Monday, 8 January 2018

पेशवा कौन थे ? (भाग- 7) : पेशवा नाना साहब (द्वितीय)


नाना साहब का जन्म, सन् 1824 में वेणुग्राम निवासी माधवनारायण राव के घर जन्म लिया था. इनका वास्तविक नाम "धूंधूपंत" था. इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के दूर के रिश्ते में भाई लगते थे. पेशवा बाजीराव (द्वितीय) ने बालक "धूंधूपंत" को गोद (एडाप्ट) ले लिया और इनको नानाराव नाम दे दिया. वे बचपन से ही बहुत मेधावी थे.
नानाराव को महान मराठा महाराज छत्रपति शिवाजी और पेशवा बाजीराव तथा पेशवा माधवराव की गाथा बहुत एक्साईट करती थी. वे बार बार उनकी कहानियों को सुनाने का आग्रह किया करते थे. बहुत शीघ्र ही नानाराव को हाथी / घोड़े की सवारी करना तथा तलवार / बंदूक चलाना आ गया. इसके अलाबा उनको कई भाषाओं का भी ज्ञान था.
28 जनवरी 1851 को पेशवा बाजीराव (द्वितीय) का स्वर्गवास हो गया. कंपनी के शासन ने बिठूर के कमिश्नर को यह आदेश दिया कि- वह नानाराव को सूचना दे कि - कम्पनी केवल पेशवाई धन संपत्ति पर ही उनका उत्तराधिकार मानती है, पेशवा की उपाधि पर नहीं. इंग्लैण्ड की महारानी के आदेश से पेशवा का पद ख़त्म किया जा चूका है.
लेकिन कुछ ही समय बाद "नानाराव" ने सारी संपत्ति को अपने हाथ में लेने के बाद, पेशवा के शस्त्रागार पर भी अधिकार कर लिया और खुद को पेशवा घोषित कर दिया. उन्होंने ब्रिटिश सरकार को आवेदनपत्र दिया कि उनकी पेशवाई पेंशन के चालू कराई जाए. नाना साहब ने पेंशन पाने के लिए लार्ड डलहौजी से भी पत्र व्यवहार किया.
डलहौजी द्वारा इन्कार करने के बाद "नानाराव" ने "अजीमुल्ला खाँ" को अपना वकील बनाकर महारानी "विक्टोरिया" के पास भेजा. "विक्टोरिया" ने "अजीमुल्ला" से मुलाकात ही नहीं की, तब वापस आने से पहले उन्होंने रूस, फ्रांस, इटली की भी यात्रा की. वापस आने पर उन्होंने नानाराव को अपनी असफलता और यूरोप में चल रही क्रांतियों के बारे में बताया.
तब नानाराव ने तीर्थ यात्रा पर जाने की घोषणा की, वे तीर्थयात्रा के बहाने अन्य रियासतों और रजवाड़ों के प्रमुखों से मिलना चाहते थे. कालपी में उनकी मुलाक़ात बिहार के राजा "बाबू कुंवर सिंह" से हुई. वे दिल्ली और लखनऊ भी गए. इसी बीच बैरकपुर में एक भारतीय मूल के ब्रिटिश सैनिक "मंगलपांडे" ने गाय की चर्बी वाले कारतूस के कारण बगावत कर दी.
अंग्रेज सैन्य अधिकारी "ह्युजन" की हत्या कर देने के कारण 8 अप्रेल 1857 को मंगल पांडे को फांसी चढ़ा दिया गया. मंगल पांडे के बलिदान के बाद 10 मई 1857 को मेरठ छावनी में सेना ने बगावत कर दी. मेरठ में अंग्रेज अधिकारियों को मारकर वे दिल्ली गए और बहादुर शाह जफ़र से स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व करने के लिए मना लिया.
कानपुर में भी सेना ने बगावत कर दी और वे सैनिक नानाराव के पास "बिठूर" पहुंचे. नानाराव ने "कल्यानपुर" में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी. अपने सैनिकों का उन्होंने कई टुकड़ियों में बाँट दिया और अंग्रेजों को घेर-घेर का मारा जाने लगा, नानाराव का स्पष्ट आदेश था कि किसी भी बूढ़े, औरत या बच्चे की ह्त्या न की जाए.
कुछ अंग्रेज और उनकी औरते / बच्चे नाव द्वारा कानपुर से निकल कर भाग रहे थे. उनको भागते देख "सतीचौरा घाट" पर क्रांतिकारियों की एक टुकड़ी (जिसका नेत्रत्व "भोंदू सिंह यादव" कर रहे थे) ने उन पर गोलियां चलाकर मौत के घाट उतार दिया. नाना साहब ने इस घटना के लिए दुःख जताया लेकिन उसकी जिम्मेदारी खुद अपने ऊपर ली.
1 जुलाई 1857 को नाना साहब ने , कानपुर के स्वतंत्र होने की घोषणा कर दी. नाना साहब ने लखनउ के नबाब और बरेली के रोहेला सरदार "बहादुर खान" को भी समर्थन देने की घोषणा कर दी. बहादुर खान ने एलान कर दिया कि- बहादुर शाह जफ़र ब्रद्ध हैं इसलिए हम नाना साहब को अपना नेता मानने हैं, इसका अनेकों रियासतों ने समर्थन किया.
अंग्रेजों ने "बहादुर शाह जफ़र" को गिरफ्तार कर लिया था. अब क्रान्ति का नेत्रत्व अघोषित रूप से नाना साहब के हाथ में आ गया. अंग्रेज धीरे धीरे सभी क्रांतिकारियों पर काबू पाते जा रहे थे. अंग्रेज भी यह जानते थे कि - जब तक नाना साहब और बाबू कुंवर सिंह काबू नहीं आयेंगे, तब तक क्रान्ति को रोक पाना असंभव है.
दिल्ली, मेरठ, इटावा, बरेली, झांसी, लखनऊ, जगदीश पुर, कानपुर आदि पर फिर से अंग्रेजों का कब्जा हो चुका था. कानपुर के अंग्रेज अफसर ए. एच.व्हीलर ने बिठुर में भीषण नरसंहार किया. हजारों औरतों और बच्चों को उसने गोलियों से भुनवा कर गंगा में फिंकवा दिया. नाना साहब और तात्या टोपे को भी वहां से फरार होना पड़ा.

1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की असफलता के बाद अंग्रेजों ने हजारों क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया और बहादुरशाह जफ़र कर निर्वासित रंगून भेज दिया. अंग्रेज नाना शाहब को भी कड़ी सजा देना चाहते थे लेकिन वे अंग्रेजों के हाथ नहीं आये. उनके ऊपर उस ज़माने में लाखों रुपय का इनाम अंग्रेजों ने रखा था,
नाना साहब कहाँ गए, उनका क्या हुआ, यह आजतक एक रहस्य है. कुछ लोगों का मानना है कि- स्वाधीनता संग्राम की असफलता के बाद "नाना साहब" नेपाल के देवखाली में चले गए थे जहाँ तेज बुखार के कारण 34 बर्ष की आयु में, 6 अक्टूबर 1858 को उनकी म्रत्यु हो गई. लेकिन देश के ज्यादातर इतिहासकार इससे सहमत नहीं है.
ज्यादातर इतिहासकार मानते है कि- वे गुजरात के सीहोर चले गए थे और संन्यास लेकर "स्वामी दयानन्द योगेन्द्र" बन कर रहने लगे. इसके अलावा एक और बात फैलाई गई थी, जिसको ज्यादातर लोग अफवाह ही मानते हैं, वह है नाना साहब का "शिर्डी के साइ" बाबा होना. इसको शिर्डी साइ धाम ट्रस्ट ने भी अफवाह करार दिया था.
कहा जाता है कि - वे मुस्लिम के वेश में रोहेला सरदार "बहादुर खान" के सहयोग से उत्तर प्रदेश से निकले थे. अपने आपको छुपाने के लिए अपना नाम "चाँद मियां" बताया. मुस्लिम रोहेलो के साथ वे महाराष्ट्र के नाशिक पहुंचे और एक संत की तरह रहने लगे. धीरे-धीरे वे शिर्डी के साइ बाबा के रूप में प्रशिद्ध हो गए. लेकिन इस बात को शिर्डी ट्रस्ट ने सिरे से नकार दिया था.
1857 में पेशवा नाना साहब (द्वितीय) के गायब हो जाने के बाद "पेशवाई" का अंत हो गया.

पेशवा कौन थे ? (भाग- 6) : पेशवा बाजीराव (द्वितीय) / भिमा कोरेगांव की लड़ाई

पिछली पोस्ट में पढ़ चुके हैं कि- 06 दिसम्बर 1796 को बाजीराव द्वितीय (जन्म 1775 : मृत्यु 1851) पेशवा पद पर नियुक्त हुआ. समस्त मराठा उस समय प्रधानमंत्री "नाना फडनवीस" का सम्मान "पेशवा" भी ज्यादा करता था. यह बात पेशवा बाजीराव (द्वितीय) को बहुत तकलीफ देती थी और वह नाना से दिल में नाना से नफरत करता था.
लेकिन मराठा संघ (होलकर, सिंधिया, गायकवाड, भोसले, आदि) "नाना फडनवीस" की ही बात मानते थे. उस समय तक अंग्रेज भारत के काफी बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर चुके थे और केवल मराठा साम्राज्य ही उनको चुनौती दे पा रहा रहा था. अंग्रेजों को यह भी पता था कि "नाना फडनवीस" के रहते मराठों को जीतना मुश्किल है.
तब अंग्रेजों ने कुछ समय के लिए मराठा साम्राज्य की तरफ से ध्यान हटा लिया और गैर मराठा हिन्दू / मुस्लिम रियासतों पर अधिकार करना शुरू कर दिया. इसमें अंग्रेजो को कोई ख़ास मुश्किल भी नहीं आई क्योंकि ज्यादातर रियासते एक दुसरे का साथ नहीं देती थी और उनको अंग्रेजों से संधि करके पेंशन लेना ज्यादा आसान लगता था..
अंग्रेजों को थोड़ी टक्कर कर्नाटक (मैसूर और बेलगाँव) में अवश्य मिली. मैसूर के राजा "टीपु सुलतान" ने अंग्रेजों का कडा मुकाबला किया लेकिन पूर्वकाल में टीपू ने अपने राज्य की हिन्दू जनता पर इतने जुल्म किये थे और उनका जबरन धर्म परिवर्तन कराया था कि - मैसूर की जनता और टीपू के पिता हैदरअली के बफादार भी टीपू का साथ छोड़ गए थे.
1799 में मैसूर पर अंग्रेजों का कब्ज़ा हो गया, यह दक्षिण में अंग्रेजों की बड़ी जीत थी. हिन्दू प्रजा और मुस्लिम राजा के बीच कटुता का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने मैसूर को जीता था. अंग्रेजों ने इसी फार्मूले (फूट डालो -राज करो) का लाभ उठाने के लिए, मराठा साम्राज्य की प्रजा और पेशवा के बीच कटुता पैदा करने लिए जातीय विवाद पैदा करने शुरू किये.
अंग्रेजों ने अपने अधीन रियासतों की सेना और सरकारी विभागों में तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी में, हिन्दुओं की उपेक्षित जातियों को भरती कराना शुरू किया. हालांकि इनको कोई बड़ा पद नहीं दिया जाता था, उनको केवल सेवाकार्यों में ही रखा जाता था, उच्च पद हिन्दुओ और मुसलमानों की उच्च जातियों को ही दिया जाता था.
इससे भारतीयों में अंग्रेजों का और प्रभाव बढ़ने लगा. अंग्रेज खुद तो देश की जनता पर अत्याचार करते और जिसे चाहे मार देते थे लेकिन किसी भारतीय राजा द्वारा किसी अपराधी या गद्दार को सजा देने पर, अंग्रेज उनको जातीय अत्याचार बताकर खूब प्रचारित करते. अंग्रेजों की इस चाल से लोग एक दुसरे की जाती और पंथ के खिलाफ ही गए.
इसके अलावा, अंग्रेजों ने गद्दार भारतीयों को अपना बफादार बनाने के लिए, "खान बहादुर" और "राय बहादुर" जैसी उपाधियों का सृजन किया. यह अंग्रेजों के गुलाम राय बहादुर और खान बहादुर भी, भारतीयों को आपस में लड़ाने में अंग्रजों के लिए बहुत बड़े हथियार साबित हो रहे थे, भारत में अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति, कामयाब हो चुकी थी.
उसी समय अंग्रेजो की किस्मत और हिन्दुस्थान की बदकिस्मती से, 1800 में "नाना फडनवीस" की म्रत्यु हो गई और सत्ता पर बाजीराव (दितीय) का नियंत्रण हो गया. वह अयोग्य और अनुभवहीन तो था ही, साथ ही विशवासघाती और कटुबोलने वाला भी था. "नाना फडनवीस" की म्रत्यु के बाद वह पूरी तरह से निरंकुश हो गया.
उसके व्यवहार के कारण मराठा संघ टूट गया. बाजीराव (द्वितीय) को कभी समझ नहीं आया कि- उसे अंग्रेजों से मित्रता करनी है या दुश्मनी. वह कभी अंग्रेजों से संधि करता, तो कभी वह अंग्रेजों से युद्ध करने लगता. इस नीति से सेना भी असमंजस में थी. इसके अलावा मराठा संघ टूट जाने से, अन्य मराठा राजा केवल अपनी अपनी रियासत की सोंचने लगे.
"नाना फडनवीस" की म्रत्यु के बाद "जसवन्तराव होल्कर" को उनके पद के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता था.लेकिन सत्ता पर अपनी पकड मजबूत बनाने के चक्कर में, बाजीराव (द्वितीय) ने "दौलतराव शिंदे" को आगे कर, शिंदे और होलकर के बीच प्रतिद्वंदिता पैदा कर दी. पुणे के फाटक के बाहर शिंदे और होलकर में युद्ध हो गया.
जिसमे बाजीराव (द्वितीय) ने शिंदे का साथ दिया लेकिन जीत होलकरों की हुई, तब बाजीराव भागकर बसई चला गया. उसने 31 दिसम्बर, 1802 को "बसई" में अंग्रेजों से संधि कर ली. अंग्रेजों ने उसे फिर से पुणे की सत्ता दिलाने का आश्वासन दिया और अपनी शर्तों में पेशवा बाजीराव (द्वितीय) को बाँध लिया.
इस शर्मानाक संधि से मराठा सरदार नाराज हो गए और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया. उनको देखकर बाजीराव ने भी पलटी मार ली. बाजीराव भी मराठा सरदारों के साथ हो गया और अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध को तैयार हो गया. 1803 से लेकर 1817 तक मराठों की अंग्रेजो से कई लड़ाइयाँ हुई.
नवम्बर 1817 में बाजीराव द्वितीय के नेतृत्व में, संगठित मराठा सेना ने पूना की 'अंग्रेज़ी रेजीडेन्सी' को लूटकर जला दिया. उसके बाद मराठों ने "खड़की" स्थिति अंग्रेज़ी सेना छावनी पर हमला कर दिया, लेकिन वहां पर वे लोग पराजित हो गये. तब कुछ मराठा सरदारों ने 1 जनवरी 1818 को छवनी पर बड़ा हमला करने की योजना बनाई.
उनको पता था कि- 31 दिसंबर की रात में अंग्रेज देर रात तक पार्टियों में व्यस्त रहते हैं इसलिए जब अंग्रेज सेना नशे में चूर होकर सो रही होगी तब नवबर्ष की सुबह छावनी पर बड़ा हमला किया जाएगा. इसके लिए मराठा सैनिको को 31 दिसंबर की रात को कोरेगांव में "भिमा"नदी के किनारे इकठ्ठा होने का सन्देश दिया.
अंग्रेजों को इसकी खबर लग गई. उन्होंने कैप्टन स्टान्टन को एक बड़ी बंदूकधारी सेना देकर उनको रोकने भेजा. कैप्टन स्टान्टन ने भारतीय मूल के लगभग 500 सैनिको (जो ज्यादातर महार जाति के थे) को आगे भेजा. उस समय सुबह होने को थी और मराठा सैनिक नित्य कर्मो से फारिग होकर तैयार हो रहे थे.
महार सैनिको को आता देख उनको लगा कि - यह शायद कोई देशभक्तों की फ़ौज है जो अंग्रेजों के साथ लड़ाई में उनका साथ देने आई है. वे उनका स्वागत करने लगे, लेकिन महार सैनिको ने नजदीक आते ही उनपर अँधाधुंध गोलिया चलाना शुरू कर दिया, इससे पहले कि मराठा सैनिक सम्हाल पाते अंग्रेजों की फ़ौज ने दुसरी तरफ से टोपों से हमला कर दिया.
मराठा सैनिको के पास केवल तीर - तलवार थे जबकि अंग्रेज सेना ने बंदूकों और 24 तोपों के साथ यह हमला किया था. इस लड़ाई में 250 के लगभग कम्पनी के सैनिक (जिनमे 11 यूरोपियन मूल के थे) तथा 500 के आसपास मराठा सैनिक (जिनमे जिनमे मराठा सेना के , अरब मूल के 50 मुस्लिम सैनिक भी शामिल थे) मारे गए थे ,
मराठा सैनिक तोपखाने का सामना न कर सके और तितर बितर हो गए. इस के एक माह बाद "आश्टी" की लड़ाई में भी मराठों की हार हुई और पुणे पर अंग्रेजों का कब्ज़ा हो गया. बाजीराव ने अन्य मराठा राज्यों से मदद मांगी लेकिन निजी रंजिश के कारण उनका किसी ने साथ नहीं दिया. तब उसने 3 जून 1818 को अंग्रेजों के सामने आत्म समर्पण कर दिया.
अंग्रेज़ों ने इस बार पेशवा बाजीराव द्वितीय को अपदस्थ करके, एक कैदी के रूप में कानपुर के निकट बिठूर भेज दिया. जहाँ वह एक किले में नजरबंद कैदी के रूप में रहा. 1853 ई. में उसकी मृत्यु हो गई. इस प्रकार शिवाजी से लेकर माधवराव तक मराठों ने जो साम्राज्य बनाया था उसे अयोग्य पेशवा बाजीराव द्वितीय ने नष्ट कर दिया.

Sunday, 7 January 2018

पेशवा कौन थे ? (भाग- 5) : "नाना फड़नवीस" / पेशवा चिमनाजी अप्पा

इस पेशवाओं की श्रंखला के बीच में एक ऐसे मराठा सरदार का जिक्र करना अत्यंत आवश्यक है जो "पेशवा" नहीं था लेकिन जिसने पेशवा माधवराव (प्रथम), पेशवा नारायण राव, पेशवा माधवराव (दितीय), की जल्दी जल्दी हुई म्रत्यु के बाद मराठा साम्राज्य को सम्हालने का काम किया. वो मराठा सरदार थे "नाना फड़नवीस".
बाहुवली फिल्म के निर्देशक "राजामौली" ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था, कि - बाहुवली में "कटप्पा" के चरित्र को उभारने के लिए उन्होंने "नाना फड़नवीस" की जीवनी का सहारा भी लिया था. पेशवा रघुनाथराव द्वारा पेशवा नारायण राव की हत्या कर पेशवा बन जाने पर, "नाना फड़नवीस" द्वारा डेढ़ माह के बालक माधव राव दितीय को पेशवा घोषित किया था.
"नाना फड़नवीस" ने, पेशवा माधव राव (प्रथम) की म्रत्यु के बाद के बाद, न केवल पेशवा नारायण राव, पेशवा माधव राव (दितीय), पेशवा बाजीराव (द्वितीय) की रक्षा की, बल्कि मराठा साम्रज्य को भी बिखरने से बचाय रखा. पेशवा न होने के बाबजूद मराठा साम्राज्य में पेशवा जैसे सम्मान था, लेकिन वे हमेशा साम्राज्य के सेवक बने रहे.
"नाना फड़नवीस" के सामने तीन प्रमुख समस्याएं थी. पहली समस्या थी "पेशवा" पद की गरिमा को बनाए रखना, दुसरी समस्या थी मराठा संघ को बनाए रखना तथा तीसरी सबसे बड़ी समस्या थी विदेशियों (मुघलों, अंग्रेजों, पुर्तगालियों,आदि) से देश की रक्षा करना. सिंधिया, होल्कर, गायकवाड़ तथा भोसले भी मराठा साम्राज्य के घटक थे,
लेकिन इनकी आपस में नहीं बनती थी. पेशवा के न रखने पर इनकी कटुता और मुखर होने लगी थी. सभी मराठा छत्रप अपने आपको एक दुसरे से बड़ा दिखाने का प्रयास कर रहे थे. ऐसे में "नाना फड़नवीस" ने न केवल बुद्धिमानी के सहारे मराठों को बिखरने से बचाया, बल्कि बहादुरी का प्रदर्शन करते हुए अंग्रेजों को भी मराठा साम्राज्य से दूर रखा.
अब हम पुनः पेशवा की कहानी पर वापस आते हैं. माधवराव (द्वितीय) की मृत्यु के बाद महाराष्ट्र में अव्यवस्था फैलने लगी. लगभग सात महीने तक उत्तराधिकारी का निर्णय ही नहीं हो सका था. माधवराव (दितीय) के अल्पायु में निस्संतान मर जाने के कारण, रघुनाथराव के बड़े बेटे "बाजीराव द्वितीय" का हक़ था, परन्तु वो नाना को पसंद नहीं था.
तब "नाना फड़नवीस" ने रघुनाथराव के छोटे बेटे "चिमनाजी" ( जन्म- 1784 : मृत्यु 1830) को पेशवा बनाने का निर्णय लिया. "चिमनाजी" की नियुक्ति को सारे मराठा साम्राज्य में स्वीकृति दिलाने के लिए उन्होंने उसे पेशवा माधवराव की विधवा यशोदाबाई को, 25 मई 1796 को पूर्ण धार्मिक और वैधानिक रीति रिवाज के साथ गोद लिवाया.
2 जून 1796 को, "चिमनाजी" को पेशवा घोषित किया गया. चिमना जी के पेशवा घोषित होते ही, चिमनाजी की वास्तविक माँ और रघुनाथराव की विधवा "आनंदी बाई" ने बालक चिमनाजी पर नियंत्रण कर सत्ता को अपने हाथ में लेने का प्रयास किया. तब "नाना फड़नवीस" ने 6 दिसम्बर 1796 को बाजीराव (दितीय) को पेशवा नियुक्त किया.
बाजीराव (दितीय) (जन्म 1775 : मृत्यु 1851) को पेशवा नियुक्त करने के बाद "नाना फड़नवीस" ने अंग्रेजों देवारा कब्जाए मराठा राज्यों को फिर से अंग्रेजों से वापस छीन लिया. अंग्रेजों को रोकने और भारत से खदेड़ने की योजना बनाई. उन्होंने मराठों तथा अन्य भारतीय राजाओं को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट करने का प्रयास किया.
लेकिन दुर्भाग्य से "नाना फड़नवीस" का स्वास्थ्य खराब रहने लगा और 1,800ई में उनकी म्रत्यु हो गई. उनकी म्रत्यु के बाद मराठा साम्राज्य बिखरने लगा, इस प्रकार नाना ने मराठा संघ को टूटने से बचाया और अंग्रेजों की बढ़ती हुई शक्ति को रोका, परन्तु "नाना" की मृत्यु के बाद मराठा संघ का अंत हो गया और सभी अलग अलग हो गए.
"नाना फड़नवीस" के संबंध में कहे गए "लार्ड वेलजली" केे शब्द अविस्मरणीय हैं. उन्होंने कहा था कि - नाना फडनवीस न केवल एक योग्य मंत्री थे, वह ईमानदारी और उच्च आदर्शों की एक मिशाल थे. उन्होंने अपना पूरा जीवन, राज्य के कल्याण के लिए तथा अपने स्वामियों की कल्याणकामना के लिए समर्पित कर दिया.

पेशवा कौन थे ? (भाग -4) : पेशवा नारायणराव / पेशवा रघुनाथ राव

पेशवा माधव राव का अल्पायु में निधन हो जाने के कारण उनके 18 बर्षीय छोटे भाई "नारायणराव" (जन्म 1755 : मृत्यु 1773) को 13 दिसंबर 1772 को ग्यारहवा "पेशवा" घोषित किया गया. उस समय उनका चाचा नारायण राव, (जिसने पेशवा माधवराव को धोखे से निजाम के हाथों गिरफ्तार कराया था) जेल में बंद था.
रघुनाथराव ने अपनी गलती मानते हुए अपनी भाभी और भतीजे से माफी मांग ली. पेशवा नारायण राव और उनकी माता गोपिकाबाई ने "माधव राव" की म्रत्यु के बाद रघुनाथ राव को माफ़ करके रिहा कर दिया. परन्तु उसका यह पश्चाताप मात्र एक दिखावा था. जितना धूर्त वह था उससे भी ज्यादा धूर्त उसकी पत्नी आनंदीबाई थी.
आनंदीबाई अपनी जेठानी से अंदर ही अन्दर बहुत ज्यादा ईर्ष्या भी रखती थी. अपनी पत्नी के प्रोत्साहन से रघुनाथराव ने अपने भतीजे पेशवा "नारायणराव" के खिलाफ षड्यंत्र रचा. हालांकि उसका उद्देश्य पहले केवल पेशवा को बंदी बनाना था लेकिन बाद में अपनी पत्नी के इशारे पर उसने 30 अगस्त 1773 पेशवा नारायण राव की हत्या कर खुद पेशवा बन गया.
इस प्रकार पेशवा नारायण राव का कार्यकाल केवल कुछ माह का ही रहा. पेशवा रघुनाथराव (जन्म 1734 : मृत्यु 1784) साहसी और महत्वाकांक्षी तो था लेकिन इसके साथ ही वह अन्य पूर्ववर्ती पेशवाओं के उलट बहुत ज्यादा स्वार्थी और लालची थी था. वह साथी सेनानायकों के बजाय अपनी पत्नी आनंदीबाई की सलाह पर ज्यादा चलता था.
पेशवा रघुनाथराव को न मराठा सेना पसंद करती थी और न ही राज्य की जनता. इसी बीच पूर्व पेशवा नारायण राव की विधवा ने पुत्र (माधवराव द्वितीय) को जन्म दिया. 18 अप्रेल 1774 को पेशवा माधवराव के बफादार और पेशवा रघुनाथराव को नापसंद करने वाले "नाना फडनवीस" ने एक माह अट्ठारह दिन के बालक को 13वा पेशवा घोषित कर दिया.
आधिकारिक तौर पर पर पेशवाई "पेशवा रघुनाथ राव" के पास थी लेकिन देश की अधिकांश जनता मासूम बालक "माधवराव द्वितीय" को अपना पेशवा मानती थी. अब मराठा शक्ति के दो केंद्र बन गए थे. एक तरफ पेशवा रघुनाथ राव और दुसरी तरफ बालक माधव राव द्वितीय के नाम पर उनके अभिभावक "नाना फडनवीस".
"नाना फडनवीस" (1741-1800) के पूर्वज पेशवा परिवार के बहुत पुराने बफादार थे. नाना फडनवीस का सही नाम "बालाजी जनार्दन भानु" था. उन्होंने भी पेशवा परिवार के प्रति सदैव बफादारी का प्रदर्शन किया. वे पेशवा माधवराव के बहुत ही बफादार थे. (नाना फडनवीस के ऊपर मैं अलग से एक लेख लिखने का प्रयास करूँगा).
अपनी सत्ता को स्थाई बनाने के उद्देश्य से पेशवा रघुनाथराव ने 1775 में अंग्रेजों के साथ सूरत की संधि कर ली. अपनी भाभी और भतीजों को धोखा देने वाले रघुनाथराव को अंग्रेजों ने 1782 में करारा धोखा दिया. अंग्रेजों ने रघुनाथराव सत्ता छीन ली और उसकी पच्चीस हजार मासिक पेंसन लगा दी. अब वह अंग्रेजों की कठपुतली मात्र बनकर रह गया.
पुराने पेशवाओं के बफादार, उसको बैसे ही पसंद नहीं करते थे. अंग्रेजों से संधि करने के कारण उसका रहा सहा सम्मान भी चला गया. इन सब कारणों से 48 साल की आयु में, 1784 में ह्रदय आघात से उसकी म्रत्यु हो गई. उसकी म्रत्यु के बाद पेशवा माधवराव द्वितीय पेशवा हो गए और उनके अभिभावक के रूप में "नाना फडनवीस" काम देखते रहे.
माधवराव द्वितीय (जन्म -1774 : म्रत्यु 1795) अभी पेशवाई को सीख - समझ ही रहे थे कि - एक दिन अचानक महल के छज्जे से गिरकर उनकी म्रत्यु हो गई, उस समय उनकी आयु मात्र 21 बर्ष की थी. मराठा साम्राज्य में एक बार फिर नेतृत्व का संकट पैदा हो गया. ऐसे में फिर "नाना फडनवीस" ने मराठों को एकजुट रखने का काम किया.

Friday, 5 January 2018

पेशवा कौन थे ? (भाग -3) : पेशवा माधवराव (प्रथम)

अब तक आपने पढ़ा कि- पानीपत की लड़ाई में जेहादी आक्रान्ता अहमदशाह अब्दाली के साथ हुई पेशवाओं की लड़ाई में, पेशवाओं की हार हुई. ज्यादातर मराठे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के थे, जो स्थानीय हालत से वाकिफ नहीं थे. स्थानीय लोगों ने उनको सहयोग नहीं दिया और इस लड़ाई को मराठो और अफगानों की लड़ाई कहकर किनारा कर लिया था.
इस लड़ाई की हार और अब्दाली द्वारा उत्तर भारत में किये गए अत्याचार को न रोक पाने की निराशा के चलते, "पेशवा बालाजी बाजीराव (प्रथम) उर्फ नाना साहेब (प्रथम)" का देहांत हो गया. उनके बड़े पुत्र भी पानीपत की लड़ाई में मारे गए थे इसलिए उनके छोटे बेटे "माधव राव (प्रथम) को मात्र 17 बर्ष की आयु में पेशवा नियुक्त किया गया.
माधवराव के चाचा रघुनाथराव को उनका संरक्षक बनाया गया. माधव को बच्चा समझकर और पानीपत की हार से मराठों को हताश देखकर, हैदराबार के निजाम ने महाराष्ट्र पर आक्रमण कर दिया. स्वार्थी चाचा रघुनाथराव ने 12 नबम्बर 1762 को आलेगाँव में. पेशवा माधवराव को धोखे से "निजाम" के हाथों में गिरफ्तार करा दिया.
तब पेशवा के पिता के बफादारों ने, बल और बुद्धि के प्रयोग से, माधवराव को निजाम की कैद से आजाद कराया. (इसकी भी एक रोचक कहानी है इसे किसी अगली पोस्ट में प्रस्तुत करूँगा). निजाम की कैद से आजाद होने के बाद "पेशवा माधवराव" ने पुनः सत्ता सम्हाल ली और पानीपत की हार से निराश मराठों में शक्ति संचार करने लगे.
माधवराव धार्मिक, शुद्धाचरण, सहिष्णु, निष्कपट, कर्तव्यनिष्ठ, तथा जनकल्याण की भावना रखने वाले व्यक्ति थे. उनका व्यक्तिगत जीवन एकदम निर्दोष था. वह सफल राजनीतिज्ञ, दक्ष सेनानी तथा कुशल व्यवस्थापक था. उसमें बाला जी विश्वनाथ की दूरदर्शिता, बाजीराव की नेतृत्वशक्ति तथा अपने पिता की तरह शासकीय क्षमता थी.
पेशवा माधव राव ने मराठों को जल्द ही पुनः शक्तिशाली बना दिया और उसने 1765 और 1766 में दो बार निजाम को परास्त किया. मैसूर के शासक हैदर अली ने दो बार महाराष्ट्र पर हमला किया और दोनों बार माधवराव ने उसे खदेड़ दिया. निजाम और हैदरअली ने अपनी सेना और धन, बरार के भोंसले राजा को देकर पेशवा पर हमला करबाया.
लेकिन इस लड़ाई मे भी पेशवा की जीत हुई और भोंसले राजा ने पेशवा की अधीनता स्वीकार कर ली. ब्रज प्रदेश में अब्दाली द्वारा किये गए अत्याचार की गाथाये, माधवराव को हमेशा बिचलित करती थीं. कहा जाता है कि- माधवराव को हर रोज स्वप्न में भगवान् श्रीकृष्ण दिखाई देते थे जो उसे मथुरा / वृन्दावन को मुक्त कराने के लिए प्रेरित करते थे.
पेशवा माधवराव शक्तिशाली मराठा सेना लेकर, पवित्र ब्रज भूमि (मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, बरसाना ) को मुघलो से मुक्त कराने के लिए निकले. इस बार अब्दाली से मार खाए हुए क्षेत्र के, ज्यादातर हिन्दू मराठों के साथ आ गए. इस बार जाटों, राजपूतों और सिक्खों ने भी मराठों का साथ दिया. सबने मिलकर पेशवा माधवराव के नेतृत्व में पवित्र ब्रजभूमि को मुघलों से आजाद करा लिया.
माधवराव ने पुरे बृज प्रदेश से मुसलमानों को मार भगाया और हिंदुओं को उनके धर्म स्थल वापिस दिलवाये. उनकी इसी जीत की ख़ुशी में, पुरे महाराष्ट्र में जन्माष्टमी पर "दही हांडी" का पर्व मनाया गया. यह प्रथा आज भी निरंतर जारी है. पेशवा माधवराव ने मालवा और बुन्देलखंड में भी 1771-72 में फिर से कब्ज़ा स्थापित कर लिया.
इन जीतों से उत्साहित मराठो ने अफगानिस्तान पर हमला कर, उसे जीतने का संकल्प लिया, जिससे खूंखार जेहादियों के भारत पर हो रहे बार बार के हमले की समस्या का, स्थाई हल किया जा सके. इस दिशा में कदम उठाते हुए वे काबुल की तरफ बढे. स्थानीय सहयोग मिलने की बजह से इसमें उनको कोई ख़ास परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा.
मराठा सैनिको ने पेशवा के नाम पर, पेशावर में एक चौकी स्थापित कर दी. लेकिन भारत के दुर्भाग्य ने यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा. जब हिन्दू पेशवा माधवराव के नेतृत्व में लगातार जीत रहे थे, उसी समय 1772ई. में अचानक "पेशवा माधवराव" बहुत बीमार हो गए और 18 नबम्बर 1772 ई., को 27 बर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया.
ज्यादातर इतिहासकार मानते हैं कि- हिन्दुस्थान को जितना बड़ा आघात पानीपत की हार से लगा था, उससे भी ज्यादा बड़ा आघात "पेशवा माधवराव" की असमय म्रत्यु से लगा. पेशवा माधवराव के बाद, मराठों में भी प्रभुत्व के लिए संघर्ष होने लगा था. इसका फायेदा उठाकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में अपने पैर पसारने लगी थी.
उस समय तक मुग़ल भी काफी कमजोर हो चुके थे और मराठे भी सत्ता के संघर्ष में उलझे थे. तब अंग्रेजों ने अनेको भारतीय राजाओं से युद्ध और संधि के माध्यम से अपनी सत्ता का विस्तार करना शुरू कर दिया था. पेशवा माधवराव की म्रत्यु के पश्चात् मराठा साम्राज्य पतनोन्मुख होता चला गया और इसका भरपूर लाभ अंग्रेजों ने उठाया.

Thursday, 4 January 2018

पेशवा कौन थे ? (भाग -2) नाना साहेब (प्रथम)

लेख के पहले भाग में मराठा साम्राज्य में पेशवाओ की स्थिति और उनकी बहादुरी के बारे में जाना कि - किस तरह पेशवाओं ने मुघलों को टक्कर दी और छत्रपति के हिन्दू शासन का विस्तार किया. 1740 में बाजीराव प्रथम की म्रत्यु के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र बालाजी बाजीराव उर्फ नाना साहेब (प्रथम) (1721 - 1761) छत्रपति के पेशवा नियुक्त हुऐ.
नाना साहेब अपने पिता से कुछ अलग प्रकृति के थे, जहा उनके पिता एक योद्धा थे वहीं नाना साहब अपने दादा बालाजी विश्वनाथ की तरह महान कूटनैतिग्य थे. इसके साथ साथ वे बहुत ही सुसंस्कृत, मृदुभाषी और दृढनिश्ची थे. नाना साहेब की बुद्धिमत्ता और उनके चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ की बहादुरी ने हिन्दुस्थान की किस्मत बदलना शुरू कर दिया था.
इन दोनों ने मिलकर वर्तमान महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और मध्यप्रदेश के बड़े हिस्से पर भगवा फहरा दिया था. उसके बाद उन्होंने बंगाल पर कई हमले किये और मुघल साम्राज्य की नींव को ही हिलाकर रख दिया. अब नाना साहब ने अपना मुख्य उद्देश्य, दिल्ली से मुघलों को उखाड़कर, दिल्ली में हिन्दू राज्य स्थापित करना बना लिया था.
नाना साहब का पूरा ध्यान दिल्ली पर था लेकिन दुर्भाग्य से उसी समय छत्रपति शाहू जी महाराज अस्वस्थ हो गए. शाहू जी के अस्वस्थ होने के बाद मालवा में होलकर और बुंदेलखंड में सिंघिया अपना खुद का शासन स्थापित करने की कोशिश में लग गए. 15 दिसम्बर 1749 को शाहू जी की म्रत्यु के बाद सिंधिया और होलकर अलग चलने लगे थे.
अपनी बहुत कोशिशों के बाबजूद नानासाहब होलकरों और सिंधिया के बीच एकता कायम करने में कामयाब नहीं हो सके. इसी बीच उत्तर भारत में नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली ने कत्लेआम मचाना शुरू कर दिया था. नाना साहब ने उनका मुकाबला करने के लिए राजपूतों, जाटो और सिक्खों से संधि करने की कोशिश की लेकिन उनको कामयाबी नहीं मिली.
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण के समय पेशवा, ने उसे दिल्ली से पहले रोकने की योजना बनाई. पानीपत के मैदान में मराठों और अफगानों का भयानक संग्राम हुआ. पानीपत की उस लड़ाई का नेतृत्व मराठा सरदार दत्ताजी सिघिंया और सदाशिव राव भाऊने किया. लेकिन इस युद्ध के समय स्थानीय लोगों का सहयोग का न मिल पाने और भयानक सर्दी न झेल पाने के कारण, पानीपत में मराठों की हार हुई.
पानीपत की वह लड़ाई 14 जनवरी 1761 मकरसंक्रांति के बेहद सर्द दिन लड़ी गई थी. महाराष्ट्र / गुजरात / मध्य प्रदेश के रहने वाले मराठा उस ठण्ड के आदी नहीं थे और न ही उनके पास गर्म कपडे थे. स्थानीय लोगों ने मराठा सैनिको को भोजन और गर्म कपडे तक नहीं दिए. वो यह सोंचते थे कि - अबदाली से हमारी कोई दुश्मनी थोड़े ही है.

पंजाब, हरियाण, दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश के जिन लोगों ने पानीपत की लड़ाई को "मराठों" और "अफगानों" की लड़ाई, कहकर किनारा कर लिया था, पानीपत में मराठों की हार का सबसे बड़ा खामियाजा भी उन लोगों ने ही भुगता. अब्दाली ने पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश में भयानक कत्लेआम और लूटमार की.
अहमदशाह अब्दाली ने अपने सैनिकों को यह आदेश दिया कि, "मथुरा नगर हिन्दुओं का पवित्र स्थान है, उसे पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दो. क़त्ले आम करो और लूटो. लूट में जिसको जो मिलेगा, वह उसी का होगा. इसके अलावा काफिरों के सिर काट कर लाने वाले सिपाहियों को काफिर के एक सर के बदले पाँच रुपय अलग से इनाम दिया जायगा.
अब्दाली ने तीन दिन मथुरा में भयानक कत्लेआम किया, लोगों का धन और स्त्रियों की इज्जत लूटी. हजारों महिलाओं ने अपनी इज्ज़त बचाने के लिए यमुना और कुओं में कूदकर जान दे दी. मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ दिया. मथुरा को लूटने के बाद अब्दाली ने वृन्दावन पर हमला किया और वहां भी यही सब दोहराया.
इसके बाद वो आगरा पहुंचा और वहां भी भायंनक लूटमार की और मंदिरों को तोडा. ब्रज को जो स्त्रीयां जान देने में कामयाब नहीं हो पाई उनको अब्दाली कैद कर अपने साथ ले गया. अब्दाली ने दिल्ली और पंजाब में भी यही सब किया. इस प्रकार मराठों की हार का सबसे बड़ा खामियाजा उन्होंने ही भुगता जिन्होंने मराठों का साथ नहीं दिया.
अब्दाली ने अपने हमलों में लाखों लोगों को कत्ले आम किया, सम्पत्ति लूटी, मंदिर तोड़े और महिलाओं को कैद कर ले गया. यही हिन्दू अगर संगठित होकर पेशवा के साथ मिलकर लड़े होते तो न केवल उनकी जान / माल / इज्ज़त बचती बल्कि अब्दाली भी मारा जाता और शायद फिर किसी जेहादी की भारत में हमला करने हिम्मत नहीं होती.
कत्लेआम करने के अलाबा वो भारत से हजारों स्त्रियों / पुरुषों को पकड़कर गुलाम बनाकर ले गया. नाना साहब सारे हिन्दू समाज को एक करना चाहते थे, उन्होंने उत्तर भारत के हिन्दू राजाओं को भी एकजुट करने का बहुत प्रयास किया लेकिन अपने अपने स्वार्थों के कारण, उन्होने नाना साहब की बात नहीं मानी, इससे नाना साहब को बहुत निराशा हुई.
पानीपत की इस हार के आघात को नाना साहब (प्रथम) झेल नहीं पाए. इसी निराशा के चलते 40 साल की अल्पायु में उनका देहांत हो गया. 1761 में नाना साहब पेशवा की म्रत्यु के बाद उनके बड़े बेटे माधवराव ने मात्र सोलह बर्ष की आयु में पेशवा का पद ग्रहण किया. माधवराव ने बहुत थोड़े समय में ही मराठो को फिर बुलंदी पर पहुंचा दिया.

Wednesday, 3 January 2018

पेशवा कौन थे ? (भाग -1) बालाजी विश्वनाथ / बाजीराव प्रथम


एक समय मुघलों ने अधिकाँश भारत पर अपना कब्ज़ा कर लिया था. उस समय महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज ने वहां पर मुघलों को टक्कर दी और मुघलों को वहां से खदेड़ कर हिन्दू साम्राज्य की नीव रखी. हिन्दुओं के इस मराठा साम्राज्य में प्रधानमंत्रियों को पेशवा कहा जाता था. ये राजा के सलाहकार परिषद के प्रमुख होते थे.
राजा के बाद इन्हीं का स्थान आता था. शिवाजी महाराज के अष्टप्रधान मंत्रिमंडल में प्रधान मंत्री अथवा वजीर का पर्यायवाची पद था 'पेशवा'. पेशवा का पद वंशानुगत नहीं था, इसको पाने के लिए अपनी योग्यता को साबित करना पड़ता था. अपनी शक्ति और बुद्धिमानी से पेशवाओं ने भारत के बहुत बड़े हिस्से को मुघलों से आजाद करा लिया था.
यूँ तो पेशवाओं ने शिवाजी महाराज के समय से ही मराठा साम्राज्य के लिए अपना बहुत योगदान दिया था लेकिन पेशवाओं का देश की जनता पर सीधा प्रभाव पड़ना प्रारम्भ हुआ था सातवे पेशवा बालाजी विश्वनाथ भट (1662 1720) के समय में. छत्रपति महाराजा शाहू जी के शत्रुओं को हराने और उन्हें सिंहासन दिलवाने में भी उनका बड़ा हाथ था.
"बालाजी विश्वनाथ भट" ने, न केवल "शाहूजी" को सिंहासन दिलवाने में योगदान दिया बल्कि मराठा साम्राज्य को आपसी संघर्ष में ध्वस्त होने से भी बचाया. इन कार्यों के इनाम में छत्रपति शाहू जी महाराज ने 1713 में "बालाजी विश्वनाथ" को पेशवा नियुक्त किया. उनकी कूटनीति के कारण उनको वही सम्मान प्राप्त था जो "मौर्य शासन" में "चाणक्य" को.
उस समय तक औरंगजेब ( 1616 -1707) की म्रत्यु हो चुकी थी और मुघल साम्रज्य पारिवारिक कलह में उलझा हुआ था. ऐसे समय में उन्होंने दक्षिण-पश्चिम-मध्य भारत में मराठा हिन्दू साम्राज्य को विस्तार करने का काम किया. 1720 में उनकी म्रत्यु के बाद उनके 19 बर्षीय पुत्र "बाजीराव" पेशवा बना. वे पहले पेशवा थे जो किसी पेशवा के पुत्र थे.
बाजीराव (प्रथम) को यह पद वंशानुगत रूप से अवश्य मिला था लेकिन इसके लिए उनको अपनी योग्यता को साबित करना पड़ा था. युवावस्था से ही बाजीराव ने अपनी योग्यता का प्रदर्शन किया और मराठा शक्ति को दूर दूर तक पहुंचाया और उसने मराठा साम्राज्य को भारत में उस समय का सर्वशक्तिमान् साम्राज्य बना दिया.
बाजीराव का व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था तथा नेतृत्व करने की जन्मजात क्षमता थी. अपने अद्भुत रणकौशल, अदम्य साहस और प्रतिभासंपन्न छोटे भाई "चिमाजी अप्पा" के सहयोग से उन्होंने बहुत बड़े क्षेत्र से "हरे झंडे" को हटाकर वहां "भगवा" फहरा दिया था. इसके लिए उन्होंने सबसे पहले मराठा सेना को संगठित और प्रशिक्षित किया.
सबसे पहले 1724 बाजीराव ने शकरलेडला में मुबारिज़खाँ को परास्त किया. उसके बाद 1724 से 1726 में मालवा तथा कर्नाटक पर प्रभुत्व स्थापित किया. अपने आपको मजबूत करने के बाद बाजीराव ने 1728 में महाराष्ट्र के सबसे बड़े शत्रु "निजामउल मुल्क" को पालखेड़ में पराजित कर उससे चौथ तथा सरदेशमुखी वसूली.
इसके बाद 1728 में ही बाजीराव ने मालवा और बुंदेलखंड पर आक्रमण कर, मुगलो के हिन्दू सेनानायक गिरधरबहादुर तथा दयाबहादुर पर विजय प्राप्त की और बुंदेलखंड को मुघलों के आतंक से आजाद कराया. इस विजय के बाद बाजीराव ने 1729 में मुहम्मद खाँ बंगश को परास्त किया. और दभोई के हिन्दू राजा त्रिंबकराव को मजबूत किया.
1731 में बाजीराव ने पुर्तगालियों को करारी शिकस्त दी. इसके बाद बाजीराव ने दिल्ली को जीतने के अभियान की तैयारी करना शुरू कर दिया. दिल्ली का अभियान (1737) उनकी सैन्यशक्ति का चरमोत्कर्ष था. 1937 में ही बाजीराव ने भोपाल के निजाम को हराया और 1739 में उन्होंने "नासिरजंग" पर विजय प्राप्त की.
इस प्रकार पेशवा बाजीराव ने अपने आपको एक महान योद्धा साबित किया. अपने पेशवाई जीवन के 20 बर्ष में बाजीराव ने कुल 41 युद्ध लड़े और प्रत्येक युद्ध में विजय प्राप्त की. इतनी लडाइयां जीतने के बाद भी कभी उनके मन में खुद राजा बनने का बिचार नहीं आया. उन्होंने जीत कर केवल छत्रपति के हिन्दू साम्राज्य का विस्तार किया.
उन्होंने बुन्देलखंड और दभोई आदि के हिन्दू राजाओं को मुस्लिम आक्रान्ताओं के आतंक से मुक्ति दिलाई, लेकिन हिन्द का यह महान योद्धा, अपने चरम ऐश्वर्य के काल में ही 40 बर्ष की अल्पायु में 28 अप्रेल 1740 को अकाल म्रत्यु शिकार हो गया. ऐसा माना जाता है कि- मुस्लिम प्रेमिका "मस्तानी" के कारण पारिवारिक कलह उनकी म्रत्यु का कारण बनी

इंडियागेट और अमर जवान ज्योति

"इंडियागेट" पर, अंग्रेजों के लिए लड़ने वाले सैनिकों के स्थान पर अब, 
परमवीर चक्र, महावीर चक्र, वीर चक्र, अशोक चक्र, शौर्य चक्र,
 कीर्ति चक्र, विजेताओं के नाम लिखे जाने चाहिए.
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जो भी दिल्ली गया होगा या दिल्ली में रहता है, वो दिल्ली के इंडिया गेट पर अवश्य गया होगा. हमें बताया जाता है कि - वो भारत के वीर सैनिको का स्मारक है. हम सभी वहां पर श्रद्धा से सर झुका देते हैं क्योंकि हम अपनी सेना और सैनिकों का दिल से सम्मान करते हैं. हमने शायद कभी ये जानने की कोशिश भी नहीं की वो सैनिक कौन थे और किसके लिए लड़े थे.
दरअसल यह स्मारक, अंग्रेजों ने 1931 में, उन सैनिकों की याद में बनबाया था, जो प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों के लिए लड़े थे. यहाँ पर 13,300 सैनिको के नाम लिखे हैं जिनमे लगभग 4,300 अंग्रेज अफसरों और सैनिको के नाम हैं. भारतीय सैनिक भी वो हैं, जिन्हें अपने अंग्रेज मालिको के इशारे पर, अपने भाइयों पर भी गोली चलाने में हिचक नहीं होती थी.
इसके सामने जो छतरी लगी है इसमें तत्कालीन अंग्रेज राजा जार्ज पंचम की मूर्ति लगी हुई थी. इसके सामने का रास्ता "किंग्स वे - अर्थात राजा का पथ" कहलाता था. जिनका नाम बाद में बदलकर "राजपथ" कर दिया गया. आजादी के दिल्ली की जनता ने मांग की कि - वहां से जार्ज पंचम की मूर्ति को हटाया जाए, मगर नेहरु इसके लिए तैयार नहीं थे.
नेहरु का मानना था कि ऐसा करने से अंग्रेज नाराज हो सकते हैं, क्योंकि 15 अगस्त 1947 में आजादी मिलने के बाबजूद, 15 जनवरी 1949 तक, सेना का नियंत्रण अंग्रेजों के पास ही था. तब दिल्ली के राष्ट्रवादी लोगों ने इसको हटाने के लिए जबरदस्त अभियान चलाया, फिर जाकर नेहरु को मजबूर होकर मूर्ति को "कोरोनेशन पार्क" में स्थानांतरित करना पड़ा.
अर्थात हम वहां जिन जवानो के सम्मान में शीश झुकाते हैं वो न तो भारत की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले क्रांतिकारी हैं और न ही आजाद भारत के दुश्मन देशों से लड़ने वाले सैनिक. यह स्मारक तो अंग्रेजों की सेना में नौकरी करने वाले और अंग्रेज मालिकों की खातिर, देशभक्त क्रांतिकारियों को मारने वाले, अंग्रेजों के गुलाम सैनिकों का है.
अंग्रेजों की सेवा करने वाले भारतीय मूल के सैनिक भी, कभी क्रांतिकारियों की मदद नही करते थे. ये सैनिक भारतीयों या अन्य देश के क्रांतिकारियों पर, अंग्रेज मालिको के इशारे पर गोलियां चलाया करते थे. देश की आजादी के लिए निस्वार्थ संघर्ष करने वाले आजाद हिन्द फ़ौज के सैनिकों पर भी, यही अंग्रेजों के गुलाम सैनिक गोली चलाते थे.
मेरा सरकार से निवेदन है कि- अब यहाँ पर उन सैनिको के नाम लिखे जाने चाहिए, जिनको भारत की रक्षा करने के लिए, परमवीर चक्र, महावीर चक्र, वीर चक्र, अशोक चक्र, शौर्य चक्र, कीर्ति चक्र, आदि दिए गए हैं. इसके अलावा वो छतरी जिसके नीचे जार्ज पंचम की मूर्ति लगी थी, वहां पर क्रान्ति के महानायक "सुभाष चन्द्र बोस" की मूर्ति स्थापित की जाए.
हालांकि इंडिया गेट पर जो "अमर जवान ज्योति" जलती है वो 1971 में भारत पाक युद्ध में शहीद हुए सैनिको के सम्मान में स्थापित की गईं गई थी. इसलिए मैं जब भी कभी इंडिया गेट पर जाता हूँ केवल उसको ही प्रणाम करता हूँ और अन्य लोगों को भी यही समझाता हूँ. अंग्रेजों द्वारा बनाए गए ऐसे स्मारकों में परिवर्तन करने चाहिए.

Tuesday, 2 January 2018

महाराष्ट्र हिंसा और कांग्रेस

अंग्रेजों ने भारत में डेढ़सौ साल से ज्यादा शासन किया. उनकी सेना में अधिकाँश भारतीय लोग ही थे. उनकी सेना में लगभग हर भारतीय धर्म और जाति के लोग थे. अंग्रेजों ने अगर देश पर इतने समय राज किया है तो जाहिर सी बात हैं कि - अंग्रेजों की सेना ने भारत के क्रांतिकारियों को अनेकों बार हराया होगा. लेकिन हम भारतीय कभी अंग्रेजों की जीत का गुणगान नहीं करते हैं, बल्कि क्रांतिकारियों का ही गुणगान करते हैं.
देश पर शासन स्थापित करने की कोशिश में अंग्रेजों ने भारतीय सैनिको की सहायता से ही, भारतीय क्रांतिवीरों को बार बार हराया लेकिन हम उन हारने वाले क्रांतिकारियों को ही सम्मान देते हैं, जीतने वाले अंग्रेजो के भारतीय सैनिको को नहीं. 1857 की क्रान्ति में हमारी हार हुई , उस समय भी अंग्रेजों की तरफ से भारतीय मूल के सैनिक ही लड़ रहे थे. लेकिन हारने वाले देशभक्तों को पूजा जाता है जीतने वाले गद्दारों को नहीं.
1818 में अंग्रेजों की सेना की एक टुकड़ी (जिसमे कुछ महार जाति के लोग थे) की भारतीयों पर जीत को, दलितों की ब्राह्मणों पर जीत बता कर उसका जश्न मनाया जा रहा है. जबकि सबको पता है कि - वो कोई जातीय लड़ाई नहीं थी बल्कि अंग्रेजों की भारतीयों से लड़ाई थी. ऐसी किसी भी लड़ाई में अंग्रेजों का साथ देने वालों को देश का गद्दार ही कहा जाएगा. उनकी जीत का जश्न मनाना भी देश के साथ गद्दारी करना ही है.
1857 तक अंग्रेजों की भारत में पकड़ काफी मजबूत हो चुकी थी क्योंकि उनकी सेना में बहुत सारे भारतीय सैनिक शामिल हो चुके थे. उन भारतीय मूल के सैनिको की मदद से अंग्रेजों ने देश की ज्यादातर रियासतों पर कब्ज़ा कर लिया था. लेकिन याद रहे अंग्रेजों की तरफ से लड़कर जीतने वाले सैनिको को सम्मान नहीं दिया जाता है बल्कि भारत के लिए लड़ने वाले हारे हुए सैनिको को ही सम्मान दिया जाता है.
अंग्रेजों की सेना के भी केवल उन सैनिको को सम्मान दिया जाता है जिन्होंने अंग्रेजों से बगावत की. चाहे वो सैनिक हों जिन्होंने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की और क्रांतिकारियों के साथ शामिल हो गए या 1940 -41 के वो सैनिक जो विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों का साथ छोड़कर 'सुभाष चन्द्र बोस" की आजाद हिन्द फ़ौज में शामिल हो गए थे. उन युद्धों में भी जीत अंग्रेजो की ही हुई थी.
लेकिन इसके बाबजूद हारे हुए देशभक्त सैनिको को सम्मान दिया जाता है, अंग्रेजों की तरफ से लड़कर जीतने वालों को नही. 1857 में दिल्ली, झांसी, लखनउ, मेरठ, कानपुर, जगदीशपुर, आदि हर जगह अंग्रेजों की जीत हुई और उनकी सेना में 90% भारतीय ही थे. लेकिन 1857 की लड़ाई जीतने वालों को नहीं बल्कि केवल हारने वाले सैनिको, रानी, क्रांतिकारियों और राजाओं को सम्मान दिया जाता है.
आज भारत में कांग्रेस और जातिवादी पार्टियों के आस्तित्व का संकट पैदा हो गया है. उनको पता है कि अगर हिन्दू एकजुट रहे तो वे कभी दुबारा सत्ता में वापस नहीं आ पायेंगे, इसलिए किसी तरह से हिन्दुओं को आपस में लड़ाना ही होगा. इसके लिए पहले गुजरात में "पटेल आरक्षण" के नाम पर हिन्दुओं को आपस में लड़ाने का प्रयास किया गया. अब यही चाल महारष्ट्र में दलित के नाम पर चली गई है.
अरबियों और अंग्रेजों ने भारत में आते ही समझ लिया था कि हिन्दुओं को आपस में लड़ाकर ही इन पर शासन किया जा सकता है. मुघलो और अंग्रेजों ने इसीलिए देश में जातिवाद को खूब उभारा जिससे कि - हिन्दू कभी एकजुट न हों. अंग्रेजों के जाने के बाद कांग्रेस ने भी यही किया और हिन्दुओं को जाति के नाम पर बांटकर कई दशक तक राज किया. लेकिन हिन्दुओं के एकजुट हो जाने से उनकी सत्ता चली गई.
राजनेता अपनी राजनीति के लिए देश में किस तरह से आग लगा देते हैं, इसका ताजा उदाहरण आपको इस समय महाराष्ट्र में देखने को मिल सकता है. हिन्दुओं के एकजुट हों जाने के कारण, राजनैतिक रूप से पंगु बन चुकी कांग्रेस, जातिवादी राजनीति करने वाली पार्टियाँ और वोट बैंक की राजनीति में निष्प्रभावी हो चुके मुश्लिम्स ने अपना आस्तित्व बचाने के लिए, हिन्दुओ को आपस में लड़ाकर फिर से सत्ता पाना चाहते हैं.


टेक्स्ट बुक बनाम लोककथा

महामानवों का सच्चा इतिहास  टेक्स्ट बुक में नहीं लोक कथाओं में ही मिलता है
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इतिहास हमेशा शासको द्वारा लिखवाया जाता है, उसमे हारे हुए महान लोग भी नकार दिए जाते है. ऐसे लोगों का इतिहास लोक कथाओं के माध्यम से ही चलता है. जो लोग महारानी "सती पद्मावती" को काल्पनिक बता रहे हैं उनको पता होना चाहिए कि - महारानी "पद्मावती" और "गोरा-बादल" की गाथा सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाई जा रही है.
राजस्थान की उन लोक गाथाओं और चित्तौड़ में मौजूद साक्ष्यों के आधार पर ही "मलिक मोहम्मद जायसी" ने "पद्मावत" लिखा था. भारत का ज्यादातर इतिहास लोकगाथाओं और महाकाव्यों में ही है. ज्यादा पुरानी बातों में न उलझना चाहते हों, तो आजादी की लड़ाई का इतिहास भी आधिकारिक इतिहास से अलग है.
अगर हम 1857 की क्रान्ति की बात करें तो आधिकारिक इतिहास के अनुसार वो स्वाधीनता संग्राम नहीं बल्कि गदर अथवा सैनिक विद्रोह था. अंग्रेजों, रायबहादुरों, खान बहादुरों द्वारा यही प्रचारित किया गया था. लेकिन क्रांतिकारियों का वास्तविक इतिहास लोक कथाओं के माध्यम से चलता रहा और देश की जनता उसी को मानती है.
स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने उन्ही लोकगाथाओं और अंग्रेजों के लिखे इतिहास का अध्यन करके अपना ग्रन्थ "1857 -प्रथम स्वातंत्र्य समर" लिखा था. इस ग्रन्थ को अंग्रेजों ने झूठा घोषित कर प्रतिबंधित कर दिया था और सावरकर को कालापानी जेल भेज दिया था. लेकिन भारत की जनता ने अंग्रेजी इतिहास के बजाय उस ग्रन्थ को सच माना.
मंगल पांडे, बेगम हजरत महल, तात्या टोपे, लक्ष्मीबाई, बाबु कुंवर सिंह, आदि की जो गाथा इतिहास मानी जाती है, वो भी हमें लोककथाओं से ही प्राप्त हुई थी. झांसी की रानी लक्ष्मीबाई पर लिखी, सुभद्रा कुमारी चौहान की जिस कविता को इतिहास माना जाता है, वो भी एक कविता है और उसका आधार बुंदेलो हरबोलों के द्वारा गाए जाने वाले गीत है.
चन्द्र शेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, ठाकुर रोशन सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, आदि भी आधिकारिक इतिहास के अनुसार डाकू, आतंकी, युद्ध अपराधी है कोई क्रांतिकारी नहीं. इतिहास तो यह कहता है कि - गांधी के चरखा चलाने से देश आजाद हो गया था. परन्तु कहानियों और फिल्मो ने उनको क्रांतिकारी साबित किया है.
मेरा सौभाग्य है कि - बाजपुर (उत्तराखंड) में जॉब करते समय, रहते हुए, मुझे सरदार भगत सिंह के छोटे भाई (सरदार राजेन्द्र सिंह) जी के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. भगत सिंह के भाई तक का कहना था कि- भगत सिंह, आजाद, आदि जैसे प्रशिद्ध क्रांतिकारियों को भी आजाद भारत में गुमनामी में धकेलने का प्रयास किया गया था.
सरदार राजेन्द्र सिंह जी का कहना था कि - क्रांतिकारियों की गाथा इतिहास में लिखने की बात तो छोडिये, बड़े अखबार तक सरकार के डर से कभी क्रांतिकारियों की कहानिया नहीं छापते थे. केवल छोटे स्थानीय अखबारों और लोगों के मुह से सुनाई जाने वाली कहानियों के माध्यम से ही क्रांतिकारियों का इतिहास जन-जन तक पहुँच सका था.
इसके अलावा वे फिल्मकार "मनोज कुमार" को बहुत साधुवाद देते थे जिन्होंने "शहीद" जैसी हिट फिल्म देकर क्रांतिकारियों का सम्मान बढ़ाया था. इसलिए "पद्मावती" के बारे में यह कहना कि - उनका जिक्र किसी ऐतिहासिक किताब में नहीं है इस लिए वे काल्पनिक हैं, सरासर झूठ है. महामानवों का इतिहास लोक कथाओं में ही मिलता है.

कवि और कथाबाचक राधेश्याम

मेरा अगर रामकथा से पहला परिचय हुआ था तो वो "राधेश्याम रामायण" के द्वारा हुआ था. मेरे पिताजी को "राधेश्याम रामायण" के बहुत सारे प्रसंग कंठस्थ थे और वे गाते भी बहुत अच्छा थे. इसके अलावा फैक्ट्री में उनके साथ काम करने वाले, उनके मित्र मिलकर "राधेश्याम" लिखित नाटकों का मंचन भी करते थे.
इसके अलावा बरेली के ही एक कथाबाचक "प. ब्रजभूष्ण शर्मा" जी ने हमारे टाउन के मंदिर में कई बार "राधेश्याम रामयण" का पाठ किया था. इस ग्रन्थ की आम बोलचाल की भाषा-शैली मुझे बहुत ज्यादा पसंद है. मुझे आजतक इसके कई प्रसंग याद हैं. रावण सीता संवाद, रावण सूर्पनखा संवाद, लक्ष्मण परशुराम संवाद, आदि प्रसंग मुझे आज भी आनन्द देते है.
कवि और कथाबाचक राधेश्याम जी का जन्म 25 नवम्बर 1890 को उत्तर-प्रदेश राज्य के बरेली शहर के बिहारीपुर मोहल्ले में हुआ था. अल्फ्रेड नाटक कम्पनी से जुड़कर उन्होंने वीर अभिमन्यु, भक्त प्रहलाद, श्रीकृष्णावतार आदि अनेक नाटक लिखे, परन्तु सामान्य जनता में उनकी ख्याति राम कथा की एक विशिष्ट शैली के कारण फैली.
लोक नाट्य शैली को आधार बनाकर खड़ी बोली में उन्होंने रामायण की कथा को 25 खण्डों में पद्यबद्ध किया। इस ग्रन्थ को राधेश्याम रामायण के रूप में जाना जाता है. आगे चलकर उनकी यह रामायण उत्तरप्रदेश में होने वाली रामलीलाओं का आधार ग्रन्थ बनी. मंच पर होने वाले नाटकों में ज्यादातर उनकी ही रचनाओं का प्रयोग होता है.
उनकी रचना "राधेश्याम रामायण" अपनी मधुर गायन शैली के कारण शहर कस्बे से लेकर गाँव-गाँव और घर-घर आम जनता में इतनी अधिक लोकप्रिय हुई कि उनके जीवनकाल में ही उसकी हिन्दी-उर्दू में कुल मिलाकर पौने दो करोड़ से ज्यादा प्रतियाँ छपकर बिक चुकी थीं. उन्होंने धार्मिक और ऐतिहासिक फिल्मो के लिए गीत भी लिखे थे.
"हिन्दू महासभा" के संस्थापक प. महामना मदनमोहन मालवीय उनके गुरु थे. काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए धन जुटाने के लिए, महामना मालवीय जी, जब बरेली पधारे थे, तो राधेश्याम जी ने उनको अपनी साल भर की पुरी कमाई उन्हें दान दे दी थी. जो आज के समय के हिसाब से कई करोड़ में होती.
उनके लिखे नाटकों ने पुरे भारत में धूम मचा दी थी. उन्होंने अपने नाटकों के माध्यम से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ भी माहौल बनाया. भक्त प्रहलाद नाटक में पिता के आदेश का उल्लंघन करने के बहाने उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन सफल सन्देश दिया तथा हिरण्यकश्यप के दमन व अत्याचार की तुलना ब्रिटिश शासकों से की.
वे केवल सरल और आमजन को समझने वाली भाषा में लिखते थे और उर्दू के शब्दों का भी धडल्ले से प्रयोग करते थे. उन्होंने मुसलमान कलाकारों को भी हिन्दू देवताओं के अभिनय हेतु प्रेरित किया. वे गैरहिन्दी भाषी राज्यों में सर्वाधिक प्रवास करते थे. इस प्रकार रामकथा तथा हिन्दी के प्रचार में भी उन्होंने अपना अमूल्य योगदान दिया.
स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद ने भी उन्हें नई दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में आमन्त्रित कर उनसे पंद्रह दिनों तक रामकथा का आनन्द लिया था. पृथ्वीराज कपूर उनके अभिन्न मित्र और घनश्यामदास बिड़ला उनके परम भक्त थे. नेपाल नरेश तथा कश्मीर के राजा हरीसिंह भी उनको विशेष सम्मान देते थे.
शान्तिकुञ्ज (हरिद्वार) वाले प. श्रीराम शर्मा आचार्य भी उनको अपना मार्गदर्शक मानते थे. 26 अगस्त 1963 को 73 बर्ष की आयु में प. राधेश्याम जी का बरेली में अपने निवास स्थान पर स्वर्गवाश हो गया. अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने आत्मकथा "मेरा नाटककाल" लिखी. रामायण के अलावा उन्होंने जो अन्य नाटक लिखे वे निम्न लिखित है.
वीर अभिमन्यु
श्रवणकुमार
परमभक्त प्रह्लाद
परिवर्तन
श्रीकृष्ण अवतार
रुक्मिणी मंगल
मशरिकी हूर
महर्षि वाल्मीकि
देवर्षि नारद
उद्धार और आज़ादी

एनरॉन कंपनी और पी. चिदम्बरम

2003 में "एनरॉन कंपनी" ने भारत के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय अदालत में 38,000 Cr का क्षतिपूर्ति केस दर्ज किया था, एनरॉन कंपनी की और से वकील थे कांग्रेस के बड़े नेता "पी. चिदम्बरम". चिदम्बरम एनरान को भारत से मुआवजा दिलाना चाहते थे.
तत्कालीन अटल सरकार ने, "भारत" का पक्ष रखने के लिए "हरीश साल्वे" को भारत का वकील न्युक्त किया. हरीश साल्वे ने अंतर्राष्ट्रीय अदालत में भारत के पक्ष में दी गई अपनी दलीलों से "एनरॉन कंपनी" को बैकफुट पर धकेल दिया था.
गौर तलब है कि महाराष्ट्र के दाभोल में "एनरान कम्पनी" एक पावर प्लांट बना रही थी, जिसका बिरोध वहां के किसान कर रहे थे. जन बिरोध के कारण प्रोजेक्ट बंद करना पड़ा और एनरान कम्पनी ने भारत से हर्जाना माँगा था.
हरीश साल्वे ने अपनी दलीलों से "एनरान कम्पनी" को पीड़ित के बजाय वादा खिलाफी करने वाला साबित करदिया था. हरीश साल्वे ने दलील दी थी कि - एनरान कम्पनी किसानो को मुआवजा देने तथा पर्यावरण और सुरक्षा के तय मानको से पीछे हटी थी.
दुर्भाग्य से 2004 में अटल सरकार चली गई और सोनिया गांधी के नियंत्रण वाली मनमोहन सरकार आ गई. यू पी ए सरकार ने, सबसे पहले उस केस से हरीश का हटाया और उनकी जगह भी नियुक्त करने के लिए भी उनको भारत का कोई वकील नहीं मिला.
2004 में यू पी ए सरकार ने हरीश साल्वे को हटाकर, उनकी जगह पापिस्तानी मूल के ब्रिटिश नागरिक वकील "खाबर कुरैशी" को यह केस सौंप दिया. गौर तलब है कि - उस समय पी. चिदम्बरम केंद्र सरकार में वित्त मंत्री बन चुके थे.
उधर एनरान कम्पनी ने भी उनको अपने वकील से "लीगल एडवाइजर" बना दिया. अर्थात उस समय भारत का वित्त मंत्री और भारत से 38,000 का हर्जाना मांगने वाली कम्पनी का लीगल एडवाइजर एक ही व्यक्ति था.
जाहिर सी बात है इस हालत में भारत को केस हारना ही था और भारत केस हार गया. एनरान कम्पनी को दिए जाने वाले 38,000 करोड़ के मुआबजे का कैसे कैसे बंटबारा हुआ होगा, इसका अंदाजा आप लोग खुद ही लगाते रहिये.

गीता जयन्ति

गीता का जन्म कुरुक्षेत्र के मैदान में स्वंय भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीमुख से हुआ था. आज से लगभग 5150 बर्ष पूर्व का समय गीता का जन्म काल माना जाता है. कहा जाता है कि - गीता के जन्म के लगभग 30 बर्ष बाद कलयुग प्रारम्भ हो गया था. भगवान श्री कृष्ण ने "गीता" में कलयुग के मानवों को मुक्ति का मार्ग दिखाया है.
कौरव हमेशा पांडवों को सताते रहे. लाक्षागृह में जलाकर मारने का प्रयास किया, छल से राज्य छीन लिया, पत्नी को बेईज्ज़त करने का प्रयास किया, राज्य वापस करने से इनकार कर दिया. जिसके परिणाम स्वरूप महाभारत का युद्ध होना निश्चित हुआ. मगर युद्ध के मैदान में अपने स्वजनों को देखकर अर्जुन का मन व्याकुल हो गया.
अर्जुन को लगने लगा कि - अपने स्वजनों पर प्रहार कैसे करूँ. तब अर्जुन को इस मोह और भ्रम से निकालने के लिए, अर्जुन के सारथी बने भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाकर, पुनः कर्तव्य के मार्ग पर अग्रेसित किया. अर्जुन ने श्रीकृष्ण के सामने अपनी शकाओं को रखा और श्री कृष्ण ने अर्जुन की उन शकाओं का उत्तर देकर निवारण किया.
श्रीकृष्ण और अर्जुन का यह संवाद "गीता" कहलाता है. गीता में जीवन का सार है. इसे पढ़कर मानव को जीवन की राह मिलती है. जिस दिन यह संवाद हुआ था, उस दिन मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष एकादशी थी, इसलिए "गीता" के महत्त्व को समझाने के लिए प्रतिबर्ष मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को "गीता जयंती" महोत्सव मनाया जाता है.
गीता कोई धार्मिक ग्रंथ नहीं है बल्कि यह एक दार्शनिक ग्रंथ है. गीता के अट्ठारह अध्यायों में मनुष्य के सभी धर्म और कर्म का ब्यौरा है. इसमें सतयुग से लेकर कलयुग तक के मनुष्य के कर्म और धर्म के बारे में चर्चा की गई है. हमारे पौराणिक साहित्य में गीता के बचनो को ज्ञान के स्रोत के रूप में देखा जाता है.
"गीता" केवल लाल कपड़े में बांधकर, पूजाघर में रखकर, पूजा करने के लिए नहीं है, बल्कि उसे पढ़कर, उसके संदेशों को आत्मसात करने के लिए है. गीता का चिंतन अज्ञानता को दूरकर, आत्मज्ञान की ओर प्रवृत्त करता है. श्रीमदभगवद् "गीता" के पठन-पाठन, श्रवण और मनन-चिंतन से जीवन में उदारता का उद्भव होता है.
गीता में हमारे सामान्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी मिलता है. हम सब कोई भी काम करते हैं तो उसका नतीजा तुरंत चाहते हैं, लेकिन गीता बताती हैं कि - धैर्य के साथ अपना कर्म करो, कार्य के बीच में ही, परिणाम की कल्पनाओं में उलझ कर ढीले मत पड़ जाओ. अगर कर्तव्य का ठीक से पालन करोगे तो परिणाम भी अच्छा ही आएगा.
"गीता" हमें पलायन से पुरुषार्थ की तरफ ले जाती है. यह हमें दुख और सुख दोनों में समदृष्टा होने की सीख देती है. भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि - केवल अपने कर्तव्य का पालन करके ही "मोक्ष" को पाया जा सकता है. इसलिए गीता जयन्ति की इस तिथि (मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी) को मोक्षदा एकादशी भी कहा जाता है.
गीता के कुछ सन्देश, जो हमारे जीवन को नई प्रेरणा और नई ऊर्जा देते हैं
1. मन को नियंत्रित करना कठिन है, लेकिन अभ्यास से इसे वश में किया जा सकता है.
2. जो मन को नियंत्रित नहीं करते उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है
3. अपने ह्रदय से अज्ञान के संदेह को, आत्म-ज्ञान की तलवार से काटकर, अलग कर दो.
4. मनुष्य अपने विश्वास से निर्मित होता है. जैसा वो विश्वास करता है वैसा वो बन जाता है
5. हर काम का फल निश्चित रूप से मिलता है. जैसा कर्म करोगे बैसा ही फल मिलेगा.
6. क्रोध से भ्रम पैदा होता है. भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है. जब बुद्धि व्यग्र होती है तब तर्क नष्ट हो जाता है. जब तर्क नष्ट होता है तब व्यक्ति का पतन हो जाता है.
7. इस तरह करें काम वो बोझ न लगे. इतना समर्पित होकर कर्म करें कि -'जो कार्य में निष्क्रियता और निष्क्रियता में कार्य का अहेसास हो.
8. जब आप अपने कार्य में आनंद खोज लेते हैं, तब वह कार्य कार्य नहीं रह जाता है और ऐसा कार्य अपनी पूर्णता को अवश्य प्राप्त करता हैं.

जनेऊ या यज्ञोपवीत

कल सुरजेवाला ने राहुल गांधी के बारे में एक बयान दिया है कि - राहुल गांधी जनेऊधारी ब्राह्मण है, इसके बाद "जनेऊ" पर बहस प्रारम्भ हुई है. इस बिषय में मुझे जो जानकारी है वो मैं आपके साथ शेयर करना चाहता हूँ. ज्ञानीजन मार्गदर्शन करें.
जनेऊ मात्र एक घागा नहीं है बल्कि जनेऊधारी व्यक्ति की शुद्धता और शुचिता का प्रतीक है. भारत में जनेऊ धारण करने की काफी प्राचीन परम्परा है. जनेऊ धारण करने का अर्थ यह है कि - जनेऊधारी व्यक्ति धर्म और ज्ञान की जानकारी रखने योग्य है.
12 साल तक के बच्चो को किसी यज्ञ में सम्मिलित होकर आहुति डालने का अधिकार नहीं है. ऐसा नियम इसलिए बनाया गया कि - नासमझ बच्चे यज्ञ में व्यवधान पैदा न करे. जब उनको यज्ञ का महत्व समझ आ जाए, उसके बाद ही यज्ञ में शामिल हों.
12 साल की आयु होने के बाद, बच्चों का जनेऊ संस्कार किया जाता है. उनको यज्ञ की महत्वता के तथा तन और मन की शुद्धता के बारे में समझाया जाता है. इसीलिए जनेऊ धारण करने को, यज्ञोपवीत संस्कार भी कहां जाता हैं.
प्राचीन काल में जनेऊ धारण करने के बाद ही, बालक समझदार माना जाता था. जनेऊ धारण करने के बाद ही बालक शास्त्र (ब्राह्मण), शस्त्र (क्षत्रीय), व्यापार (वैश्य) की शिक्षा प्रारम्भ करने के योग्य बनता था. बिना जनेऊ वाले को शूद्र कहा जाता था.
भगवान् परशुराम ने जनेऊ (यज्ञोपवीत) पहनने और उसकी शुद्धता पर विशेष जोर दिया था. उन्होंने गैर संस्कारी ब्राह्मणों के जनेऊ उतरवाकर उनको शुद्र घोषित किया था तथा संस्कारी शूद्रों को भी जनेऊ पहनाकर उनको ब्राहमण बनाया था.
मुघलों द्वारा जनेऊधारियों की हत्या और अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के मन में अपनी परम्पराओं के प्रति हींन भावना भरने के कारण, जनेऊ पहनने की परम्परा ख़त्म होती चली गई और ब्राह्मणों में भी मात्र एक औपचारिकता की तरह रह गई है.
ब्रिटिश राज में भी भारत के एक महान क्रांतिकारी, जो जनजातीय समुदाय से थे, जिनको कि -भगवान् का दर्जा प्राप्त है, उन "भगवान् विरसा मुंडा" ने बनवाशियों में क्रान्ति की ज्वाला भड़काने के लिए जनेऊ (यज्ञोपवीत) का इस्तेमाल किया था.
एक वनवाशी और तथाकथित शुद्र परिवार में जन्म लेने के बाबजूद, वे जनेऊ धारण करते थे और अपने क्रांतिकारी ग्रुप में शामिल होने वालों को भी, वे जनेऊ पहनाते थे. उन्होंने वन्वाशियों में जनेऊ के माध्यम से क्रान्ति का दावानल पैदा कर दिया था.
भगवान् विरसा मुंडा की असमय म्रत्यु हो जाने के बाद उनका यह अभियान थम गया. आज एक बार फिर आवश्यकता है कि संत लोग आगे आयें और लोगों को जनेऊ का महत्त्व समझाकर उनको इसे धारण करवाये. जय सनातन संस्कृति. .

फर्जी इतिहास बनाम सच्ची लोकगाथा

मैं अक्सर भारत के महापुरुषों की गाथाओं को, देश के सामने लाने का काम करता हूँ. यह गाथाएँ ज्यादातर स्थानीय स्तर पर लोग पीढ़ी दर पीढ़ी सुनते आये हैं और इसे सच मानते हैं. लेकिन इन गाथाओं के बारे में सारे देश को जानकारी नहीं है. अपने अपने स्थानीय महापुरुष की बात को लोग सत्य तथा सुदूर के महापुरुष की गाथा को लोग झूठ मानते है.
उदाहरण के लिए - गुरु गोबिन्द सिंह के साहबजादों के बलिदान की गाथा उत्तर भारत में लोग जानते हैं, लचित बोडफुगन की गाथा "असम" के लोग जानते हैं, वीर विक्रमादित्य / रानी दुर्गावती की गाथा मध्यभारत में गाई जाती है, गोकुला जाट / जोगराज सिंह गुर्जर / राम प्यारी गुर्जरी की गाथा हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश में सुनाई जाती है,
प्रथ्वीराज चौहान / महाराणा प्रताप की गाथा पश्चिम भारत में प्रशिश्द्ध है. इसी तरह शिवाजी को महाराष्ट्र में, चेनम्मा को कर्नाटक में, छत्रसाल को बुन्देलखंड में, नाककाटी रानी को गढ़वाल में, बन्दा बहादुर को पंजाब में, बहुत ज्यादा महत्त्व दिया जाता है लेकिन शेष भारत उनके नाम और काम से लोग ज्यादा अच्छी तरह से परिचित नहीं है.
कई लोग इन गाथाओं को झूठा और अप्रमाणिक कहते हैं लेकिन हर क्षेत्र का व्यक्ति उसी पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही गाथा को ही सच मानता है. इन सभी महापुरुषों की गाथाओं को सारे देश में पहुंचाने का मैंने संकल्प लिया हुआ है और फेसबुक में माध्यम से लोगों तक पहुंचा रहा हूँ. जल्द ही मैं इन लेखों को संकलित कर पुस्तक के रूप में भी लाऊंगा.
अब बात करते हैं इन गाथाओं की प्रामाणिकता की. दरअसल शासकों का इतिहास चाटुकार इतिहासकार लोग लिखते है इसलिए वो अपने जालिम स्वामी को भी महान लिखते है. जबकि हारे हुए देशभक्तों का इतिहास लोक कथाओं के माध्यम से चलता है. इसको ठीक से समझने के लिए मैं 1857 की क्रान्ति के इतिहास का उदाहरण देना चाहूँगा.
1857 की "क्रान्ति" को अंग्रेजों तथा अंग्रेज टाईप भारतीय इतिहासकारों ने "स्वाधीनता संग्राम" नहीं बल्कि "गदर" और "राजद्रोह" लिखा था. जिन स्वाधीनता सेनानियों को आज हम पूजते हैं वो लोग उस इतिहास के अनुसार राजद्रोही / गद्दार थे. लेकिन उन सभी स्वाधीनता सेनानियों की गाथाये लोक कथाओं के माध्य्म से पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहीं.
उन लोक गाथाओं और इधर उधर से सुने हुए किस्सों को संकलित कर और उनको एकीकृत कर "स्वातंत्र्यवीर सावरकर" ने पचास साल बाद 1907 में एक ग्रन्थ लिखा था "1857 प्रथम स्वतंत्र्य समर" जिसको अंग्रेजों और उनके चापलूस बुद्धजीवियों ने झूठ का पुलिंदा कहकर प्रतिबन्ध लगा दिया था और सावरकर को कालापानी की जेल में डाल दिया था.
लेकिन उनका यह ग्रन्थ देश में इतना लोकप्रिय हुआ कि - उस काल के सभी क्रान्तिकारी चोरी छुपे इस ग्रन्थ को छपवाते थे और वितरित करते थे. इस ग्रन्थ के प्रचार ने अंग्रेजों के लिखे इतिहास को झूठा तथा लोक गाथाओं पर आधारित सावरकर के ग्रन्थ को सच्चा साबित कर दिया था. जबकि उन घटनाओं के ऐतिहासिक साक्ष्य भी नहीं थे.
उदाहरण के लिए - रानी झांसी की गाथा को हम जिस तरह से गाते हैं, वो भी इतिहास में उस तरह से दर्ज नहीं है. यह गाथा इतिहास की किताबों से नहीं बल्कि बुंदेलों / हरबोलों द्वारा गाये जाने वाले गीतों से ली गई थी. लेकिन आज हम उस तथाकथित प्रामाणिक इतिहास को नहीं बल्कि लोक गाथाओं के आधार पर लिखे गए इतिहास को सच मानते है.
मंगल पांडे, बहादुर शाह जफ़र, नाना साहब, तात्या टोपे, बाबू कुंवर सिंह, बेगम हजरत महल. अजीमुल्ला, अमरजीत बाठिया, भोंदू सिंह यादव, आदि क्रांतिवीरों के नाम हम किसी इतिहास की टेक्स्टबुक द्वारा नहीं बल्कि लोकगाथाओं पर आधारित "सावरकर" के ग्रन्थ "1857 प्रथम स्वतंत्र्य समर" के माध्यम से ही जान सके हैं.
अब आप ही बताइये कि- आप प्रथम स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के लिए अंग्रेजों / राय बहादुरों के तथाकथित प्रामाणिक इतिहास को सच मानते है या लोकगाथाओं पर आधारित सावरकर के इतिहास को? जो काम 1857 की क्रान्ति की असफलता के बाद अंग्रेजों ने किया था वही काम आजादी के बाद कांग्रेस सरकार ने क्रांतिकारियों के साथ किया.
देश आजाद होते ही सत्ता कांग्रेस के हाथ में आ गई और कांग्रेसियों ने गांधी / नेहरु को ही भारत का एकमात्र महापुरुष घोषित कर दिया. देश की जनता को बताया जाने लगा कि - गांधी जी ने बिना खड्ग बिना ढाल के, केवल चरखा चला कर अंग्रेजों को भगा दिया. इसे इतना प्रचारित किया गया कि लोग अन्य क्रांतिकारियों के नाम और काम भूलने लगे.
आज जब देश जागरूक हुआ और क्रांतिकारी घटनाओं पर सवाल उठाने लगा तो कांग्रेसियों ने खुद ही यह गीत "दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल" गाना बंद कर दिया. आज आपको कोई भी कांग्रेसी आजादी की लड़ाई की घटनाओं की चर्चा दिखाई नहीं देगा. क्योंकि इनपर जितनी ज्यादा चर्चा होगी उतनी ही ज्यादा सच्चाई सामने आयेगी.
आज जब हम कांग्रेस के जन्म, कामागाटामारू की घटना, अभिनव भारत / युगांतर की क्रान्तिकारी घटनाओं, चौरीचौरा काण्ड, जैक्सन / वायली / सांडर्स / ओद्वाय्रर का बध, करतार सिंह, खुदीराम बोस, आजाद, भगत सिंह, विस्मिल, लाजपत राय , सुभाष चन्द्र बोस आदि के बलिदान का जिक्र करते हैं तो यह कांग्रेसी उस चर्चा में भाग तक नहीं लेते.
इतिहास में ये महापुरुष भी क्रांतिकारी के रूप में दर्ज नहीं है. इन क्रांतिकारियों की गाथा भी इतिहास की टेक्स्ट बुक्स द्वारा नहीं बल्कि लोकगाथाओं, कहानियों, नाटकों, कविताओं और फिल्मो के द्वारा ही जन-जन तक पहुंची है. आजादी की लड़ाई की कहानी का जो सच कांगेस सरकार द्वारा दबाकर रखा गया था वो आज देश के सामने आ चूका है.
आज मैं भी वही काम कर रहा हूँ. विभिन्न क्षेत्रों के महापुरुषों की गाथाओं का अध्ययन करके उनका अन्य कथाओं से मिलान करके, उन प्राचीन / नवीन महापुरुषों की गाथाओं को आपके सामने लाने का प्रयास कर रहा हूँ. इनको कोई कितना भी झूठ कहे लेकिन इनको मानने वाले क्षेत्र के लोग इनको ही सच मानते हैं और जल्द ही सारा देश भी मानेगा.
कल से पंजाब की महत्त्वपूर्ण गाथाओं पर मेरी पोस्ट्स आएँगी. जिनमे गुरु गोविन्द सिंह के साहबजादों के बलिदान, चमकौर की लड़ाई, मासूम बच्चों को ज़िंदा दीवार में चुनवाये जाने, चप्पड़चिडी की जंग, मोती राम मेहता का बलिदान, आदि का जिक्र होगा. इनको भी कुछ लोग झूठ कहेंगे मगर विशवास रखिये ये सब सच हैं.

स्वामी श्रद्धानन्द

घरवापसी (शुद्धिकरण) आन्दोलन के प्रणेता "स्वामी श्रद्धानन्द" की पूण्यतिथि तिथि (23 दिसम्बर) पर सादर श्रद्धांजली
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स्वामी श्रद्धानन्द का जन्म 22 फ़रवरी सन् 1856 को पंजाब के जालन्धर जिले के तलवान ग्राम में हुआ था. उनके बचपन का नाम मुंशीराम था. एक बार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक-धर्म के प्रचारार्थ बरेली पहुंचे, उस समय उनके पिता बरेली में पोस्टेड थे. वे अपने साथ मुंशीराम को भी प्रवचन सुनाने ले गए.
प्रवचन को सुनकर उन्होंने, स्वामी दयानंद को अपना गुरु मान लिया. युवा होने पर वे एक प्रसिद्ध वकील हुए. जब वे 35 साल के थे तब उनकी पत्नी का देहांत हो गया. पत्नी की म्रत्यु के बाद उन्होंने सन्यास धारण कर लिया और स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए. उन्होंने अपना जीवन राष्ट्र एवं धर्म के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया.
उनको लगता था कि अंग्रेज अपनी शिक्षा पद्धति के माध्यम से भारत की पीढी को बर्बाद करना चाहते हैं. इसलिए उन्होंने प्राचीन भारतीय पद्धति से शिक्षा का प्रसार करने के लिए हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना की. जिसकी देश में बहुत सारी शाखाये बनाई. उन्होने दो पत्र भी प्रकाशित किये, हिन्दी में अर्जुन तथा उर्दू में तेज.
उन्होने स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ-चढकर भाग लिया और गरीबों और दीन-दुखियों के उद्धार के लिये काम किया. इसके साथ साथ उन्होंने स्त्री-शिक्षा पर भी बहुत जोर दिया. उन्होंने गांधी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लिया, लेकिन खिलाफत आन्दोलन के समय, कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति नाराज होकर उन्होंने कांग्रेस को छोड़ दिया.
स्वामी श्रद्धानंद ने "शुद्धि आन्दोलन" चलाकर आव्हान किया कि - जिन गैर हिन्दुओं को लगता है कि वे पहले हिन्दू थे, वापस हिन्दू धर्म में आ सकते हैं. उन्होंने ऐसे अनेको लोगों की आर्यसमाज के माध्यम से घर वापसी कराई. उन्होंने अनेको हिन्दू से मुस्लिम / ईसाई बने लोगों और उनकी संतानों का शुद्धि करण कर पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित किया.
23 दिसम्बर 1926 को नया बाजार स्थित उनके निवास स्थान पर, अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी मुश्लिम यवक ने, धर्म-चर्चा के बहाने उनके कक्ष में प्रवेश किया और अचानक गोली मारकर इस महान विभूति की हत्या कर दी. देश, धर्म और शिक्षा के उत्थान के लिए समर्पित महात्मा स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे "अब्दुल रशीद" को फांसी की सजा दी गई.
"अब्दुल रशीद" को फांसी की सजा का ऐलान होने पर गांधी ने कहा था कि - रशीद को फासी होने पर हिन्दू / मुश्लिम के बीच भाईचारा ख़त्म हो सकता है. गांधी ने उस हत्यारे को अपना भटका हुआ भाई कहकर उसके लिए दया की मांग की थी. लेकिन गांधी की इस मांग का सारे देश में बहुत बिरोध हुआ और अन्ततः उसको फांसी की सजा दे दी गई.
उस महान आत्मा की पूण्यतिथि पर कोटि कोटि नमन

गुरु गोबिन्द सिंह

"जब-जब होत अरिस्ट अपारा, तब-तब देह धरत अवतारा : गुरु गोविन्द सिंह"
अर्थात जब-जब धर्म का ह्रास होकर अत्याचार, अन्याय, हिंसा और आतंक के कारण मानवता खतरे में होती है तब-तब दुष्टों का नाश एवं सत्य, न्याय और धर्म की रक्षा करने के लिए ईश्वर स्वयं इस भूतल पर अवतरित होते हैं. गीता में भी भगवान् श्री कृष्ण ने यही कहा है.
17 वीं सदी में जब भारत के काफी हिस्से पर मुघलों का शासन था, अपने भाइयों की ह्त्या और बाप को कैद कर औरंगजेब दिल्ली की गद्दी पर बैठ गया था, उस अधर्मी और अत्याचारी के कारण देश की धर्मी जनता का जीना मुस्किल था. लोगो को धर्म छोड़ने पर मजबूर किया जा रहा था और धर्म न छोड़ने वालों को सताया जा रहा था. महिलाओं की इज्ज़त खतरे में थी.
ऐसे समय में बिहार की राजधानी पटना में गुरु तेग बहादुर और माता गुजरी के यहाँ "गुरु गोबिन्द सिंह जी" का जन्म हुआ. अंग्रेजी कैलेण्डर के हिसाब से यह 22 दिसंबर सन् 1666 ई. थी. परन्तु उनका जन्मदिन भारतीय कैलेण्डर के अनुसार मनाया जाता है और इसके हिसाब से यह इस बार 2017 में 25- दिसंबर को पड़ रहा है.
औरंगजेब द्वारा गुरु तेग़बहादुरजी को शहीद करने के कारण 9 वर्ष की आयु में "गुरु गोबिन्द सिंह" को गुरु गद्दी पर बैठाया गया. 'गुरु' की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फ़ारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएँ सीखीं. इसके साथ साथ उन्होंने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी.
गुरु गोबिन्द सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था. गुरु गोबिन्द सिंह जैसी वीरता और बलिदान इतिहास में कम ही देखने को मिलता है. उन्होंने संकल्प लिया कि - मैं ऐसे योद्धा तैयार करूंगा जो अकेले सवा लाख से टकराने का हौशला रखते होंगे और जो धरती जुल्म का सफाया कर देंगे.
इसके लिए उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की. खालसा का अर्थ है खालिश अर्थात शुद्ध बिचार वाले. उनके आव्हान पर सारे देश से देशभक्त और धर्मवीर लोग उनके शिष्य बनकर उनके द्वारा चलाये खालसा पंथ में शामिल हो गए. उन्होंने तथा उनके शिष्यों ने अधर्मियों को कड़ी टक्कर दी. उनके पुत्र भी धर्म की रक्षा के लिए कुर्बान हो गए.
गुरु गोविन्द सिंह ने मुघलों से अनेकों युद्ध लडे, जिनमे से प्रत्येक युद्ध पर महाकाव्य लिखा जा सकता है. उन्होंने मुट्ठी भर धर्म योद्धाओं के साथ मुघलों की लाखों की संख्या वाली विशाल फ़ौज को कड़ी टक्कर दी. गुरु गोविन्द सिंह एक योद्धा के साथ साथ एक परम विद्वान् भी थे. उन्होंने अनेकों रचनाये भी लिखी जो युगों युगों तक मानव जाति का मार्गदर्शन करती रहेंगे.
गुरु गोबिन्दसिंह की सचखंड गमन 7 अक्तूबर सन् 1708 ई. में नांदेड़, महाराष्ट्र में हुआ था. अपने अंतिम समय उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाया और उन्हें मर्यादित तथा शुभ आचरण करने, देश से प्रेम करने और दीन-दुखियों की सहायता करने की सीख दी. उन्होंने यह भी कहा कि- अब कोई देहधारी गुरु नहीं होगा और अब 'गुरुग्रन्थ साहिब' ही उनका मार्ग दर्शन करेंगे.
गुरु गोविन्द सिंह के बारे में किसी कवि ने लिखा है ;-
एक से कटाने, सवा लाख शत्रुओं के सिर, गुरु गोबिन्द ने बनाया, पंथ ख़ालसा
पिता और पुत्र सब देश पे शहीद हुए, नहीं रही सुख साधनों की, कभी लालसा
ज़ोरावर - फतेसिंह दीवारों में चुने गए, जग देखता रहा था, क्रूरता का हादसा
चिड़ियों को बाज से लड़ा दिया था, मुग़लों के सर पे जो छा गया था, काल सा

गुरु गोविन्द सिंह से औरंगजेब का विवाद

गुरु गोबिंद सिंह की बढ़ती शक्ति से परेशान होकर, औरंगजेब ने सरहिन्द के नबाव बजीर खान को दस लाख की फ़ौज देकर, सन्देश दिया कि - मेरा यह सन्देश आनंदपुर में गोविन्द सिंह तक पहुँचाओ और अगर वो मान ले तो ठीक है नहीं तो आनंदपुर पर हमला कर उसे नष्ट कर दो. उसको बंदी बनाओ या उसकी हत्या कर दो. औरंगजेब का सन्देशकुछ इस प्रकार था.
(गुरु) गोविंद सिंह स्वयं को बादशाह कहलाना तथा सैनिकों को इकठ्ठा करना बंद करे. उसको अपने सिर पर राजाओं के समान सिरपेंच (कलगी) रखना छोडना होगा, किले के छत पर खड़ा रह कर सेना का निरीक्षण करना तथा अभिवादन स्वीकारना भी बंद करना होगा. वह चाहे तो एक सामान्य ‘संत’के रुप में अपना जीवन व्यतीत कर सकता है.
लेकिन अगर यह चेतावनी देनेके पश्चात भी, वह अपनी कार्यवाहियां बंद नहीं करता है, तो वो (बजीर खान), उसे (गुरु गोविन्द सिंह को ) सीमा पार करे, उसे बंदी बनाए अथवा उसकी हत्या करें और आनंदपुर को पूर्णत: नष्ट करे. औरंगजेब के इस शाही फरमान का गुरु गोविन्द सिंह जी पर कुछ भी असर नहीं हुआ और उन्होंने अपने कार्य को पूर्ववत जारी रखा.
तब फरवरी 1695 में औरंगजेब ने एक और आदेश निकाला :- एक भी हिंदू (जो मुगल राजसत्ता के कर्मचारी हैं उन्हें छोडकर ) सिर पर चोटी न रखे, पगड़ी न पहने, हाथ में शस्त्र न ले. उसी प्रकार पालकी में, हाथियों पर तथा अरबी घोडों पर न बैठे. जो भी हिन्दू / सिक्ख इस आदेश को नहीं मानेगा उसको म्रत्यु दंड दिया जाएगा और सम्पत्ति जब्त कर ली जायेगी.
तब गुरुजी ने इस आदेश के जबाब में अपना एक प्रतिआदेश निकाला :- मेरे सिक्ख ( शिष्य ) केवल चोटी ही नहीं बल्कि पूरे के पूरे केश रखेंगे, वे संपूर्ण केशधारी होंगे तथा वे केश नहीं कटवाएंगे. वे सर पर सदैव पगड़ी भी पहनेंगे, वे हमेशा शस्त्र धारण भी करेंगे, वे हाथियों पर, घोडों पर तथा पालकी में भी बैठेंगे. उसके बाद जो हुआ वो इतिहास में अमर है.