1915 में भारत आने के बाद गांधी जी ने जो अहिंसा का सिद्धांत दिया उसको देशवाशियों ने हाथों हाथ लिया. और देखते ही देखते दस साल से चल रहा द्वितीय स्वाधीनता संग्राम एकाएक शांत हो गया. सारा देश गांधी जी नए सिद्धांत के साहारे बिना खून खराबे के देश के आजाद हो जाने का सपना देखने लगा. लगभग सारा देश गांधीजी के साथ हो गया.
गांधीजी की बातों का इतना असर था कि - 1919 में जलियाँवाला बाग़ जैसा काण्ड होने पर भी देश में उसकी कहीं कोई हिंसक प्रतिक्रया नहीं हुई. सितम्बर 1921 में जब गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन का ऐलान किया तो सारे देश के युवा इसमें साथ आ गए. मगर गांधी जी की सोंच और जनता की आकांक्षा में बहुत बड़ा अंतर था.
गांधीजी ब्रिटिश शासन के अधीन, औपनिवेशिक सुराज मांग रहे थे और देश की जनता इसे स्वराज पाने की निर्णायक लड़ाई समझ रही थी. कुछ ही समय में आन्दोलन गांधीजी और कांग्रेस के हाथ से निकलकर जोशीले युवाओं के हाथ में पहुँच गया. गांधीजी की अहिंसा की अपील के बाबजूद देश के युवाओं ने कई जगह, हिंसक प्रतिकार भी किये.
अंग्रेजों ने भी गांधी पर दबाब बढाया. तभी 4फरबरी 1922 को चौरीचौरा काण्ड हो गया जिसको बहाना बनाकर गांधीजी ने अपने इस असफल आन्दोलन को वापस ले लिया. इसके साथ ही अंग्रेजों की नाराजगी से बचने के लिए गांधीजी ने आन्दोलन के समय अंग्रेजों के खिलाफ हिंसक कार्यवाही करने वालों को आन्दोलनकारी मानने से इनकार कर दिया.
असहयोग आन्दोलन की असफलता तथा गांधीजी द्वारा आन्दोलनकारियों को दिए गए इस धोखे से, युवाओं का गांधी जी से मोह भंग हो गया और वो अपने लिए कोई नया रहनुमा तलाशने लगे. ऐसे में उनका नेतृत्व करने को सबसे आगे आये राम प्रसाद विस्मिल और चद्रशेखर आजाद. देशभर के जोशीले युवा उनके साथ जुड़ने लगे.
उत्तर प्रदेश से अशफाक उल्ला खान, पंजाब से भगत सिंह और सुखदेव, महाराष्ट्र से राजगुरु, बगाल से भगवती चरण, आदि न जाने कितने युवा इनके साथ जुड़ते चले गए. इन लोगों ने गांधीजी का रास्ता छोड़कर क्रान्ति का पथ चुन लिया. इनका आदर्श गांधी जी नहीं बल्कि महर्षि अरविन्द, वीरसावरकर एवं प्राचीन भारतीय महापुरुषों के विचार थे.
अब देशभर में फिर से अंग्रेजों और उनके चापलूस भारतीयों के खिलाफ क्रांतिकारी कार्यवाहियां शुरू हो गई. जालिम अंग्रेजों को निशाना बनाया जाने लगा, सरकारी खजाने को लूटा जाने लगा और अंग्रेजों के चाटुकार भारतीय मूल के अमीर लोगों से धन की मांग / लूट की जाने लगी , जिससे क्रांतिकारियों के लिए हथियार तथा अन्य सामान खरीदा जा सके.
गांधीजी लगातार इन क्रांतिकारियों का बिरोध करते रहे, लेकिन बहुत सारे कांग्रेस समर्थक नेता भी दिल से इन क्रांतिकारियों को समर्थन देते रहे, इनमे लाला लाजपत राय, गणेश शंकर विद्यार्थी, सुभाष चन्द्र बोस, आदि का नाम प्रमुख है. गांधी और नेहरु ने इन क्रांतिकारियों का कभी समर्थन नहीं किया बल्कि इनको अहिंसा के रास्ते की रुकावट माना.
असहयोग आदोलन की असफलता के बाद दो साल गांधीजी जेल में रहे. इसके साथ ही आजादी की लड़ाई पूरी तरह से जोशीले क्रांतिकारी युवाओं के हाथ में आ गई. जेल से वापस आने के बाद भी गांधी जी ने कभी आजादी का नाम नहीं लिया. वे केवल ब्रिटिश शासन के अधीन सुराज ( अच्छा शासन) मांग करते थे और देश में औपनिवेशी शासन चाहते थे.
जेल से वापस आने के बाद गांधी जी ने अस्पृश्यता, शराब, अज्ञानता, नमक पर टैक्स, विदेशी सामान, आदि के खिलाफ कई आन्दोलन और उपवास किये जिनका उद्देश्य भारतीय समाज का उत्थान तथा गरीबी उन्मूलन था लेकिन उसका स्वतंत्रता की लड़ाई से कोई सम्बन्ध नहीं था, वह लड़ाई केवल आजाद जैसे क्रांतिकारी लड़ रहे थे.
देश में आजादी को लेकर व्यग्रता देखकर कांग्रेसी भी आजादी की मांग करने लगे थे. कांग्रेस में सुभाष चन्द्र बोस जैसे नेताओं के दबाब के कारण दिसंबर 1928 में मजबूर होकर घोषणा करनी पड़ी कि - हम अंग्रेजो से ब्रिटिश शासन के अधीन स्वायत्ता की मांग करते है लेकिन अगर हमारी यह मांग नहीं मानी गई तो हम पूर्ण आजादी की मांग करेगे.
गाँधी जी को उम्मीद थी कि - उनकी मांग मान ली जायेगी, मगर अंग्रेजों ने उसपर बिचार तक नहीं किया. तब मजबूर होकर उन्हें 26 जंनवरी 1930 को लाहौर में पूर्ण आजादी की मांग करनी पडी. इसी बीच मुठभेड़, फांसी और कालापानी के कारण आजाद, भगत, विस्मिल, अशफाक, रोशन, आदि शहीद हो गए और कांग्रेस पुनः प्रकाश में आ गई.
आजाद, भगत, विस्मिल, अशफाक, रोशन, भगवती, आदि के हाथ में जबतक लड़ाई थी तब तक वन्देमातरम क्रांतिकारियों का प्रमुख नारा था. इनके न रहने पर मुस्लिम तुष्टीकरण के चलते अघोषित रूप से प्रतिबंधित हो गया. उन्ही दिनों में अल्लामा इक़बाल के नेतृत्व में मुस्लिम लीग अलग मुस्लिम देश पापिस्तान की मांग करने लगी
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