"भीमा कोरेगांव की लड़ाई का सच (1जनवरी 1818 की एक घटना)
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दरअसल वे लोग भिमा कोरेगांव की जिस लड़ाई को दलित-ब्राह्मण की लड़ाई बता रहे हैं, वो वास्तव में अंग्रेजों और पेशवाओं की लड़ाई थी, जिसमे जिसमे कुछ गद्दार "महारों" को आगे करके, अंग्रेज पेशवाओं से जीतने में कामयाब हुए थे. महार सैनिक भी केवल दिखावे के लिए ही आगे थे पीछे तोपखाने के साथ उनकी विशाल सेना थी.
जैसा कि हम सभी जानते है कि अंग्रेज भारत में व्यापारी बनकर आये थे और धीरे धीरे यहाँ की रियासतों पर कब्ज़ा करते जा रहे थे. 1800 तक अंग्रेजों ने भारत के बहुत बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था. अंग्रेजों का बिरोध करने वाले अधिकाँश भारतीय राजा मारे जा चुके थे. बचे हुए ज्यादातर राजाओं ने भी अंग्रेजो का अधिपत्य स्वीकार कर लिया था.
उस समय तक अंग्रेजों का कड़ा बिरोध केवल मराठे ही कर प् रहे थे. लेकिन अंग्रेजो की किस्मत और हिन्दुस्थान की बदकिस्मती से, 1800 में "नाना फडनवीस" की म्रत्यु हो गई और सत्ता पर बाजीराव (दितीय) का नियंत्रण हो गया. 1803 से लेकर 1817 तक मराठों की अंग्रेजो से कई लड़ाइयाँ हुई, जिनमे कभी अंग्रेज और कभी मराठे विजयी हुए.
नवम्बर 1817 में बाजीराव द्वितीय के नेतृत्व में, संगठित मराठा सेना ने पूना की 'अंग्रेज़ी रेजीडेन्सी' को लूटकर जला दिया. उसके बाद मराठों ने "खड़की" स्थिति अंग्रेज़ी सेना छावनी पर हमला कर दिया, लेकिन वहां पर वे लोग पराजित हो गये. तब कुछ मराठा सरदारों ने 1 जनवरी 1818 को छवनी पर बड़ा हमला करने की योजना बनाई.
भिमा कोरेगाव की लडाई 1 जनवरी 1818 को "पुना" स्थित "कोरेगाव" मे, भिमा नदी के पास हुई. यह लड़ाई अंग्रेजो और पेशवा के बीच लड़ी गई थी. इस लड़ाई का कमांडर एक अंग्रेज कैप्टन फ्रांसिस स्टान्टन था न कि कोई महार. इस लड़ाई में भारतीयों के आगे भारतीयों को करने की नीति से अंग्रेजों ने क्रांतिकारी पेशवाओं पर विजय पाई थी.
31 दिसम्बर 1817 की रात्री को कैप्टन फ्रांसिस स्टान्टन को सूचना मिली कि - क्रांतिकारी पेशवाओं की एक फ़ौज पूना पर हमला करने के लिए आ रही है और रात्री में कोरेगांव में भिमा नदी के किनारे विश्राम कर रही है. यह भी पता चला कि -उस टुकड़ी के पास केवल तीरकमान और तलवारे ही है, थोड़ी बहुत बंदूकें है लेकिन कोई तोप नहीं नहीं है . तब उसने एक प्लान बनाया.
अंग्रेजों की सेना में कुछ भारतीय भी भर्ती हो चुके थे. "स्टान्टन" ने उनमे से 500 सैनिको को चुना जो ज्यादातर महार जाति के थे. उन सैनिको को बन्दुको से लैस कर आगे भेजा तथा उसके पीछे अपनी दुसरी फ़ौज को लेकर कोरेगांव पहुंचा. प्रातःकाल जब वे पेशवा सैनिक तैयार हो रहे थे तब अचानक "महार" सैनिको का वो जत्था वहां पहुँच गया.
अंग्रेजों के महार सैनिको ने वहां पहुँच कर "हर हर महादेव" का नारा लगाया. पेशवा सैनिको को लगा कि - यह कोई क्रातिकारी लोगों का समूह है जो उनसे मिलने के लिए आया है. लेकिन अंग्रेजों के गुलाम महार सैनिको ने पास आते ही, हमला कर दिया. इससे पहले कि वे सम्हल पाते "स्टान्टन" की दूसरी टुकड़ी ने दुसरी तरफ से हमला कर दिया.
अचानक हुए इस भयानक हमले में पेशवा फ़ौज तितर बितर हो गई और लड़ाई हार गई. अब आप खुद बिचार कीजिए कि इस लड़ाई में अंग्रेजों की तरफ से लड़ने वाले गद्दार महार सम्मान के पात्र हैं या धिक्कार के ? धोखे से हुए इस हमले में, अंग्रेजों की भारतीयों पर जीत से खुश होना चाहिए या दुखी ?
अंग्रेजों की तरफ से केवल 500 महार नहीं बल्कि पूरी अंग्रेज सेना थी. महार लोग कोई योद्धा नहीं थे बल्कि अंग्रेजों के सेवक थे. पेशवाओं ने तो उनको भारतीय समझकर उनपर पहले हमला तक नहीं किया था. मराठा सैनिको के पास केवल तीर / तलवार / बंदूक थे जबकि अंग्रेज सेना ने बंदूकों और 24 तोपों के साथ यह हमला किया था.
इस लड़ाई में 250 के लगभग कम्पनी के सैनिक (जिनमे 11 यूरोपियन मूल के थे) तथा 500 के आसपास मराठा सैनिक (जिनमे जिनमे मराठा सेना के , अरब मूल के 50 मुस्लिम सैनिक भी शामिल थे) मारे गए थे , वह मराठा सैनिक तोपखाने का सामना न कर सके और तितर बितर हो गए और लड़ाई हार गए.
इस लड़ाई में मिली जीत के बाद अंग्रेजों को, महाराष्ट्र में अपनी पकड़ मजबूत करने में मदद मिली थी. इसके बाद अंग्रेजो ने अपनी सेना में महारों की भर्ती बढ़ाई और भारत के गद्दारों को, भारतीयों के खिलाफ इस्तमाल किया. यह लोग अंग्रेजों के नौकर बनकर रहे और अंग्रेजो के लिए भारतीयों पर अत्याचार करते थे.
लगान बसूली के लिए भी अंग्रेज इनको भेजते थे. लगान न चुका पाने वाले गरीब भारतीयों पर अत्याचार करना और उनकी स्त्रीयों को उठाकर अंग्रेजों को सौपना भी इन का काम था. इन गद्दारों का महिमामंडन करने वाले लोग भी देश के गद्दार ही कहे जा सकते हैं. यह कोई देशभक्त नहीं थे बल्कि अंग्रेज भक्त थे.
इतना सब होने के बाद भी अंग्रेजों ने अपनी सेना में महारों को कोई महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं दिया था. उनको केवल सेवा या लगान बसूली करने के काम में ही लगाया. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जब ज्यादातर भारतीय सैनिको ने अंग्रेजों से वगावत कर दी थी उस समय 1941 में वगावत न करने वाले अंग्रेज भक्त सैनिको की महार रेजीमेंट बनाई थी.

हमें केवल अंग्रेजों / मुघलों / चीनियों / पापिस्तानियों / आदि से लड़ने लड़ने वारों का ही सम्मान करना चाहिए, चाहे वो लड़ाई जीते हों या हारे हों. किसी भी गद्दार को उसकी लड़ाई में जीत के लिए सम्मान नहीं बल्कि धिक्कार ही देना चाहिए क्योंकि उनकी जीत देश की जीत नहीं बल्कि देश के दुश्मनों की जीत थी.
बिना सच्चाई को समझे जाती के नाम पर ऐसी घटनाओं को समर्थन से बचें.
jhoothappa no 1
ReplyDeletelol
इसको झूठ साबित करने के लिए कोई तर्क या तथ्य लेकर आ
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