Thursday, 28 March 2019

महाराजा रंजीत सिंह

 महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 13 नवम्बर, सन 1780 को गुजरांवाला में हुआ था. रणजीत सिंह सिक्खों की बारह मिसलों में से एक 'सुकर चाकिया' से सम्बन्धित थे. उनके पिता महासिंह सुकर चाकिया मिसल के मुखिया थे. जिस समय रणजीत सिंह की आयु केवल 12 वर्ष थी, उसी समय उनके पिता का देहान्त हो गया था .
पिता की म्रत्यु के बाद उन्हें बाल्यावस्था में 'सुकर चाकिया' मिसाल का सरदार बना दिया गया.15 वर्ष की आयु में 'कन्हया मिसल' के सरदार की बेटी से उनका विवाह हुआ. इस विवाह के बाद दो मिसलों के मिल जाने से उनकी ताकत बढ़ गई थी. उनकी सास "सदा कौर" बुत ही दूरदर्शी और मह्त्वाकांक्षी महिला थी.
उनका मानना था कि जब तक सिख अलग अलग मिसलों में बंटे रहेंगे तब तक मजबूत नहीं बन सकते. अन्य मिसलो को भी जोड़ने के लिए उन्होंने अपने दामाद "रंजीत सिंह" अन्य मिसलों की लड़कियों से विवाह कराये. कोई सास अपने दामाद की कई शादियाँ कराये यह बहुत मुश्किल है लेकिन उन्होंने धर्म और राष्ट्र के हित में ऐसा किया.
इन वैवाहिक संबंधों के बाद रंजीत सिंह का प्रभाव बहुत बढ़ गया. सैन्य ताकत बढ़ जाने के बाद उन्नीस वर्षीय रणजीत सिंह ने 1799 ई. में जुलाई मास में लाहौर पर अधिकार कर लिया. उनकी ताकत को देखते हुए अफगान शासक जमानशाह ने परिस्थितिवश उनको लाहौर का उपशासक स्वीकार करते हुए राजा की उपाधि प्रदान की.
1804 ई. में कांगड़ा के सरदार 'संसार चन्द कटोच' को हराकर रणजीत सिंह ने होशियारपुर पर अधिकार कर लिया. 1805 ई. में उन्होंने अमृतसर एवं जम्मू पर अधिकार कर लिया. 1807 ई. में उन्होंने लुधियाना पर अधिकार कर लिया. इसको देखते हुए 25 अप्रैल, 1809 को अंग्रेजों ने महाराजा रंजीत सिंह से संधि की 'अमृतसर की सन्धि' कहा जाता है.
इस संधि के अनुसार सतलुज के पूर्व में अंग्रेजों का और सतलुज के पश्चिम में महाराजा रजीत सिंह का अधिकार मान लिया गया. तय हुआ कि दोनों एक दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करेंगे. बड़े क्षेत्र पर कब्जा हो जाने के बाद उन्होंने अपने प्रशासन पर ध्यान दिया. अनपढ़ होते हुए उन्होंने जिस तरह राज्य का संचालन किया वह अच्छों अच्छों को सोंच में डाल देता है.
उनकी सरकार को 'सरकार खालसा' कहा जाता था. उन्होंने गुरु नानक और गुरु गोविन्द सिंह के नाम के सिक्के चलाये, किन्तु उन्होंने गुरुमत को भी कभी सत्ता पर हावी नहीं होने दिया. उन्होंने प्रशासन में डोगरों उच्च पद प्रदान किये एवं कुछ मुसलमानों को भी महत्त्वपूर्ण पद दिए. 'अजीजुद्दीन' उनके विदेशमंत्री तथा 'दीनानाथ' उनके वितमंत्री थे.
महाराजा रणजीत सिंह की सफलता में उनके द्वारा चुने गए मंत्रियों का बहुत हाथ था. जहाँ महान सेना नायक हरी सिंह नलवा ने उनकी सैन्य ताकत को बढ़ाया वहीँ दीवान दीनानाथ की वित्तीय योजनाओं ने राज्य का खजाना भर दिया. इस के साथ विदेशमंत्री 'अजीजुद्दीन' ने अपनी कूटनीति से विदेशों से महाराजा के अच्छे संबंध बनाए.
उनके राजस्व का प्रमुख स्रोत 'भू-राजस्व' था, जिसमें नवीन प्रणालियों का समावेश होता रहता था. महाराजा रणजीत सिंह ने नीलामी के आधार पर सबसे ऊँची बोली बोलने वाले को भू-राजस्व वसूली का अधिकार प्रदान किया. राज्य की ओर से लगान उपज का 2/5 से 1/3 भाग लिया जाता था. इस तरीके से उनका खजाना भर गया था.
महाराजा रणजीत सिंह का राज्य 4 सूबों में बंटा था - पेशावर, कश्मीर, मुल्तान और लाहौर. न्याय और प्रशासन के क्षेत्र में राजधानी में 'अदालत-ए-आला' (आधुनिक उच्च न्यायालय के समान) खोला गया था, जहाँ उच्च अधिकारियों द्वारा विवादों का निपटारा किया जाता था. उनके राज में अपराधियों के लिए कड़े दंड का प्रावधान था.
रणजीत सिंह ने अपनी सैन्य व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया था. उन्होंने अपनी सेना को फ़्राँसीसी सैनिकों से प्रशिक्षित करवाया. रणजीत सिंह की सेना में विभिन्न विदेशी जातियों के 39 अफ़सर कार्य करते थे, जिसमें फ़्राँसीसी, जर्मन, अमेरिकी, यूनानी, रूसी, अंग्रेज़, एंग्लो-इण्डियन, स्पेनी आदि सम्मिलित थे.
महाराजा रणजीत सिंह ने कांगड़ा, मुल्तान, अटक, कश्मीर, पेशावर, लाद्दाख, आदि की लड़ाईया जीतकर अपने राज्य को पश्चिम उत्तर में बहुत ही महत्वपूर्ण राज्य बना लिया था. उन्होंने एक ऐसे संगठित सिक्ख राज्य का निर्माण कर दिया था, जो पेशावर से सतलुज तक और कश्मीर से सिन्ध तक विस्तृत था..
किन्तु इस विस्तृत साम्राज्य में वह ऐसी कोई मज़बूत शासन व्यवस्था विकसित नहीं कर सके जिससे कि उनके बाद भी उनका राज्य संगठित रहता और शासन प्रणाली सुचारू रूप से चलती रहती जैसी कि शिवाजी ने महाराष्ट्र में उत्पन्न कर दी थी. उनकी मृत्यु (7 जून 1839) के केवल 10 वर्ष के उपरान्त ही यह साम्राज्य छिन्न भिन्न हो गया.
फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि अफ़ग़ानों, अंग्रेज़ों तथा अपने कुछ सहधर्मी सिक्ख सरदारों के विरोध के बावजूद रणजीत सिंह ने जो महान् सफलताएँ प्राप्त कीं और जिस प्रकार से शासन किया, उनके आधार पर उनकी गणना उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास की महान् विभूतियों में की जानी चाहिए.

Wednesday, 27 March 2019

शंख और ढपोरशंख

एक बार एक मछुआरे ने समुद्र देवता की प्रार्थन की. समुद्र देवता प्रसन्न हुए. उनसे मछुआरे ने कहा मुझे कोई ऐसी चीज दीजिये जिससे मेरा ठीक से जीवन यापन हो सके. समुद्र देवता ने उसे एक शंख दिया और कहा इससे तुम जो कुछ मांगोगे वह तुम्हे देगा लेकिन तुम्हारे मांगने के हिसाब से नहीं बल्कि तुम्हारी जरूरत का आंकलन करने के बाद.
इसके आलावा यह शंख 24 घंटे में केवल एक बार ही यह काम करेगा. अगर तुमको दुबारा कुछ माँगना हो तो उसके लिए 24 घंटे इन्तजार करना पड़ेगा. मछुआरा बहुत खुश हुआ, उसने शंख से कहा आज मुझे बहुत सारी मछलिया मिल जाए, उसके बाद मछुआरे ने समुद्र में जाल फेंका और बहुत सारी मछलिया उसके जाल में फंस गई,
अगले दिन उसने कहा मेरा बहुत सुंदर सा महल बन जाए, तो शंख से आवाज आई तुम को महल नहीं मिल सकता लेकिन मैं तुम्हारे इस घर को ठीक कर देता हूँ और उसका टुटा फूटा घर ठीक हो गया. इसी तरह शंख उसकी जरूरतों को पूरा करता रहा लेकिन अब वह मछुआरा सोंचने लगा कि- शंख बहुत कम चीज देता है
इस विचार के साथ उस मछुआरे ने फिर से समुद्र देवता की अराधना प्रारम्भ कर दी. कुछ दिन समुद्र देवता पुनः प्रसन्न हुए. मछुआरे ने उनसे कहा मुझे कोई दूसरा शंख दीजिये क्योंकि यह बहुत कम देता है हो गये और उस मछुआरे के मन की इच्छा जानकार उन्होंने उसे अपने हाथों से एक दूसरा शंख प्रदान किया
समुद्र देवता ने उससे कहा कि - इसका नाम ‘ढपोरशंख’ है. इस शंख से तुम जो कुछ भी मांगोगे, यह शंख उसका दुगुना तुम्हे देने की बात कहेगा और इससे तुम दिन में जितनी बार चाहो मांग सकते हो. इतना सुनते ही उस मछुआरे ने पुराना शंख समुद्र में वापस फेंक दिया और ‘ढपोरशंख’ को लेकर ख़ुशी ख़ुशी घर चल दिया.
घर पहुँचते ही उसने ढपोरशंख से कहा - मेरे लिए एक महल बना दो. सुनते ही वह शंख बोला- “एक क्या दो महल ले लो”. इस पर मछुआरा खुश होकर बोला, “ठीक है, दो महल बना दो”. तब शंख फिर से बोल उठा, “दो क्या चार महल ले लो”. मछुआरे ने कहा ठीक है चार महल दे दो , तब शंख से आवाज आई - चार क्या आठ ले लो.
इसी प्रकार मछुआरा शंख से जो कुछ भी मांगता, ढपोरशंख दुगना देने की बात करता लेकिन देता कुछ नहीं. इस पर झल्ला कर मछुआरा शंख पर बरस पड़ा, बोला "कैसे शंख हो तुम, वो पिछला वाला तो जो कहता था, दे भी देता था, लेकिन तुम दुगना देने की बात बात तो करते हो लेकिन देते कुछ नहीं हो
शंख से आवाज़ आई, "“अहम् ढपोर शंखनम्, वदामि च ददामि न”. अर्थात -मैं ढपोर शंख हूँ, मैं केवल दोगुना देने की बात करता हूँ देता कुछ नहीं. जिस "जिस शंख से तुम्हारी इच्छाऐं पूरी हो सकती थी, तुमने उसे तो तुमने खुद ही समुद्र में फेंक दिया. अब आप खुद निर्णय लीजिये कि आपको शंख चाहिए या ढपोरशंख.

Sunday, 17 March 2019

आरक्षण, सिफारिश और रिश्वत से भर्ती हुए सरकारी कर्मचारी,

आरक्षण, सिफारिश और रिश्वत से भर्ती हुए सरकारी कर्मचारी,
योग्यता देखकर भरती करने वाली प्रोफेशनल कम्पनियों का मुकाबला नहीं कर सकती
**********************************************************************************
आज जो लोग BSNL के कर्मचारियों को तनखा न मिलने को लेकर पोस्ट डाल रहे हैं, उनका मोबाइल अगर चेक करेंगे तो पायेंगे कि उनके मोबाइल में जियो का ही सिम होगा BSNLका नहीं. अपनी इस बदहाली के लिए BSNL के कर्मचारी खुद जिम्मेदार है. जब सरकारी कम्पनिया तब तक ही चल सकती है जब तक वो उस क्षेत्र में अकेली हो.
जब भी उन सरकारे कम्पनियों के सामने कोई भी प्रोफेसनल कम्पनी काम करने लगती है, जनता उन सरकारी कम्पनिययों को छोड़ देती है. केवल बीएसएनएल ही नहीं कोई भी सरकारी कम्पनी देख लीजिये, वहां केवल भ्रष्टाचार ही दिखाई देगा. उसके अलावा ये लोग घटिया सर्विस और अपने ग्राहकों से खराब व्यवहार के लिए भी जाने जाते हैं.
आरक्षण, सिफारिस और रिश्वत के द्वारा भर्ती हुए अयोग्य कर्मचारियों से आप ज्यादा अच्छे परिणाम की उम्मीद भी नहीं कर सकते. जबकि प्रोफेशनल कम्पनिया केवल योग्य व्यक्तियों को ही अपने कर्मचारी के रूप में चुनती है. BSNL ही क्या जनता तो दूरदर्शन, पोस्ट आफिस, सरकारी स्कूल, सरकारी हस्पताल, सरकारी बस, आदि सब छोड़ चुकी है.
जिनकी उम्र 40 से ऊपर है और जिन्होंने बीएसएनएल का लैण्डलाइन फोन इस्तेमाल किया है उनको पता होगा कि - कनेक्शन लेने से लेकर बिल जमा करने तक, इन निकम्मे और भ्रष्ट कर्मचारियों द्वारा ग्राहकों को कितना परेशान किया जाता था. आज जब ग्राहकों के पास अच्छे विकल्प मौजूद हैं तो वो इन निकम्मों से सर्विस क्यों लेंगे भला ?
जिन लोगों को BSNL के कर्मचारियों पर दया आ रही है वे लोग jio को छोड़ दें और BSNL का फोन इस्तेमाल करें. और भी अच्छा होगा अगर वो प्राइवेट टीवी चैनल छोड़कर दूरदर्शन देखे, प्राइवेट हस्पताल में इलाज कराने के बजाये सरकारी हस्पताल में इलाज कराये, बच्चों को सरकारे स्कूल में भेजें और कोरियर के बजाये डाकखाना इस्तेमाल करें.

Friday, 15 March 2019

देशद्रोहियों को ब्लोक करने से ज्यादा जरुरी है उनकी मानशिकता को बे-नकाब करना

अक्सर कई सज्जन मित्र मुझसे यह शिकायत करते हैं कि - मेरी मित्र सूची में कुछ गलत मानशिकता वाले लोग जुड़े हुए हैं. ये लोग हिन्दुओं, हिन्दुओ के आराध्यों, भारत माता और देशभक्तों के प्रति अभद्र टिप्पणियाँ करते हैं. उनकी सलाह है कि - ऐसे अभद्र और अधर्मियों को मैं ब्लोक कर दूँ अथवा अपनी फ्रैंडलिस्ट से निकाल दूँ
मेरा उन सज्जन मित्रों से कहना है कि - ऐसे लोगों से बचना समस्या का हल नहीं है बल्कि इनको मुहतोड़ जबाब देकर हतोत्साहित करने की जरुरत है और इससे भी ज्यादा जरुरी है, अपने लोगों को, इन देशद्रोहियों और अधर्मियों की गंदी सोंच से परिचित कराना. हमारे बहुत से अच्छे लोग सेकुलरता के भ्रम में पड़ कर मूर्ख बनते रहे है.
अधर्मी लोग जब हमको नीचा दिखाने के लिए हमारे आराध्यों, महापुरुषों, भारत माता आदि को गालियाँ देते हैं, तो वो केवल हमको ही गाली नहीं दे रहे होते हैं बल्कि उन सेकुलरों को भी दे रहे होते हैं जो सद्भावना दिखाने के चक्कर में मूर्ख बनते रहे हैं. अब ज्यादातर सेकुलर हिन्दुओं को भी देशद्रोहियों की हकीकत समझ आने लगी है.
पहले जब देशभक्त लोग पापिस्तान, बंग्लादेश और भारत के कश्मीर, केरल, असम, पश्चिमी बंगाल, आदि के हालात के बारे में लोगों को बताते थे, तो कई सेकुलर हिन्दू , इसको संघियों का झूठा प्रचार कहकर नकार देते है. लेकिन अब जब सोशल मीडिया पर खुद इनको देखने को मिलता है तो इनको भी हकीकत समझ आती है.
भारत बिरोधी और हिन्दू बिरोधी, अभद्र लोगों से बहस करने का मेरा उद्देश्य उनको समझाना है ही नही, बल्कि उनसे बहस करने का मेरा एकमात्र उद्देश्य यह है कि - उनके दिलो दिमाग में , हिन्दुओं, हिन्दुओं के आराध्यों और हिन्दुस्तान के प्रति, जितना जहर भरा हुआ है वो सबके सामने लाया जाए और इन लोगों को बे-नकाब किया जाए.
जिस तरह कैंसर से पीड़ित व्यक्ति को ठीक करना आसान नहीं है , लेकिन कैसर से पीड़ित व्यक्ति की हालत दिखा कर अन्य लोगों को सिगरेट / तम्बाकू आदि से दूर रहने के लिए प्रेरित किया जा सकता है, उसी तरह से इन अधर्मियों और देशद्रोहियों की मानशिकता सबके सामने प्रकट करके, सेकुलर देशभक्तों को भी सावधान किया जा सकता है.

क्या किसी भारतीय को "हिटलर" ने नफरत करनी चाहिए ?

 हिटलर हमारे सबसे बड़े दुश्मन अंग्रेजों का दुश्मन था और दुश्मन का दुश्मन हमेशा ही मित्र होता है. हिटलर को आप कितना भी बुरा कह लें, लेकिन वो भारत का दुश्मन हरगिज नहीं था. हिटलर का समर्थन और सहयोग तो तो हमारे "नेताजी सुभाष चन्द्र बोस" भी करते थे क्योंकि हिटलर हिन्दुस्तान के सबसे बड़े दुश्मन अंग्रेजों का दुश्मन था.
हिटलर का बिरोध केवल अंग्रेजों के वो भारतीय गुलाम करते थे, जो अंग्रेजों को दिल से अपना मालिक स्वीकार कर चुके थे. अंग्रेजों के वो मानसिक गुलाम हिटलर तो क्या भारतीय क्रांतिकारियों तक को पसंद नही करते थे. हिटलर ने क्या कभी भारत को कोई नुकशान पहुंचाया ? भारतीयों द्वरा हिटलर के बिरोध का तो कोई कारण ही नहीं बनता है.
हिटलर केवल उन यहूदियों से नफरत करता था जो जर्मनी में रहकर बफादारी इंग्लैण्ड के प्रति दिखाते थे. विश्व युद्ध में हिटलर का साथ बौद्धों का सबसे ताकतवर देश वो "जापान" भी दे रहा था जो दुनिया के सारे बौद्धों का आदर्श है, यहाँ तक कि - हिटलर का साथ तो वो "इटली" भी दे रहा था जहाँ की बेटी, आज भारत के कांग्रेसियों की राजमाता है.
अगर कोई किसी भारतीय व्यक्ति या भारतीय संगठन को हिटलर समर्थक बताता हैं तो वह उसकी बुराई नहीं बल्कि तारीफ़ करता है. अंग्रेजों का हर शत्रु भारत का मित्र माना जाना चाहिए. हो सकता मेरे द्वारा हिटलर की तारीफ़ करने पर आप मुझे बुरा कहे, लेकिन "नेताजी सुभाष चन्द्र बोस" द्वारा हिटलर का साथ देने पर आप क्या कहेंगे?
हमारा देश गाँधीजी के कहने पर अंग्रेजो की ओर से लड़ने वाले, वेतनभोगी भारतीय सैनको को सम्मान नहीं देता है बल्कि आजाद हिद फ़ौज के लिए लड़ने वाले स्वयंसेवी सैनिको को सम्मान देता है. उल्लेखनीय है कि - विश्वयुद्ध में "नेताजी सुभाष चन्द्र बोस" और उनकी "आजाद हिन्द फ़ौज" ने हिटलर का साथ दिया था और महात्मा गांधी ने अंग्रेजो का
आज हमारा देश आजाद है तो इसमें बहुत बड़ा हाथ "हिटलर" का भी है. हिटलर विश्वयुद्ध भले ही हार गया था मगर उसने अंग्रेजों की कमर तोड़कर रख दी थी. गांधी का आन्दोलन तो 1942 में ही असफल साबित हो गया था. विश्वयुद्ध में इंग्लैण्ड की बर्बादी और आजाद हिन्द फ़ौज की बहादुरी ने अंग्रेजों को भागने पर मजबूर किया था.

Wednesday, 13 March 2019

नरेंद्र मोदी का विवाह : विवाह अथवा वालविवाह कुप्रथा का अभिशाप ?

भारतीय जीवन पद्धति में मनुष्य के सौ साल के जीवन को 25 / 25 बर्ष के 4 भागों में बांटा गया है. ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास. ब्रह्मंचर्य का समय ज्ञान, युद्धकला, व्यवसाय, हुनर, इत्यादि सीखने का समय होता है. इस प्रकार बालक 25 बर्ष का युवा होने तक अपनी क्षमता और दक्षता बढाता है जो आगे चलकर उसके काम आनी है.
लगभग 25 बर्ष की आयु के समय उसका विवाह कर दिया जाता है तथा वह ब्रह्मचर्य आश्रम में अपने सीखे अपने ज्ञान के हिसाब से कार्य करते हुए अपने परिवार का पालन करने लगता है. जब वह लगभग 50 का हो जाता है तो उसके बच्चे भी युवा होने लगते हैं, तब वह अपने काम धंधे का भार धीरे धीरे अपनी संतानों पर डालने लगता है.
व्यक्ति अपनी संतानों का मार्गदर्शन करते हुए खुद अपनी जिम्मेदारियां धीरे धीरे कम करता जाता है. यह वानप्रस्थ कहलाता है. 75 साल की आयु तक पहुँचने के बाद वह सांसारिक जीवन को त्याग कर आध्यात्मिक जीवन जीने लगता है. और एक दिन संसार को त्यागकर ईश्वर में विलीन हो जाता है. इसे संन्यास कहते हैं.
भारत में हजारों साल से यह पद्धति चली आ रही थी. विदेशी आक्रमणकारियों के भारत में आकर बसने के बाद उनकी देखा देखी इस भारतीय आश्रम पद्धति का भी ह्रास हो गया. यहाँ भी वाल विवाह होने लगे, वाल विवाह में सबसे बड़ी समस्या यह आई कि - युवा होने पर कई बार बच्चों ने अपने विवाह को अस्वीकार कर दिया.
कभी बच्चों को बड़े होने पर अपने साथी की लम्बाई पसंद नहीं आई तो कभी उसके बिचार, कभी किसी की सोंच भगवान् की भक्ति में लग गई तो कभी कोई ग्रस्त जीवन को त्यागकर समाज कल्याण के कार्यों में लग गया. इन सब के कारण दुसरे साथी को काफी तकलीफ भी हुई. इन बातों ने वाल विवाह को अप्रसांगिक साबित कर दिया.
ऐसा ही एक विवाह अपने प्रधानमन्त्री "नरेंद्र मोदी" का था. नरेंद्र मोदी बचपन से संघ की शाखा में जाया करते थे और उनके मन में संघ का प्रचारक बनकर राष्ट्र की सेवा करने की भावना थी. संघ के प्रचारक विवाह नहीं करते हैं केवल समाज कल्याण में लगे रहते हैं. इनका जीवन प्राचीन काल के संतों के समान होता है
इसी बीच एक दिन नरेंद्र की माँ ने एक साधू को नरेंद्र की कुंडली दिखाई और उसके भविष्य के बारे में पूंछा तब साधू ने कहा कि - इसका जीवन उथल-पुथल भरा रहेगा. यह या तो एक दिन राजा बनेगा या फिर शंकराचार्य की तरह एक महान संत की सिद्धि हासिल करेगा. इन बातों से उनके माता पिता घबरा गए.
इसी बीच नरेंद्र की पूजा-पाठ में भी बहुत रुचि हो गई. वे अधिकतर समय पूजा-पाठ में ही व्यतीत करने लगे. तो परिजन को चिंता होने लगी कि कहीं उनका बेटा सचमुच में ही साधू न बन जाए. इसी के चलते परिवार ने मोदी की शादी करवा देने का फैसला लिया. उन्हें लगा कि शादी हो जाने के बाद वह परिवार एवं ग्रहस्थी में व्यस्त हो जाएगा.
माता पिता अपनी जानकारी के एक परिवार की 13 बर्षीय बालिका जसोदा बेन से कर दिया. उस समय नरेंद्र की आयु 14 बर्ष थी. उस समय विवाह हो गया परन्तु गौना नहीं हुआ. यह तय हुआ कि - नरेंद्र के मैट्रिक करने के बाद गौना लिया जाएगा. माता पिता द्वारा जबरन विवाह किये जाने पर बच्चे बड़ों का बिरोध नहीं कर पाते थे.
मोदी पर किताब लिखने वाली लेखिका - "कालिंदी रांदेरी" ने अपनी किताब में ऐसी कई बातों से पर्दा उठाया है. किताब के अनुसार मैट्रिक पास करने के बाद नरेंद्र की माँ ने कहा कि - अब बहू को घर ले आना चाहिए, परन्तु नरेंद्र ने कहा कि - मैं हिमालय पर जाकर तपस्या करना चाहता हूँ. और वे 16 बर्ष की आयु में हिमालय की तरफ चले गए.
वे काफी दिन बद्रीनाथ / केदारनाथ क्षेत्र में रहे. लेकिन उनकी छोटी सी उम्र को देखते हुए एक साधू ने उन्हें समझाया कि- ईश्वर की तलाश समाज की सेवा करके भी की जा सकती है. इसके लिए साधू बने रहने की कोई जरूरत नहीं. इसके बाद मोदी हिमालय से वडनगर वापस आ गए. लेकिन उनका अधिकाँश समय मंदिर अथवा संघ कार्यालय में बीतता था.
अपने बेटे का घर बसाने की कोशिश में उनकी माँ अपनी बहू जसोदाबेन को अपने घर लिवा लाइ कि - शायद पत्नी को देखकर बेटे का मन ग्रास्थी में लग जाए. लेकिन नरेंद्र ने साफ़ कह दिया कि - अब यदि उस पर ज्यादा दबाब डाला तो वह फिर हिमालय चला जाएगा. अब परिवार भी तरह समझ चुका था कि मोदी को सांसारिक जीवन में रुचि नहीं है.
नरेंद्र की माँ ने जशोदाबेन के परिजन को भी सूचना दे दी थी कि- वे नरेंद्र को वैवाहिक बंधन से मुक्ति दे दें. इसके लिए पूरे परिवार ने जशोदाबेन के परिवार से माफी मांगी. नरेंद्र के परिजन को इस फैसले का दुख था, पिता को अंतिम समय तक यह दुःख रहा कि उनकी गलती की बजह से एक मित्र और रिश्तेदार की बच्ची का जीवन बर्बाद हो गया.
लेखिका कालिंदी रांदेरी के शब्दों में- मैं जब मोदी की मां हीराबा से मिली तो उनकी आंखों में आंसू ही थे. उनका कहना था कि - नरेंद्र की मर्जी के खिलाफ उनकी शादी कराना, उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी. हीराबा ने बताया कि- नरेंद्र के पिता को तो अंतिम समय तक इस बात का रंज रहा कि उन्होंने जबर्दस्ती मोदी पर शादी थोप दी थी.
अब आप खुद फैसला कीजिए कि - क्या नरेंद्र मोदी को वास्तव में विवाहित कहा जा सकता है ? इस विवाह और विवाह बिच्छेद के लिए नरेंद्र मोदी जिम्मेदार है या मध्ययुग में शुरू हुई "वाल विवाह" जैसी कुप्रथा. वाल विवाह के कारण ऐसी बहुत सारी विसंगतियां उत्पन्न हुई. इन्ही कारणों से वाल विवाह को अभिशाप मानते हुए, इस पर प्रतिबन्ध लगाया गया.

Sunday, 10 March 2019

मेजर शैतान सिंह भाटी

1962 का भारत / चीन युद्ध यूँ तो भारत की हार के लिए जाना जाता है, लेकिन यह भी सत्य है कि- हम हर मोर्चे पर नहीं हारे थे. कई मोर्चों पर भारतीय सेना ने भी चीन को धूल चटाई थी और उसे पीछे हटने को मजबूर किया था.
ऐसा ही एक मोर्चा था रेजांग-ला, जिसमे मेजर शैतान सिंह भाटी के नेतृत्व में 13वीं कुमाऊं बटालियन की "चार्ली" कंपनी के 120 जवानो ने, चीन की 5,000 सैनको वाली विशाल ब्रिगेड को कड़ी टक्कर दी और 1,300 चीनी सैनकों को मार गिराया था.
13वीं कुमाऊं बटालियन की चार्ली कंपनी, लद्दाख के "चुशुल" में मौजूद एयरफील्ड की रक्षा कर रही थी. 18 नवंबर 1962 की सुबह चीन के लगभग 5000 सैनिकों ने इस जगह पर हमला कर दिया. वहां उस समय भारत के मात्र 120 सैनिक ही मौजूद थे.
मेजर शैतान सिंह ने इसकी सूचना रेडियो द्वारा हेडक्वार्टर को भेजी. चीन की बड़ी ब्रिगेड और उनके आधुनिक हथियारों के सामने भारतीय सैनिको की कम संख्या तथा साधारण और कम हथियारों को देखते हुए हेडक्वार्टर ने उनको पीछे हटने का निर्देश दिया.
लेकिन मेजर शैतान सिंह ने कहा "चुशुल" को गंवा देने का मतलब है, लद्दाख को गँवा देना. उन्होंने कहा - जब तक मैं या मेरा एक भी सैनिक ज़िंदा है कोई चीनी यहाँ कब्जा नहीं कर सकता. मेजर शैतान सिंह और उनके 120 सैनिक मोर्चा लगाकर तैयार हो गए.
भारत के वीर सैनिको ने चीनियों को मारना शुरू किया, तो चीनियों को एक बार यह भ्रम हो गया कि- वहां बहुत बड़ी ब्रिगेड मौजूद है. भारतीय सैनिको के पास गोला बारूद की बहुत कमी थी लेकिन उन्होंने सटीक निशाने लगाकर हजार से ज्यादा चीनियों को मारा.
भारतीय गुप्तचर एजेंसी रॉ (रिसर्च एंड एनेलिसेस विंग) के पूर्व अधिकारी आर. के. यादव ने अपनी किताब "मिशन आर एंड डब्लू" में रेज़ांगला की लड़ाई का वर्णन करते हुए लिखा है कि -यह लड़ाई दुनिया के इतिहास की अद्भुद लड़ाई थी.
असलहा ख़त्म हो जाने के बाद मेजर शैतान सिंह की देख-रेख में कई भारतीय जवानों ने तो अपने हाथों से ही चीनी सैनिकों को मार गिराया था. इस ब्रिगेड में ज्यादातर सैनिक रेवाड़ी जिले के अहीर जाति के पहलवान टाइप लोग थे .
मल्ल-युद्ध में माहिर और बेहतरीन कुश्तीबाज सिंहराम यादव ने, घात लगाकर चीनी सैनिको को बालों से पकड़ा और पहाड़ी से टकरा-टकराकर मौत के घाट उतार दिया. इस तरह से उसने अकेले ही दस चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था.
भारत के इन 120 योद्धाओं में से 114 जवान शहीद हो गए, पांच जवानों को चीन ने युद्ध कैदी के तौर पर गिरफ्तार कर लिया. हालांकि ये जवान बाद में बच निकलने में कामयाब रहे. एक सैनिक "राम चंद्र यादव" को "मेजर शैतान सिंह" ने बेस कैम्प को सारी खबर देने भेजा था .
मेजर शैतान सिंह जब अपने सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिए एक पलटन से दूसरी पलटन की तरफ घूम रहे थे, तभी एक चीनी एमएमजी की गोली से वह घायल हो गए. लेकिन घायल होने के बावजूद उन्होंने लड़ना जारी रखा,
1963 में जब मेजर शैतान सिंह का शव मिला था तो वह पूरी तरह जमा हुआ था और मेजर शैतान सिंह मौत के बाद भी. अपने हथियार को मजबूती से थामे हुए थे. उन महान वीरों और राष्ट्र रक्षकों की याद में "चुशूल" में एक स्मारक भी बनाया गया है.
रेजांगला की यह लड़ाई विश्व की दुर्लभ लड़ाइयों में से एक मानी जाती है. युद्ध में असाधारण बहादुरी दिखाने के लिए सभी 120 सैनिको को विशेष सम्मान तथा उनका नेतृत्व करने वाले मेजर शैतान सिंह को परम वीर चक्र देकर सम्मानित किया गया.
लता मंगेशकर द्वारा गाए सदाबहार और अमर गीत 'ए मेरे वतन के लोगों' को लिखने वाले कवि "प्रदीप" की प्रेरणा भी मेजर शैतान सिंह और उनके बहादुर साथी ही थे. मेंजर शैतान सिंह के साथ साथ उन सभी 120 वीर सैनिको को सादर नमन

धर्म और राष्ट्र के सम्मान को लेकर "असहिष्णु" है तो "असहिष्णुता" अच्छी है

सर्फ एक्सल के विवादस्पद विज्ञापन को लेकर जिस तरह से अभियान चला उसके लिए सभी हिन्दुओं को हार्दिक साधुवाद. हिन्दुओं की जागरूकता का ही नतीजा है कि - "HUL" अपने "सर्फ़ एक्सल" के विवादास्पद विज्ञापन को वापस लेने पर मजबूर हुई है.
लेकिन हमें फिर भी अभी कुछ दिन तक "हिन्दुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड" के हर प्रोडक्ट्स का बहिष्कार जारी रखना चाहिए, जिससे आने वाले समय में केवल HUL ही नहीं बल्कि कोई भी कम्पनी हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करने वाला विज्ञापन न बनाए.
फिल्म निर्माता हों या विज्ञापन निर्माता जानबूझकर , आजतक हिन्दुओं की भावनाओं का मजाक उड़ातेे रहे हैं, साथ ही अन्य धर्म के लोगों को बहुत ही सज्जन दिखाते रहे हैं. हिन्दुओं के इस पर कभी प्रतिक्रिया नहीं दी इससे उनका हौशला और भी बढ़ता गया.
यह तथाकथित बुद्धिजीवी लोग इतनी सफाई से और इतने मनोरंजक तरीके से यह सब करते थे कि - हमें खुद ही पता नहीं चलता था. फिल्म "शोले" में मंदिर के भीतर भगवान् की मूर्ति की आड़ में हीरो द्वारा लड़की छेड़ना हमें अच्छा लगता था.
इसी "शोले" में धर्मनिष्ठ इमाम साहब, अजान होने के बाद, बेटे की लाश को मैदान में छोड़कर, मस्जिद में नमाज पढने चले जाते हैं. इसी प्रकार फिल्म "दीवार" का नायक नास्तिक है और प्रसाद तक नहीं खाता है लेकिन 786 का बिल्ला साथ लिए घूमता है.
आपमें से ज्यादातर ने "मैं हूँ न" फिल्म देखी होगी. फिल्म निर्माता निर्देशक ने बेहतरीन कलाकार, बेहतरीन स्क्रीनप्ले, बेहतरीन गीत-संगीत, आदि के साथ इसमें पापिस्तान को अच्छा देश तथा भारत के राष्ट्रवादियों को विलेन साबित कर दिया था.
ज्यादातर फिल्मो में "हिन्दू पंडित" को धूर्त दिखाया जाता है तो "हिन्दू ठाकुर" को बलात्कारी. इसके अलावा "हिन्दू वैश्य" को सूदखोरी के द्वारा शोषण करता हुआ दिखाया जाता है. जबकि पादरी, मौलवी, आदि भगवान् के फरिस्ते जैसे दिखाए जाते है.
क्या आपने कभी किसी फिल्म अथवा विज्ञापन में ऐसा देखा है कि - मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध, आदि में से किसी की आस्था वाली बात को गन्दा कहा गया हो ? ऐसा कभी नहीं होगा और होगा तो वे लोग उस निर्माता का बुरा हाल कर देंगे.
इसके बाबजूद ये लोग सहिष्णु कहलाते है और अपने धर्म का मजाक भी सह जाने वाले हिन्दुओं को असहिष्णु कहा जा रहा है. मैं तो कहता हूँ कि अपने धार्मिक और राष्ट्रीय सम्मान के प्रतीकों के सम्मान के लिए हमें असह्ष्णु होना ही चाहिए.

धर्मवीर छत्रपति संभाजी राजे

छत्रपति संभाजी राजे, छत्रपति शिवाजी महाराज के पुत्र थे. बीजापुर और गोलकुण्डा से मुगल बादशाह औरंगजेब का शासन समाप्त करने और वहां हिन्दू राज्य स्थापित करने में प्रमुख भूमिका रही थी. उनके पराक्रम से परेशान हो कर औरंगजेब ने कसम खायी थी कि- जब तक संभाजी पकडे नहीं जायेंगे, वो अपना किमोन सर पर नहीं चढ़ाएगा.
वे एक महान योद्धा होने के साथ साथ बहुत ही कुशाग्रबुद्धि के थे. केवल 14 साल की आयु में उन्होंने बुधाभुषणम, नखशिख, नायिकाभेद तथा सातशातक यह तीन संस्कृत ग्रंथ लिखे थे. छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु (3 अप्रैल, 1680) के बाद, 10 जनवरी 1681 को संभाजी महाराज का विधिवत्‌ राज्याभिषेक हुआ था.
औरंगजेब के एक पुत्र "अकबर" ने जब वगावत की, तो उसको भी संभाजी महाराज ने ही शरण दी थी. संभाजी महाराज ने मुघलो के अलावा पुर्तगीज और अंग्रेजों से भी युद्ध लडे. शिवाजी महाराज की म्रत्यु के बाद उनके कुछ सामंत समभा जी के बजाये उनके छोटे भाई राजाराम को महाराज बनाना चाहते थे, जिसमे वे नाकाम रहे थे.
एक बार वे 200 सिपाहियों के साथ एक गुप्त रास्ते से जा रहे थे जिसका पता केवल मराठों को था. एक गद्दार सामंत गनोजी शिर्के ने मुघलो को उसकी सुचना दे दी. मुग़ल सरदार इन्सिलब खान ने 5000 के फ़ौज के साथ वहां पहुंचकर उनको घेर लिया. वे लोग बड़ी बहादुरी से लडे लेकिन संभाजी और उनके एक मित्र को गिरफ्तार कर लिया गया.
औरंगजेब ने उनको मुसलमान बनने पर, दक्कन की सारी सल्तनत सम्हालने का लालच भी दिया. लेकिन धर्मवीर संभाजी ने धर्म छोड़कर अधर्म के रास्ते पर जाने से इनकार कर दिया. इस पर पहले जुबान उनकी कटवा दी, फिर आँखे निकलवाई, किन्तु शेर छत्रपति शिवाजी महाराज के इस सुपुत्र ने अंत तक धर्म का साथ नहीं छोड़ा.
धर्मवीर संभाजी द्वारा अपना धर्म न छोड़ने पर, औरंगजेब ने उन दोनों को हिन्दू नववर्ष के दिन (11 मार्च, 1689) टुकड़े टुकड़े करके शहीद कर दिया गया. हत्या पूर्व औरंगजेब ने छत्रपति संभाजी महाराज से कहा के मेरे 4 पुत्रों में से एक भी तुम्हारे जैसा होता तो सारा हिन्दुस्थान कब का मुग़ल सल्तनत में समाया होता.
जब छत्रपति संभाजी राजे के पार्थिव शरीर के तुकडे तुलापुर की नदी में फेंकें गए तो उसके किनारे रहने वाले लोगों ने उन्हें निकालकर इकठ्ठा करके उन्हें सिलकर उनका विधिपूर्वक अंतिम संस्कार किया. आज जो हिन्दू खुद को सेकुलर दिखाने के लिए धर्म-बिरुद्ध कार्य कर रहे हैं उनको पता होना चाहिए कि - धर्म को बचाने के लिए पूर्वजों ने कितने कष्ट सहे हैं.
औरंगजेब ने संभाजी को दर्दनाक मौत देकर सोंचा था कि - इससे मराठे डर जायेंगे , मगर हुआ इसका उलट. जिन मराठा सरदारों की आपस में भी नहीं बनती थी वो लोग भी संभा जी की ह्त्या के बाद एक हो गए और उन्होंने लगभग सारा दक्कन मुघलों से आजाद करा लिया था. इसी गम में औरंगजेब की म्रत्यु भी वही दक्कन (अहेमदनगर) में हो गई थी.
बैसे औरंगजेब की म्रत्यु के बारे में यह कहा जाता है कि- बुन्देलखंड के राजा "छत्रसाल" ने अपने गुरु प्राणनाथ द्वारा दिए हुए, विशेष दवा लगे खंजर से औरंगजेब को घाव दिया था, दवा के कारण वो जख्म नासूर बन गया था. औरंगजेब की म्रत्यु उसके कारण तड़प तड़प कर हुई थी. औरंगजेब ने औरंगशाही में लिखा है कि उसे छत्रसाल से छल से मारा.

Saturday, 9 March 2019

खेती को उद्ध्योग बनाय बिना, न खेती का विकास संभव है और न ही किसान का

चाहे कितनी भी सब्सिडी दो, चाहे कितनी भी कर्ज माफी करो, चाहे कितना भी मुआवजा देदो, लेकिन जब तक कृषि को उद्योग की तरह नहीं चलाओगे न किसान का भला होगा और न ही देश का. बस इन किसानो के नाम पर राजनीति होती रहेगी. न उत्पादन बढेगा और न ही किसान की गरीबी दूर होगी, बस किसान के नाम पर वोट मांगे जाते रहेंगे.
हमारे देश में तीन तरह के किसान है. एक बहुत बड़े बड़े जमींदार जिनके पास सैकड़ो एकड़ जमीन है, दुसरे वो किसान हैं जिनके पास पर्याप्त जमीन भी है और उसके अलावा सरकारी / गैर सरकारी नौकरी भी करते ह. तीसरे वो किसान हैं जिनके पास 2 से 20 वीघे जमीन है और पुरी तरह से कृषि पर ही निर्भर हैं , ऐसे लोग ज्यादा पढ़े लिखे भी नहीं है.
सबसे ज्यादा मुश्किल में यही छोटे और अशिक्षित किसान हैं. इन्हीं की मजबूरी को हाईलाईट कर बड़े और मध्यम किसान अपना फायेदा उठाते रहते हैं और ये छोटे किसान उसी हाल में पड़े रहते हैं. इन्ही की गरीबी को दिखाकर बड़े और माध्यम किसान अपने लोन माफ़ कराते हैं तथा सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडियों को इन तक पहंचने नहीं देते हैं.
इन सब्सिडियों और कर्जमाफी, इन गरीब किसानो का कोई भला नहीं होने वाला है. इनकी भलाई के लिए खुद सरकार को या बड़े व्यापारियों को आगे आना होगा. छोटे छोटे सैकड़ों किसान की जमीन को एक बड़े खेत के रूप में बनाकर उस फ़ार्म को एक पब्लिक लिमिटेड कम्पनी का रूप दे देना चाहिये, जिसमे भूमि के हिसाब से उनको शेयर होल्डर माना जाय.
फिर उस फ़ार्म में निवेश करने वाले आमजन, व्यापारी, सरकार को भी शेयर बेचा जाना चाहिए जिससे प्रचालन की रकम इकट्ठी हो. फिर उस फ़ार्म में किसी फैक्ट्री की तरह मैनेजर, सुपरबाईजर, एकाउंटेंट, वर्कर रखे जाने चाहिए. विशेषज्ञों की देखरेख में खेती हो. लीज की अवधि ख़त्म होने पर भूमि पर मालिकाना हक़ उस मूल किसान का ही रहे.
उस फ़ार्म में, उन किसानो को काम पर रखने में प्राथमिकता दी जाए जिन्होंने भूमि दी हैं. उनसे उनकी योग्यता के हिसाब से काम लिया जाए और उनको काम करने के बदले तनखा दी जाए. खेती के साथ साथ उस फ़ार्म में, पशुपालन, मछली पालन, आदि भी किया जाए और बायो गैस प्लांट भी लगाए जाएँ. इससे अच्छी खाद और सस्ती ऊर्जा भी मिलेगी.
अनाज के भंडारण और संरक्षण की भरपूर व्यवस्था हो, जिससे फसल तैयार होते ही, फौरन में सस्ते में बेचने की मजबूरी न हो. विशेषग्य लोग बाजार पर नजर रखकर फसल का चुनाव करें कि- बाजार में किस अनाज की कमी है और किस अनाज की अति उपलब्धता. तो उत्पादन भी बढेगा, महंगाई भी नियंत्रण में रहेगी और किसान का भी भला होगा.
इसी प्रकार किसान को मुफ्त बिजली कहकर थोड़ी देर बिजली देने के बजाय पूरी कीमत लेकर पूरी बिजली दी जाए. अभी मुफ्त के नाम पर थोड़ी सी बिजली मिलती है और बाक़ी का काम उनको महंगा डीजल खरीदकर करना पड़ता है. कीमत देकर खरीदी गई बिजली हर हाल में डीजल पर होने वाले खर्च से सस्ती पड़ेगी.

Sunday, 3 March 2019

गोकुला जाट और राजाराम जाट

औरंगजेब के जुल्म चरम पर थे, व्रज क्षेत्र में मंदिरों को तोड़ा जा रहा था, हिन्दुओं को धर्म छोड़ने पर मजबूर किया जा रहा था, हिन्दू पुरुषों को मारकर उनकी स्त्रीयों को जबरन उठाया जा रहा था. तब उस हैवान औरंगजेब को टक्कर देने के लिए एक जाट किसान "गोकुल सिंह" ने आगे बढ़कर औरंगजेब का मुकाबला करने का साहस किया.
गोकुल सिंह जाट (गोकुला जाट) ने जाटों, अहीरों और गूजरों को इकट्ठा कर औरंगजेब की सेना के खिलाफ लड़ने को तैयार किया. 1669 ई. मे गोकुला के नेतृत्व में जाटों ने औरंगजेब के खिलाफ विद्रोह कर दिया. मथुरा के फौजदार अब्दुन्नवी ने उन पर हमला किया, लेकिन लड़ाई मारा गया.
इस सफलता से प्रोत्साहित होकर गोकुला जाट ने मथुरा से 24 मील दूर स्थित दोआब के परगना तथा शहर सादाबाद को ध्वँस कर दिया. गोकुला ने कुछ समय के लिए ब्रज को औरंगजेब के आतंक से मुक्त करा लिया था. मुघलों के लिए ये क्षेत्र अब सुरक्षित नहीं रह गया था. इस विद्रोह को कुचलने के लिए औरंगजेब विशाल शाही सेना भेजी.
प्रशिक्षित विशाल शाही सेना के सामने , ये जोशीले किसान भला कब तक मुकाबला कर सकते थे लेकिन फिर भी अपनी अंतिम सांस तक मुकाबला किया. जब लगा कि मुकाबला हार जायेंगे तो उनकी स्त्र्यों ने कहा कि तुमको हमारी चिंता रहती है इस लिए हमारा सर काटकर लड़ने जाओ और फिर या तो खुद मिट जाना या दुश्मनों को मिटा देना.
गोकुला जाट के नेत्रत्व में 20,000 जाट, शाही सेना से मुकाबला करने निकल पड़े. चार दिन चले इस युद्ध में जाटों ने मुघलों को भारी नुकशान पहुंचाया, लेकिन प्रशिक्षण, अनुशासन और युद्ध सामग्री की कमी के कारण जाटों को भी बहुत नुकशान हुआ. मुगल सेना ने 7000 जाटो को गोकुला व उसके चाचा उदयसिहँ सहित बँदी बना लिया.
इन वीरो को आगरा मे बादशाह के सामने पेश किया गया, जहाँ कोतवाली के चबूतरे पर गोकुला और उसके चाचा की टुकड़े टुकड़े करके, शहीद कर दिया गया. बाकी बँदियो का भी जँजीरो मे जकङकर अनेक यातनाएँ देकर म्रत्यु दी गई. युद्ध में मारे गए अनेकों जाटों कि विधवाओं ने अपनी इज्ज़त बचाने की खातिर जौहर कर अपनी जान दे दी.
औरंगजेब को जौहर का पता चला, तो उसने अपनी सेना को निर्देश देकर औरतों को जबरन उठवाना शुरू कर दिया. उसने सेना को सख्त हिदायत दी कि ये स्त्रीयों किसी भी तरीके से आत्म ह्त्या न कर सकें. इन स्त्रीयों को अधिकारियों और सैनकों को इनाम में दे दिया. कुछ इतिहासकार इस जुल्म को औरंगजेब द्रावारा "सति प्रथा का बिरोध" कह कर तारीफ़ करते हैं.
विद्रोह में अहीर और गूजर भी भारी संख्या में शामिल थे, लेकिन कहा उसे जाट विद्रोह ही जाता है. जाटों के इस विद्रोह के बाद देश की दबी कुचली जनता में अभुतपूर्व साहस का संचार हुआ और उसके बाद देश के अन्य इलाकों में भी विद्रोह शुरु हो गए. गोकुला जाट की शहादत के बाद जाटों का नेतृत्व "राजाराम जाट'' ने सम्हाला.
राजाराम ने मुग़लों के इलाकों में जमकर लूटपाट की एवं दिल्ली आगरा के बीच आवागमन के प्रमुख मार्गों को असुरक्षित बना दिया. जो भी मुग़ल सेनापति उसे दबाने व दण्डित करने के लिए भेजे गए वे सब पराजित होकर भाग गए. मंदिरों को तोड़ने , हिन्दू धर्म को भ्रष्ट करने करने का बदला लेने का उसने अजीब तरीका अपनाया.
उसने आगरा के पास अकबर और जहाँगीर के मकबरे पर हमला कर उसे ध्वस्त कर दिया. उसने कब्रों को खोदकर अकबर और जहाँगीर की अस्थियों को निकालकर उनका हिन्दुओं की तरह चिता में जलाकर हिन्दुओं के अपमान का बदला लिया. इस बात के लिए कुछ इतिहासकार राजाराम की निंदा भी करते हैं लेकिन ऐसा उसने केवल "जैसे को तैसा" की नीति के तहत किया था.

बौद्धिक हमले का जबाब, झगडे से नहीं बल्कि बुद्धिमानी से दीजिये

सभी राष्ट्रवादियों से निवेदन है कि - देशद्रोहियों का प्रतिकार अवश्य कीजिए लेकिन इसके लिए न तो कभी कानून को हाथ में ले और न ही कभी अपशब्द मुह से निकालें. क्योंकि ऐसा करने से सही होते हुए भी, आप कई बार गलत मान लिए जाते हैं. हमें इन राष्ट्रविरोधी तत्वों का सामना करना है लेकिन अपनी श्रेष्ठता को कायम रखते हुए.
हमें किसी से झगडा करके नहीं, बल्कि बौद्धिकता के सहारे दश और हिदुत्व के दुश्मनों द्वारा किये जा रहे कुप्रचार का सामना करना चाहिए. ये देशद्रोही अपने कुतर्कों से जो जहर फैलाने का प्रयास करते हैं और आम लोगों को भ्रमित कर देते हैं. हमें उनके कुतर्कों और झूठ का सामना भी तथ्य और तर्क के अमृत के साथ ही करन चाहिए.
लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि- हमें खुद भी सत्य की जानकारी हो. यह जानकारी हमें केवल अध्यन से ही मिल सकती है. हमें अधिक से अधिक राष्ट्रवादी साहित्य और राष्ट्रवादियों के ब्लॉग पढने चाहिए. जब हमारे पास स्पष्ट और सटीक जानकारी होगी तभी हम उन कुतर्कियों को निरुत्तर कर, सही बात लोगों को समझा पायेंगे.
अगर आपको पता चलता है कि - कहीं कोई देशद्रोही भारत बिरोधी कार्यक्रम का आयोजन कर रहा है तो वहां जाकर झगडा करने के बजाय, किसी तरह उसकी वीडियों बनाने का प्रयास कीजिए. उनसे ऐसे सवाल कीजिए जिससे उनके उस बौद्धिक जहर सच्चाई जनता के सामने आ सके. उनकी सच्चाई सामने आने के बाद जनता उनको खुद दौड़ायेगी.
अगर कोई भारत में बढ़ती असहिष्णुता का मुद्दा उठाये, तो आप उनको बताएं कि असहिष्णुता नहीं बढ़ी है बल्कि अब भारत ने दुष्टों का प्रतिकार करना शुरू कर दिया है. उनको बताएं कि - असहिष्णुता तो वो थी जब आप सलमान रश्दी की किताब, तश्लीमा नसरीन की किताब, कार्टून का बिरोध, तारिक फ़तेह, आदि का बिरोध कर रहे थे.
अगर कोई गुजरात 2002 की बात करे तो आप "गोधरा ट्रेन काण्ड", 1992 के दंगे, 1984 का कत्लेआम, मेरठ के दंगे, भागलपुर के दंगे, आजमगढ के दंगे, 1947 का बंटबारा, 1931 में भगतसिंह की फांसी के बिरोध में रखे गए बंद के खिलाफ हुए कानपुर दंगेे, खिलाफत के समय हुए मालाबार, मुल्तान और कोहाट के दंगे की याद दिलाइये.
कांग्रेसी अगर यह कहे कि - देश को गांधी, नेहरु ने आजाद कराया तो उनसे यह अवश्य पूँछिये कि - उन्होंने कैसे कराया था इस बारे में विस्तार से बताये ? अगर कोई सावरकर, गोडसे, सुभाष, आजाद, आदि के खिलाफ झूठ लिखे तो उनकी पोस्ट पर उसके जबाब में इन महापुरुषों का सच बताइये गांधी, नेहरु, आदि कांग्रेसियों की पोल खोलिए.
आपके रीति रिवाज का मजाक बनाने वाले से, औरतों के अधिकार, तीन तलाक, हलाला, वाल विवाह, बहु विवाह, अँधाधुंध बच्चे, जेहाद, आदि पर सवाल कीजिए. उनको बताइये कि - हम तो समय समय पर अपने रीति रिवाज का सिंहावलोकन करके उनमे समयानुकूल बदलाब करते रहते हैं लेकिन आप तो डेढ़ हजार साल पुरानी कुप्रथाओं को ढो रहे हैं.
अगर कोई भारत के टुकड़े करने की बात करे तो उसके सामने पापिस्तान के टुकड़े करने की बात कीजिए. जितने जोर से वो कश्मीर की बात करे उससे ज्यादा जोर से बलुचिस्तान, सिंध, POK, तिब्बत, ताइवान, को अलग करने पर चर्चा कीजिए. कश्मीर के इतिहास और आजादी के समय कश्मीर पर नेहरु की गलतियों पर खुली चर्चा कीजिए.
राष्ट्रवादी मुद्दों को लेकर छोटे बड़े कार्यक्रम कीजिए और उनकी खबर को अखबारों में लगबाइये. अखबार न छापे तो सोशल मीडिया पर डालिए. बंटबारा, आपातकाल, 1984 के कत्लेआम, मुलायम द्वारा कारसेवकों पर गोली, मायावती की मूर्तियाँ, केजरीवाल के झूठ, ममता के तुश्तीकरण जैसे मुद्दे को बार बार, पुरे तथ्यों के साथ जनता के सामने रखिये.
अगर कोई मुस्लिम हिन्दुओं में जातिबाद भड़काने की कोशिश करते हुए ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया, यादव, दलित, कुर्मी, आदि को गालियाँ दे तो आप इसके प्रत्युत्तर में शिया, सुन्नी, कुर्द, यजीदी, वहाबी, सैय्यद, अंसारी, इदरीसी, कुरैशी, मिराशी, आदि पर सवाल पूँछिये. देख लेना वो इसका जबाब देने के बजाय आपको ब्लोक करके भागेगा.

सलीम और अनारकली

आखिर सलीम और अनारकली के सम्बन्ध से अकबर इतना नाराज क्यों था ?
**************************************************************************
हम में से ज्यादातर ने फिल्म "मुग़ल ए आजम" देखी है. उसमे दिखाया गया है कि- अकबर के बेटे सलीम (जहांगीर) का अनारकली नाम की कनीज से इश्क हो जाता है. अकबर इस सम्बन्ध के खिलाफ था. उसको लेकर बाप बेटे में ठन जाती है. सलीम बागी हो जाता है और दोनों के बीच में सैन्य युद्ध की नौबत तक आ जाती है
अकबर अनारकली को पकड़कर दीबार में जिन्दा चुनवा देने का नाटक करता है लेकिन अनारकली की माँ को दिए बचन को निभाने की खातिर उसे चोर रास्ते से जिन्दा निकलवा देता है. आज की पीढ़ी इस फिल्म में दिखाई गई उसी कहानी को ही इतिहास मानती है जो 1962 में के. आसिफ की फ़िल्म ‘मुगल-ए-आजम’ में दिखाया गया था.
सलीम -अनारकली का जिक्र न अकबर के शासनकाल में "अबुल फजल" द्वारा लिखित "अकबरनामा" में है और न जहांगीर की "ताज़ाक़-ए-जहाँगीरी" में है, जो उसके 1605 से 1622 के शासनकाल का वर्णन करती है. अब सवाल उठता है कि - आखिर के. आसिफ की अनारकली कहाँ आयी कहाँ से और कैसे आई ?
इसको जानने और समझने के लिये हमें 1920 के "लौहार" चलना पड़ेगा जहां एक नाटककार "इम्तियाज़ अली ‘ताज" थे, जो उस वक्त गवर्मेंट कॉलेज लौहार में पढ़ते थे, उन्होंने अपने कॉलेज के पास बने एक पुराने मकबरे को देखा था जिसको अनारकली का मकबरा कहा जाता था. वहां उस कब्र पर यह पंक्तियाँ लिखी हुई थी.
ता कयामत शुक्र गोयं कर्द गर ख्वाइश रा
आह! गर मन बज बीनाम रुइ यार ख्वाइश रा :– मजनूं सलीम अकबर
इसका अर्थ है कि - "हे खुदा में तुझको कयामत तक याद करूँगा,
एक बार फिर मेरे हाथों में महबूबा का चेहरा आ जाये"
यह मजनूं सलीम अकबर, जहांगीर ही था जिसने 1615 में इस कब्र पर मकबरा बनवाया था. इतिहास में यह कहीं दर्ज नही है कि- इस कब्र में कौन है लेकिन लाहौर की जनता पीढ़ी दर पीढ़ी यही मानती आ रही है कि यह अनारकली की ही कब्र है. लाहौर के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी सलीम - अनारकली की प्रेम कहानी के किस्से सुनते सुनाते आ रहे हैं.
इम्तिहाज़ अली ‘ताज’ ने इस मकबरे और उस पर जहांगीर की लिखी इश्क में डूबी दो लाइन तथा लाहौर में बुजुर्गों से सुने मुगलिये किस्सों को पिरो कर आशिकी का, एक नाटक लिखा और दुनिया को सलीम अनारकली की दास्तान ए मुहब्बत पेश कर दी. ताज ने नाटक के शुरू में ही लिखा था कि-यह काल्पनिक कहानी है.
लेकिन एक मुगलिये शहजादे और महल की नाचनेवाली के इश्क का किस्सा कुछ इस तरह लोगों को पसंद आया कि- नाटकों, नौटंकियों और फिल्मों के सहारे नया इतिहास बन कर लोगो तक पहुंच गया. इम्तिहाज़ अली ‘ताज’ की इसी कहानी को, "के. आसिफ" ने एक राजनैतिक प्रपोगंडे को स्थापित करने के लिये इस्तेमाल किया.
भारत को 1947 में मुसलमानों ने धर्म के आधार पर तोड़ा था, इसलिये बहुसंख्यक हिन्दुओ के बीच मुस्लिम इतिहास और मुसलमानों की छवि अच्छी बनाने के लिये अकबर को धर्मनिर्पेक्षिता का आदिपुरुष बना कर प्रस्तुत किया गया. इस फिल्म में अकबर की केवल एक पत्नी दिखाई गई जो हिन्दू थी और पूरी आजादी से कृष्ण की पूजा करती थी.
जबकि अकबर का निकाह जोधाबाई को मुसलमान (मरियम उज जमानी) बनाने के बाद हुआ था. अकबर एक अय्यास राजा था. उसके हरम पत्नियों, उप पत्नियों, रखैलों और बंदियों की संख्या लगभग 500 बताई जाती है. जब अकबर खुद इतनी सारी औरतों से सम्बन्ध रख सकता था तो उसे सलीम के एक सम्बन्ध से इतना ऐतराज क्यों था ?
फिल्म में अकबर को ऐसा धर्मनिरपेक्ष शासक दिखाया गया जो 20वी शताब्दी के मुसलमानों की ‘टू नेशन थ्योरी’ को नकारता है और भारत के मुसलमानों की छवि को सुधारता है. इसी फिल्मी इतिहास के घाल मेल में अनारकली की जीवन दान देने वाला अकबर महान हो गया और लाहौर में मकबरा होते हुये भी, अनारकली कहीं गुम हो गयी.
"इम्तियाज़ अली ‘ताज" से भी पहले भारतीय लेखक "नूर अहमद चिश्ती" ने 1860 में अपनी किताब ‘तहक़ीक़ात-ए-चिश्तिया’ में "अनारकली का नाम लिया था. उसने लिखा था कि - ‘अकबर बादशाह की सबसे खूबसूरत और पसंदीदा रखैल अनारकली थी, जिसका असली नाम नादिरा बेगम उर्फ शरफ़-उन-निस्सा था.
अनारकली का फिर जिक्र 1892 में "सईद अब्दुल लतीफ" की "तारीख-ए-लाहौर" में भी आया है, जिसमे लिखा है कि ‘अनारकली का नाम नादिरा बेगम उर्फ शरफ़-उन-निस्सा ही था और वो अकबर की रखैल ही थी लेकिन उसको अकबर ने सलीम के साथ अवैध सम्बन्ध होने के शक में जिंदा चुनवा दिया था’.
इसका मतलब यह है कि - लाहौर में अनारकली के अस्तित्व को लेकर कोई शक नही था लेकिन वो अकबर की रखैल के रूप में जानी गयी थी. इसका मतलब यह है कि 20 वीं शताब्दी की सलीम की मुहब्बत अनारकली, 19 वीं शताब्दी में अकबर की रखैल थी जिसके नाजायज सम्बन्ध अकबर के बेटे सलीम के साथ भी थे.
अगर विदेशी इतिहासकारों की लिखी बातों को माने तो, लिखित इतिहास में अनारकली का पहला जिक्र एक ब्रिटिश घुम्मकड़ व व्यापारी "विलियम फिंच" के संस्मरणों में मिलता है. फिंच ने 1608 से 1611 तक में नील का व्यापार करने के लिये लाहौर की यात्रा की थी. उस वक्त जहांगीर को बादशाह बने 3 वर्ष हो चुके थे.
उसने लिखा है कि ‘अनारकली बादशाह अकबर की बीबियों में से एक थी जो अकबर के पुत्र दानियाल शाह की मां थी. वह 40 साल की थी लेकिन बहुत खूबसूरत थी. अकबर को यह शक हो गया था कि- अनारकली का उसके बेटे सलीम (जो उस वक्त करीब 30 साल का और तीन बच्चों का बाप था ) के साथ नाजायज सम्बन्ध हैं.
जब 1605 में जहांगीर बादशाह बना तो अपनी मुहब्बत के प्रतीक के तौर पर कब्र पर मकबरा बनवाया था’. विलियम फिंच के बाद आये एक ब्रिटिश यात्री "एडवर्ड टेरी" ने अपने संस्मरण में लिखा है कि - बादशाह अकबर ने शहजादे सलीम को उत्तराधिकारी से हटा देने की धमकी दी क्योंकि सलीम के अनारकली के साथ नाजायज सम्बन्ध थे,
अनारकली को बेटे सलीम को अपने इश्क में फंसाने का गुनेहगार मानते हुए अकबर ने, अनारकली की ज़िंदा दीवार में चुनाव दिया था. इसी बात पर अब्राहम रैली ने 2000 में प्रकाशित अपनी किताब "द लास्ट स्प्रिंग: द लाइव्स एंड टाइम्स ऑफ द ग्रेट मुग़लस" में अकबर - सलीम - अनारकली पर शंका व्यक्त करते हुए लिखा है
"ऐसा लगता है कि अकबर और सलीम के बीच "ओएडिपालकॉन्फ्लिक्ट"(सौतेली माँ और पुत्र के बीच अवैद्ध सम्बन्ध
को लेकर संघर्ष) था. रैली ने अपनी बात को सिद्ध करने के लिये अब्दुल फजल द्वारा उल्लेखित एक घटना को आधार बनाया है. जिसमे वो लिखते है कि- एक शाम शाही हरम के पहरेदारों ने हरम में पकड़े जाने पर सलीम को पीटा था.
कहानी यह बताई जाती है कि- एक पागल शाही हरम में घुस आया था और सलीम उसको पकड़ने के लिए हरम में घुस आया था लेकिन पहरेदारों ने उसी को ही पकड़ लिया था. यह सुनकर बादशाह अकबर गुस्से में खुद वहां पहुंच गये और तलवार से उसका गला काटने जारहे थे कि उन्होंने सलीम का चेहरा देख कर अपना हाथ रोक लिया.
16वी शताब्दी में जन्मी और मरी अनारकली, 5 शताब्दियों की कहानी की यात्रा में 21वी शताब्दी में अकबर की बीबी से रखैल और फिर अकबर के दरबार की बांदी बन चुकी है.जो सलीम की प्रेमिका बन गई. वो शहजादे सलीम की सौतेली मां से सलीम के प्रेम में गिरफ्त एक गरीब कनीज बन चुकी है. (फिल्म - मुगल-ए-आज़म , अनारकली )
आज कई लोग अनारकली को काल्पनिक भी बताते है. लाहौर में अनारकली का मकबरा और उस पर "सलीम" के इश्क में डूबी हुई पंक्तिया सबूत के तौर पर लिखी होने के बाद भी, लोग उसको क्यों भुला देना चाहते हैं ? ऐसा तो नहीं कि- मुग़लिया शासन के दौर के सत्य को शर्मिंदगी से बचाने के लिए अनारकली के अस्तित्व को नकारा जा रहा है ?

कवि और कथाबाचक "राधेश्याम"

Image may contain: 1 person, smilingमेरा अगर रामकथा से पहला परिचय हुआ था तो वो "राधेश्याम रामायण" के द्वारा हुआ था. मेरे पिताजी को "राधेश्याम रामायण" के बहुत सारे प्रसंग कंठस्थ थे और वे गाते भी बहुत अच्छा थे. इसके अलावा फैक्ट्री में उनके साथ काम करने वाले, उनके मित्र मिलकर "राधेश्याम" लिखित नाटकों का मंचन भी करते थे.
इसके अलावा बरेली के ही एक कथाबाचक "प. ब्रजभूष्ण शर्मा" जी ने हमारे टाउन के मंदिर में कई बार "राधेश्याम रामयण" का पाठ किया था. इस ग्रन्थ की आम बोलचाल की भाषा-शैली मुझे बहुत ज्यादा पसंद है. मुझे आजतक इसके कई प्रसंग याद हैं. रावण सीता संवाद, रावण सूर्पनखा संवाद, लक्ष्मण परशुराम संवाद, आदि प्रसंग मुझे आज भी आनन्द देते है.
कवि और कथाबाचक राधेश्याम जी का जन्म 25 नवम्बर 1890 को उत्तर-प्रदेश राज्य के बरेली शहर के बिहारीपुर मोहल्ले में हुआ था. अल्फ्रेड नाटक कम्पनी से जुड़कर उन्होंने वीर अभिमन्यु, भक्त प्रहलाद, श्रीकृष्णावतार आदि अनेक नाटक लिखे, परन्तु सामान्य जनता में उनकी ख्याति राम कथा की एक विशिष्ट शैली के कारण फैली.
लोक नाट्य शैली को आधार बनाकर खड़ी बोली में उन्होंने रामायण की कथा को 25 खण्डों में पद्यबद्ध किया। इस ग्रन्थ को राधेश्याम रामायण के रूप में जाना जाता है. आगे चलकर उनकी यह रामायण उत्तरप्रदेश में होने वाली रामलीलाओं का आधार ग्रन्थ बनी. मंच पर होने वाले नाटकों में ज्यादातर उनकी ही रचनाओं का प्रयोग होता है.
उनकी रचना "राधेश्याम रामायण" अपनी मधुर गायन शैली के कारण शहर कस्बे से लेकर गाँव-गाँव और घर-घर आम जनता में इतनी अधिक लोकप्रिय हुई कि उनके जीवनकाल में ही उसकी हिन्दी-उर्दू में कुल मिलाकर पौने दो करोड़ से ज्यादा प्रतियाँ छपकर बिक चुकी थीं. उन्होंने धार्मिक और ऐतिहासिक फिल्मो के लिए गीत भी लिखे थे.
"हिन्दू महासभा" के संस्थापक प. महामना मदनमोहन मालवीय उनके गुरु थे. काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए धन जुटाने के लिए, महामना मालवीय जी, जब बरेली पधारे थे, तो राधेश्याम जी ने उनको अपनी साल भर की पुरी कमाई उन्हें दान दे दी थी. जो आज के समय के हिसाब से कई करोड़ में होती.
Image may contain: 1 personउनके लिखे नाटकों ने पुरे भारत में धूम मचा दी थी. उन्होंने अपने नाटकों के माध्यम से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ भी माहौल बनाया. भक्त प्रहलाद नाटक में पिता के आदेश का उल्लंघन करने के बहाने उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन सफल सन्देश दिया तथा हिरण्यकश्यप के दमन व अत्याचार की तुलना ब्रिटिश शासकों से की.
वे केवल सरल और आमजन को समझने वाली भाषा में लिखते थे और उर्दू के शब्दों का भी धडल्ले से प्रयोग करते थे. उन्होंने मुसलमान कलाकारों को भी हिन्दू देवताओं के अभिनय हेतु प्रेरित किया. वे गैरहिन्दी भाषी राज्यों में सर्वाधिक प्रवास करते थे. इस प्रकार रामकथा तथा हिन्दी के प्रचार में भी उन्होंने अपना अमूल्य योगदान दिया.
स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद ने भी उन्हें नई दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में आमन्त्रित कर उनसे पंद्रह दिनों तक रामकथा का आनन्द लिया था. पृथ्वीराज कपूर उनके अभिन्न मित्र और घनश्यामदास बिड़ला उनके परम भक्त थे. नेपाल नरेश तथा कश्मीर के राजा हरीसिंह भी उनको विशेष सम्मान देते थे.
शान्तिकुञ्ज (हरिद्वार) वाले प. श्रीराम शर्मा आचार्य भी उनको अपना मार्गदर्शक मानते थे. 26 अगस्त 1963 को 73 बर्ष की आयु में प. राधेश्याम जी का बरेली में अपने निवास स्थान पर स्वर्गवाश हो गया. अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने आत्मकथा "मेरा नाटककाल" लिखी. रामायण के अलावा उन्होंने जो अन्य नाटक लिखे वे निम्न लिखित है.
वीर अभिमन्यु
श्रवणकुमार
परमभक्त प्रह्लाद
परिवर्तन
श्रीकृष्ण अवतार
रुक्मिणी मंगल
मशरिकी हूर
महर्षि वाल्मीकि
देवर्षि नारद
उद्धार और आज़ादी

अच्छा हुआ जो नालायक "गोडसे" को फांसी पर लटका दिया गया

"नाथूराम गोडसे" एक बहुत ही मामूली इंसान था. वो मामूली इंसानों के बीच से ही आया था और मामूली इंसानों के बीच ही रहता था. वो कोई महान इंसान नहीं था और न ही उनको अपने आपको कोई महान आत्मा कहलवाने की सनक थी.
वो एक बेबकूफ था क्योंकि - वो पापिस्तान से विस्थापित होकर आये हुए हिन्दुओं के लिए, रोटी और कम्बल जुटाने में की कोशिश में पागलों की तरह दिन रात लगा रहता था. उसको अगर कोई सनक थी तो सिर्फ राष्ट्रवाद की सनक थी.
उससे बड़ा मूर्ख और कौन होगा जो उस समय उच्च माने जाने वाले, चित्पावन ब्राह्मण परिवार से होने के बाबजूद, गाँव-गाँव घूम-घूम कर छुआछूत मिटाने और अछूतों के साथ बैठ कर खाने का, लोगों को खिलाने का आयोजन किया करता था .
वह अपने से आधी / तिहाई उम्र की लड़कियों के साथ नग्न सोकर कोई ब्रह्मचर्य का प्रयोग नहीं करता था बल्कि बाल ब्रह्मचारी बजरंगवली को अपना आदर्श मानते हुए आजीवन अविवाहित रहे हुए और बड़ी छोटी हर महिला को माता कहता था.
उसको कोई "बिडला" या "बजाज" भी ब्लैंक चेक नहीं देता था क्योंकि उसमे अंग्रेजों से कहकर उनके हित में पालिसी बनवाने की क्षमता नहीं थी. वो बेबकूफ, नेहरु के नेशनल हेराल्ड जैसे अखबार के सामने राष्ट्रवादी बिचारधारा वाला अखवार निकालता था.
उसकी इतनी औकात भी नहीं थी कि - कोई अंग्रेज उसको अपने घर बुलाता और अंग्रेजने उसके गले में बाहें डालकर सिगरेट और शराब पीतीं. उसे कपडे पहनने तक की तमीज नहीं थी.वो सूट बूट पहनने वालों के सामने धोती कुरता पहनता था.
इधर चाचा नेहरु आजादी का जश्न मना रहे थे उधर वो नालायक बंटबारे में मारे गए हिन्दुओं का मातम मना रहा था. उस नालायक को इतना भी पता नहीं था कि - देश की आजादी के सामने दस लाख हिन्दुओं की जान की कीमत कुछ भी नहीं है.
भारत से अलग होते ही पापिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया था. ऐसे में उसे भारतीयों को मारने के लिए हथियार चाहिए थे और हथियार के लिए पैसा. गांधी जी उस समय पापिस्तान को साठ करोड़ रूपए नहीं देते तो पापिस्तान बराबरी का मुकाबला कैसे करता ?
बंटबारे के कारण पापिस्तान दो हिस्सों में बंट गया था और पूर्वी पापिस्तान से पश्चिमी पापिस्तान जाने का सीधा रास्ता नहीं था ऐसे में अगर बापू उसको दस मील चौड़ा गलियारा देना चाहते तो, इत्ती सी बात उस हत्यारे को उन्हें गोली मारने की क्या जरूरत थी?
अच्छा हुआ जो नालायक "गोडसे" को फांसी पर लटका दिया गया

महात्मा गांधी : भारत में मुस्लिम तुष्टीकरण के जनक

 "1857 की क्रांति" भले ही असफल हो गई थी, लेकिन उसने एक बहुत बड़ा काम किया था कि - भारत के हिन्दू और मुस्लिम एक हो गये थे. हिन्दुओं और मुस्लिमो ने एकजुट होकर कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों का मुकाबला किया और शहीद हुए. हिन्दू - मुस्लिम की यह एकता 1857 से लेकर 1920 तक बरक़रार भी रही. हिन्दू मुस्लिम एकता को भंग किया 1921 के "खिलाफत आन्दोलन" को समर्थन देने की "गांधी जी" की अदुर्दार्शिता ने.
तुर्की का सुलतान (खलीफा) अपने आपको दुनियाभर के मुसलमानों का नेता कहता था. प्रथम विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों ने तुर्की को विघटित कर सुलतान को गद्दी से उतार दिया था. भारत के मुसलमान खुलकर सुलतान के समर्थन में आ गए और अंग्रेजों के खिलाफ "खिलाफत आन्दोलन" शुरू कर दिया. खिलाफत आन्दोलन (1919-1924) भारत में मुख्यत: मुसलमानों द्वारा चलाया गया धार्मिक आन्दोलन था.
इस आन्दोलन का उद्देश्य तुर्की में खलीफा के पद की पुन:स्थापना कराने के लिये, अंग्रेजों पर दबाव बनाना था. भारतीय मुसलमानों को खुश करने के लिए "गाँधी जी" ने कांग्रेस की ओर से खिलाफत आन्दोलन के समर्थन की घोषणा कर दी. श्री विपिन चन्द्र पाल, डा. एनी बेसेंट, सी. ऍफ़.एंड्रूज आदि जैसे नेताओं ने कांग्रेस की बैठक में खिलाफत के समर्थन का विरोध किया. लेकिन गाँधी जी खिलाफत आन्दोलन के खलीफा ही बन गए थे.
"कांग्रेस" ने मुसलमानों पक्ष में जगह-जगह प्रदर्शन किये. "अल्लाह हो अकबर" जैसे नारे लगाकर मुस्लिमो की भावनाएं भड़काई गयी. "महामना मदनमोहन मालवीय" तथा कुछ अन्य नेताओं ने चेतावनी दी कि- खिलाफत आन्दोलन की आड़ मैं मुस्लिम भावनाएं भड़काकर भविष्य के लिए खतरा पैदा किया जा रहा है किन्तु - गांधीजी ने कहा ‘ मैं मुसलमान भाईओं के इस आन्दोलन को "स्वराज" से भी ज्यादा महत्व देता हूँ".
भारतीय मुसलमान खिलाफत आन्दोलन करने के वावजूद, अंगेजों का तो बाल भी बांका नहीं कर पाए, किन्तु उन्होंने पुरे भारत मैं मृतप्राय मुस्लिम कट्टरपंथ को, जहरीले सर्प की तरह जिन्दा कर डाला. खिलाफत आन्दोलन की असफलता से चिढ़े मुसलमानों ने पुरे देश मैं दंगे करने शुरू कर दिए. केरल के मालावार क्षेत्र में "मुस्लिम मोपलाओं" ने वहां के हिन्दुओं पे जो अत्याचार किये, उसकी कहानी सुनकर तो ह्रदय ही दहल जाता है.
"महात्मा गाँधी" कांग्रेसी मुसलमानों को तुष्ट करने के लिए "मोपला विद्रोह" को अग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह बताकर आततायिओं को स्वाधीनता सेनानी सिद्ध करने का प्रयास कर रहे थे, जबकि "मोपला" मैं हजारों हिन्दुओं की हत्या की गयी और 20,000 हिन्दुओं को धर्मान्तरित कर मुस्लिम बनाया गया. एनी बेसेंट ने कहा – “असहयोग आन्दोलन को खिलाफत का भाग बनाकर गांधीजी ने मजहवी हिंसा को पनपने का अवसर दिया.
मोपलाओं द्वारा किये गए अत्याचारों पर "डा. अम्बेडकर" ने अपनी पुस्तक "भारत का बिभाजन" में लिखा था : मालाबार और मुल्तान के बाद कोहाट में मजहबी उन्मादियों ने हिन्दुओं पर भीषण अत्याचार किये. ‘गाँधी जी हिंसा की प्रत्येक घटना की निंदा करते थे किन्तु गाँधी ने इन हत्याओं का कभी विरोध नहीं किया. गाँधी हिन्दू- मुस्लिम एकता के लिए इतने व्यग्र थे कि इसके लिए हिन्दुओं की हत्या से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था.
हिन्दू महासभा के नेता भाई परमानन्द जी ने चेतावनी देते हुए कहा था ‘ गाँधी जी तथा कांग्रेस ने मुसलमानों को तुस्ट करने के लिए जिस बेशर्मी के साथ खिलाफत आन्दोलन का समर्थन किया और अब खूंखार हत्यारे मोपलों की प्रसंसा कर रहे हैं, यह घातक नीति आगे चलके इस्लामी उग्रवाद को पनपाने मैं सहायक सिद्ध होगी. इतिहासकार शिवकुमार गोयल ने अपनी पुस्तक मैं कांग्रेस और गांधी की भूमिका का विस्तार से उल्लेख किया है.
खिलाफत आन्दोलन के समय मुस्लिमो द्वारा अमानवीय अत्याचार के कारण हिन्दुओं और मुस्लिमो के बीच दूरी पैदा हो गई और वे एक दुसरे के शत्रु बन गए. देश के सभी हिन्दू नेता दंगों पर गांधी की चुप्पी से खफा थे. अंग्रेजों ने भी उनके इस मतभेद का लाभ उठाया और मुसलमानो को अलग देश की मांग करने के लिए उकसाया. इसी बीच "अब्दुल रशीद" नामक मुस्लिम युवक द्वारा "स्वामी श्रधानंद" की ह्त्या से हालात और खराब हो गए.
अपने ग्रन्थ "1857- प्रथम स्वातंत्र्य समर" में, क्रान्ति में हिस्सा लेने वाले मुस्लिम क्रांतिकारियों के बारे सम्मान पूर्वक विस्तार से लिखने वाले और इसके लिए कालापानी की कठोर सजा भोगने वाले "स्वातंत्र्यवीर सावरकर" भी खुलकर मुसलमानों के बिरोध में आ गए और हिन्दू रक्षा के लिए प्रयासरत हो गए. वीर सावरकर जी ने मालावार क्षेत्र का भ्रमण कर वहां के अत्याचारों पर ‘मोपला’ नामक उपन्यास लिखा था.
"डा.केशव बलिराम हेडगेवार" जैसे क्रांतिकारी नेता (जो बंगाल में "अनुशीलन समिति" के सद्स्य थे, आजाद जी के गुट में भी रहे और कांग्रेस के साथ भी "सविनय अवज्ञा आंदोलन" में हिस्सा ले रहे थे ) भी खुल कर हिन्दूराष्ट्र के पक्ष में आ गए. 1921 से 1924 तक हुए मुल्तान, मालाबार , कोहाट जैसे दंगों से क्षुब्द होकर उन्होंने 1925 में "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ" नामक संगठन की स्थापना की जिसका उद्देश हिन्दुओं को संगठित करना था.
मुस्लिम लीग की अलग पाकिस्तान देश बनाने की मांग का हिदुवादी दल बिरोध करते थे क्योंकि वे सारे हिन्दुस्थान को अपने पूर्वजों की विरासत मानते थे. लेकिन उन्होंने भी रोज-रोज के हिन्दू -मुस्लिम दंगे से छुटकारा पाने के लिए "पाकिस्तान" और "हिन्दुस्थान" फार्मूले को स्वीकार कर लिया. लेकिन गांधी ने यहाँ भी हिन्दुओं के साथ धोखा किया, मुसलमानों को तो पाकिस्तान दे दिया किन्तु हिन्दुओं को हिन्दुस्थान नहीं दिया.
"गाँधीजी" के उस अन्याय के परिणाम का दुष्परिणाम बंटवारे के समय हुए भीषण दंगे के रूप में सामने आया. बंटबारे को अन्यायपूर्बक करने का ही परिणाम है कि - भारत में हमेशा ही जहाँ तहां दंगे होते रहते हैं, जिसमे बहुत ज्यादा जान और माल की हानि होती रहती है. इसके अलाबा ऐसी भी चर्चा थी कि- गाँधी जी अपनी महात्मा गिरी दिखाते हुए पापिस्तान को बंगलादेश से जोड़ने वाला 10 मील चौड़ा गलियारा देना चाहते हैं.
हिन्दुओं के साथ किये गए अन्याय के लिए, गांधी को जिम्मेदार मानकर "नाथूराम गोडसे" ने गांधी को गोली मार दी थी. मानव ह्त्या बहुत ही जघन्य अपराध है और गांधी जी की ह्त्या की भी निंदा की जानी चाहिए, लेकिन जरा सोंचो कि - कहीं अगर "पाकिस्तान-बंगलादेश" गलियारा बन गया होता तो हिन्दुस्थान की आज क्या स्थिति होती ? इस बात के लिए तो "नाथू राम गोडसे" को भी प्रणाम करने का दिल करता है