
इसके अलावा बरेली के ही एक कथाबाचक "प. ब्रजभूष्ण शर्मा" जी ने हमारे टाउन के मंदिर में कई बार "राधेश्याम रामयण" का पाठ किया था. इस ग्रन्थ की आम बोलचाल की भाषा-शैली मुझे बहुत ज्यादा पसंद है. मुझे आजतक इसके कई प्रसंग याद हैं. रावण सीता संवाद, रावण सूर्पनखा संवाद, लक्ष्मण परशुराम संवाद, आदि प्रसंग मुझे आज भी आनन्द देते है.
कवि और कथाबाचक राधेश्याम जी का जन्म 25 नवम्बर 1890 को उत्तर-प्रदेश राज्य के बरेली शहर के बिहारीपुर मोहल्ले में हुआ था. अल्फ्रेड नाटक कम्पनी से जुड़कर उन्होंने वीर अभिमन्यु, भक्त प्रहलाद, श्रीकृष्णावतार आदि अनेक नाटक लिखे, परन्तु सामान्य जनता में उनकी ख्याति राम कथा की एक विशिष्ट शैली के कारण फैली.
लोक नाट्य शैली को आधार बनाकर खड़ी बोली में उन्होंने रामायण की कथा को 25 खण्डों में पद्यबद्ध किया। इस ग्रन्थ को राधेश्याम रामायण के रूप में जाना जाता है. आगे चलकर उनकी यह रामायण उत्तरप्रदेश में होने वाली रामलीलाओं का आधार ग्रन्थ बनी. मंच पर होने वाले नाटकों में ज्यादातर उनकी ही रचनाओं का प्रयोग होता है.
उनकी रचना "राधेश्याम रामायण" अपनी मधुर गायन शैली के कारण शहर कस्बे से लेकर गाँव-गाँव और घर-घर आम जनता में इतनी अधिक लोकप्रिय हुई कि उनके जीवनकाल में ही उसकी हिन्दी-उर्दू में कुल मिलाकर पौने दो करोड़ से ज्यादा प्रतियाँ छपकर बिक चुकी थीं. उन्होंने धार्मिक और ऐतिहासिक फिल्मो के लिए गीत भी लिखे थे.
"हिन्दू महासभा" के संस्थापक प. महामना मदनमोहन मालवीय उनके गुरु थे. काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए धन जुटाने के लिए, महामना मालवीय जी, जब बरेली पधारे थे, तो राधेश्याम जी ने उनको अपनी साल भर की पुरी कमाई उन्हें दान दे दी थी. जो आज के समय के हिसाब से कई करोड़ में होती.

वे केवल सरल और आमजन को समझने वाली भाषा में लिखते थे और उर्दू के शब्दों का भी धडल्ले से प्रयोग करते थे. उन्होंने मुसलमान कलाकारों को भी हिन्दू देवताओं के अभिनय हेतु प्रेरित किया. वे गैरहिन्दी भाषी राज्यों में सर्वाधिक प्रवास करते थे. इस प्रकार रामकथा तथा हिन्दी के प्रचार में भी उन्होंने अपना अमूल्य योगदान दिया.
स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद ने भी उन्हें नई दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में आमन्त्रित कर उनसे पंद्रह दिनों तक रामकथा का आनन्द लिया था. पृथ्वीराज कपूर उनके अभिन्न मित्र और घनश्यामदास बिड़ला उनके परम भक्त थे. नेपाल नरेश तथा कश्मीर के राजा हरीसिंह भी उनको विशेष सम्मान देते थे.
शान्तिकुञ्ज (हरिद्वार) वाले प. श्रीराम शर्मा आचार्य भी उनको अपना मार्गदर्शक मानते थे. 26 अगस्त 1963 को 73 बर्ष की आयु में प. राधेश्याम जी का बरेली में अपने निवास स्थान पर स्वर्गवाश हो गया. अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने आत्मकथा "मेरा नाटककाल" लिखी. रामायण के अलावा उन्होंने जो अन्य नाटक लिखे वे निम्न लिखित है.
वीर अभिमन्यु
श्रवणकुमार
परमभक्त प्रह्लाद
परिवर्तन
श्रीकृष्ण अवतार
रुक्मिणी मंगल
मशरिकी हूर
महर्षि वाल्मीकि
देवर्षि नारद
उद्धार और आज़ादी
श्रवणकुमार
परमभक्त प्रह्लाद
परिवर्तन
श्रीकृष्ण अवतार
रुक्मिणी मंगल
मशरिकी हूर
महर्षि वाल्मीकि
देवर्षि नारद
उद्धार और आज़ादी
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