अब तक आपने पढ़ा कि- पानीपत की लड़ाई में जेहादी आक्रान्ता अहमदशाह अब्दाली के साथ हुई पेशवाओं की लड़ाई में, पेशवाओं की हार हुई. ज्यादातर मराठे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के थे, जो स्थानीय हालत से वाकिफ नहीं थे. स्थानीय लोगों ने उनको सहयोग नहीं दिया और इस लड़ाई को मराठो और अफगानों की लड़ाई कहकर किनारा कर लिया था.

माधवराव के चाचा रघुनाथराव को उनका संरक्षक बनाया गया. माधव को बच्चा समझकर और पानीपत की हार से मराठों को हताश देखकर, हैदराबार के निजाम ने महाराष्ट्र पर आक्रमण कर दिया. स्वार्थी चाचा रघुनाथराव ने 12 नबम्बर 1762 को आलेगाँव में. पेशवा माधवराव को धोखे से "निजाम" के हाथों में गिरफ्तार करा दिया.
तब पेशवा के पिता के बफादारों ने, बल और बुद्धि के प्रयोग से, माधवराव को निजाम की कैद से आजाद कराया. (इसकी भी एक रोचक कहानी है इसे किसी अगली पोस्ट में प्रस्तुत करूँगा). निजाम की कैद से आजाद होने के बाद "पेशवा माधवराव" ने पुनः सत्ता सम्हाल ली और पानीपत की हार से निराश मराठों में शक्ति संचार करने लगे.
माधवराव धार्मिक, शुद्धाचरण, सहिष्णु, निष्कपट, कर्तव्यनिष्ठ, तथा जनकल्याण की भावना रखने वाले व्यक्ति थे. उनका व्यक्तिगत जीवन एकदम निर्दोष था. वह सफल राजनीतिज्ञ, दक्ष सेनानी तथा कुशल व्यवस्थापक था. उसमें बाला जी विश्वनाथ की दूरदर्शिता, बाजीराव की नेतृत्वशक्ति तथा अपने पिता की तरह शासकीय क्षमता थी.
पेशवा माधव राव ने मराठों को जल्द ही पुनः शक्तिशाली बना दिया और उसने 1765 और 1766 में दो बार निजाम को परास्त किया. मैसूर के शासक हैदर अली ने दो बार महाराष्ट्र पर हमला किया और दोनों बार माधवराव ने उसे खदेड़ दिया. निजाम और हैदरअली ने अपनी सेना और धन, बरार के भोंसले राजा को देकर पेशवा पर हमला करबाया.
लेकिन इस लड़ाई मे भी पेशवा की जीत हुई और भोंसले राजा ने पेशवा की अधीनता स्वीकार कर ली. ब्रज प्रदेश में अब्दाली द्वारा किये गए अत्याचार की गाथाये, माधवराव को हमेशा बिचलित करती थीं. कहा जाता है कि- माधवराव को हर रोज स्वप्न में भगवान् श्रीकृष्ण दिखाई देते थे जो उसे मथुरा / वृन्दावन को मुक्त कराने के लिए प्रेरित करते थे.
पेशवा माधवराव शक्तिशाली मराठा सेना लेकर, पवित्र ब्रज भूमि (मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, बरसाना ) को मुघलो से मुक्त कराने के लिए निकले. इस बार अब्दाली से मार खाए हुए क्षेत्र के, ज्यादातर हिन्दू मराठों के साथ आ गए. इस बार जाटों, राजपूतों और सिक्खों ने भी मराठों का साथ दिया. सबने मिलकर पेशवा माधवराव के नेतृत्व में पवित्र ब्रजभूमि को मुघलों से आजाद करा लिया.
माधवराव ने पुरे बृज प्रदेश से मुसलमानों को मार भगाया और हिंदुओं को उनके धर्म स्थल वापिस दिलवाये. उनकी इसी जीत की ख़ुशी में, पुरे महाराष्ट्र में जन्माष्टमी पर "दही हांडी" का पर्व मनाया गया. यह प्रथा आज भी निरंतर जारी है. पेशवा माधवराव ने मालवा और बुन्देलखंड में भी 1771-72 में फिर से कब्ज़ा स्थापित कर लिया.
इन जीतों से उत्साहित मराठो ने अफगानिस्तान पर हमला कर, उसे जीतने का संकल्प लिया, जिससे खूंखार जेहादियों के भारत पर हो रहे बार बार के हमले की समस्या का, स्थाई हल किया जा सके. इस दिशा में कदम उठाते हुए वे काबुल की तरफ बढे. स्थानीय सहयोग मिलने की बजह से इसमें उनको कोई ख़ास परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा.
मराठा सैनिको ने पेशवा के नाम पर, पेशावर में एक चौकी स्थापित कर दी. लेकिन भारत के दुर्भाग्य ने यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा. जब हिन्दू पेशवा माधवराव के नेतृत्व में लगातार जीत रहे थे, उसी समय 1772ई. में अचानक "पेशवा माधवराव" बहुत बीमार हो गए और 18 नबम्बर 1772 ई., को 27 बर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया.
ज्यादातर इतिहासकार मानते हैं कि- हिन्दुस्थान को जितना बड़ा आघात पानीपत की हार से लगा था, उससे भी ज्यादा बड़ा आघात "पेशवा माधवराव" की असमय म्रत्यु से लगा. पेशवा माधवराव के बाद, मराठों में भी प्रभुत्व के लिए संघर्ष होने लगा था. इसका फायेदा उठाकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में अपने पैर पसारने लगी थी.
उस समय तक मुग़ल भी काफी कमजोर हो चुके थे और मराठे भी सत्ता के संघर्ष में उलझे थे. तब अंग्रेजों ने अनेको भारतीय राजाओं से युद्ध और संधि के माध्यम से अपनी सत्ता का विस्तार करना शुरू कर दिया था. पेशवा माधवराव की म्रत्यु के पश्चात् मराठा साम्राज्य पतनोन्मुख होता चला गया और इसका भरपूर लाभ अंग्रेजों ने उठाया.
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