पिछली पोस्ट में पढ़ चुके हैं कि- 06 दिसम्बर 1796 को बाजीराव द्वितीय (जन्म 1775 : मृत्यु 1851) पेशवा पद पर नियुक्त हुआ. समस्त मराठा उस समय प्रधानमंत्री "नाना फडनवीस" का सम्मान "पेशवा" भी ज्यादा करता था. यह बात पेशवा बाजीराव (द्वितीय) को बहुत तकलीफ देती थी और वह नाना से दिल में नाना से नफरत करता था.
लेकिन मराठा संघ (होलकर, सिंधिया, गायकवाड, भोसले, आदि) "नाना फडनवीस" की ही बात मानते थे. उस समय तक अंग्रेज भारत के काफी बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर चुके थे और केवल मराठा साम्राज्य ही उनको चुनौती दे पा रहा रहा था. अंग्रेजों को यह भी पता था कि "नाना फडनवीस" के रहते मराठों को जीतना मुश्किल है.
तब अंग्रेजों ने कुछ समय के लिए मराठा साम्राज्य की तरफ से ध्यान हटा लिया और गैर मराठा हिन्दू / मुस्लिम रियासतों पर अधिकार करना शुरू कर दिया. इसमें अंग्रेजो को कोई ख़ास मुश्किल भी नहीं आई क्योंकि ज्यादातर रियासते एक दुसरे का साथ नहीं देती थी और उनको अंग्रेजों से संधि करके पेंशन लेना ज्यादा आसान लगता था..
अंग्रेजों को थोड़ी टक्कर कर्नाटक (मैसूर और बेलगाँव) में अवश्य मिली. मैसूर के राजा "टीपु सुलतान" ने अंग्रेजों का कडा मुकाबला किया लेकिन पूर्वकाल में टीपू ने अपने राज्य की हिन्दू जनता पर इतने जुल्म किये थे और उनका जबरन धर्म परिवर्तन कराया था कि - मैसूर की जनता और टीपू के पिता हैदरअली के बफादार भी टीपू का साथ छोड़ गए थे.
1799 में मैसूर पर अंग्रेजों का कब्ज़ा हो गया, यह दक्षिण में अंग्रेजों की बड़ी जीत थी. हिन्दू प्रजा और मुस्लिम राजा के बीच कटुता का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने मैसूर को जीता था. अंग्रेजों ने इसी फार्मूले (फूट डालो -राज करो) का लाभ उठाने के लिए, मराठा साम्राज्य की प्रजा और पेशवा के बीच कटुता पैदा करने लिए जातीय विवाद पैदा करने शुरू किये.
अंग्रेजों ने अपने अधीन रियासतों की सेना और सरकारी विभागों में तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी में, हिन्दुओं की उपेक्षित जातियों को भरती कराना शुरू किया. हालांकि इनको कोई बड़ा पद नहीं दिया जाता था, उनको केवल सेवाकार्यों में ही रखा जाता था, उच्च पद हिन्दुओ और मुसलमानों की उच्च जातियों को ही दिया जाता था.
इससे भारतीयों में अंग्रेजों का और प्रभाव बढ़ने लगा. अंग्रेज खुद तो देश की जनता पर अत्याचार करते और जिसे चाहे मार देते थे लेकिन किसी भारतीय राजा द्वारा किसी अपराधी या गद्दार को सजा देने पर, अंग्रेज उनको जातीय अत्याचार बताकर खूब प्रचारित करते. अंग्रेजों की इस चाल से लोग एक दुसरे की जाती और पंथ के खिलाफ ही गए.
इसके अलावा, अंग्रेजों ने गद्दार भारतीयों को अपना बफादार बनाने के लिए, "खान बहादुर" और "राय बहादुर" जैसी उपाधियों का सृजन किया. यह अंग्रेजों के गुलाम राय बहादुर और खान बहादुर भी, भारतीयों को आपस में लड़ाने में अंग्रजों के लिए बहुत बड़े हथियार साबित हो रहे थे, भारत में अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति, कामयाब हो चुकी थी.
उसी समय अंग्रेजो की किस्मत और हिन्दुस्थान की बदकिस्मती से, 1800 में "नाना फडनवीस" की म्रत्यु हो गई और सत्ता पर बाजीराव (दितीय) का नियंत्रण हो गया. वह अयोग्य और अनुभवहीन तो था ही, साथ ही विशवासघाती और कटुबोलने वाला भी था. "नाना फडनवीस" की म्रत्यु के बाद वह पूरी तरह से निरंकुश हो गया.
उसके व्यवहार के कारण मराठा संघ टूट गया. बाजीराव (द्वितीय) को कभी समझ नहीं आया कि- उसे अंग्रेजों से मित्रता करनी है या दुश्मनी. वह कभी अंग्रेजों से संधि करता, तो कभी वह अंग्रेजों से युद्ध करने लगता. इस नीति से सेना भी असमंजस में थी. इसके अलावा मराठा संघ टूट जाने से, अन्य मराठा राजा केवल अपनी अपनी रियासत की सोंचने लगे.
"नाना फडनवीस" की म्रत्यु के बाद "जसवन्तराव होल्कर" को उनके पद के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता था.लेकिन सत्ता पर अपनी पकड मजबूत बनाने के चक्कर में, बाजीराव (द्वितीय) ने "दौलतराव शिंदे" को आगे कर, शिंदे और होलकर के बीच प्रतिद्वंदिता पैदा कर दी. पुणे के फाटक के बाहर शिंदे और होलकर में युद्ध हो गया.
जिसमे बाजीराव (द्वितीय) ने शिंदे का साथ दिया लेकिन जीत होलकरों की हुई, तब बाजीराव भागकर बसई चला गया. उसने 31 दिसम्बर, 1802 को "बसई" में अंग्रेजों से संधि कर ली. अंग्रेजों ने उसे फिर से पुणे की सत्ता दिलाने का आश्वासन दिया और अपनी शर्तों में पेशवा बाजीराव (द्वितीय) को बाँध लिया.
इस शर्मानाक संधि से मराठा सरदार नाराज हो गए और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया. उनको देखकर बाजीराव ने भी पलटी मार ली. बाजीराव भी मराठा सरदारों के साथ हो गया और अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध को तैयार हो गया. 1803 से लेकर 1817 तक मराठों की अंग्रेजो से कई लड़ाइयाँ हुई.
नवम्बर 1817 में बाजीराव द्वितीय के नेतृत्व में, संगठित मराठा सेना ने पूना की 'अंग्रेज़ी रेजीडेन्सी' को लूटकर जला दिया. उसके बाद मराठों ने "खड़की" स्थिति अंग्रेज़ी सेना छावनी पर हमला कर दिया, लेकिन वहां पर वे लोग पराजित हो गये. तब कुछ मराठा सरदारों ने 1 जनवरी 1818 को छवनी पर बड़ा हमला करने की योजना बनाई.
उनको पता था कि- 31 दिसंबर की रात में अंग्रेज देर रात तक पार्टियों में व्यस्त रहते हैं इसलिए जब अंग्रेज सेना नशे में चूर होकर सो रही होगी तब नवबर्ष की सुबह छावनी पर बड़ा हमला किया जाएगा. इसके लिए मराठा सैनिको को 31 दिसंबर की रात को कोरेगांव में "भिमा"नदी के किनारे इकठ्ठा होने का सन्देश दिया.
अंग्रेजों को इसकी खबर लग गई. उन्होंने कैप्टन स्टान्टन को एक बड़ी बंदूकधारी सेना देकर उनको रोकने भेजा. कैप्टन स्टान्टन ने भारतीय मूल के लगभग 500 सैनिको (जो ज्यादातर महार जाति के थे) को आगे भेजा. उस समय सुबह होने को थी और मराठा सैनिक नित्य कर्मो से फारिग होकर तैयार हो रहे थे.
महार सैनिको को आता देख उनको लगा कि - यह शायद कोई देशभक्तों की फ़ौज है जो अंग्रेजों के साथ लड़ाई में उनका साथ देने आई है. वे उनका स्वागत करने लगे, लेकिन महार सैनिको ने नजदीक आते ही उनपर अँधाधुंध गोलिया चलाना शुरू कर दिया, इससे पहले कि मराठा सैनिक सम्हाल पाते अंग्रेजों की फ़ौज ने दुसरी तरफ से टोपों से हमला कर दिया.
मराठा सैनिको के पास केवल तीर - तलवार थे जबकि अंग्रेज सेना ने बंदूकों और 24 तोपों के साथ यह हमला किया था. इस लड़ाई में 250 के लगभग कम्पनी के सैनिक (जिनमे 11 यूरोपियन मूल के थे) तथा 500 के आसपास मराठा सैनिक (जिनमे जिनमे मराठा सेना के , अरब मूल के 50 मुस्लिम सैनिक भी शामिल थे) मारे गए थे ,
मराठा सैनिक तोपखाने का सामना न कर सके और तितर बितर हो गए. इस के एक माह बाद "आश्टी" की लड़ाई में भी मराठों की हार हुई और पुणे पर अंग्रेजों का कब्ज़ा हो गया. बाजीराव ने अन्य मराठा राज्यों से मदद मांगी लेकिन निजी रंजिश के कारण उनका किसी ने साथ नहीं दिया. तब उसने 3 जून 1818 को अंग्रेजों के सामने आत्म समर्पण कर दिया.
अंग्रेज़ों ने इस बार पेशवा बाजीराव द्वितीय को अपदस्थ करके, एक कैदी के रूप में कानपुर के निकट बिठूर भेज दिया. जहाँ वह एक किले में नजरबंद कैदी के रूप में रहा. 1853 ई. में उसकी मृत्यु हो गई. इस प्रकार शिवाजी से लेकर माधवराव तक मराठों ने जो साम्राज्य बनाया था उसे अयोग्य पेशवा बाजीराव द्वितीय ने नष्ट कर दिया.
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