कल सुरजेवाला ने राहुल गांधी के बारे में एक बयान दिया है कि - राहुल गांधी जनेऊधारी ब्राह्मण है, इसके बाद "जनेऊ" पर बहस प्रारम्भ हुई है. इस बिषय में मुझे जो जानकारी है वो मैं आपके साथ शेयर करना चाहता हूँ. ज्ञानीजन मार्गदर्शन करें.
जनेऊ मात्र एक घागा नहीं है बल्कि जनेऊधारी व्यक्ति की शुद्धता और शुचिता का प्रतीक है. भारत में जनेऊ धारण करने की काफी प्राचीन परम्परा है. जनेऊ धारण करने का अर्थ यह है कि - जनेऊधारी व्यक्ति धर्म और ज्ञान की जानकारी रखने योग्य है.
12 साल तक के बच्चो को किसी यज्ञ में सम्मिलित होकर आहुति डालने का अधिकार नहीं है. ऐसा नियम इसलिए बनाया गया कि - नासमझ बच्चे यज्ञ में व्यवधान पैदा न करे. जब उनको यज्ञ का महत्व समझ आ जाए, उसके बाद ही यज्ञ में शामिल हों.
12 साल की आयु होने के बाद, बच्चों का जनेऊ संस्कार किया जाता है. उनको यज्ञ की महत्वता के तथा तन और मन की शुद्धता के बारे में समझाया जाता है. इसीलिए जनेऊ धारण करने को, यज्ञोपवीत संस्कार भी कहां जाता हैं.
प्राचीन काल में जनेऊ धारण करने के बाद ही, बालक समझदार माना जाता था. जनेऊ धारण करने के बाद ही बालक शास्त्र (ब्राह्मण), शस्त्र (क्षत्रीय), व्यापार (वैश्य) की शिक्षा प्रारम्भ करने के योग्य बनता था. बिना जनेऊ वाले को शूद्र कहा जाता था.
भगवान् परशुराम ने जनेऊ (यज्ञोपवीत) पहनने और उसकी शुद्धता पर विशेष जोर दिया था. उन्होंने गैर संस्कारी ब्राह्मणों के जनेऊ उतरवाकर उनको शुद्र घोषित किया था तथा संस्कारी शूद्रों को भी जनेऊ पहनाकर उनको ब्राहमण बनाया था.
मुघलों द्वारा जनेऊधारियों की हत्या और अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के मन में अपनी परम्पराओं के प्रति हींन भावना भरने के कारण, जनेऊ पहनने की परम्परा ख़त्म होती चली गई और ब्राह्मणों में भी मात्र एक औपचारिकता की तरह रह गई है.
ब्रिटिश राज में भी भारत के एक महान क्रांतिकारी, जो जनजातीय समुदाय से थे, जिनको कि -भगवान् का दर्जा प्राप्त है, उन "भगवान् विरसा मुंडा" ने बनवाशियों में क्रान्ति की ज्वाला भड़काने के लिए जनेऊ (यज्ञोपवीत) का इस्तेमाल किया था.
एक वनवाशी और तथाकथित शुद्र परिवार में जन्म लेने के बाबजूद, वे जनेऊ धारण करते थे और अपने क्रांतिकारी ग्रुप में शामिल होने वालों को भी, वे जनेऊ पहनाते थे. उन्होंने वन्वाशियों में जनेऊ के माध्यम से क्रान्ति का दावानल पैदा कर दिया था.
भगवान् विरसा मुंडा की असमय म्रत्यु हो जाने के बाद उनका यह अभियान थम गया. आज एक बार फिर आवश्यकता है कि संत लोग आगे आयें और लोगों को जनेऊ का महत्त्व समझाकर उनको इसे धारण करवाये. जय सनातन संस्कृति. .
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