Sunday, 26 March 2017

सम्राट अशोक



आज 26-मार्च को भारत बर्ष के महान सम्राट "अशोक" का जन्मदिन मनाया जा रहा है. हालांकि अधिकांस भारतीय इतिहासकार उनका जन्मदिन "अगस्त 304 BC" मानते है. मुझे नहीं पता कि - उनकी जन्म तिथि का सोर्स किया है, लेकिन जब लोग मना रहे हैं तो मैं भी इसी को उनका जन्मदिन मानते हुए उनके सम्मान में कुछ लिखना चाह रहा हूँ.
सम्राट अशोक , मौर्य वश के तीसरे सम्राट थे. सम्राट "चन्द्रगुप्त मौर्य" उनके दादा तथा सम्राट "बिन्दुसार" उनके पिता थे. उत्तर भारत में उनकी माता का नाम सुभद्रांगी बताते है और दक्षिण भारतीय परम्परा में उनकी माता का नाम रानी धर्मा बताया जाता है . दोनों ही परम्पराओं में सम्राट अशोक की माता को "ब्राह्मणी" बताया जाता है.
लंका की परम्परा में बिंदुसार की सोलह पटरानियों और 101 पुत्रों का उल्लेख है. जिसमे अशोक की माता "रानी धर्मा" को बताया जाता है. बताया जाता है कि - महल के षड्यंत्र की शिकार होने के कारण "रानी धर्मा" को बिंदुसार ने यथोचित सम्मान नहीं दिया था. महल में एकमात्र ब्राह्मणी होने के कारण उनकी माता को कई बार उपेक्षा का शिकार होना पडा.
अपनी उपेक्षा से दुखी "रानी धर्मा" ने अपने पुत्र "अशोक" को राजा बनाने का स्वप्न देखा और अपने पुत्र को बड़ी मेहनत से भविष्य के सम्राट के रूप में तैयार किया. माना जाता है कि - गृहयुद्ध में अपने सभी सौ भाइयों की ह्त्या करने के बाद ही अशोक को राजगद्दी मिली थी. 272 ई. पूर्व से लेकर 232 ई. पूर्व तक "अशोक" का शासनकाल माना जाता है.
अशोक ने भी अपने पितामह चंद्रगुप्त मौर्य और पिता बिंदुसार की भाँति ही युद्ध के द्वारा साम्राज्य विस्तार किया. अशोक के राज्य की सीमा लंका से ईरान तक फ़ैल चुकी थी. पूरब में राज्य का विस्तार करने के लिए कलिंग पर किया गए अशोक के आक्रमण के परिणाम ने अशोक की जीवन धारा ही बदलकर रख दी थी.
माना जाता है कि - कलिंग की कमजोर मगर देशभक्त जनता ने शक्तिशाली सम्राट अशोक की सेना का अंतिम सांस तक सामना किया. कलिंग विजय के बाद अशोक को "लाशों" के सिवा कुछ नहीं मिला. उस विनाश को देखकर अशोक के मन में युद्ध और हिंसा के प्रति नफरत पैदा हो गई. उसके बाद अशोक ने महात्मा बुद्ध के सिद्धांत को अपना लिया.
अशोक को अपने दादा और पिता से एक शक्तिशाली साम्राज्य विरासत में मिला था जिसेका नेतृत्व क्षमता और युद्ध के द्वारा अशोक ने और विस्तार किया था. बौद्ध बन्ने से पहले अशोक एक शक्तिशाली साम्राज्य का निर्माण कर चुका था इसलिए अशोक को आगे बिना हिंसा के भी अपना राज चलाने में कोई बिशेष परेशानी नहीं हुई.
अशोक ने लगभग 40 वर्षों तक शासन किया एवं 232 ईसापूर्व में उसकी मृत्यु हुई. उसके कई संतान तथा पत्नियां थीं पर उनके बारे में अधिक पता नहीं है. उसके पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा ने बौद्ध धर्म के प्रचार में योगदान दिया. अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य राजवंश लगभग 50 वर्षों तक चला. लेकिन उसके उत्तराधिकारी निर्बल साबित हुए.
उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान में भी करवाया. वैदिकधर्म के अनुयायियों पर अनेको तरह के प्रतिबन्ध लगाए. शक्तिशाली अशोक के शासन काल में तो वे खामोश रहे पर अशोक के बाद के, अपेक्षाकृत कमजोर शासकों के समय में वे फिर से उभर आये थे.
अशोक के शासनकाल में बौद्ध धर्म का खूब विस्तार हुआ लेकिन वैदिक धर्म वालों ने भी हर संभव तरीके से अपने धर्म को बचाए रखा. मौर्य वंश के अंतिम और कमजोर शासक वृहदरथ, का बध करके पुष्यमित्र शुंग ने "शुंग वंश" की स्थापना की. शुंग के शासन काल में पुनः वैदिक धर्म को उसका खोया हुआ सम्मान वापस मिल गया था.

राजा वीर विक्रमादित्य


वीर विक्रमादित्य भारत के एक महान सम्राट थे. उनका राज आज के समस्त भारत से लेकर ईरान और अरब तक फैला हुआ थ , जिसकी राजधानी उज्जैन थी. वीर विक्रमादित्य के राज को भगवान् राजा रामचंद्र के राज के बाद दुसरा सर्वश्रेष्ठ राज माना जाता है. उनके राज में देश ने कृषि, चिकत्सा, वास्तुशास्त्र, कपड़ा और आभूषण उत्पादन, शस्त्र निर्माण, कला, साहित्य, आदि सभी क्षेत्रों में बहुत उन्नति की हुई थी.
उनके राज में भारत में इतनी सम्पन्नता थी कि सोने का सिक्का चला करता था. इसीलिए उनके समय को भारत का स्वर्णयुग कहा जाता है. उनके राज में विद्वानों को बहुत सम्मान था.उनके दरबार में 9 ऐसे विद्वान् मंत्री थे जो अपने अपने क्षेत्र में पारंगत थे. उन 9 मंत्रियों को विक्रमादित्य के नवरत्न कहा जाता था. इन नवरत्नों में उच्च कोटि के विद्वान, श्रेष्ठ कवि, गणित के प्रकांड विद्वान और विज्ञान के विशेषज्ञ आदि सम्मिलित थे.
सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों के नाम धन्वंतरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटखर्पर, कालिदास,.वराहमिहिर और वररुचि कहे जाते हैं. इन नव रत्नों में साहित्यकार कालीदास और चिकित्सक धन्वन्तरी से तो सभी परिचित हैं शेष भी अपने विशेश गुणों के लिए विख्यात थे. इनमे से एक रत्न "वराहमिहिर" ने ही प्राचीन गणनाओं और अपने शोध के आधार पर भारतीय कैलेण्डर (विक्रम संवत) का आविष्कार किया था.
इसके लिए विक्रमादित्य ने खगोलशास्त्री वराहमिहिर को अरावली रेंज में एक विशाल वेधशाला बनाकर दी थी, जिसमे 27 नक्षत्रों के प्रतीक 27 मंदिर तथा मध्य में विशाल ध्रुव स्तम्भ (विष्णू स्तम्भ) स्थापित किया. उस क्षेत्र को वराहमिहिर के नाम पर ही महरोली कहा जाता था. यहीं पर रहकर वराहमिहिर ने भारतीय पंचाग बनाया था. अकबर ने भी वीर विक्रमादित्य की नक़ल करते हुए ही अपने मंत्रियों को नवरत्न कहा था.
उज्जैन में महाकाल का मंदिर बनाने तथा अयोध्या को दुबारा बसाने और वहां पर भव्य राम जन्मभूमि मंदिर बनाने का कार्य भी सम्राट वीर विक्रमादित्य ने किया था. हरिद्वार में जो हरि की पौड़ी है, उसका निर्माण भी सम्राट वीर विक्रमादित्य ने अपने बड़े भाई भर्तहरी के नाम पर किया था, जो मन में वराग्य उत्पन्न होने पर अपना राज अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंपकर, सन्यासी हो गए थे और गुरु गोरखनाथ के शिष्य बन गए थे.
राजा वीर विक्रमादित्य अपने समकालीन राजाओं को अपने अधीन कर लिया था. उन्होंने शको को हराया, उन्होंने बौद्धों द्वारा मिटाए जा रहे सनातन धर्म को पुनः बुलंदियों पर पहुंचाया. आज उन्ही के कारण हमारा सनातन धर्म और हमारी संस्कृति बची हुई है. वीर विक्रमादित्य के नाम पर ही संवत को विक्रम संवत कहते हैं. नवबर्ष प्रतिपदा को मनाने के साथ साथ हमें राजा वीर विक्रमादित्य को भी अवश्य याद करना चाहिए.

Friday, 24 March 2017

अवैद्ध क़त्लखाने और वैद्ध क़त्ल खाने में कया फर्क है ?

अवेद्ध कत्लखानो के बंद होने पर जिस तरह से, कहीं बेरोजगारी, कहीं चिड़ियाघर में मांस की कमी, कहीं टुंडे कबाब का बंद होना, कहीं प्रोटीन की कमी, आदि का रोना रोया जा रहा है उसे देखकर, योगी सरकार की दूरदर्शिता का पता चलता है. अंध बिरोधी लोग जिस तरह से अवैद्ध धंधे तक का समर्थन करने को तैयार हैं तो सोंच लीजिये कि अगर वैद्ध -अवैद्ध दोनों कत्लखाने बंद करने का आदेश दिया होता तो यह लोग क्या कर रहे होते ?
तब तो इन अंध बिरोधियों ने हंगामा काट दिया होता और कोर्ट से स्टे भी ले आते और फिर से वैद्ध कत्लखानो की आड़ में अवैध कत्लखाने भी चालु कर लिए होते. सबसे पहले यह समझ लें कि वैद्ध और अवैद्ध कया होता है. जब आप कोई भी फैक्ट्री लगाते हैं तो आपको कई सारे विभागों से अनुमति लेनी होती है. कुछ निश्चित दिशा निर्देश मिलते हैं उनके अनुसार ही आप काम कर सकते हैं, जिनकी निगरानी ये महकमे करते हैं.
सबसे पहले यह देखा जाता है कि आप कया काम करेंगे. जिस जगह पर आप कारखाना लगाना चाहते हैं असके आसपास रहने वालो को उस काम से कोई परेशानी तो नहीं होगी. फिर आपको अपनी मशीनरी की अनुमति लेनी होती है कि आप जो मशीनरी इस्तेमाल करेंगे वह सुरक्षित है अथवा नहीं, मशीनरी की अधिकतम प्रोडक्सन क्षमता कया है, उसके बाद आपको पल्युसन कंट्रोल डिपार्टमेंट से अनुमति लेनी होती है.
आपको यह सुनिश्चित करना होता है कि- आपके प्लांट से कोई पल्युसन नहीं होगा और धुवा, गंदा पानी, शोर, कचरा, आदि तय सीमा से जयादा नहीं होगा. उनके बाद आता है लेवर डिपार्टमेंट जो यह देखता है कि आपके कर्मचारी को तय मानको के हिसाब से माहोल मिल रहा है अथवा नहीं, ईएसआई आदि लागू है या नहीं. इसके बाद सेफ्टी डिपार्टमेंट आग आदि से सुरक्षा देखता है. फिर सेलटेक्स और एक्साइज विभाग का काम आता है
आप पूरे महीने में जितना रॉ-मैटेरियल खरीदते हैं और जितना माल सेल करते हैं, अगले महीने उसकी रिटर्न आपको सेल टैक्स विभाग में जमा करनी होती है और उसका बनता टैक्स जमा करना होता है. साल के बाद कम्पनी और मालिको ने व्यक्तिगत जितना लाभ कमाया होता है उसके अनुसार इंकमटैक्स जमा करना होता है. इसके अलावा यह भी देखा जाता है कि आपने जिस काम के लिए बिजली ली है वही काम कर रहे हैं या कोई और.
इन सबके अलाबा भी केंद्र और राज्य सरकार द्वारा समय समय पर जो अधिसूचनाए जारी की जाती हैं उद्यमी को उनका भी पालन करना होता है. जबकि अवेद्ध कारोबार में कोई नियम नहीं होता है.यहा केवल मालिक की मर्जी चलती है, ज्यदातर ऐसे लोग दबंग और अपराधी प्रव्रत्ति के होते हैं. ये लोग रिश्वत के दम पर अधिकारियों और नेताओं को खरीद लेते हैं. सभी नियमो को ताक पर रखकर सरकार को चुना लगाते हैं.
आज जिन अवैद्ध कत्लखानो को बंद कराया जा रहा है वो रातोंरात नहीं खुले थे, बलकि बर्षों से चल रहे थे. आम जनता से लेकर सरकार के सभी विभागों को उनकी जानकारी थी. मगर नेताओं का संरक्षण होने के कारण अधिकारी भी हाथ डालने से डरते थे. आज केवल नेता बदले हैं बाक़ी सारे अधिकारी वही हैं लेकिन नए नेता के आदेश देते ही अवैद्ध क़त्लखानों और लड़कियों को परेशान करने वाले मजनूओं पर कार्यवाही शुरु हो गई.

Tuesday, 21 March 2017

संसद में योगीजी का रोना हम आजतक नहीं भूले हैं,


उत्तर प्रदेश में आतंकियों की शरणस्थली कहे जाने वाले मुस्लिमबहुल आजमगढ़ में, 2006 में हिंदूवादी छात्र नेता 'अजित सिंह' की हत्या कर दी गई थी. उस समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार थी. 'अजित सिंह' की तेरहवीं पर उसके परिवार को सांत्वना देने के लिए "योगी जी" अपने साथियों के साथ उनके घर जा रहे थे.
लेकिन रास्ते में "ताकिया" नाम के गाँव में योगी के और उनके साथियों पर हथियारबंद लोगों ने हमला बोल दिया. इस हमले में योगी जी और उनके साथी घायल हो गए थे. योगी जी उस समय सांसद थे और उनको सरकारी वाडीगार्ड मिले हुए थे. सांसद योगी जी के वाडीगार्ड्स ने अपनी जानपर खेलकर किसी तरह उनकी रक्षा की थी.
उस समय मुलायमसिंह ने तुष्टीकरण और अन्याय की पराकाष्ठा दिखाते हुए, हमलावरों पर कार्यवाही करने के बजाय, पीडितो को ही गिरफ्तार कर लिया. मुलायम को इतने से भी संतोष नहीं हुआ उसने योगी जी को 11 दिन जेल में बंद रखकर प्रताड़ित किया, जबकि जो धारार्यें लगी थीं उनमें 12 घटे में थाने से जमानत देने का प्रावधान है.
इसके अलावा मुलायम ने गोरखपुर से उनके समर्थको और भक्तो को भी गिरफ्तार करवा लिया. योगी जी अपने लिये कभी परवाह नहीं की थी लेकिन अपने समर्थकों का ये हश्र देखकर बिचलित हो गए. उन्होंने निरपराधों को छोड़ने की मांग की. संसद में इस घटना पर बोलते हुए, वे निरपराध लोगों पर हुई बर्बरता को याद कर रो पड़े थे.
उस समय बिकाऊ मीडिया ने पूरी घटना के बारे में विस्तार से बताने के बजाय, योगी जी के रोने को बार बार दिखाया और उसका खूब मजाक उड़ाया था. आज प्रदेश की जनता ने योगी जी के हाथ में सत्ता सौंप दी है और वो मुलायम राजनीति तो क्या अपने घर में भी उपेक्षित पडा हुआ है, उसका बेटा तक उसकी बात नहीं सुनता है.
हम योगी जी से निवेदन करते हैं कि - अपने आपको महान दिखाने के चक्कर में उनको माफ़ नहीं करना. उस घटना के जिम्मेदार नेताओं, सरकारी अधिकारियों, पुलिस वालो, पत्रकारों पर कड़ी कार्यवाही होनी चाहिये. जिस तरह से आप संसद में रोये थे उसी तरह यह लोग सड़कों पर रोते हुए दिखाई देने चाहिये. जय श्री राम , हर हर महादेव

Monday, 20 March 2017

"तलाक" या "विवाह विच्छेद" पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता

तलाक एक बहुत बुरी घटना है जो किसी भी दम्पत्ति के जीवन में नहीं होनी चाहिए. इसके द्वारा केवल दो व्यक्ति (पति / पत्नी) ही नहीं बल्कि उनसे जुड़े अनेकों लोग प्रभावित होते हैं. किसी भी दम्पत्ति का कोई भी शुभचिंतक कभी यह नहीं चाहता कि-उनके मित्र या रिश्तेदार का तलाक हो, लेकिन जब विवाद ज्यादा बढ़ जाए तो तलाक बेहतर विकल्प है.

पति पत्नी एक दुसरे से दिन-रात लड़ते रहे, घर के बाहर नाजायज सम्बन्ध रखें, तनाव ग्रस्त होकर आत्मह्त्या कर लें या अपने साथी की ह्त्या करदें, उससे कहीं ज्यादा बेहतर है कि - उनको अलग कर दिया जाए और उनको नये सिरे से जीवन जीने का मौक़ा दिया जाए. प्राचीन काल से लेकर आजतक इसपर चिन्तन मनन लगातार चलता रहा है.

आज जब "तलाक" के नियमो के सिंहावलोकन की बात उठती है तो सभी लोग मुसलमानों की तरफ देखने लगते हैं. यह ठीक है कि - मुस्लिम समाज में तलाक के सम्बन्ध में कई विसंगतियां है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि -बाक़ी समाज में जो नियम हैं वो सब बिलकुल ठीक है. समाजशास्त्रियों और कानूनविदों को इन पर बिचार करना चाहिए.

जहाँ मुस्लिम समाज में तलाक देना बहुत आसान है, वहीँ हिन्दू समाज में तलाक देना बहुत कठिन है, और इन दोनों ही बातों के बुरे परिणाम देखने को मिलते हैं. जहाँ तीन बार तलाक बोलकर पत्नी को घर से निकालने वाले नियम ने मुस्लिम औरतों को भयभीत करके रखा है, वही लम्बी कानूनी प्रिक्रिया ने हिन्दू दम्पत्तियों को परेशान कर रखा है.

आज अगर किसी हिन्दू पति-पत्नी की आपस में नहीं बनती है और वो तलाक चाहते हैं तो यह प्रिक्रिया इतनी लम्बी हो जाती है कि - कई मामलो में तो उनकी दोबारा विवाह करने की उम्र भी निकल जाती है. इसके अलावा महिला के बकील समझा बुझाकर पुरुष और उसके परिवार पर दहेज तथा मारपीट का इल्जाम लगवा देते है, चाहे ऐसी कोई बात हो ही न.

ऐसे ही पति का वकील पति को, पत्नी पर चरित्रहींन होने का आरोप लगाने की सलाह देता है. फिर शुरू होता है आरोप-प्रत्यारोप तथा तारीख पर तारीख का भयानक दौर, जिसका अंत ज्यादातर पति पक्ष द्वारा मोटी रकम देने के साथ होता है. जिसमे अक्सर वकील और पुलिस भी हिस्सा लेती है. कई मामलों में तो लोगों को आत्महत्या करते भी देखा गया है.

ऐसी ही कुछ परेशानिया मुश्लिम समाज में हैं. वहां तलाक देना इतना ज्यादा आसान है कि - पत्नी सदैव इस बात से डरती रहती है कि- पता नहीं उसका पति कब तलाक दे दे. मुश्लिम समाज में यदि कोई पति तलाक देना चाहता है तो उसे पत्नी को दोषी बताने की आवश्यकता भी नहीं, बस तीन बार तलाक बोला और मेहर की रकम देकर छुट्टी कर दी.

अगर तलाक हो जाने के पर, कभी गलती का अहेसास हो जाने के बाद, दोबारा साथ रहने की इच्छा हो तो उस महिला को हलाला कराना पड़ता है. हलाला का अर्थ यह होता है कि वो महिला पहले किसी अन्य पुरुष से निकाह करे फिर वहां से तलाक लेने के बाद ही अपने पूर्वपति से दोबारा शादी कर सकती है. यह भी स्त्री के लिए बहुत मुश्किल बात है.

कुल मिलाकर तलाक की प्रिक्रिया पर पुनर्विचार परम-आवश्यक है. पुराने नियमो की अच्छाई और बुराई, दोनों पर चर्चा करने के बाद, ऐसे नए नियम बनाने चाहिए जिससे, वो चाहे महिला हो या पुरुष, हिन्दू हो या मुसलमान, किसी को भी ज्यादा परेशानी न हो और सम्बन्ध खराब होने पर, अपना सम्बन्ध बिच्छेद कर नए सिरे से अपनी जिन्दगी शुरू कर सके.

Sunday, 19 March 2017

दारा शिकोह

"दारा शिकोह" मुघलों के इतिहास में एकमात्र ऐसा मुग़ल है जिसको मैं पसंद करता हूँ. दारा शिकोह का जन्म 20 मार्च 1615 को हुआ था. वह शाहजहाँ और मुमताज़ महल का सबसे बड़ा पुत्र था. वह अपने माता-पिता का हिन्दुओं की तरह पूरा मान-सम्मान करता था और उनेके प्रत्येक आदेश का पालन करता था, शाहजहाँ को भी दारा शिकोह को बहुत प्रिय था.
शाहजहाँ भी इसे मुग़ल वंश का अगला बादशाह बनते हुए देखना चाहता था. शाहजहाँ ने आरम्भ में दारा शिकोह पंजाब का सूबेदार बनाया गया. दारा एक बहादुर और समझदार इन्सान था.और वह सभी धर्म और मज़हबों का समान रूप से आदर करता था. उसकी इस बात से कट्टरपंथी मुसलमान नाराज रहते थे और उसे इस्लाम बिरोधी कहते थे.
मुल्लाओं की नाराजगी का लाभ उठाने के लिए दारा के छोटे भाई "औरंगजेब" ने अपने आपको कट्टर मुस्लिम दिखाना शुरू कर दिया, जिससे कट्टर मुसलमान "दारा शिकोह" के बजाय "औरंगजेब" को अगला शासक बनाने की बात करने लगे. यह देखकर "औरंगजेब" ने अपने आपका और भी ज्यादा कट्टर हिन्दू बिरोधी रुख अख्तियार कर लिया.
"औरंगजेब" ने अपने अन्य भाइयों और बहनों मुरादबख्श और रोशन आरा आदि को भी अपने साथ मिला लिया और दारा शिकोह पर हमला कर दिया. पिता और राजा "शाहजहाँ" ने भी जब दारा का समर्थन किया तो "औरंगजेब" ने अपने पिता शाह्जहां को भी आगरे के लालकिले में कैद कर दिया और सत्ता पर जबरन कब्जा कर लिया.
दारा शिकोह ने आगे की तैयारी करने के लिए अपने पुराने मित्र, दादर के अफ़ग़ान सरदार "मलिक जीवन ख़ान " के पास शरण ली, लेकिन जीवन खान गद्दार निकला. उसने "दारा" को "औरंगजेब" के हवाले कर दिया. औरंगजेब ने क्रूरता की हदें पार करते हुए पहले अपने बड़े भाई को भिखारियों की पोशाक में हथिनी पर बिठाकर सारे शहर में घुमाया.
उस पर मुल्लाओं के सामने धर्मद्रोह का मुकदमा चलाया. उस पर आरोप लगाया गया कि- वह अन्य तुच्छ धर्मों को भी "महान इस्लाम" के बरावर मानता है. मुल्लाओं ने उसे काफिर करार देकर, सजा ए मौत का ऐलान कर दिया और 30 अगस्त, 1659 को दारा शिकोह का सर काट कर मार दिया गया. दारा के बड़े बेटे सुलेमान की भी ह्त्या कर दी.
औरंगजेब की क्रूरता यहां भी ख़त्म नहीं हुई . उसने दारा का कटा सर एक थाली में रखकर जेल में बंद अपने पिता शाहजहाँ और उनकी बढ़ी बेटी बेगम जहाँ आरा के सामने पेश कर अपनी ताकत का नगा प्रदर्शन किया. तब शाहजहाँ ने कहा -हिन्दू अपने भाई को हक़ दिलाने के लिए लड़ते है और एक तू है जो भाई का हक़ मारने के लिए उसकी हत्या कर दी.
औरंगजेब की बहन रोशन आरा भी दारा की जगह औरंगजेब को राजा बनते देखना चाहती थी लेकिन वो अपने बड़े भाई और भतीजे की ह्त्या नहीं चाहती थी. कहते हैं कि जब उसने औरंगजेब से दारा और सुलेमान को छोड़ने को कहा तो औरंगजेब की बहन रोशन आरा का बलात्कार कर दिया. औरंगजेब ने अपनी क्रूरता का प्रमाण अपने घर से ही देना शुरू किया था.
दारा और सुलेमान की ह्त्या के बाद राज्य की दारा समर्थक प्रजा बाग़ी हो गई थी. तब मामले को स म्हालने के लिए "औरंगजेब" ने अपनी एक बेटी का निकाह दारा के दुसरे बेटे से कर दिया. इस प्रकार भारत की जनता को एक समझदार राजा के बजाय क्रूर राजा की क्रूरता झेलनी पडी. भारत के इतिहास में औरंगजेब भारत का दुर्भाग्य साबित हुआ

Tuesday, 14 March 2017

बहुजन समाज के नायक मान्यवर "कांशीराम"

मान्यवर कांशीराम का जन्म 15 मार्च, 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के ख्वासपुर गांव में दलित (सिख समुदाय के रैदसिया) परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम श्री हरी सिंह और माता का नाम बिशन कौर था. उन्होंने रोपड़ के सरकारी कालेज से स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की थी. उन्होंने कुछ समय तक डीआरडीओ में नौकरी भी की.
उन्होंने महेसूस किया कि - तत्कालीन कांग्रेस सरकार हमेशा दलितों की हमदर्द होने का दावा तो करती है लेकिन हकीकत में वो दलितों को केवल वोटबैंक ही समझती है. दलितों का विकास दिखावटी नारे के सिवा कुछ नहीं है. तब उन्होंने दलितों/पिछड़ों को वोटबैंक बनने के बजाय खुद एक राजनैतिक ताकत बनने का आव्हान किया.
दलितों को एकजुट करने और राजनीतिक ताकत बनाने का अभियान 1970 के दशक में शुरू कर दिया था. इसके लिए कई संगठनों के साथ काम किया. अन्य संगठनों में गुटबाजी और दिशाहीनता से निराश होकर उन्होंने 6 दिसंबर 1981 को दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) नामक नए संगठन की स्थापना की.
डीएस-4 के जरिए सामाजिक, आर्थिक बराबरी का आंदोलन, आम झुग्गी-झोपड़ी तक पहुंचाने में काफी मदद मिली. इसको सुचारु रूप से चलाने के लिए महिला और छात्र विंग में भी बांटा गया. जाति के आधार पर उत्पीड़न, गैर-बराबरी जैसे समाजिक मुद्दों पर लोगों के बीच जागरूक करना डीएस-4 का सबसे प्रमुख एजेंडा था.
कांशीराम जी की माँ 
14 अप्रैल, 1984 को उन्होंने बहुजन समाज पार्टी नामक एक नई राजनैतिक पार्टी का गठन किया. बसपा का गठन दलितों/पिछड़ों को वोटबैंक बन्ने के बजाय, खुद सत्ता हासिल करने के लिए किया गया था. वे 1991 में पहली बार यूपी के इटावा से और दूसरी बार 1996 में पंजाब के होशियारपुर से लोकसभा का चुनाव जीते.
2001 में उन्होंने सार्वजनिक तौर पर घोषणा करके, मायावती को अपना उत्तराधिकारी बनाया. 2003 में लकवाग्रस्त होने के बाद सक्रिय राजनीति से दूर चले गए. 9 अक्टूबर, 2006 को हार्टअटैक से उनका स्वर्ग्वाश हो गया. लेकिन कांशीराम के परिवार वालो का कहना है कि - मायावती ने बसपा पर कब्जे के लिए कांशीराम को बंदी बनाया था.
कांशीराम के परिवार ने मायावती को कांशीराम की मौत का कसूरवार ठहराया था. उनके परिजनों ने मायावती पर कांशीराम और उनकी मां को आपस में नहीं मिलने देने का आरोप भी लगाया था. उनके परिजनों ने मायावती को उनकी मौत का जिम्मेवार बताते हुए, मायावती के अध्यक्ष रहने तक, बीएसपी को वोट नहीं देने का ऐलान भी किया था.
शायद यह कांशीराम जी की माँ का ही श्राप था कि - पिछले लोकसभा चुनाव (2014) में, मायावती के नेतृत्व वाली बसपा को, जनता ने नकार दिया था और बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी. अभी हाल में ही हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी जनता ने मायावती को बुरी तरह से हरा दिया है.

महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के जन्मदिन (14-मार्च) पर नमन

अल्बर्ट आइंस्टीन का जन्म 14-मार्च- 1879 को, "जर्मनी" के "वुटेमबर्ग" नाम के शहर में , एक यहूदी परिवार में हुआ था. उनके पिता एक इंजीनियर थे और वे बिजली के छोटे मोटे सामान बनाने का छोटा सा कारखाना चलाते थे. उनकी मातृभाषा जर्मन थी लेकिन बाद में उन्होंने इटालियन और अंग्रेजी भी सीख ली थी.उनका परिवार यहूदी धार्मिक परम्पराओं को नहीं मानता था और इसलिए आइंस्टीन कैथोलिक विद्यालय में पड़ने भेजा गया.
आपको आश्चर्य होगा कि जिनके जन्मदिन को ‘जीनियस डे’ के रूप में मनाया जाता है, वह महान वैज्ञानिक बचपन में मंदबुद्धि बालक तक समझा जा चुका था. दरअसल आइंस्टाइन बचपन से डिसलेक्सिया नामक बीमारी से पीड़ित थे. इस बीमारी के कारण उन्हें अक्षरों को ठीक से पहचान पाने में बहुत मुश्किल होती थी, उनकी स्मरण शक्ति भी कमजोर थी और साथ ही लिखने, पढ़ने व बोलने में भी उन्हें बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता था.
आइन्स्टीन ने पहली बार प्रकाश विद्युत प्रभाव की व्याख्या प्लांक के क्वांटम परिकल्पना के आधार पर की, जिसके अनुसार प्रकाश ऊर्जा के छोटे छोटे बंडलों के रूप में चलता है. यह क्वांटम भौतिकी की शुरुआत थी. इस कार्य के लिए आइन्स्टीन को 1921 का भौतिकी का नोबेल पुरूस्कार दिया गया. आइन्स्टीन ने पहली बार अपने विश्व प्रसिद्ध फार्मूले E=mc2 द्बारा बताया कि पदार्थ तथा ऊर्जा को परस्पर बदलना संभव है.
उनके अन्य महत्वपूर्ण योगदानों में- सापेक्ष ब्रह्मांड, केशिकीय गति, क्रांतिक उपच्छाया, सांख्यिक मैकेनिक्स की समस्याऍ, अणुओं का ब्राउनियन गति, अणुओं की उत्परिवर्त्तन संभाव्यता, एक अणु वाले गैस का क्वांटम सिद्धांतम, कम विकिरण घनत्व वाले प्रकाश के ऊष्मीय गुण, विकिरण के सिद्धांत, एकीकृत क्षेत्र सिद्धांत और भौतिकी का ज्यामितीकरण शामिल है.
आइन्स्टीन ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष यूनिफाइड फील्ड थ्योरी (Unified Field Theory) पर कार्य करते हुए गुजारे, जो उसकी मृत्यु के बाद अबतक अधूरी ही है. इस थ्योरी में प्रकृति के चार मूल बलों गुरुत्वाकर्षण, विद्युतचुम्बकीय, तीव्र तथा क्षीण नाभिकीय बलों का संयुक्तीकरण करना था. आज भी इस थ्योरी पर कार्य जारी है. आइंस्टीन ने पचास से अधिक शोध-पत्र और विज्ञान से अलग किताबें भी लिखीं.
1999 में टाइम पत्रिका ने शताब्दी-पुरूष घोषित किया. एक सर्वेक्षण के अनुसार वे सार्वकालिक महानतम वैज्ञानिक माने गए. अल्बर्ट आइंस्टीन की म्रत्यु के वाद एक पैथोलॉजिस्ट (रोग विज्ञानी) ने आइंन्स्टीन के शव परीक्षण के दौरान उनका दिमाग चुरा लिया था. उसके बाद वह 20 सालों तक एक जार में बंद रहा. आज आइंस्टीन शब्द का संबोधन अत्यंत बुद्धिमान व्यक्ति का पर्याय माना जाता है.
धर्म और अध्यात्म के बारे में उनका मानना था कि - थोड़ा ज्ञान इंसान को ईश्वर से दूर ले जाता है लेकिन अधिक ज्ञान इंसान को ईश्वर के पास लाता है. उनकी यह बात भी उनके अन्य सिद्धांतों की तरह ही सही है. आज के समय में थोड़ी बहुत जानकारी रखने बाले व्यक्ति धर्म और अध्यात्म को कोसते दिखाई देते हैं लेकिन दुनियाभर के अधिकाँश वैज्ञानिक, डाक्टर, प्रोफ़ेसर, इंजीनियर, आदि सभी आस्तिक ही होते हैं,

Thursday, 9 March 2017

दुनिया को खिलाफत से सावधान रहने की जरूरत

मुहम्मद साहब के नेतृत्व में अरब बहुत शक्तिशाली हो गए थे. उन्होंने एक बड़े साम्राज्य पर अधिकार कर लिया था, जो इससे पहले अरबी इतिहास में शायद ही किसी ने किया हो. सन् 632 में पैगम्बर मोहम्मद की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी को "खलीफा" कहा गया. "खलीफा" मुहम्मद साहब का प्रतिनिधि माना जाता है.
इस्लाम के पहल॓ खलीफ़ा "अबु बकर" थ॓ जो मुहम्म्द साहब के सबसे शुरू के अनुयायियों में से एक थ॓. इसके बाद "उमर" दुसरे खलीफा बने और उनके बाद उस्मान तीसरे खलीफा बने. उस्मान के बाद अली चौथे खलीफा बने, उनकी हत्या भी पिछले दो खलीफ़ाओं की तरह कर दी गई थी . सिया - शुन्नी में झगड़े की बजह भी यही चली आ रही है.
ज्यादातर खलीफाओं की हत्या के बाद खिलाफत का परिवर्तन हुआ. खलीफ़ा बनने का अर्थ था - इतने बड़े साम्राज्य का मालिक. अतः इस पद को लेकर विवाद होना स्वाभाविक था. सारी दुनिया के मुसलमान खलीफा को अपना नेता मानते थे. चाहे कोई मुसलमान किसी भी देश में रहता हो, उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण खलीफा का फरमान होता था.
1924 में तुर्की के शासक कमाल पाशा ने, अंग्रेजों के सहयोग से, खिलाफ़त का अन्त कर दिया और तुर्की को एक गणराज्य घोषित कर दिया. तब भी मुसलमानों ने खलीफा को बहाल करने के लिए जगह जगह आन्दोलन किये. भारत में भी जो मुसलमान 1858 के बाद अंग्रेजों के बिरुद्ध नहीं बोले उन्होंने भी तब अंग्रेजों के बिरुद्ध "खिलाफत आन्दोलन" चलाया.
उस समय भारत में एक तथाकथित "सत्यवादी माहात्मा" ने झूठ बोलकर मुसलमानों के इस "खिलाफत आन्दोलन" को अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई बताया. उन्होंने हिन्दु आन्दोलनकारिओं को समझाया कि - मुसलमान भी लड़ाई में हमारे साथ है. हिन्दुओं को झूठ समझाया कि - "खिलाफत" का मतलब "अंग्रेजो के खिलाफ" कार्यवाही है.
अरबी में ख़लीफ़ा का अर्थ प्रतिनिधि या उत्तराधिकारी होता है. कुरान में इसे न्यायप्रिय शासन के रूप में देखा गया है. आज भी दुनिया के अधिकाँश मुसलमान खिलाफत का समर्थन करते हैं. 2006 में एक सर्वेक्षण' में शामिल मुस्लिम्स में से दो-तिहाई ने "सभी इस्लामी देशों को एक नई ख़िलाफ़त के तहत एक हो जाने" का समर्थन किया था.
इस्लामी चरमपंथी संगठन "आईएसआईएस" ने इराक़ और सीरिया में अपने कब्ज़े वाले इलाक़े में 'ख़िलाफ़त' यानी इस्लामी राज्य का ऐलान किया. आईएसआईएस (इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया) ने 29 जून 2014 को अपने प्रमुख "अबु बक्र अल-बगदादी" को एक नया 'खलीफा' घोषित किया हैं. शेष दुनिया के लिए यह बड़ी चिंता का बिषय है.
आईएस प्रमुख अबू बकर अल-बग़दादी ने ख़ुद को 'ख़लीफ़ा' यानी दुनिया के मुसलमानों का नेता बताया. अल-बग़दादी का कहना था कि 'ख़िलाफ़त' के प्रति अपनी निष्ठा जाहिर करना, दुनिया भर के सभी मुसलमानों की धार्मिक जिम्मेदारी है. लेकिन मध्य-पूर्व क्षेत्र में इसके ख़िलाफ़ बहुत तीखी प्रतिक्रिया और आलोचना हुई.है.
हालांकि ज्यादातर मुस्लिम देशों ने उसे अपना "खलीफा" मानने से इनकार कर दिया है लेकिन फिर भी इसको बहुत हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. उसके इशारे पर दुनिया भर में जो युवा आतंकवाद का रास्ता अपना रहे हैं या आतंकी कार्वहियाँ कर रहे हैं उनको देखते हुए "खिलाफत" को पूरी तरह से नकारना बेबकूफी ही होगी.

पूर्वोत्तर का शिवाजी "लचित बोड़फुकन"

राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (NDA) के सैन्य प्रशिक्षण में जो कैडेट सर्वश्रेष्ठ घोषित होता है, उसको “लचित बोड़फुकन मैडल” से सम्मानित किया जाता है. इससे पता चलता है कि - “लचित बोड़फुकन” अवश्य ही कोई महान व्यक्ति रहे होंगे. लेकिन हमारी स्कूल की किताबों में कभी भी उनके बारे में  कुछ बताया नहीं गया है.  

जानकारी हाशिल करने पर पता चला है कि “लचित बोड़फुकन” असम के सेनापति और महान योद्धा थे जिन्होंने औरंगजेब के सम्पूर्ण भारत पर कब्जा करने के सपने  को असम में तोड़ दिया था. “लचित बोड़फुकन”  24 नवंबर 1622 को हुआ था. उनकी वीरता और बुद्धिमत्ता से प्रभावित होकर असम के राजा “चक्रध्वज सिंह” ने उनको अपना सेनापति बनाया था.

उस समय दिल्ली पर “औरंगजेब” का शासन था. वह समस्त भारत को इस्लामी राज्य बनाना चाहता था. लेकिन उत्तर में गुरु गोबिंद सिंह, मध्य में छत्रसाल, दक्षिण में शिवाजी और पूर्वोत्तर में “चक्रध्वज सिंह” उसको कड़ी चुनौती दे रहे थे. औरंगजेब ने असम पर हमला किया लेकिन “लचित बोड़फुकन” के नेतृत्व ने मुघल सेना को भागने पर मजबूर कर दिया.

इस पराजय का बदला लेने और पूर्वोत्तर भारत को जीतने का सपना लेकर औरंगजेब ने एक विशाल सेना, 40 पानी के जहाजों में, ब्रह्मपुत्र के रास्ते ढाका से गुवाहाटी के लिए रवाना की. अचानक हुए भीषण हमले में असम के लगभग 10,000 सैनिक मारे गए और “लचित” भी से घायल हो गए. असम सेना भी एक बार पीछे हटने लगी थी.

लेकिन फिर भी वे एक नाव में सवार हुए और सात नावों के साथ मुग़ल बेड़े की ओर बढे.  उन्होंने सैनिकों से कहा, "यदि आप में से कोई वापस जाना चाहता है तो चला जाए लेकिन मैं अपना कर्तव्य छोड़कर पीछे नहीं हटूंगा.  उनकी जोशीली बाते सुनकर पीछे हटते सैनिक दोगुने जोश के साथ मुग़ल सेना पर टूट पड़े.
Add caption

उसके बाद तो उसने मुग़ल सेना को सम्हलने का अवसर ही नहीं दिया और आधी से ज्यादा मुघल सेना का सफाया कर दिया. बाक़ी मुघल सैनिक अपनी जान बचाने के लिए भाग गए. यह युद्ध “सराईघाट की लड़ाई” के नाम से जाना जाता है. इस युद्ध में पराजित होने के बाद किसी मुघल का दोबारा पूर्बोत्तर पर चढ़ाई करने का साहस नहीं हुआ.

देश आजाद होते ही शिक्षा पर वामपंथी बिचारधारा वालों का कब्जा हो गया था और उन लोगों ने देश की सच्चे महापुरुषों के बारे में, देश वाशियों को बताना जरुरी नहीं समझा. मुझे पहली बार उनका नाम तब सुनने को मिला था जब 24 नवंबर को उनकी जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनका स्मरण किया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में उनका नाम सुनने के बाद मैंने गूगल एवं फेसबुक मित्रों के माध्यम से  “लचित बोड़फुकन” के बारे में जानकारी हाशिल करने का प्रयास किया. जब उनके बारे में जानकारी मिली तो उनके प्रति मन श्रद्धा से भर गया. मेरी कोशिश होगी कि – उन के बारे में और जानकारी प्रापक कर और विस्त्रत लेख लिखूं.   


         

Sunday, 5 March 2017

कांग्रेस की स्थापना कब, किसने और क्यों की थी ? (भाग- 04)

1915 में भारत आने के बाद गांधी जी ने जो अहिंसा का सिद्धांत दिया उसको देशवाशियों ने हाथों हाथ लिया. और देखते ही देखते दस साल से चल रहा द्वितीय स्वाधीनता संग्राम एकाएक शांत हो गया. सारा देश गांधी जी नए सिद्धांत के साहारे बिना खून खराबे के देश के आजाद हो जाने का सपना देखने लगा. लगभग सारा देश गांधीजी के साथ हो गया.
गांधीजी की बातों का इतना असर था कि - 1919 में जलियाँवाला बाग़ जैसा काण्ड होने पर भी देश में उसकी कहीं कोई हिंसक प्रतिक्रया नहीं हुई. सितम्बर 1921 में जब गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन का ऐलान किया तो सारे देश के युवा इसमें साथ आ गए. मगर गांधी जी की सोंच और जनता की आकांक्षा में बहुत बड़ा अंतर था.
गांधीजी ब्रिटिश शासन के अधीन, औपनिवेशिक सुराज मांग रहे थे और देश की जनता इसे स्वराज पाने की निर्णायक लड़ाई समझ रही थी. कुछ ही समय में आन्दोलन गांधीजी और कांग्रेस के हाथ से निकलकर जोशीले युवाओं के हाथ में पहुँच गया. गांधीजी की अहिंसा की अपील के बाबजूद देश के युवाओं ने कई जगह, हिंसक प्रतिकार भी किये.
अंग्रेजों ने भी गांधी पर दबाब बढाया. तभी 4फरबरी 1922 को चौरीचौरा काण्ड हो गया जिसको बहाना बनाकर गांधीजी ने अपने इस असफल आन्दोलन को वापस ले लिया. इसके साथ ही अंग्रेजों की नाराजगी से बचने के लिए गांधीजी ने आन्दोलन के समय अंग्रेजों के खिलाफ हिंसक कार्यवाही करने वालों को आन्दोलनकारी मानने से इनकार कर दिया.
असहयोग आन्दोलन की असफलता तथा गांधीजी द्वारा आन्दोलनकारियों को दिए गए इस धोखे से, युवाओं का गांधी जी से मोह भंग हो गया और वो अपने लिए कोई नया रहनुमा तलाशने लगे. ऐसे में उनका नेतृत्व करने को सबसे आगे आये राम प्रसाद विस्मिल और चद्रशेखर आजाद. देशभर के जोशीले युवा उनके साथ जुड़ने लगे.
उत्तर प्रदेश से अशफाक उल्ला खान, पंजाब से भगत सिंह और सुखदेव, महाराष्ट्र से राजगुरु, बगाल से भगवती चरण, आदि न जाने कितने युवा इनके साथ जुड़ते चले गए. इन लोगों ने गांधीजी का रास्ता छोड़कर क्रान्ति का पथ चुन लिया. इनका आदर्श गांधी जी नहीं बल्कि महर्षि अरविन्द, वीरसावरकर एवं प्राचीन भारतीय महापुरुषों के विचार थे.
अब देशभर में फिर से अंग्रेजों और उनके चापलूस भारतीयों के खिलाफ क्रांतिकारी कार्यवाहियां शुरू हो गई. जालिम अंग्रेजों को निशाना बनाया जाने लगा, सरकारी खजाने को लूटा जाने लगा और अंग्रेजों के चाटुकार भारतीय मूल के अमीर लोगों से धन की मांग / लूट की जाने लगी , जिससे क्रांतिकारियों के लिए हथियार तथा अन्य सामान खरीदा जा सके.
गांधीजी लगातार इन क्रांतिकारियों का बिरोध करते रहे, लेकिन बहुत सारे कांग्रेस समर्थक नेता भी दिल से इन क्रांतिकारियों को समर्थन देते रहे, इनमे लाला लाजपत राय, गणेश शंकर विद्यार्थी, सुभाष चन्द्र बोस, आदि का नाम प्रमुख है. गांधी और नेहरु ने इन क्रांतिकारियों का कभी समर्थन नहीं किया बल्कि इनको अहिंसा के रास्ते की रुकावट माना.
असहयोग आदोलन की असफलता के बाद दो साल गांधीजी जेल में रहे. इसके साथ ही आजादी की लड़ाई पूरी तरह से जोशीले क्रांतिकारी युवाओं के हाथ में आ गई. जेल से वापस आने के बाद भी गांधी जी ने कभी आजादी का नाम नहीं लिया. वे केवल ब्रिटिश शासन के अधीन सुराज ( अच्छा शासन) मांग करते थे और देश में औपनिवेशी शासन चाहते थे.
जेल से वापस आने के बाद गांधी जी ने अस्पृश्यता, शराब, अज्ञानता, नमक पर टैक्स, विदेशी सामान, आदि के खिलाफ कई आन्दोलन और उपवास किये जिनका उद्देश्य भारतीय समाज का उत्थान तथा गरीबी उन्मूलन था लेकिन उसका स्वतंत्रता की लड़ाई से कोई सम्बन्ध नहीं था, वह लड़ाई केवल आजाद जैसे क्रांतिकारी लड़ रहे थे.
देश में आजादी को लेकर व्यग्रता देखकर कांग्रेसी भी आजादी की मांग करने लगे थे. कांग्रेस में सुभाष चन्द्र बोस जैसे नेताओं के दबाब के कारण दिसंबर 1928 में मजबूर होकर घोषणा करनी पड़ी कि - हम अंग्रेजो से ब्रिटिश शासन के अधीन स्वायत्ता की मांग करते है लेकिन अगर हमारी यह मांग नहीं मानी गई तो हम पूर्ण आजादी की मांग करेगे.
गाँधी जी को उम्मीद थी कि - उनकी मांग मान ली जायेगी, मगर अंग्रेजों ने उसपर बिचार तक नहीं किया. तब मजबूर होकर उन्हें 26 जंनवरी 1930 को लाहौर में पूर्ण आजादी की मांग करनी पडी. इसी बीच मुठभेड़, फांसी और कालापानी के कारण आजाद, भगत, विस्मिल, अशफाक, रोशन, आदि शहीद हो गए और कांग्रेस पुनः प्रकाश में आ गई.
आजाद, भगत, विस्मिल, अशफाक, रोशन, भगवती, आदि के हाथ में जबतक लड़ाई थी तब तक वन्देमातरम क्रांतिकारियों का प्रमुख नारा था. इनके न रहने पर मुस्लिम तुष्टीकरण के चलते अघोषित रूप से प्रतिबंधित हो गया. उन्ही दिनों में अल्लामा इक़बाल के नेतृत्व में मुस्लिम लीग अलग मुस्लिम देश पापिस्तान की मांग करने लगी

कांग्रेस की स्थापना कब, किसने और क्यों की थी ? (भाग- 03)

1905 से 1915 की क्रांतिकारी गतिबिधियों को द्वितीय स्वाधीनता संग्राम कहा जाता है. युगांतर, अनुशीलन समिति, अभिनव भारत, हिन्दू महासभा, आदि की कार्यवाहियां, कामागाटामारू घटना, "1857- प्रथम स्वातंत्र समर" नामक ग्रन्थ का प्रकाशन, कर्नल वायली और कलक्टर जैक्सन का बध, सावरकर को कालापानी, इस कालखंड की प्रमुख घटनाये है.
इसके अलावा राजा महेंद्र प्रताप जाट का आजाद हिन्द फ़ौज बनाकर काबुल से देश की आजादी का ऐलान करना, लाला हरदयाल और श्याम कृष्ण वर्मा का लन्दन में देश की आजादी के लिए आवाज उठाना, मदनलाल धींगरा - करतार सिंह साराभा- खुदीराम बोस, बाघा जतिन,.. का बलिदान, "द्वितीय स्वाधीनता संग्राम" की महत्वपूर्ण घटनाये हैं.
उपरोक्त घटनाओं में से ज्यादातर पर मैं लेख लिखचुका हूँ जिनको आप मेरी टाइम लाइन अथवा ब्लॉग में पढ़ सकते हैं. इस काल खंड का अध्यन करने पर आप पायेंगे कि - अपने जन्म से लेकर तीस साल तक कांग्रेस का आजादी की लड़ाई में कोई योगदान नहीं था. यह मात्र अंग्रेज टाईप भारतीयों की अंग्रेजों की चापलूसी के लिए बनी एक संस्था मात्र थी.
इसके अलावा आप एक बात और नोट करेंगे कि - 1858 के बाद से लेकर 1915 तक अंग्रेजों के खिलाफ कार्यवाही करने वाला कोई मुस्लिम नाम आपको बहुत मुश्किल से ही मिल सकेगा. बैसे यदि किसी को इस कालखंड के किसी मुश्लिम क्रांतिकारी का पता हो तो मुझे बताने की अवश्य कृपा करे , मैं उन की महानता पर भी कुछ लेख लिखना चाहता हूँ.
अब पुनः वापस आते है कांग्रेस पर. 1885 में जन्मी कांग्रेस का 1915 तक (तीस साल तक) कोई ख़ास महत्त्व नहीं रहा. 1905 से 1915 तक का समय बहुत ही उथल पुथल का रहा मगर कांग्रेस ने हमेशा उससे दूरी बनाकर रखी. 1915में में तो एक वार को अंग्रेज भी घबरा गए कि - उनको भारत छोड़ना पड़ सकता है. तभी अचानक गांधीजी का आगमन हुआ.
गांधीजी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को हुआ था. 1888 में वकालत की पढ़ाई करने इंग्लैण्ड चले गए. वकालत की पढ़ाई करने के बाद 1893 में दक्षिण अफ्रीका जाकर वकालत का कारोवार करने लगे. 1915 में जब द्वितीय स्वाधीनता संग्राम अपने चरम पर था, तब अचानक गांधीजी का भारत आना हुआ और अचानक स्वाधीनता संग्राम थम गया.
गांधी जी ने देशवाशियों को समझाना शुरू कर दिया कि - हिंसा का रास्ता छोड़ दो, इससे कोई लाभ नहीं है. हम अहिंसा पूर्वक अंग्रेजों से अपने लिए अधिकार मांगेगे. लोग भी गांधीजी की बातों में आ गए उनको लगने लगा कि - इससे हमें बिना खून खराबे के आजादी मिल जायेगी. लेकिन गांधी ने बड़ी चतुराई से स्वराज की लड़ाई, को सुराज की लड़ाई में बदल दिया.
गांधी जी ने स्वराज (अर्थात स्वतंत्रता ) की मांग के बजाय सुराज ( अच्छा राज) मंगाना शुरू कर दिया. देश की जनता इससे भ्रमित हो गई. हालांकि कान्ग्रेस में भी लाला लाजपतराय, विपनचन्द्र पाल और बाल गंगाधर तिलक जैसे नेता थे जो "आजादी" की मांग को लेकर अड़े थे , मगर उनको भी अंततः गांधी जी की जिद के आगे झुकना पडा.
गांधीजी ने 1918 में चम्पारन और खेड़ा में किसानो के लिए किये आंदोलन में पहली सफलता मिली, इससे देशवाशियों का उनमे विशवास बढ़ गया. 1919 में अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में गांधीवादी तरीके से जनसभा कर रहे,लोगो पर अंग्रेजों ने अंधाधुंध गोलियां चला दी. लेकिन इस मुद्दे पर गांधी जी ने कभी भी बोलना उचित नहीं समझा.
देश की जनता अंग्रेजों से जलियावाला बाग़ ह्त्या काण्ड का बदला लेना चाहती थी मगर गांधी जी लोगों को समझाने में कामयाब रहे. उन्ही दिनों अंग्रेजो ने तुर्की के खलीफा को सिंहासन से उतार दिया था. खलीफा के समर्थन में दुनियाभर के मुसलमान सड़कों पर उतर आये. भारत में भी मुसलमान अंग्रेजों के खिलाफ उग्र प्रदर्शन करने लगे.
1921 में गांधीजी ने अंग्रेजों के खिलाप असहयोग आन्दोलन शुरू कर दिया. गाँधी जी इस आन्दोलन द्वारा ब्रिटिश राज के अधीन केवल औपनिवेशिक अधिकारों की मांग कर रहे थे जबकि देश की जनता इसको आजादी की लड़ाई समझ रही थी. कुछ इतिहासकार तो यह भी लिखते हैं कि - यह अंग्रेजों के खिलाफ जनाक्रोश शांत करने का उपाय मात्र था यह आन्दोलन.
इस आरोप को इस बात से भी बल मिलता है कि - आन्दोलन गांधीजी की उम्मीद से ज्यादा तीव्र हो गया था और लोग इसे स्वाधीनता की निर्णायक लड़ाई मानने लगे थे, जिससे अंग्रेज भी गांधीजी से नाराज हो गए थे और गांधी जी किसी प्रकार से आन्दोलन वापस लेने का बहाना ढूँढने लगे. तभी 4 फरवरी 1922 को चौरीचौरा में भयानक काण्ड हो गया.
असहयोग आन्दोलन कर रहे प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने गोलिया चला दी जिसमे ढाई सौ के लगभग प्रदर्शनकारी मारे गए और सैकड़ों लोग घायल हो गए. अपने साथियों की ऐसी हालत देखकर प्रदर्शनकारियों ने भी पुलिस पर हमला कर दिया तब वो 23 पुलिसवाले चौरीचौरा थाने में छुप गए, वहां पर प्रदर्शनकारियों ने आग लगाकर उनको ज़िंदा जला दिया.
गांधी जी तो शायद ऐसा कोई बहाना ही ढूंढ रहे थे. उन्होंने चौरी चौरा में पुलिस वालों को ज़िंदा जलाने की घटना का दुःख मनाते हुए, 8 फरवरी 1922 को अपने बुरी तरह से असफल "असहयोग आन्दोलन" को वापस लेने का ऐलान कर दिया. अंग्रेजों के डर से गांधी ने उन आन्दोलनकारियों को भी अपने आन्दोलन का हिस्सा मानने से इनकार कर दिया.
चौरीचौरा में अंग्रेजों ने बहुत अत्याचार किये और 172 आन्दोलनकारियों को फांसी की सजा सुनाई. गांधी जी खुद एक बड़े वकील थे और उनके अलावा भी कांग्रेस पार्टी में एक से बढ़कर एक वकील की भरमार थी, लेकिन फिर भी कोई वकील उन आन्दोलनकारियों की पैरवी करने नहीं आया और उन आन्दोलन कारियों को मरने के लिए छोड़ दिया.
ऐसे समय में आंदोलकारियों का साथ हिन्दू महासभा के संस्थापक मदन मोहन मालवीय जी ने दिया. उन्होंने हाईकोर्ट इलाहाबाद में अपील कर 153 आंदोलकारियों को फांसी से बचाया. जिन 19 आंदोलकारियों की सजा बरकरार रही उनको बचाने के लिए वायसराय से अपील की, लेकिन गांधी / नेहरु ने वहां भी हस्ताक्षर करने से मना कर दिया.
यह था 1915 से 1925 तक का वह इतिहास, जिसको कांग्रेसी अपनी महान उपलब्धि बताते फिरते हैं. कुछ इतिहासकार तो यहाँ तक लिखते हैं कि- गांधी जी और अंग्रेजों का गुप्त समझौता था कि- थोडा सा असहयोग आन्दोलन करने के बाद, अंग्रेज औपनिवेशिक स्वराज देने वाले थे, लेकिन चौरीचौरा हिंसा के बाद अंग्रेज नाराज हो गए थे. आपकी जानकारी के लिए एक बात और बता देता हूँ , गांधी अंग्रेजो की सेना में भी नौकरी कर चुके थे 

Saturday, 4 March 2017

फिल्म जेहाद

सलीम - जाबेद की जोड़ी की लिखी हुई फिल्मो को देखे, तो उसमे आपको अक्सर बहुत ही चालाकी से हिन्दू धर्म का मजाक तथा मुस्लिम / इसाई / साईं बाबा को महान दिखाया जाता मिलेगा. इनकी लगभग हर फिल्म में एक महान मुस्लिम चरित्र अवश्य होता है और हिन्दू मंदिर का मजाक तथा संत के रूप में पाखंडी ठग देखने को मिलते है.
फिल्म "शोले" में धर्मेन्द्र भगवान् शिव की आड़ लेकर "हेमामालिनी" को प्रेमजाल में फंसाना चाहता है जो यह साबित करता है कि - मंदिर में लोग लडकियां छेड़ने जाते है. इसी फिल्म में ए. के. हंगल इतना पक्का नमाजी है कि - बेटे की लाश को छोड़कर, यह कहकर नमाज पढने चल देता है.कि- उसे और बेटे क्यों नहीं दिए कुर्बान होने के लिए.
"दीवार" का अमिताब बच्चन नास्तिक है और वो भगवान् का प्रसाद तक नहीं खाना चाहता है, लेकिन 786 लिखे हुए बिल्ले को हमेशा अपनी जेब में रखता है और वो बिल्ला भी बार बार अमिताब बच्चन की जान बचाता है. "जंजीर" में भी अमिताभ नास्तिक है और जया भगवान से नाराज होकर गाना गाती है लेकिन शेरखान एक सच्चा इंसान है.
फिल्म 'शान" में अमिताभ बच्चन और शशिकपूर साधू के वेश में जनता को ठगते है लेकिन इसी फिल्म में "अब्दुल" जैसा सच्चा इंसान है जो सच्चाई के लिए जान दे देता है. फिल्म "क्रान्ति" में माता का भजन-कीर्तन करने वाला राजा (प्रदीप कुमार) गद्दार है और करीमखान (शत्रुघ्न सिन्हा) एक महान देशभक्त, जो देश के लिए अपनी जान दे देता है.
अमर-अकबर-अन्थोनी में तीनो बच्चो का बाप किशनलाल एक खूनी स्मंग्लर है लेकिन उनके बच्चो अकबर और अन्थोनी को पालने वाले मुस्लिम और इसाई महान इंसान है. साईं बाबा का महिमामंडन भी इसी फिल्म के बाद शुरू हुआ था. फिल्म "हाथ की सफाई" में चोरी - ठगी को महिमामंडित करने वाली प्रार्थना भी आपको याद ही होगी.
कुल मिलाकर आपको इनकी फिल्म में हिन्दू नास्तिक मिलेगा या धर्म का उपहास करता हुआ कोई कारनामा दिखेगा और इसके साथ साथ आपको शेरखान पठान, DSP डिसूजा, अब्दुल, पादरी, माइकल, डेबिड, आदि जैसे आदर्श चरित्र देखने को मिलेंगे. हो सकता है आपने पहले कभी इस पर ध्यान न दिया हो लेकिन अबकी बार ज़रा ध्यान से देखना.
केवल सलीम / जावेद की ही नहीं बल्कि कादर खान, कैफ़ी आजमी, महेश भट्ट, आदि की फिल्मो का भी यही हाल है. फिल्म इंडस्ट्री पर हाजी मस्तान और दौउद जैसों का नियंत्रण रहा है, इसीलिए अक्सर अपराधियों का महिमामंडन किया जाता है और पंडित को धूर्त, ठाकुर को जालिम, बनिए को सूदखोर, सरदार को मूर्ख कामेडियन, आदि ही दिखाया जाता है.
"फरहान अख्तर" की फिल्म "भाग मिल्खा भाग" में "हवन करेंगे" का आखिर क्या मतलब था ? pk में भगवान् का रोंग नंबर बताने वाले आमिर खान क्या कभी अल्ला के रोंग नंबर पर भी कोई फिल्म बनायेंगे ? मेरा मानना है कि - यह सब महज इत्तेफाक नहीं है बल्कि सोंची समझी साजिश है. गुलशन कुमार की हत्या का कारण उनका हिन्दू धर्म प्रचार ही था

फिल्म निर्माता हों या विज्ञापन निर्माता जानबूझकर , आजतक हिन्दुओं की भावनाओं का मजाक उड़ातेे रहे हैं, साथ ही अन्य धर्म के लोगों को बहुत ही सज्जन दिखाते रहे हैं. .ज्यादातर फिल्मो में "हिन्दू पंडित" को धूर्त दिखाया जाता है तो "हिन्दू ठाकुर" को बलात्कारी. इसके अलावा "हिन्दू वैश्य" को सूदखोरी के द्वारा शोषण करता हुआ दिखाया जाता है. जबकि पादरी, मौलवी, आदि भगवान् के फरिस्ते जैसे दिखाए जाते है.

यह तथाकथित बुद्धिजीवी लोग इतनी सफाई से और इतने मनोरंजक तरीके से यह सब करते थे कि - हमें खुद ही पता नहीं चलता था. आपने "मैं हूँ न" फिल्म देखी होगी. फिल्म निर्माता निर्देशक ने बेहतरीन कलाकार, बेहतरीन स्क्रीनप्ले, बेहतरीन गीत-संगीत, आदि के साथ इसमें पापिस्तान को अच्छा देश तथा भारत के राष्ट्रवादियों को विलेन साबित कर दिया था






कांग्रेस की स्थापना कब, किसने और क्यों की थी ? (भाग- 02)

जैसा कि - आपको लेख के पहले भाग में बताया गया है कि - क्रांतिकारियों से नफरत करने वाले एक अंग्रेज उच्च अधिकारी ने, सेवानिवृत्ति के बाद, कुछ अंग्रेज टाईप भारतीयों को लेकर 1885 में "इंडियन नेशनल कांग्रेस" की स्थापना की थी, जिसका उद्देश्य अर्द्ध अंग्रेज अर्द्ध भारतीय लोगों का सहारा लेकर, जनता के मन में अंग्रेजों के प्रति नफरत कम करना था.
ए. ओ. ह्युम की यह चाल कामयाब रही और लगभग बीस साल तक कोई क्रांतिकारी घटना नहीं हुई. 1905 में अंग्रेजों ने मुसलमानों को खुश करने के लिए, हिन्दू - मुस्लिम आवादी के घनत्व के आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया. यह बात देशभक्त हिन्दुओं को बर्दाश्त नहीं हुई और अंग्रेजों के खिलाफ माहौल बनने लगा. बंग-भंग का बहुत बिरोध हुआ.
हालांकि अंग्रेजों के खिलाफ बंगाल पहले ही जागने लगा था. 1902 से ही अनुशीलन समिति और युगांतर जैसी संस्थाए उभरने लगी थीं, जो सशत्र क्रान्ति के द्वारा अंग्रेजों को भगा देना चाहती थीं, लेकिन इनको जन समर्थन नही मिलता था. ए. ओ. ह्युम की कांग्रेस ने इतना बढ़िया काम किया था कि- भारत की आम जनता भी अंग्रेजों के खिलाफ कुछ नहीं सुनती थी.
बंग-भंग के बाद युगांतर और अनुशीलन समिति ने अंग्रेजों के खिलाफ कार्यवाहियां तीव्र कर दीं, इनका उद्घोष था "वन्देमातरम". बंगाल के समस्त लोग चाहे वो हिन्दू हों या मुस्लिम वन्देमातरम का उद्घोष करने लगे. ये लोग बम बनाने, युवाओं को पर्शिक्षण देने का काम करते थे और मौक़ा मिलने पर अंग्रेजों और उनके चापलूसों का बध करने से नहीं चूकते थे.
इसी बीच महाराष्ट्र में क्रान्ति का अलख जगाने के लिए स्वातंत्रवीर सावरकर ने 1904में "अभिनव भारत" की स्थापना की. यह लोग बौद्धिकता से अंग्रेजों का मुकाबला करते थे. अभिनव भारत ने विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, तथा देशभक्ति पूर्ण साहित्य का प्रचार करना शुरू कर दिया. सावरकर ने 1857 के ग़दर को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम साबित कर दिया.
युगांतर, अनुशीलन समिति, अभिनव भारत, आदि पर अलग से लेख लिखकर बताउंगा, फिलहाल चर्चा कांग्रेस के स्वाधीनता संग्राम (?) पर रखते हैं. उस द्वितीय स्वाधीनता संग्राम ( 1905 से 1915) में कांग्रेस किसी भी प्रकार से शामिल नहीं हुई, बल्कि उस लड़ाई को कमजोर करने के लिए "वन्देमातरम" को लेकर विवाद पैदा करना शुरू कर दिया.
उन दिनों हिन्दू और मुस्लिम सभी "वन्देमातरम" का उद्घोष करते थे. तब इन लोगों ने बड़ी चालाकी से मुसलमानों को समझाना शुरू किया कि- वन्देमातरम का उद्घोष इस्लाम बिरोधी है. उनकी यह चाल भी काफी हद तक कामयाब रही और मुस्लिम क्रान्ति से दूर हो गए, इसी लिए द्वितीय स्वाधीनता संग्राम में बहुत ढूँढने पर इक्का दुक्का मुस्लिम नाम दिखाई देंगे.
द्वितीय स्वाधीनता संग्राम ( 1905 से 1915) से कांग्रेस खुद तो दूर रही लेकिन स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वालों को जरुर बदनाम करती रही. मदनलाल धींगरा द्वारा कर्नल वायली का बध करने पर सावरकर की आलोचना की, कि - युवाओं को आतंकवाद का गलत रास्ता दिखा रहे हैं. नाशिक के कलेक्टर जैक्सन के बध के लिए भी सावरकर को दोषी बताया.
अंग्रेज अथवा अंग्रेज के चापलूस भारतीय के बध पर, यह लोग आलोचना करते थे लेकिन अंगेजों द्वारा किसी क्रांतिकारी की ह्त्या, फांसी अथवा कालापानी की सजा पर चुप्पी साध लिया करते थे. अंग्रेजों ने जैक्सन की ह्त्या का षड्यंत्र करने का आरोप लगाकर, 4 जुलाई 1911को द्वितीय स्वाधीनता संग्राम के सूत्रधार सावरकर को कालापानी की सजा दे दी.
दस साल कालापानी और तीन साल रत्नागिरी की सजा काटने वाले सावरकर की, कांग्रेसी नेता हमेशा ही यह झूठ बोलकर आलोचना करते रहे कि - सावरकर अंग्रेजों से माफी मागकर छूटे. यह झूठा आरोप भी वो कांग्रेस लगाती है जो खुद द्वितीय स्वाधीनता संग्राम के समय आजादी की लड़ाई से दूर रहकर अंग्रेजों की चापलूसी किया करती थी.
सावरकर की 1913 में डाली गई याचिका भी अंग्रेजों ने उसी समय खारिज कर दी थी. नाशिक षड्यंत्र के आरोप सिद्ध न कर पाने के कारण उनको 21मई 1921 को कालापानी से रिहा करना पडा था लेकिन उसके बाद भी तीन साल रत्नागिरी जेल में बंद रखा. उस काल के सभी क्रांतिकारी सावरकर को अपना आदर्श मानते थे, किसी कांग्रेसी नेता को नहीं.

कांग्रेस की स्थापना कब, किसने और क्यों की थी ? (भाग- 01)


अक्सर कांग्रेसी बिचारधारा के लोग गुणगान करते फिरते हैं कि कांग्रेस ने देश को अंग्रेजों से आजाद कराया था. यह कितना बड़ा झूठ है इसको समझने के लिए कांग्रेस के जन्म की कहानी और इनकी कर्म कुंडली हो समझना बहुत ही आवश्यक है. वास्तव में कांग्रेस का जन्म आजादी की लड़ाई के लिए नहीं बल्कि लड़ाई की धार कुंद करने के लिए हुआ था.
कांग्रेस की स्थापना किसी देशभक्त भारतीय ने नहीं बल्कि एक ऐसे अंग्रेज अफसर ने की थी जिसको 1857 की क्रान्ति के समय, क्रांतिकारियों से बचने के लिए, अपने चेहरे को काला करके, कई दिन तक कभी साड़ी तो कभी बुर्के में औरत के वेश में छुपकर रहना पड़ा था. आपको यह को पता ही होगा कि - कांग्रेस की स्थापना ए. ओ. ह्युम ने की थी.
ए. ओ. ह्युम की नियुक्ति इटावा जिले के कलक्टर के रूप में 4 फरवरी 1856 को हुई थी. एक साल बाद 1857 में देश में अंग्रेजो के खिलाफ क्रान्ति हो गई. इटाबा छावनी के भारतीय सैनिक वागी होकर क्रांतिकारियों से मिल गए. ह्युम ने उनका दमन करने के लिए पूरी ताकत झोक दी. अनेकों बाग़ी क्रांतिकारी सैनिक, डाकू कहकर मार दिए गए.
चम्बल और यमुना के मध्य क्षेत्र में डाकू और बागी एक दुसरे का पर्याय शब्द तभी से बने हैं. अपने साथियों की निर्मम ह्त्या का बदला लेंने के लिए क्रांतिकारियों ने ए. ओ. ह्युम को जान से मारने का ऐलान कर दिया. तब ए. ओ. ह्युम 17 जून 1857 को अपनी जान बचाने के लिए अपने चेहरे को काला कर औरत के वेश में इटावा से निकल भागा.
वह 7 दिनों तक "बढ़पुरा" में छुपा रहा. क्रान्तिकारियों के दमन के बाद वह पुनः इटाबा का कलक्टर बन गया और उसके बाद 1867 तक वही तैनात रहा. बाद में "ह्युम" की विभिन्न पदों पर कई जगह तैनाती हुई. 1882 में वो रिटायर हो गया. 1857 में क्रांतिकारियों के भय से अपनी औरत के वेश में जान बचाने की शर्मिंदगी वो कभी नहीं भुला.
इसी बीच पंजाब में कूका आन्दोलन, बिहार में आदिवासियों के क्रांतिकारी अभियान के साथ साथ देश भर में छोटे बड़े विद्रोह चलते रहे. ह्युम बहुत ही शातिर दिमाग व्यक्ति था, उसने एक ऐसी संस्था बनाने का निर्णय लिया जो अंग्रेजों और भारतीयो के बीच अर्द्ध भारतीय और अर्द्ध अंग्रेज की भूमिका निभाय. इसके लिए उसने कांग्रेस का गठन किया.
उसने अपने साथ ऐसे भारतीयों को चुना, जो कहने को भारतीय थे लेकिन जिनका रहन सहन और बिचार अंग्रेजों के समान थे. व्योमेशचन्द्र बनर्जी, दादा भाई नौरोजी, सर सुरेंद्रनाथ बनर्जी, सर फीरोज शाह मेहता, गोपाल कृष्ण गोखले, आदि को साथ लेकर 27 दिसम्बर 1885 को मुम्बई में "इंडियन नेशनल कांग्रेस" की स्थापना की.
ए. ओ. ह्युम की यह योजना इतनी कारगर साबित हुई कि - अगले बीस साल तक देश में कहीं कोई क्रांतिकारी घटना नहीं हुई. 1905 के आसपास जब बंगाल में "युगांतर" और "अनुशीलन समिति" तथा महाराष्ट्र में "अभिनव भारत" ने क्रान्ति का अलख जगाना प्रारम्भ किया तो कांग्रेस ने उन लोगों बदनाम करने का प्रयास भी किया.
उन दिनों श्याम कृष्ण वर्मा, वीर सावरकर, मदनलाल धींगरा, आदि ने देश में अंग्रेजों के खिलाफ माहौल बनाना शुरू कर दिया. सावरकर के ग्रन्थ "1857- प्रथम स्वातंत्रय समर" ने तो जैसे देश में क्रान्ति की ज्वाला को भड़का दिया. करतार सिंह सराभा, खुदीराम वोस, रास बिहारी बोस, जैसे हजारों युवा हथियार लेकर अंग्रेजों को मार भगाने को तत्पर हो गए.
कर्नल वायली, कलक्टर जैक्शन जैसे अंग्रेजों का क्रांतिकारियों ने बध कर दिया. 1905 से 1915 तक का समय द्वितीय स्वाधीनता संग्राम इसीलिए कहा जाता है. दुसरे स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस शामिल नहीं हुई बल्कि ये लोग केवल सावरकार, मदन लाल धींगरा एवं अन्य जोशीले युवाओं को बदनाम करने का काम ही करते रहे
गद्दारों की गद्दारी के चलते दुसरा स्वाधीनता संग्राम असफल हो गया. अनेकों क्रांतिकारी मुठभेड़ में मारे गए, कुछ फांसी चढ़ा दिए गए और कुछ को को कालापानी भेज दिया गया. . इसी बीच 1915 में गांधी का भारत आगमन हुआ और दूसरा स्वाधीनता संग्राम थम गया. यह कहानी थी कांग्रेस से जन्म से लेकर 30 साल तक के सफ़र की.
अपने जन्म से लेकर तीस साल तक कांग्रेस मात्र अंग्रेजो की चापलूस संस्था बनी रही. हालांकि लाल-पाल-बाल जैसों ने कुछ आवाज उठाने की कोशिश की मगर उनकी आवाज दबा दी गई. उनको गरम दल कहकर अपमानित किया जाता था. गाँधी के आगमन के बाद तो इनका महत्त्व बिलकुल ख़त्म कर दिया गया था.
1885 में क्रिसमस और न्यू ईयर की छुट्टियों के बीच में ए.ओ.ह्युम ने ऐसे 72 लोगों को अपने साथ लिया जो अंग्रेजो के भक्त थे. किसी भी संगठन का प्रथम अध्यक्षीय भाषण बहुत ही महत्वपूर्ण होता है क्योंकि उससे ही उस संगठन की दिशा तय होती है. कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष व्योमेश चन्द्र बनर्जी ने अपने भाषण में क्या कहा यह भी जान लीजिये.
"हम, ब्रिटश सम्राज्य के ईमानदार और स्वामिभक्त समर्थक लोग है। हमारी अभिलाषा है कि भारत मे, ब्रिटिश शासन को स्थायित्व मिले और यह कामना करते है कि भारत मे ब्रिटिश शासन अनंत काल तक चलता रहे। हमारी यह आधारभूत महत्वकांशा है कि हमको ब्रिटिश प्रशासन में हमारी हिस्सेदारी मिले। हमलोग, ब्रिटश नागरिको से ज्यादा ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठावान और उसके अटल शुभाकांक्षी है। भारत के लिये, ग्रेट ब्रिटेन ने बहुत कुछ किया है। हमें रेलवे और पाश्चात्य शिक्षा दी है। इसके लिये हमलोग, ग्रेट ब्रिटेन के प्रति सच्चे अर्थों में कृतज्ञ है"

Friday, 3 March 2017

शैतान औरंगजेब

हिन्दुस्तान के इतिहास के सबसे जालिम राजा जिसने, अपने पिता को कैद किया, अपने सगे भाइयों और भतीजों की बेरहमी से ह्त्या की, गुरु तेग बहादुर का सर कटवाया, गुरु गोविन्द सिंह के बच्चो को ज़िंदा दीवार में चुनवाया, जिसने सैकड़ों मंदिरों को तुडवाया, जिसने अपनी प्रजा पर वे-इन्तहा जुल्म किये, ब्रज की लोकगाथाओं में उसके अपनी बहन रोशन आरा से भी गलत रिश्ते बताए जाते हैं.
औरंगज़ेब भारत पर राज करने वाला छठा मुग़ल शासक था, वो शाहजहाँ और मुमताज़ की छठी संतान और तीसरा बेटा था. उसका शासन 1658 से लेकर 1707 में उसकी मृत्यु होने तक चला था. औरंगज़ेब ने ‘क़ुरान’ के आधार पर शासन चलाया और काफ़िरो (हिन्दुओं) को मुसलमान बनाने पर जोर दिया. हिन्दुओं पर उसने जजिया कर लगाया. औरंगजेब हिन्दुओं के साथ शूफी संतों को भी इस्लाम का दुश्मन मानता था.
औरंगजेब ने हिन्दू त्यौहारों को सार्वजनिक तौर पर मनाने पर प्रतिबन्ध लगाया और उसने हिन्दू मंदिरों को तोड़ने का आदेश दिया. औरंगज़ेब ‘दारुल हर्ब’ (क़ाफिरों का देश भारत) को ‘दारुल इस्लाम’ (इस्लाम का देश) में परिवर्तित करने को अपना महत्त्वपूर्ण लक्ष्य मानता था. 1669 ई. में औरंगज़ेब ने बनारस के ‘विश्वनाथ मंदिर’ एवं मथुरा के ‘केशव राय मदिंर’ को तुड़वा दिया.
औरंगजेब दिखावा करता था कि वो सादगी का जीवन जीता है जबकि लूट और जजिया के माध्यम से वो अपने समय का सबसे बड़ा धनवान शहंशाह बन गया था. हिन्दू औरतों को उसके राज में ही सर्वाधिक उठवाया गया था. उसका जोर रहता था कि हिन्दुओं के मरने के बाद, उनकी स्त्रियाँ अपनी इज्ज़त बचाने के लिए आत्महत्या न कर सकें. इस जुल्म को भी सेकुलर इतिहासकार "सतीप्रथा" का बिरोध बताते हैं.
यूँ तो औरंगजेब ने सारे भारत पर ही जुल्म किये थे लेकिन उसके अत्याचार से सबसे ज्यादा प्रभावित व्रज और पंजाब हुआ था. उसके समय में ब्रज में आने वाले तीर्थयात्रियों पर भारी कर लगाया गया. मंदिर नष्ट किये गये और हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया गया. तोड़े गये मंदिरों की जगह पर मस्जिद बनाई गईं. हिन्दुओं के दिल को दुखाने के लिए खुलेआम गो−ह्त्या करने की छूट दे दी गई थी.
औरंगज़ेब ने ब्रज संस्कृति को आघात पहुँचाने के लिये ब्रज के नामों को परिवर्तित किया. मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन को क्रमश: इस्लामाबाद, मेमिनाबाद और मुहम्मदपुर कहा गया था. वे सभी नाम अभी तक सरकारी कागजों में रहे आये हैं, जनता में कभी प्रचलित नहीं हुए. कुदरत का करिश्मा देखिये कि ब्रजभूमि पर बे-इन्तहा जुल्म करने वाले औरंगजेब की बेटी "जेबुन्निसा" महान कृष्ण भक्त हुई.
जुल्मी अगर ताकतवर हो तो उसका सामना करने के लिए भी महान लोग जन्म ले लेते हैं. पंजाब में गुरु गोविन्द सिंह एवं बन्दा बहादुर, राजस्थान में दुर्गादास राठौर, बुदेलखंड में वीर छत्रसाल , मथुरा में गोकुला जाट, राजाराम जाट और महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी, आदि ने मुघलों का डट कर सामना किया और औरंगजेब का भारत को ‘दारुल इस्लाम’ (इस्लाम का देश) बनाने का सपना तोड़ दिया था.
उसकी मृत्यु दक्षिण के अहमदनगर में 3 मार्च सन 1707 ई. में हो गई. उसकी मौत को कुछ लोग सामान्य मौत मानते हैं, तो कुछ लोगों का यह मानना है कि - वीर छत्रसाल ने अपने गुरु प्राणनाथ के दिए खंजर से औरंगजेब पर बार करके छोड़ दिया था. कहा जाता है कि - गुरु प्राणनाथ ने उस खंजर पर कुछ ऐसी दवा लगाईं थी कि - उससे होने वाला घाव कभी सही न हो और घायल काफी समय तक तड़पते हुए दर्दनाक मौत मरे.
ऐसी दर्दनाक मौत देने का उनका उद्देश्य था औरंगजेब के द्वारा भारतवाशियों को दिए गये दर्द की याद दिला दिला कर मारना. औरंगशाही में औरंगजेब ने स्वयं लिखा है कि- "मुझे प्राण नाथ और छत्रसाल ने छल से मारा है " दौलताबाद में स्थित फ़कीर बुरुहानुद्दीन की क़ब्र के अहाते में उसे दफना दिया गया. औरंगजेब की कट्टर नीति ने इतने विरोधी पैदा कर दिये, कि मुग़ल साम्राज्य का अंत ही हो गया.
हैवान "औरंगजेब" की मौत की बरसी (3-मार्च) पर उस हैवान को बारम्बार "धिक्कार"

जसबंत सिंह रावत : एक सैनिक, जो मरकर भी, "ज़िंदा" है

(शहीद जसबंट सिंह रावत की कांस्य प्रतिमा)
उनकी सेवा में हर समय भारतीय सेना के पाँच जवान तैनात रहते हैं. उनका बिस्तर लगाया जाता है, उनके जूतों की पॉलिश होती है, उनकी यूनिफ़ॉर्म भी प्रेस की जाती है. सुबह ठीक साढ़े चार बजे बेड टी दी जाती है, नौ बजे नाश्ता दिया जाता है और शाम को सात बजे उनको रात का खाना भी मिलता है. और तो और, पिछले 53 सालों में बिना कुछ किये , उनको 6 बार प्रमोशन देकर रायफल मैन से कैप्टन बनाया जा चुका है.
क्या भारतीय सेना में ऐसा भी होता है ? जी हाँ एक सैनिक जसबंत सिंह रावत को यह सब कुछ मिलता है और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि - वे अब इस दुनिया में भी नहीं है. शहीद जसवंत सिंह रावत एक ऐसे विलक्षण शहीद सैनिक है, जिनको अमर माना जाता है. उनकी आजतक बाकायदा हाजिरी लगती है और छुट्टी पर गाँव में उनका चित्र भेजा जाता है और छुट्टी समाप्त होने पर उनका चित्र वापस लाया जाता है .
(सेला पास / लेक)
सन 1962, चीन ने भारत पर हमला बोल दिया था. अरुणाचल प्रदेश में चीन की सीमा पर स्थित "नूरारंग" में गढ़वाल रायफल की बटालियन तैनात थी, चीनी सैनिको की विशाल संख्या और भारतीय सैनकों की कम संख्या तथा हथियारों की कमी देखते हुए 14 नबम्बर 1962 को बटालियन को चौकी छोड़कर पीछे हटने का आदेश दिया गया. लेकिन तीन सैनिक - जसवंत सिंह रावत, त्रिलोक सिंह नेगी और गोपाल सिंह गोसांई ने आदेश मानने से इनकार कर दिया.
तीनो ने सुरक्षित जगह से मोर्चा लगाकर चीनियों को निशाना बनाना शुरू कर दिया. पास के गाँव की दो बहने सेला और नूरा भी उनकी मदद को आ गईं. वे उनको लगातार पानी, खाना और क्षेत्र की जानकारी देती थी. इसी बीच उन्होंने चीनी सैनिक को मारकर उनकी MMG पर कब्जा कर लिया और उससे चीनियो पर ही कहर ढा दिया. उन्होंने बहादुरी से चीनियों का सामना किया लेकिन अगले दिन त्रिलोक और गोपाल शहीद हो गए,
(जसवंत सिंह वार मेमोरियल)
अब वहां केवल जसबंत और दोनो बहने (सेला / नूरा) बची. उन लोगों ने रात के समय भेड़ों के गले में लालटेन बांधकर, ये भ्रम पैदा किया कि - बहां बहुत सारे सैनिक है. 14 नबम्बर 1962 से 17 नबम्बर 1962 तक चली इस लड़ाई में वे लोग 72 घंटे तक चीनियों का सामना करते रहे और 300 से ज्यादा चीनी सैनिको को मार गिराया. चीनियों को समझ ही नहीं आ रहा था कि वहां कितनी बड़ी बटालियन है. लेकिन एक गद्दार "लामा" ने चीनियों को खबर देदी कि - वहां केवल एक सैनिक और दो लडकियां हैं.
तब चीनी सैनको ने पूरे इलाके को घेर लिया. इतने पर भी जसबंत सिंह लड़ते रहे और चीनियों को मारते रहे. उन्होंने अंतिम सांस तक चीनियों से मुकाबला किया और शहीद हो गए. चीनियों ने गुस्से में आकर उनका सर काट लिया. सेला भी बम की चपेट में आने से शहीद हो गई और नूरा को चीनी जबरन अपने साथ ले गए. 20 नबम्दर 1962 को संघर्ष विराम की घोषणा हुई तो चीनी कमांडर ने जसवंत की बहादुरी की लोहा माना.

(नूरा पीक)
चीनी सेना ने उनका कटा हुआ सर वापस किया और सर की कांसे की प्रतिमा भी भारतीय सेना को भेंट की. भारतीय सेना द्वारा एक मंदिर बनाकर बहां बह मूर्ती स्थापित की गई और उसकी पूजा होने लगी. जसबंत सिंह रावत को उनकी बहादुरी के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया. बहा पर दो चोटियों का नाम सेला और नुरा के नाम पर रखा गया. उनको को आजतक जीवित व्यक्ति की तरह माना जाता है.
उनके शहादत स्थल का नाम, उनके नाम पर "जसवंतगढ़ "रखा गया है. उनको लेकर अनेको किवदंतिया बन गई हैं. कहा जाता है कि - इस पोस्ट पर तैनात किसी सैनिक को जब झपकी आती है, तो कोई उन्हें थप्पड़ मारकर जगाता है. इतना ही नहीं, लोग कहते है कि- उस राह से गुजरने वाला कोई राहगीर, अगर उनकी शहादत स्थली पर बगैर नमन किए आगे बढ़ता है, तो उसे कोई न कोई नुकसान जरूर होता है. 

युद्द के क्षेत्र में दुश्मन से लड़ते हुए शहीद होने के बाबजूद  "जसबंत सिंह रावत" को शहीद नहीं माना जाता है क्योंकि उनको जीवित मानकर उनके साथ जीवित व्यक्ति जैसा बर्ताव किया जाता है.