Thursday, 4 January 2018

पेशवा कौन थे ? (भाग -2) नाना साहेब (प्रथम)

लेख के पहले भाग में मराठा साम्राज्य में पेशवाओ की स्थिति और उनकी बहादुरी के बारे में जाना कि - किस तरह पेशवाओं ने मुघलों को टक्कर दी और छत्रपति के हिन्दू शासन का विस्तार किया. 1740 में बाजीराव प्रथम की म्रत्यु के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र बालाजी बाजीराव उर्फ नाना साहेब (प्रथम) (1721 - 1761) छत्रपति के पेशवा नियुक्त हुऐ.
नाना साहेब अपने पिता से कुछ अलग प्रकृति के थे, जहा उनके पिता एक योद्धा थे वहीं नाना साहब अपने दादा बालाजी विश्वनाथ की तरह महान कूटनैतिग्य थे. इसके साथ साथ वे बहुत ही सुसंस्कृत, मृदुभाषी और दृढनिश्ची थे. नाना साहेब की बुद्धिमत्ता और उनके चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ की बहादुरी ने हिन्दुस्थान की किस्मत बदलना शुरू कर दिया था.
इन दोनों ने मिलकर वर्तमान महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और मध्यप्रदेश के बड़े हिस्से पर भगवा फहरा दिया था. उसके बाद उन्होंने बंगाल पर कई हमले किये और मुघल साम्राज्य की नींव को ही हिलाकर रख दिया. अब नाना साहब ने अपना मुख्य उद्देश्य, दिल्ली से मुघलों को उखाड़कर, दिल्ली में हिन्दू राज्य स्थापित करना बना लिया था.
नाना साहब का पूरा ध्यान दिल्ली पर था लेकिन दुर्भाग्य से उसी समय छत्रपति शाहू जी महाराज अस्वस्थ हो गए. शाहू जी के अस्वस्थ होने के बाद मालवा में होलकर और बुंदेलखंड में सिंघिया अपना खुद का शासन स्थापित करने की कोशिश में लग गए. 15 दिसम्बर 1749 को शाहू जी की म्रत्यु के बाद सिंधिया और होलकर अलग चलने लगे थे.
अपनी बहुत कोशिशों के बाबजूद नानासाहब होलकरों और सिंधिया के बीच एकता कायम करने में कामयाब नहीं हो सके. इसी बीच उत्तर भारत में नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली ने कत्लेआम मचाना शुरू कर दिया था. नाना साहब ने उनका मुकाबला करने के लिए राजपूतों, जाटो और सिक्खों से संधि करने की कोशिश की लेकिन उनको कामयाबी नहीं मिली.
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण के समय पेशवा, ने उसे दिल्ली से पहले रोकने की योजना बनाई. पानीपत के मैदान में मराठों और अफगानों का भयानक संग्राम हुआ. पानीपत की उस लड़ाई का नेतृत्व मराठा सरदार दत्ताजी सिघिंया और सदाशिव राव भाऊने किया. लेकिन इस युद्ध के समय स्थानीय लोगों का सहयोग का न मिल पाने और भयानक सर्दी न झेल पाने के कारण, पानीपत में मराठों की हार हुई.
पानीपत की वह लड़ाई 14 जनवरी 1761 मकरसंक्रांति के बेहद सर्द दिन लड़ी गई थी. महाराष्ट्र / गुजरात / मध्य प्रदेश के रहने वाले मराठा उस ठण्ड के आदी नहीं थे और न ही उनके पास गर्म कपडे थे. स्थानीय लोगों ने मराठा सैनिको को भोजन और गर्म कपडे तक नहीं दिए. वो यह सोंचते थे कि - अबदाली से हमारी कोई दुश्मनी थोड़े ही है.

पंजाब, हरियाण, दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश के जिन लोगों ने पानीपत की लड़ाई को "मराठों" और "अफगानों" की लड़ाई, कहकर किनारा कर लिया था, पानीपत में मराठों की हार का सबसे बड़ा खामियाजा भी उन लोगों ने ही भुगता. अब्दाली ने पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश में भयानक कत्लेआम और लूटमार की.
अहमदशाह अब्दाली ने अपने सैनिकों को यह आदेश दिया कि, "मथुरा नगर हिन्दुओं का पवित्र स्थान है, उसे पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दो. क़त्ले आम करो और लूटो. लूट में जिसको जो मिलेगा, वह उसी का होगा. इसके अलावा काफिरों के सिर काट कर लाने वाले सिपाहियों को काफिर के एक सर के बदले पाँच रुपय अलग से इनाम दिया जायगा.
अब्दाली ने तीन दिन मथुरा में भयानक कत्लेआम किया, लोगों का धन और स्त्रियों की इज्जत लूटी. हजारों महिलाओं ने अपनी इज्ज़त बचाने के लिए यमुना और कुओं में कूदकर जान दे दी. मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ दिया. मथुरा को लूटने के बाद अब्दाली ने वृन्दावन पर हमला किया और वहां भी यही सब दोहराया.
इसके बाद वो आगरा पहुंचा और वहां भी भायंनक लूटमार की और मंदिरों को तोडा. ब्रज को जो स्त्रीयां जान देने में कामयाब नहीं हो पाई उनको अब्दाली कैद कर अपने साथ ले गया. अब्दाली ने दिल्ली और पंजाब में भी यही सब किया. इस प्रकार मराठों की हार का सबसे बड़ा खामियाजा उन्होंने ही भुगता जिन्होंने मराठों का साथ नहीं दिया.
अब्दाली ने अपने हमलों में लाखों लोगों को कत्ले आम किया, सम्पत्ति लूटी, मंदिर तोड़े और महिलाओं को कैद कर ले गया. यही हिन्दू अगर संगठित होकर पेशवा के साथ मिलकर लड़े होते तो न केवल उनकी जान / माल / इज्ज़त बचती बल्कि अब्दाली भी मारा जाता और शायद फिर किसी जेहादी की भारत में हमला करने हिम्मत नहीं होती.
कत्लेआम करने के अलाबा वो भारत से हजारों स्त्रियों / पुरुषों को पकड़कर गुलाम बनाकर ले गया. नाना साहब सारे हिन्दू समाज को एक करना चाहते थे, उन्होंने उत्तर भारत के हिन्दू राजाओं को भी एकजुट करने का बहुत प्रयास किया लेकिन अपने अपने स्वार्थों के कारण, उन्होने नाना साहब की बात नहीं मानी, इससे नाना साहब को बहुत निराशा हुई.
पानीपत की इस हार के आघात को नाना साहब (प्रथम) झेल नहीं पाए. इसी निराशा के चलते 40 साल की अल्पायु में उनका देहांत हो गया. 1761 में नाना साहब पेशवा की म्रत्यु के बाद उनके बड़े बेटे माधवराव ने मात्र सोलह बर्ष की आयु में पेशवा का पद ग्रहण किया. माधवराव ने बहुत थोड़े समय में ही मराठो को फिर बुलंदी पर पहुंचा दिया.

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