Tuesday, 2 January 2018

महाराष्ट्र हिंसा और कांग्रेस

अंग्रेजों ने भारत में डेढ़सौ साल से ज्यादा शासन किया. उनकी सेना में अधिकाँश भारतीय लोग ही थे. उनकी सेना में लगभग हर भारतीय धर्म और जाति के लोग थे. अंग्रेजों ने अगर देश पर इतने समय राज किया है तो जाहिर सी बात हैं कि - अंग्रेजों की सेना ने भारत के क्रांतिकारियों को अनेकों बार हराया होगा. लेकिन हम भारतीय कभी अंग्रेजों की जीत का गुणगान नहीं करते हैं, बल्कि क्रांतिकारियों का ही गुणगान करते हैं.
देश पर शासन स्थापित करने की कोशिश में अंग्रेजों ने भारतीय सैनिको की सहायता से ही, भारतीय क्रांतिवीरों को बार बार हराया लेकिन हम उन हारने वाले क्रांतिकारियों को ही सम्मान देते हैं, जीतने वाले अंग्रेजो के भारतीय सैनिको को नहीं. 1857 की क्रान्ति में हमारी हार हुई , उस समय भी अंग्रेजों की तरफ से भारतीय मूल के सैनिक ही लड़ रहे थे. लेकिन हारने वाले देशभक्तों को पूजा जाता है जीतने वाले गद्दारों को नहीं.
1818 में अंग्रेजों की सेना की एक टुकड़ी (जिसमे कुछ महार जाति के लोग थे) की भारतीयों पर जीत को, दलितों की ब्राह्मणों पर जीत बता कर उसका जश्न मनाया जा रहा है. जबकि सबको पता है कि - वो कोई जातीय लड़ाई नहीं थी बल्कि अंग्रेजों की भारतीयों से लड़ाई थी. ऐसी किसी भी लड़ाई में अंग्रेजों का साथ देने वालों को देश का गद्दार ही कहा जाएगा. उनकी जीत का जश्न मनाना भी देश के साथ गद्दारी करना ही है.
1857 तक अंग्रेजों की भारत में पकड़ काफी मजबूत हो चुकी थी क्योंकि उनकी सेना में बहुत सारे भारतीय सैनिक शामिल हो चुके थे. उन भारतीय मूल के सैनिको की मदद से अंग्रेजों ने देश की ज्यादातर रियासतों पर कब्ज़ा कर लिया था. लेकिन याद रहे अंग्रेजों की तरफ से लड़कर जीतने वाले सैनिको को सम्मान नहीं दिया जाता है बल्कि भारत के लिए लड़ने वाले हारे हुए सैनिको को ही सम्मान दिया जाता है.
अंग्रेजों की सेना के भी केवल उन सैनिको को सम्मान दिया जाता है जिन्होंने अंग्रेजों से बगावत की. चाहे वो सैनिक हों जिन्होंने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की और क्रांतिकारियों के साथ शामिल हो गए या 1940 -41 के वो सैनिक जो विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों का साथ छोड़कर 'सुभाष चन्द्र बोस" की आजाद हिन्द फ़ौज में शामिल हो गए थे. उन युद्धों में भी जीत अंग्रेजो की ही हुई थी.
लेकिन इसके बाबजूद हारे हुए देशभक्त सैनिको को सम्मान दिया जाता है, अंग्रेजों की तरफ से लड़कर जीतने वालों को नही. 1857 में दिल्ली, झांसी, लखनउ, मेरठ, कानपुर, जगदीशपुर, आदि हर जगह अंग्रेजों की जीत हुई और उनकी सेना में 90% भारतीय ही थे. लेकिन 1857 की लड़ाई जीतने वालों को नहीं बल्कि केवल हारने वाले सैनिको, रानी, क्रांतिकारियों और राजाओं को सम्मान दिया जाता है.
आज भारत में कांग्रेस और जातिवादी पार्टियों के आस्तित्व का संकट पैदा हो गया है. उनको पता है कि अगर हिन्दू एकजुट रहे तो वे कभी दुबारा सत्ता में वापस नहीं आ पायेंगे, इसलिए किसी तरह से हिन्दुओं को आपस में लड़ाना ही होगा. इसके लिए पहले गुजरात में "पटेल आरक्षण" के नाम पर हिन्दुओं को आपस में लड़ाने का प्रयास किया गया. अब यही चाल महारष्ट्र में दलित के नाम पर चली गई है.
अरबियों और अंग्रेजों ने भारत में आते ही समझ लिया था कि हिन्दुओं को आपस में लड़ाकर ही इन पर शासन किया जा सकता है. मुघलो और अंग्रेजों ने इसीलिए देश में जातिवाद को खूब उभारा जिससे कि - हिन्दू कभी एकजुट न हों. अंग्रेजों के जाने के बाद कांग्रेस ने भी यही किया और हिन्दुओं को जाति के नाम पर बांटकर कई दशक तक राज किया. लेकिन हिन्दुओं के एकजुट हो जाने से उनकी सत्ता चली गई.
राजनेता अपनी राजनीति के लिए देश में किस तरह से आग लगा देते हैं, इसका ताजा उदाहरण आपको इस समय महाराष्ट्र में देखने को मिल सकता है. हिन्दुओं के एकजुट हों जाने के कारण, राजनैतिक रूप से पंगु बन चुकी कांग्रेस, जातिवादी राजनीति करने वाली पार्टियाँ और वोट बैंक की राजनीति में निष्प्रभावी हो चुके मुश्लिम्स ने अपना आस्तित्व बचाने के लिए, हिन्दुओ को आपस में लड़ाकर फिर से सत्ता पाना चाहते हैं.


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