"सेठ अमरचन्द बाठिया" के पिता का नाम "अबीर चन्द बाँठिया" था. वे जैन मत के अनुयायी थे. वे मूलतः बीकानेर (राजस्थान) के निवासी थे और व्यापार के लिए ग्वालियर आये और यहाँ सोने के व्यापार (सर्राफा" में सफल होने के कारण वे यहीं बस गए.
पिता-पुत्र ने अपने परिश्रम, ईमानदारी एवं सज्जनता के कारण इतनी प्रतिष्ठा पायी कि-ग्वालियर राजघराने ने उन्हें नगर सेठ की उपाधि देकर सम्मानित किया और आगे चलकर उन्हें ग्वालियर राज्य के राजकीय राजकोष का प्रभारी नियुक्त किया.
1857 में जब अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीयों ने अपना प्रथम स्वाधीनता संग्राम छेड़ा तो भारत के कुछ गद्दार राजाओं ने भी उसमे क्रांतिकारियों के खिलाफ अंग्रेजों का साथ दिया. ग्वालियर का राजा "जयाजीराव सिंधिया" भी उन गद्दार राजाओं में से एक था,
उस समय "सेठ अमरचन्द बाठिया" ने अपने राजा से बगाबत कर क्रांतिकारियों का साथ दिया. उन्होंने अपनी समस्त संपत्ति क्रांतिकारियों को सौंप दी. ओरछा, दतिया और ग्वालियर के बागी सैनिको ने इस धन की सहायता से अंग्रेजों को कड़ी टक्कर दी.
इसके अलावा जब "तात्या टोपे" ने भारतीय मूल के सैनिको से क्रांतिकारियों का साथ देने का आव्हान किया तो उन्होंने ग्वालियर के सैनिको से तात्या टोपे का साथ देने को कहा. साथ ही उन्होंने ग्वालियर राजकोष से गवन करके वह धन "तात्या टोपे " को सौप दिया.
इसके बाद "सेठ अमरचन्द बाठिया" ग्वालियर से फरार हो गए और भूमिगत रहकर क्रांतिकारियों की मदद करने लगे. परन्तु एक दिन वे पकडे गए और उन्हें कारागार में डाल दिया गया. हमेशा सुख-सुविधाओं में पले "नगर सेठ जी" को वहाँ भीषण यातनाएँ दी गयीं.
मुर्गा बनाना, पेड़ से उल्टा लटका कर चाबुकों से मारना, हाथ पैर बाँधकर चारों ओर से खींचना, लोहे लगे जूतों से मारना, अण्डकोषों पर वजन बाँधकर दौड़ाना, मूत्र पिलाना, भूखा रखना, नंगा करके धूप में खड़ा रखना, आदि अमानवीय अत्याचार उन पर किये गये.
अंग्रेज चाहते थे कि- वे क्षमा माँग लें और क्रांतिकारियों का पता बता दें, लेकिन सेठजी तैयार नहीं हुए. इस पर अंग्रेजों ने उनके 8 वर्षीय निरपराध पुत्र को भी पकड़ लिया.और धमकी दी - यदि तुमने क्षमा नहीं माँगी, तो तुम्हारे पुत्र की हत्या कर दी जाएगी.
यह बहुत कठिन घड़ी थी; पर सेठजी तनिक भी विचलित नहीं हुए. इस पर उनके मासूम पुत्र को तोप के मुँह पर बाँधकर गोला दाग दिया गया. बच्चे का शरीर चिथड़े-चिथड़े हो गया. इसके बाद सेठ जी के लिए 22 जून, 1858 को फाँसी की तिथि निश्चित कर दी गयी.
इतना ही नहीं, नगर और ग्रामीण क्षेत्र की जनता में आतंक फैलाने के लिए अंग्रेजों ने यह भी तय किया गया कि सेठजी को 'सर्राफा बाजार' में सबके सामने खुलेआम फाँसी दी जाएगी. अन्ततः 22 जून भी आ गया. सेठजी तो अपने शरीर का मोह छोड़ चुके थे.
अन्तिम इच्छा पूछने पर उन्होंने नवकार मन्त्र जपने की इच्छा व्यक्त की. उन्हें इसकी अनुमति दी गयी; इस महान धर्मप्रेमी सेठ जी को फाँसी देते समय दो बार ईश्वरीय व्यवधान भी आया. एक बार तो रस्सी और दूसरी बार पेड़ की डाल ही टूट गयी.
तीसरी बार उन्हें एक मजबूत नीम के पेड़ पर लटकाकर फाँसी दी गयी. लोगों में भय पैदा करने के लिए उनके शव को तीन दिन वहीं लटके रहने दिया गया. इस प्रकार बिना कोई हथियार उठाये उन्होंने क्रांतिकारियों की सूची में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया.
सर्राफा बाजार में स्थित जिस नीम के पेड़ पर, सेठजी को फाँसी दी गयी, उसके निकट ही उनकी प्रतिमा स्थापित है. हर साल 22 जून को वहाँ बड़ी संख्या में लोग आकर देश की स्वतन्त्रता के लिए प्राण देने वाले उस अमर हुतात्मा को श्रद्धा॰जलि अर्पित करते हैं.
स्व्तान्त्र्वीर सावरकर ने अपने ग्रन्थ "1857-प्रथम स्वातंत्र्य समर" में सेठ जी को बहुत महत्वपूर्ण स्थान दिया था. परन्तु जब चरखे वालों ने उन महान स्वाधीनता सेनानी को ही कोई स्थान नहीं दिया तो उनके बताये हुए क्रांतिकारियों के लिए क्या उम्मीद करें.
No comments:
Post a Comment