घरवापसी (शुद्धिकरण) आन्दोलन के प्रणेता "स्वामी श्रद्धानन्द" की पूण्यतिथि तिथि (23 दिसम्बर) पर सादर श्रद्धांजली
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स्वामी श्रद्धानन्द का जन्म 22 फ़रवरी सन् 1856 को पंजाब के जालन्धर जिले के तलवान ग्राम में हुआ था. उनके बचपन का नाम मुंशीराम था. एक बार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक-धर्म के प्रचारार्थ बरेली पहुंचे, उस समय उनके पिता बरेली में पोस्टेड थे. वे अपने साथ मुंशीराम को भी प्रवचन सुनाने ले गए.
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स्वामी श्रद्धानन्द का जन्म 22 फ़रवरी सन् 1856 को पंजाब के जालन्धर जिले के तलवान ग्राम में हुआ था. उनके बचपन का नाम मुंशीराम था. एक बार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक-धर्म के प्रचारार्थ बरेली पहुंचे, उस समय उनके पिता बरेली में पोस्टेड थे. वे अपने साथ मुंशीराम को भी प्रवचन सुनाने ले गए.
प्रवचन को सुनकर उन्होंने, स्वामी दयानंद को अपना गुरु मान लिया. युवा होने पर वे एक प्रसिद्ध वकील हुए. जब वे 35 साल के थे तब उनकी पत्नी का देहांत हो गया. पत्नी की म्रत्यु के बाद उन्होंने सन्यास धारण कर लिया और स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए. उन्होंने अपना जीवन राष्ट्र एवं धर्म के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया.
उनको लगता था कि अंग्रेज अपनी शिक्षा पद्धति के माध्यम से भारत की पीढी को बर्बाद करना चाहते हैं. इसलिए उन्होंने प्राचीन भारतीय पद्धति से शिक्षा का प्रसार करने के लिए हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना की. जिसकी देश में बहुत सारी शाखाये बनाई. उन्होने दो पत्र भी प्रकाशित किये, हिन्दी में अर्जुन तथा उर्दू में तेज.
उन्होने स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ-चढकर भाग लिया और गरीबों और दीन-दुखियों के उद्धार के लिये काम किया. इसके साथ साथ उन्होंने स्त्री-शिक्षा पर भी बहुत जोर दिया. उन्होंने गांधी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लिया, लेकिन खिलाफत आन्दोलन के समय, कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति नाराज होकर उन्होंने कांग्रेस को छोड़ दिया.
स्वामी श्रद्धानंद ने "शुद्धि आन्दोलन" चलाकर आव्हान किया कि - जिन गैर हिन्दुओं को लगता है कि वे पहले हिन्दू थे, वापस हिन्दू धर्म में आ सकते हैं. उन्होंने ऐसे अनेको लोगों की आर्यसमाज के माध्यम से घर वापसी कराई. उन्होंने अनेको हिन्दू से मुस्लिम / ईसाई बने लोगों और उनकी संतानों का शुद्धि करण कर पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित किया.
23 दिसम्बर 1926 को नया बाजार स्थित उनके निवास स्थान पर, अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी मुश्लिम यवक ने, धर्म-चर्चा के बहाने उनके कक्ष में प्रवेश किया और अचानक गोली मारकर इस महान विभूति की हत्या कर दी. देश, धर्म और शिक्षा के उत्थान के लिए समर्पित महात्मा स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे "अब्दुल रशीद" को फांसी की सजा दी गई.
"अब्दुल रशीद" को फांसी की सजा का ऐलान होने पर गांधी ने कहा था कि - रशीद को फासी होने पर हिन्दू / मुश्लिम के बीच भाईचारा ख़त्म हो सकता है. गांधी ने उस हत्यारे को अपना भटका हुआ भाई कहकर उसके लिए दया की मांग की थी. लेकिन गांधी की इस मांग का सारे देश में बहुत बिरोध हुआ और अन्ततः उसको फांसी की सजा दे दी गई.
उस महान आत्मा की पूण्यतिथि पर कोटि कोटि नमन
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