
पिता की म्रत्यु के बाद उन्हें बाल्यावस्था में 'सुकर चाकिया' मिसाल का सरदार बना दिया गया.15 वर्ष की आयु में 'कन्हया मिसल' के सरदार की बेटी से उनका विवाह हुआ. इस विवाह के बाद दो मिसलों के मिल जाने से उनकी ताकत बढ़ गई थी. उनकी सास "सदा कौर" बुत ही दूरदर्शी और मह्त्वाकांक्षी महिला थी.
उनका मानना था कि जब तक सिख अलग अलग मिसलों में बंटे रहेंगे तब तक मजबूत नहीं बन सकते. अन्य मिसलो को भी जोड़ने के लिए उन्होंने अपने दामाद "रंजीत सिंह" अन्य मिसलों की लड़कियों से विवाह कराये. कोई सास अपने दामाद की कई शादियाँ कराये यह बहुत मुश्किल है लेकिन उन्होंने धर्म और राष्ट्र के हित में ऐसा किया.
इन वैवाहिक संबंधों के बाद रंजीत सिंह का प्रभाव बहुत बढ़ गया. सैन्य ताकत बढ़ जाने के बाद उन्नीस वर्षीय रणजीत सिंह ने 1799 ई. में जुलाई मास में लाहौर पर अधिकार कर लिया. उनकी ताकत को देखते हुए अफगान शासक जमानशाह ने परिस्थितिवश उनको लाहौर का उपशासक स्वीकार करते हुए राजा की उपाधि प्रदान की.
1804 ई. में कांगड़ा के सरदार 'संसार चन्द कटोच' को हराकर रणजीत सिंह ने होशियारपुर पर अधिकार कर लिया. 1805 ई. में उन्होंने अमृतसर एवं जम्मू पर अधिकार कर लिया. 1807 ई. में उन्होंने लुधियाना पर अधिकार कर लिया. इसको देखते हुए 25 अप्रैल, 1809 को अंग्रेजों ने महाराजा रंजीत सिंह से संधि की 'अमृतसर की सन्धि' कहा जाता है.
इस संधि के अनुसार सतलुज के पूर्व में अंग्रेजों का और सतलुज के पश्चिम में महाराजा रजीत सिंह का अधिकार मान लिया गया. तय हुआ कि दोनों एक दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करेंगे. बड़े क्षेत्र पर कब्जा हो जाने के बाद उन्होंने अपने प्रशासन पर ध्यान दिया. अनपढ़ होते हुए उन्होंने जिस तरह राज्य का संचालन किया वह अच्छों अच्छों को सोंच में डाल देता है.
उनकी सरकार को 'सरकार खालसा' कहा जाता था. उन्होंने गुरु नानक और गुरु गोविन्द सिंह के नाम के सिक्के चलाये, किन्तु उन्होंने गुरुमत को भी कभी सत्ता पर हावी नहीं होने दिया. उन्होंने प्रशासन में डोगरों उच्च पद प्रदान किये एवं कुछ मुसलमानों को भी महत्त्वपूर्ण पद दिए. 'अजीजुद्दीन' उनके विदेशमंत्री तथा 'दीनानाथ' उनके वितमंत्री थे.

उनके राजस्व का प्रमुख स्रोत 'भू-राजस्व' था, जिसमें नवीन प्रणालियों का समावेश होता रहता था. महाराजा रणजीत सिंह ने नीलामी के आधार पर सबसे ऊँची बोली बोलने वाले को भू-राजस्व वसूली का अधिकार प्रदान किया. राज्य की ओर से लगान उपज का 2/5 से 1/3 भाग लिया जाता था. इस तरीके से उनका खजाना भर गया था.
महाराजा रणजीत सिंह का राज्य 4 सूबों में बंटा था - पेशावर, कश्मीर, मुल्तान और लाहौर. न्याय और प्रशासन के क्षेत्र में राजधानी में 'अदालत-ए-आला' (आधुनिक उच्च न्यायालय के समान) खोला गया था, जहाँ उच्च अधिकारियों द्वारा विवादों का निपटारा किया जाता था. उनके राज में अपराधियों के लिए कड़े दंड का प्रावधान था.
रणजीत सिंह ने अपनी सैन्य व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया था. उन्होंने अपनी सेना को फ़्राँसीसी सैनिकों से प्रशिक्षित करवाया. रणजीत सिंह की सेना में विभिन्न विदेशी जातियों के 39 अफ़सर कार्य करते थे, जिसमें फ़्राँसीसी, जर्मन, अमेरिकी, यूनानी, रूसी, अंग्रेज़, एंग्लो-इण्डियन, स्पेनी आदि सम्मिलित थे.
महाराजा रणजीत सिंह ने कांगड़ा, मुल्तान, अटक, कश्मीर, पेशावर, लाद्दाख, आदि की लड़ाईया जीतकर अपने राज्य को पश्चिम उत्तर में बहुत ही महत्वपूर्ण राज्य बना लिया था. उन्होंने एक ऐसे संगठित सिक्ख राज्य का निर्माण कर दिया था, जो पेशावर से सतलुज तक और कश्मीर से सिन्ध तक विस्तृत था..
किन्तु इस विस्तृत साम्राज्य में वह ऐसी कोई मज़बूत शासन व्यवस्था विकसित नहीं कर सके जिससे कि उनके बाद भी उनका राज्य संगठित रहता और शासन प्रणाली सुचारू रूप से चलती रहती जैसी कि शिवाजी ने महाराष्ट्र में उत्पन्न कर दी थी. उनकी मृत्यु (7 जून 1839) के केवल 10 वर्ष के उपरान्त ही यह साम्राज्य छिन्न भिन्न हो गया.
फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि अफ़ग़ानों, अंग्रेज़ों तथा अपने कुछ सहधर्मी सिक्ख सरदारों के विरोध के बावजूद रणजीत सिंह ने जो महान् सफलताएँ प्राप्त कीं और जिस प्रकार से शासन किया, उनके आधार पर उनकी गणना उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास की महान् विभूतियों में की जानी चाहिए.