस प्रोपोगंडे का जबाब दे रहा हूँ ताकि लोग सच्चाई को जान सके. सबसे पहले तो यह जान लेना जरुरी है कि - अटल अटल बिहारी बाजपेई का जन्म सन 25 दिसंबर 1924 में ग्वालियर में हुआ था.
भगत सिंह 8 अप्रेल 1929 को गिरफ्तार हुए थे. उस समय अटल बिहारी बाजपेई की उम्र लगभग सवा चार साल की थी. इन लोगों को इतनी मामूली से बात भी समझ नहीं आती है. अब बात करते हैं कि - भगत सिंह की गिरफ्तारी कैसे हुई थी ? क्या किसी ने उनकी मुखबिरी की थी ? इसके लिए पहले उस घटनाक्रम को समझना होगा.
वास्तविकता यह है कि - भगत सिंह को किसी ने गिरफ्तार नहीं कराया था बल्कि उन्होंने खुद अपनी गिरफ्तारी दी थी. भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने तो असेम्बली में बम का धमाका किया और पर्चे फेंके. इसके अलावा उन्होंने फरार होने की कोई कोशिश करने के बजाय इन्कलाब - जिंदाबाद के नारे लगाए और खुद अपनी गिरफ्तारी दी.
अब बात करते हैं भगत सिंह के खिलाफ अटल जी की गवाही की तो उस समय अटल जी की उम्र साढ़े चार साल थी और वे लाहौर से सैकड़ों मील दूर ग्वालियर में रहा करते थे. इसलिए यह मुद्दा भी ख़त्म हो जाता है. अब सवाल उठता है कि - भगतसिंह के खिलाफ किन लोगों ने गवाही दी थी, तो उस मुक़दमे में भगत सिंह आदि के खिलाफ 5 लोग मुख्य गवाह थे.
शोभा सिंह (खुशवंत सिंह का पिता) , दीवान चन्द फोगाट ( DLF का फाउन्दर) , मातुराम हुड्डा ( भूपिंदर हुड्डा का दादा), जीवन लाल ( एटलस साइकिल का मालिक), एक नवीन जिंदल के बहनोई का दादा. यह सभी लोग आजादी के पहले भी और आजादी के बाद भी नेहरु के बहुत करीबी रहे.
इन 5 के अलाबा भी लगभग 450 अन्य लोगों ने भी इस मुकदमे में गवाही दी थी. उन सब के नाम भी अपलब्ध है. यदि किसी को चाहिए तो दिए जा सकते है

रुस्तम-ए-ज़मां, पहलवान "गामा"



'रुस्तम-ए-ज़मां' गामा के जन्मदिन (22 मई ) और पुण्यतिथि (21 मई ) पर श्रद्धांजली *************************************************************************************
भारतीय ही नहीं बल्कि विश्व कुश्ती में भारत के 'रुस्तम-ए-ज़मां' गामा पहलवान का नाम अमर है. लेकिन आज की पीढ़ी उन महान खिलाड़ियों की भूलती जा रही है . शारीरिक ताक़त के लिए जिस प्रकार आजकल “दारा सिंह” की मिसाल दी जाती है, कुछ समय पहले तक 'गामा पहलवान' का नाम लिया जाता था. गामा को 'शेर-ए-पंजाब', रुस्तम-ए-हिन्द, 'रुस्तम-ए-ज़मां' (विश्व केसरी) और 'द ग्रेट गामा' जैसी उपाधियाँ दी गयीं. गामा शायद विश्व के एक मात्र पहलवान थे जिन्होंने अपने जीवन में कोई कुश्ती नहीं हारी थी .
गामा का असली नाम गुलाम मोहम्मद था. उनका जन्म 22 मई 1880 को अम्रतसर में, एक कुश्तीप्रेमी मुस्लिम परिवार में हुआ था. उन के पिता ' मुहम्मद अज़ीज़' और भाई 'इमामबख़्श' भी पहेलवान थे. गामा और उनके भाई 'इमामबख़्श' ने शुरू-शुरूमें कुश्ती के दांव-पेच पंजाब के मशहूर 'पहलवान माधोसिंह' से सीखने शुरू किए. दस वर्ष की उम्र में गामा ने जोधपुर ( राज.) में कई पहलवानों के बीच शारीरिक कसरत के प्रदर्शन में भाग लिया. वहां गामा को उनकी अद्भुत शारीरिक क्षमताओं को देखते हुए पुरस्कृत किया गया.
गामा की क्षमताओं को देखते हुए दतिया के “महाराजा भवानीसिंह” ने गामा और उनके भाई को पहलवानी की सारी सुविधायें प्रदान की. प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद मात्र 19 साल की उम्र में , गामा ने रुस्तम-ए-हिन्द “पहलवान रहीमबख़्श' को चुनौती दे डाली. यह कुश्ती 'ऐतिहासिक घंटों तक चली और अंत में बराबर छूटी. अगली बार जब गामा और रहीमबख़्श की कुश्ती हुई तो गामा ने रहीमबख़्श को हरा दिया. तीस साल का होते होते भारत के लगभग सभी बड़े पहलवानों को हराकर वे एक विख्यात पहलवान बन चुके थे.
1910 में बंगाल के एक लखपति 'सेठ शरदकुमार मित्र' कुछ भारतीय पहलवानों के साथ उनको और उनके भाई लन्दन लेकर गए . लन्दन के पहलवान गुलाम भारत के पहलवानों को अपने बराबरी का नहीं मानते थे इसलिए उन्होंने भारतीय पहलवानों से मुकाबला करने से मना कर दिया. तब गामा ने अंग्रेज पहलवानों को खुली चुनौती दे डाली कि - जो पहलवान अखाड़े में मेरे सामने पाँच मिनट तक टिक जाएगा, उसे 'पाँच पाउंड' नकद इनाम दिया जाएगा. कई छोटे-मोटे पहलवान गामा से लड़ने को तैयार हुए लेकिन टिक नहीं सके.
उसके बाद गामा ने सभी को खुली चुनौती दी. अमेरिका के पहलवान 'बैंजामिन रोलर' ने चुनौती स्वीकार की. गामा ने रोलर को 1 मिनट 40 सेकेण्ड में पछाड़ दिया. गामा और रोलर की दोबारा कुश्ती हुई, जिसमें रोलर 9 मिनट 10 सेकेण्ड ही टिक सका. तब दंगल के आयोजकों के कान खड़े हुए और उन्होंने गामा को सीधे विश्व विजेता “स्टेनली जिबिस्को” से लड़ने को कह दिया. 10 सितम्बर 1910 को गामा और 'स्टेनिस्लस ज़िबेस्को' की कुश्ती हुई, 1मिनट से भी कम समय में गामा ने स्टेनिस्लस ज़िबेस्को को नीचे दबा लिया.
जेबिसको ढाई घंटे बैसे ही पडा रहा उसको डर था कि ज़रा भी दांव चला तो गामा उसे चित कर देगा. वह कुश्ती को अनिर्णीत घोषित की गई और फैसले के लिए दूसरे दिन की तारीख़ तय की गई. दूसरे जिबिस्को मैदान में ही नहीं आया और आयोजको को “गामा” को विश्व-विजयी घोषित करना पडा. 17 सितम्बर 1910 को दोबारा उनके बीच कुश्ती की घोषणा हुई, लेकिन ज़िबेस्को गामा का सामना करने नहीं पहुँचा. गामा को विजेता घोषित कर दिया गया और इनाम की राशि के साथ ही 'जॉन बुल बैल्ट' भी गामा को दे दी गई.
इस यात्रा के दौरान गामा ने अनेक पहलवानों को धूल चटाई, जिनमें 'बैंजामिन रॉलर', 'मॉरिस देरिज़, 'जोहान लेम' और 'जॅसी पीटरसन' जैसे नामी पहलवान थे. इसके बाद गामा ने कहा कि वो एक के बाद एक लगातार बीस पहलवानों से लड़ेगा लेकिन कोई सामने नहीं आया. 1922 में गामा का फिर जिबेसको से मुकाबला पटियाला में हुआ, इस बार गामा ने केवल ढाई मिनट में ही जिबिस्को को पछाड़ दिया. इंग्लैंड के 'प्रिंस ऑफ़ वेल्स' ने 1922 में भारत की यात्रा के दौरान गामा को चाँदी की बेशक़ीमती 'गदा' प्रदान की.
1928 में गामा का मुक़ाबला पटियाला में एक बार फिर ज़िबेस्को से हुआ जिसमे 42 सेकेण्ड में गामा ने ज़िबेस्को को धूल चटा दी. गामा की विजय के बाद पटियाला के महाराजा ने गामा को आधा मन भारी चाँदी की गदा और '20 हज़ार रुपये' नकद इनाम दिया. 1929 में गामा ने 'जेसी पीटरसन' को डेढ़ मिनट में पछाड़ दिया. इसके बाद गामा को किसी ने चुनौती नहीं दी. गामा अपने पहलवानी जीवन में हमेशा अजेय रहे, जो किसी भी पहलवान के लिए आज भी असम्भव है.
इतनी महान उपलब्धियों के बाबजूद उनका आखिरी समय बहुत मुश्किल रहा. भारत में उनको बहुत ही प्यार, सम्मान और ईनाम मिला लेकिन फिर भी देश आजाद होते समय उनको भी अन्य कई मुसलमानों की तरह यह लगा कि – हिन्दुस्थान में उनके साथ अन्याय होगा और इस्लामी देश पापिस्तान में उनको खुशहाली मिलेगी, मगर हुआ उसका उलट. हिन्दुस्थान में जहाँ उनको सब कुछ मिला वो सब पापिस्तान में छीन लिया गया. पापिस्तान में उस महान पहलवान को गुमनामी में धकेल दिया गया.
उनका सगा भाई जो उनकी कुश्तिया और ईनाम मैनेज करता था वो उनकी सारी दौलत को दाबकर बैठ गया. (पापिस्तान के वर्तमान प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पत्नी गामा के भाई की ही नातिन है ). आख़िरी दिनों में गामा को रावी नदी के किनारे एक छोटी-सी झोंपड़ी बनाकर रहना पड़ा. अपनी अमूल्य यादगारों और तमग़े बेच-बेचकर अपनी ज़िन्दगी के आखिरी दिन गुज़ारने पड़े. वहां गामा को पूंछने वाला कोई नही था. किसी पत्रकार को उनके बारे में पता लगा तो उसने उनकी कहानी को अखबार में छापा.
उनकी हालत की ख़बर पाकर भारतवासियों का दु:खी होना स्वाभाविक था. भारत से अनेको हाथ “गामा’ की मदद को उठे, जिनमे महाराजा पटियाला और बिडला बंधू प्रमुख थे. बीमारी, उपेक्षा, धोखे, आदि से त्रस्त होकर, वह महान पहलवान 21 मई, 1960 को दुनिया से प्रस्थान कर गया. जो महान इंसान दुनिया में किसी बड़े से बड़े पहलवान से नहीं हारा, वो अपनों की उपेक्षा से हार गया. जब गामा जैसी महान हस्ती के साथ ऐसा हुआ तो सोंचिये भारत से पापिस्तान गए अन्य लोगों के साथ क्या हुआ होगा ?

Friday, 19 May 2017

नाथूराम गोडसे

नाथूराम गोडसे का जन्म १९ मई १९१० को भारत के महाराष्ट्र राज्य में पुणे के निकट बारामती नमक स्थान पर चित्तपावन मराठी परिवार में हुआ था. नाथूराम विनायक गोडसे एक पत्रकार, हिन्दू राष्ट्रवादी और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे.
उन्होंने पहले कांग्रेस में रहकर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया था. कुछ समय तक अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में रहने के बाद, वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी जुड़े रहे, परन्तु बाद में (1930 में) वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा में चले गये.
इनका सबसे अधिक चर्चित कार्य मोहनदास करमचन्द गान्धी उपाख्य महात्मा गान्धी की हत्या था क्योंकि भारत के विभाजन और उस समय हुई साम्प्रदायिक हिंसा में लाखों हिन्दुओं की हत्या के लिये, अधिकाँश लोग गान्धी को ही उत्तरदायी मानते थे.
आजादी की लड़ाई लड़ने वाले क्रांतिकारियों को दरकिनार कर, अंग्रेजों-कांग्रेसियों-मुस्लिम लीगियों और पूर्व राजाओं द्वारा आपस में बैठकर देश का बंटबारा कर लेना और हिन्दू बिरोधी नीतियां लागू करवा लेना भी, देश कि अधिकाँश हिन्दू जनता को पसंद नहीं था.
सुभाष चन्द्र बोश, भगत सिंह, चन्द्र शेखर आजाद, जैसे क्रान्तिकारियो के प्रति गांधी का बर्ताव, राष्ट्रवादियों को तकलीफ देता था. धर्म के आधार पर देश का बाँटकर मुस्लिमो को "पापिस्तान" देना और हिन्दुओं को "हिन्दुस्थान" नहीं देना भी लोग बेईमानी मानते थे.
इसके अलावा खिलाफत तथा बंटवारे के हिन्दू बिरोधी दंगों में मरे / उजड़े हिन्दुओं की दुर्दशा के लिए भी लोग गांधी को जिम्मेदार मानते थे. इसके अलावा गांधी जी पापिस्तान और बंगलादेश को जोड़ने वाला दस मील चौड़ा गलियारा देना चाहते थे.
हिन्दुओं के साथ किये गए अन्याय के लिए, गांधी को जिम्मेदार मानकर "नाथूराम गोडसे" ने गांधी को गोली मार दी थी. मानव ह्त्या बहुत ही जघन्य अपराध है और गांधी जी की ह्त्या की भी निंदा की जानी चाहिए, लेकिन जरा सोंचो कि -
कहीं अगर दस मील चौड़ा "पाकिस्तान-बंगलादेश" गलियारा बन गया होता तो हिन्दुस्थान की आज क्या स्थिति होती ? इस बात के लिए तो "नाथू राम गोडसे" को भी प्रणाम करने का दिल करता है .

Wednesday, 17 May 2017

तलाक को लेकर गंभीर बिचार विमर्श की आवश्यकता

कई बार विवाह के बाद पति पत्नी के बिचार नहीं मिलते हैं और उनमे झगडे होने लगते हैं. इन झगड़ों को ख़त्म करने के लिए उन दोनों को अलग करना जरुरी हो जाता है. पति पत्नी का रिश्ता ख़त्म कर दम्पत्ति का अलग हो जाना "तलाक" या "विवाह बिच्छेद" कहलाता है.
आज के समय में हमारे देश में अलग अलग समुदायों के लिए "तलाक" के अलग अलग नियम है. इन सभी नियमो में ऐसी कई विसंगतियां है जिनकी बजह से कहीं पुरुष तो कहीं महिला के मानवाधिकार का हनन होता है. इन पर अब गंभीरता से बिचार करना चाहिए.
तलाक को लेकर एक गंभीर चर्चा होनी चाहिए. इस पर हिन्दू / मुस्लिम / इसाई आदि से अलग हटकर सर्वमान्य नियम बनाने चाहिए. जो दम्पत्ति साथ नहीं रहना चाहते उनकी परेशानी और आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, नए नियम बनाने की आवश्यकता है.
जहाँ मुस्लिम समाज में "तलाक" के नियम मुस्लिम महिलाओं के मानवाधिकार का हनन करते हैं, वहीँ हिन्दू समाज के लिए तलाक के नियम इतने जटिल हैं कि- इसमें कई साल निकल जाते और अलग होने के बाद दोबारा शादी करने की उनकी उम्र ही निकल जाती है .
इसके अलावा अपने अपने आपको, कानूनी शिकंजे से बचाने के लिए महिला पुरुष पर दहेज़ का झूठा आरोप लगाने तथा पुरुष महिला के चरित्र पर झूठा आरोप लगाने को मजबूर होता है. अधिकतर ऐसे मामले झूठे होते हैं जो वकीलों के कहने पर डाले जाते हैं.
कई बार तो झूठे / सच्चे आरोपों का ऐसा खतरनाक दौर चलता है जिसमे उस दम्पत्ति के परिवार वाले तथा रिश्तेदार भी प्रताड़ित हो जाते हैं. कई बार तो ऐसे मामलो की परिणति हत्या तथा आत्महत्या के रूप में भी होती है, जो तलाक से भी ज्यादा बुरी स्थिति है.
तलाक को लेकर एक गंभीर बिचार विमर्श होना चाहिए, जिसमे समाज शास्त्री, कानूनविद, धर्मगुरु, तलाक से गुजरे लोग, आदि भी शामिल होने चाहिए. विचार विमर्श करने के बाद ऐसे सरल नियम बनाए जाएँ, जिससे किसी को भी कोई ज्यादा तकलीफ न होने पाए.
कृपया इस पोस्ट साम्प्रदायिक अथवा जातीय नजरिये से न देखा जाए. इस पर केवल मानवाधिकार के नजरिये से बिचार किया जाए.

देश से ख़त्म हो रहे जातिवाद को फिर से भड़काने की साजिश

समाजसेवियों के प्रयास, शिक्षा के प्रसार तथा बढ़ते अंतरजातीय विवाहों ने जातिवाद को काफी कम कर दिया है. इसका परिणाम निकला कि पिछले तीन साल में हुए चुनावों में जातिवाद कहीं भी हावी नहीं हो पाया. यह देश के उज्ज्वल भविष्य का संकेत है.
लेकिन जिन राजनैतिक पार्टियों की राजनीति ही जातिवाद पर चलती थी वो पार्टियां बहुत बेचैन हैं. उनको पता है कि अगर जात पात ख़त्म हो गया तो उनकी पार्टियों का तो आस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा. इसलिए वो अभी भी वो इसे भड़काने में लगे हुए हैं.
कहीं दो व्यक्तियों में किसी भी बात पर कोई भी व्यक्तिगत झगडा होने पर यह जातिवादी पार्टियां फौरन वहां पहुच जाती हैं और झगडा शांत कराने की कोशिश करने के बजाय उनकी जाति पता करने की कोशिश करती है. अगर उनकी जाती अलग निकली तो खुश.
उन दोनों की अलग जाती का पता चलते ही, ये अराजक तत्व और पार्टियां उस व्यक्तिगत झगडे को, जातीय झगड़ा बताकर, लोगों को भड़काना शुरू कर देते हैं. ऐसा ही काम पहले गुजरात के ऊना में किया गया था और अभी सहारनपुर में किया जा रहा है.
ऊना में हड्डा रोडी के मुस्लिम ठेकेदार ने, चोरी से जानवरों की खाल उतारने वाले अपने पूर्व कर्मचारियों को अपने गुंडों से पिटवाया. पिटवाने वाला मुस्लिम, पीटने वाले ओबीसी से और पिटने वाले दलित और इसे मुद्दा बनाया गया गाय की खाल उतारने पर पिटाई का
ऐसे ही पिछली सरकार के समय में उत्तर प्रदेश में कई जगह मुसलमानो की आपत्ति की बजह से शोभायात्राओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. सरकार बदल जाने के बाद जब लोगों ने फिर से शोभा यात्रा निकालनी चाही तो अराज्कों ने उन पर पथराव किया.
पहले सहारनपुर के एक कसबे में डा.आंबेडकर की जयंती के उपलक्ष्य में निकाली गई शोभायात्रा पर मुसलमानों ने पथराव किया. फिर उन तथाकथित मुस्लिम और दलित नेताओं को समझ आ गया कि - इससे तो बीजेपी और मजबूत होगी नइ चाल सोंचने लगे.
कुछ दिन बाद उन्ही अराजक तत्वों ने, महाराणा प्रताप की शोभायात्रा पर पथराव किया और तथाकथित दलित नेताओं ने इसे सवर्ण बनाम दलित झगड़ा बनाने की कोशिश की. जबकि सभी को पता है कि - महाराणा प्रताप से तो किसी भी जाती वाले को आपत्ति नहीं है.
महाराणा प्रताप "महान" की सेना में तो राजपूतों से ज्यादा संख्या कोल और भील जनजातियों के लोगों की थी. महाराणा उनके साथ जमीन पर बैठकर ही भोजन करते थे. एक बार उनके एक सरदार ने ऐतराज किया तो प्रताप ने एक भील को अपनी छाती से लगाकर कहा-
ये हमारी छाती से लग गया, आज से ये क्षत्रीय है और जो मानसिंह वगैरह जैसे राजपूत अकबर की गुलामी कर रहे हैं, मैं उनको क्षत्रीय नहीं मानता. ऐसे महाराणा प्रताप "महान" पर भला कौन भारतीय गर्व नहीं करता है चाहे उसका जन्म किसी भी जाती में हुआ हो.

Tuesday, 16 May 2017

महारानी दुर्गावती

महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं. उनका जन्म महोबा के राठ गांव में 1524 ई0 की दुर्गाष्टमी के दिन हुआ था. दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नामदुर्गावती रखा गया. नाम के अनुरूप ही तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी. दुर्गावती से प्रभावित होकर राजा संग्राम शाह ने अपने पुत्र दलपत शाह से विवाह करके, उसे अपनी पुत्रवधू बनाया था.
दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया. उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था. अतः रानी ने स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया. उन्होंने अनेक मंदिर, मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाईं. वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था. उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया.
जालिम और ऐय्यास शहंशाह "अकबर" को जब महारानी दुर्गावती की बहादुरी और सुन्दरता के बारे में पता चला, तो उसने अपनी ताकत के बल पर महारानी को अपने हरम में डालने का निश्चय कर लिया. उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा. मगर स्वाभिमानी रानी ने अकबर की नीयत को समझते हुए उसकी मांग ठुकरा दी.
इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में गोंडवाना पर हमला कर दिया. और उसे हुकुम दिया कि - रानी दुर्गावती को ज़िंदा और सही सलामत उसके हरम के लिए लाया जाए. पहले हमले में आसफ खां बुरी तरह से पराजित हुआ. रानी के नेत्रत्व में हुए मुकाबले में मुग़ल सेना को बहुत क्षति उठानी पडी. लेकिन जल्द ही आसफ खान ने दुगनी सेना और तैयारी के साथ गोंडवाना पर हमला बोल दिया.
दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे. उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया. इस युद्ध में 3,000 मुगल सैनिक मारे गये लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई थी. अगले दिन 24 जून, 1564 को मुगल सेना ने फिर हमला बोला. आज रानी का पक्ष दुर्बल था. आशफ़ खान अकबर के हरम के लिए, महारानी को ज़िंदा पकड़ना चाहता था.
अपनी पराजय सुनिश्चित देखकर , रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया और अपने वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे, लेकिन आधारसिंह अपनी महारानी की ह्त्या के लिए तैयार नहीं हुआ. तब रानी ने अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान दे दिया. महारानी ने अपनी जान देकर अपने और अपने देश के स्वाभिमान की रक्षा की.
इस युद्ध में छोटी सी रियासत के सामने मुग़लिया सल्तनत को भारी नुकशान उठाना पडा था. इसके अलावा महारानी दुर्गावती को अपने हरम में लेजाने का अकबर का सपना भी टूट गया था. इससे क्षुब्ध होकर "तथाकथित अकबर महान" ने गोंडवाना में भीषण नरसंहार किया, बूढों और बच्चों को भी नहीं बख्शा. उसने अपने सैनिकों को महिलाओं की इज्ज़त लुटने को कहा तथा अनेकों हिंदू स्त्रीयों को जबरन उठवाकर ले गया था.
महारानी दुर्गावती ने अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपनी जान गंवाने से पहले पंद्रह वर्षों तक शासन किया था. अकबर से पहले मालबा के राजा बाज बहादुर ने भी गोंडवाना पर हमले किये थे और उनमे हरबार महारानी दुर्गावती की ही जीत हुई थी. जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, वहां महारानी दुर्गावती की समाधि बनी है. स्वाभिमानी देशप्रेमी बहा जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.
एक महत्वपूर्ण तथ्य और जिस समय अकबर ने दुर्गावती को पाने की खातिर गोंडवाना पर चढाई की थी उस समय रानी दुर्गावती की आयु 40 बर्ष थी और अकबर की मात्र 22 साल. अकबर के एक खास ने जब अकबर से यह कहा कि - वो तो आपके सामने बुढ़िया है तो अकबर का जबाब था कि - मुझे लड़कियों की कमी नहीं है , मुझे तो इन हिन्दुस्थानियों के स्वाभिमान को मसलना है. और ऐसे नीच को भी कुछ लोग महान कहते हैं.