
उन्होंने महेसूस किया कि - तत्कालीन कांग्रेस सरकार हमेशा दलितों की हमदर्द होने का दावा तो करती है लेकिन हकीकत में वो दलितों को केवल वोटबैंक ही समझती है. दलितों का विकास दिखावटी नारे के सिवा कुछ नहीं है. तब उन्होंने दलितों/पिछड़ों को वोटबैंक बनने के बजाय खुद एक राजनैतिक ताकत बनने का आव्हान किया.
दलितों को एकजुट करने और राजनीतिक ताकत बनाने का अभियान 1970 के दशक में शुरू कर दिया था. इसके लिए कई संगठनों के साथ काम किया. अन्य संगठनों में गुटबाजी और दिशाहीनता से निराश होकर उन्होंने 6 दिसंबर 1981 को दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) नामक नए संगठन की स्थापना की.
डीएस-4 के जरिए सामाजिक, आर्थिक बराबरी का आंदोलन, आम झुग्गी-झोपड़ी तक पहुंचाने में काफी मदद मिली. इसको सुचारु रूप से चलाने के लिए महिला और छात्र विंग में भी बांटा गया. जाति के आधार पर उत्पीड़न, गैर-बराबरी जैसे समाजिक मुद्दों पर लोगों के बीच जागरूक करना डीएस-4 का सबसे प्रमुख एजेंडा था.
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कांशीराम जी की माँ |
14 अप्रैल, 1984 को उन्होंने बहुजन समाज पार्टी नामक एक नई राजनैतिक पार्टी का गठन किया. बसपा का गठन दलितों/पिछड़ों को वोटबैंक बन्ने के बजाय, खुद सत्ता हासिल करने के लिए किया गया था. वे 1991 में पहली बार यूपी के इटावा से और दूसरी बार 1996 में पंजाब के होशियारपुर से लोकसभा का चुनाव जीते.
2001 में उन्होंने सार्वजनिक तौर पर घोषणा करके, मायावती को अपना उत्तराधिकारी बनाया. 2003 में लकवाग्रस्त होने के बाद सक्रिय राजनीति से दूर चले गए. 9 अक्टूबर, 2006 को
हार्टअटैक से उनका स्वर्ग्वाश हो गया. लेकिन कांशीराम के परिवार वालो का कहना है कि - मायावती ने बसपा पर कब्जे के लिए कांशीराम को बंदी बनाया था.

शायद यह कांशीराम जी की माँ का ही श्राप था कि - पिछले लोकसभा चुनाव (2014) में, मायावती के नेतृत्व वाली बसपा को, जनता ने नकार दिया था और बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी. अभी हाल में ही हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी जनता ने मायावती को बुरी तरह से हरा दिया है.
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