Saturday, 23 June 2018

बन्दा सिंह बहादुर

बाबा बंदा सिंह बहादुर के 302वें शहीदी ..."बन्दा सिंह बहादुर" का जन्म 27 अक्टूबर 1670 ई. में, कश्मीर के पुंछ ज़िले के राजौरी क्षेत्र में, भारद्वाज गोत्र के एक राजपूत परिवार में हुआ था. उनका बचपन का नाम लक्ष्मण देव था तथा उनके पिता का नाम रामदेव था. वे बचपन से ही बहुत बहादुर थे और वे अक्सर अकेले ही, तीर-कमान लेकर जंगल में शिकार के लिए चले जाया करते थे.
15 वर्ष की उम्र में उनके हाथों एक गर्भवती हिरनी का शिकार हो गया. हिरनी तथा उसके नवजात बच्चे की दर्दनाक म्रत्यु देखकर, उनको बहुत ग्लानि हुई और मन में वैराग्य पैदा हो गया और वे वैरागी संत जानकी प्रसाद के शिष्य बन गए, उनके गुरु ने उनका नाम माधोदास बैरागी रख दिया. बाद उन्होंने संत रामदास बैरागी का शिष्यत्व ग्रहण किया.
अपने गुरु संत बाबा रामदास बैरागीके साथ वे पंचवटी (नासिक, महाराष्ट्र) चले गए. वहाँ उन्हने एक अन्य संत औघड़नाथ से योग की शिक्षा प्राप्त की और योगी हो गए. कुछ ही समय में उनका उस क्षेत्र में प्रभाव बढ़ गया, तो उन्होंने नांदेड में अपना आश्रम बना लिया. कहा जाता है कि - उन्होंने योगबल द्वारा अनेकों सिद्धियाँ भी प्राप्त कर ली थीं.
इधर औरंगजेब के हाथों परिवार, शिष्यों और साथियों के शहीद हो जाने के बाद, गुरु गोविन्द सिंह भी, पंजाब को छोड़कर दक्षिण की तरफ चले गए. एक बार वे संत माधव दास के आश्रम में पहुंचे. जब माधव दास को गुरु जी की कीर्ति का पता चला तो उसने गुरु जी को बहुत सम्मान दिया और उनसे पंजाब का हाल पूंछा.

गुरु जी ने जब उत्तर भारत में हो रहे मुघलिया अत्याचार के बारे में बताया, तो उनका खून खौल उठा और उन्होंने मुघलो से अत्याचार का बदला लेने की कसम खाई. उन्होंने गुरु जी के आगे शीश नवाकर उनको अपना गुरु धारण कर लिया. गुरु गोविन्द सिंह ने उनको अमृतपान कराकर नया नाम दिया "गुरुबख्श सिंह". हालांकि कुछ लोगों का यह भी कहना है कि उन्होंने धर्म परिवर्तन नहीं किया था 
गुरु गोविन्द सिंह जी का हुक्म मानकर "गुरुबख्श सिंह" अपने साथियों के साथ दिल्ली के लिए निकल पड़े. ऐसा बताया जाता है कि- गुरु गोविन्द सिंह ने "गुरुबख्श सिंह" को दिए अपने हुक्मनामे में अपने अनुयायियों को सन्देश दिया कि- यह बंदा बहुत बहादुर है इसको मेरा प्रतिनिधि मानकर इसका साथ देना.
इसके कारण लोग उनको बंदा बहादुर भी कहने लगे और धीरे धीरे उनका यही नाम प्रशिद्ध हो गया. इस प्रकार "लक्ष्मण देव", "माधोदास बैरागी", "स. गुरुबख्श सिंह", "बंदा बहादुर", "बंदा सिंह बहादुर", "बंदा बैरागी" सभी नाम एक ही महान व्यक्ति के हैं. इसलिए उनके नाम पर विवाद करने के बजाय, उनके महान काम पर ध्यान देना चाहिए.
गुरु गोविन्द सिंह ने बन्दा बहादुर को, पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर कहा कि - उत्तर में जाकर यह निशानियाँ मेरे अनुयायियों को दिखाना, वो तुम्हारा साथ देंगे. बन्दा सिंह बहादुर जानते थे कि- दिल्ली में कुछ किये बिना कोई हलचल नहीं होगी, लेकिन मुट्ठीभर साथियों के साथ दिल्ली पर हमला करना खुदकशी होगा,
उन्होंने सबसे पहले उस जल्लाद जलालुद्दीन का बध किया, जिसने गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटा था. उसके बाद सारे इलाके में खबर फ़ैल गई कि - गुरु गोविन्द सिंह का कोई बहादुर शिष्य आया है. गुरु गोंविंद सिंह के जाने के बाद नेत्रत्वहींन सिक्ख इधर उधर भटक रहे थे. गुरु जी की निशानिया देखने के बाद, सबने उनको अपना सरदार मान लिया.
तब अपने साथ विशाल फ़ौज को संगठित कर, बन्दा बहादुर ने सरहिंद पर हमला कर दिया. 12 मई 1710 की यह लड़ाई "चप्पड़चिड़ी की जंग" के नाम से मशहूर है. इसमें बजीर खान मारा गया. उसके बाद उन्होंने लोहगढ़ किले को अपनी राजधानी बनाकर खालसा राज की नींव रखी. उन्होंने गुरु नानक देव जी और गुरू गोबिन्द सिंह जी के नाम से सिक्का और मोहरे जारी की.

उसके बाद बन्दा बहादुर ने मलेरकोटला पर हमला किया और मलेरकोटला  भी जीत लिया. लड़ाई में मलेरकोटला का नबाब शेरबहादुर खान मारा गया. उनका साथ देने वाले भाई आली सिंह और माली सिंह ने बताया कि - नबाब नबाब शेरबहादुर खान हिन्दू महिलाओं को उठा लाता था और उनको मुस्लमान बनाकर उनपर जुल्म करता था.

उन्होंने बन्दा बहादुर को बीबी अनूप कौर के बारे में बताया जिसने अपने धर्म और इज्जत को बचाने के लिए अपनी जान देदी थी तब बन्दा बहादुर ने कब्रिस्तान की खुदाई कराकर बीबी अनूप कौर के अवशेष निकलकर उनका दाह संस्कार कराया. हालांकि इस घटना को वामपंथी इतिहासकारो ने इसे कब्रों को खुदवाकर लाशों की बेअदबी करना लिखा है.   

उन्होंने मुघलों के बिठाए जमीदारों से जमीन छीनकर, भूमिहींन किसानो को उन जमीनों का मालिक घोषित किया. उनकी बढ़ती ताकत से घबराकर दिल्ली के बादशाह फर्रुखसियर ने एक कुटिल चाल चली. उन दिनों गुरु गोबिन्द सिंह की दो पत्नियां बीबी साहिब कौर और माता सुंदरी दिल्ली मेंमुगलों के संरक्षण में रह रही थीं. फर्रुखसियर ने बन्दा के सैनिकों में फूट डालने के "माता सुंदरी" का सहारा लिया. 

माता सुंदरी ने  फर्रुखसियर के बहकावे में आकर बन्दा को यह निर्देश दिया कि वह मुगलों के सामने आत्मसमर्पण कर दें, लेकिन बन्दा ने इसे मानने से इंकार कर दिया. बन्दा बहादुर का कहना था कि गुरु महाराज के सामने मुगलों का नामोनिशान मिटाने का जो संकल्प लिया है उसे वह भंग नहीं कर सकता. 

इससे चिढ़कर माता सुंदरी ने सिखों का यह निर्देश दिया कि- वे बन्दा का साथ छोड़ दें. गुरुमाता के आदेश पर बन्दा के सैनिकों में भारी विभाजन हुआ. तत खालसा नामक एक बड़ा गुट बन्दा का साथ छोड़कर मुगल सेना में शामिल हो गया जबकि दूसरा गुट जो बंदई खालसा कहलाते थे, उन्होंने अंत तक बन्दा बहादुर का साथ दिया.

जनवरी 1715 ई. में दिल्ली के बादशाह फर्रुखसियर ने, अब्दुल समद खाँ को 10 लाख की फ़ौज देकर भेजा. उसने अपने साथ आये हुए तत खालसा के सैनिको को भी अपनी सेना के साथ भेजा जिससे कि - सिक्ख आपस में ही लड़ें.  तत खालसा और मुगलों की संयुक्त शक्ति के कारण बन्दा को लौहगढ़ के किले में शरण लेनी पड़ी.

कई माह की घेराबंदी के कारण खाद्य सामग्री का अभाव हो गया. तब उन्होंने 7 दिसम्बर 1715 ई. में इस शर्त पर आत्मसमर्पण कर दिया कि - केवल उनको गिरफ्तार किया जाएगा, उनके बाक़ी सभी साथियों को जाने दिया जाएगा. लेकिन उनके समर्पण करते ही अब्दुल समद खाँ वादे से मुकर गया और उनके सभी साथियों को भी पकड़ लिया.

मुगलों ने गुरदास नंगल के किले में रहने वाले 40 हजार से अधिक बेगुनाह मर्द, औरतों और बच्चों की निर्मम हत्या कर दी. मुगल सम्राट के आदेश पर पंजाब के गर्वनर अब्दुल समन्द खां ने अपने पुत्र जाकरिया खां और 21 हजार सशस्त्र सैनिकों की निगरानी में बाबा बन्दा बहादुर को दिल्ली भेजा. 

बन्दा बहादुर को जंजीरों से बांधकजर एक पिंजरे में बंद किया गया था. इस जुलुस में 101 बैलगाड़ियों पर सात हजार सिखों के कटे हुए सिर रखे हुए थे जबकि 794 सैनिको को भी कैदी बनाकर ले जाया गया. फरवरी 1716 को 794 सिक्खों के साथ वह दिल्ली लाये गए, जहाँ उनको बहुत प्रताड़ित किया गया. 

बादशाह फर्रुखसियर ने उनको कहा कि - अगर तुम इस्लाम कबुल कर लो और मुघलो की आधीनता स्वीकार लो तो तुमको छोड़ दिया जाएगा और पंजाब के क्षेत्र की जागीरदारी भी दे दी जायेगी, अन्यथा सभी को दर्दनाक मौत देकर मार दिया जाएगा.  मगर उन्होंने फर्रुखसियर के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और जान से ज्यादा धर्म को अहमियत दी.  

मुगल इतिहासकार मिर्जा मोहम्मद हर्सी ने अपनी पुस्तक इबरतनामा में लिखा है कि- हर शुक्रवार को नमाज के बाद 101 कैदियों को जत्थों के रुप में दिल्ली की कोतवाली के बाहर कत्लगाह के मैदान में लाया जाता था. काजी उन्हें इस्लाम कबूल करने या हत्या का फतवा सुनाते.  मोहम्मद हर्सी के अनुसार  यह सिलसिला डेढ़ महीने तक चलता रहा. 

अपने सहयोगियों की हत्याओं को देखने के लिए बन्दा को एक पिंजरे में बंद करके कत्लगाह तक लाया जाता ताकि वह अपनी आंखों से इस दर्दनाक दृश्य को देख सकें. बादशाह के आदेश पर तीन महीने तक बंदा बहादुर और उसके 27 सेनापतियों को लालकिला में कैद रखा गया. उनसे इस्लाम कबूल करवाने के लिए कई तरह के हथकंडो का इस्तेमाल किया गया.  

जब सभी प्रयास विफल रहे तो जून माह में बन्दा की आंखों के सामने उसके एक-एक सेनापति की हत्या की जाने लगी. जब यह प्रयास भी विफल रहा तो 16 जून 1716 को बन्दा बहादुर को पिंजरे में बंद करके महरौली ले जाया गया. फर्रुखसियर ने फिर प्रस्ताव दोहराया, लेकिन उन्होने नहीं माना. तब फर्रुखसियर ने बहशियाना कार्य किया. 
बन्दा सिंह बहादुर का बलिदान, ये वीर ...
बन्दा सिंह बहादुर को बांधकर, उनके चार वर्षीय अबोध पुत्र  अजय सिंह को उनके समने काटकर, उसका दिल निकाल कर कर, जबरन उनके मुह में डाला. उसके बाद और भी ज्यादा दरिंदगी दिखाने के लिए, उसने उनके शरीर के मांस को चिमटों से नोच नोच कर, बुरी तरह तड़पा कर मारने का आदेश दे दिया. 

काजी के कहने पर फर्रूखशियार ने बन्दा बहादुर और उनके बचे हुए मुख्य सैन्य-अधिकारियों के भी, शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर बलिदान कर दिया. धर्मवीर बन्दा तब भी निर्विकार और शांत बने रहे. जब बन्दा टस से मस न हुआ तो उनका एक-एक अंग  काटा जाने लगा. अंत में उनका सिर काट कर उनकी हत्या कर दी गई.

पंजाब की पिछली "बादल सरकार" ने मोहाली के पास "चप्पड़चिडी" में "चप्पड़चिडी की जंग" का भव्य स्मारक का निर्माण करवाया है. जिसमे मध्य में एक विशाल मीनार का निर्माण किया गया है तथा मीनार के आस पास महान योद्धाओं की विशाल प्रतिमाये भी बनबाई है. आपको अपने बच्चों को एक बार वहां लेकर अवश्य जाना चाहिए.

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