Wednesday, 27 June 2018

1971 युद्ध : युद्ध को जीतने में इंदिरागांधी के योगदान का सच

बंगलादेश अपना स्वतंत्रता दिवस 26 मार्च 1971 को मनाता है और भारत पापिस्तान का युद्ध 3 दिसंबर 1971 से 16 दिसंबर तक चला था. बंगलादेश ने अपने आपको 26 मार्च 1971 को पापिस्तान से अलग घोषित कर दिया था. इसके बाद पापिस्तान (पश्चिमी पापिस्तान) ने बंगलादेश (पूर्वी पापिस्तान) पर बेतहाशा जुल्म करने शुरू कर दिए थे.

बंगलादेश (पूर्वी पापिस्तान) की जनता भारत से हस्तक्षेप करने की मांग कर रही थी लेकिन इंदिरा गांधी ने इस पर खामोशी धारण की हुई थी. बंगलादेश से जो बंगाली शरणार्थी बनकर भारत के पश्चिमी बंगाल, बिहार और आसाम में आ रहे थे उनकी हालत देखकर भारत की जनता भी सरकार से बंगलादेश में हस्तक्षेप की मांग कर रही थी.

बंगलादेश की मुक्ति वाहिनी जिसमे वहा के क्रान्तिकारी और पूर्वसैनिक थे वही लोग पापिस्तानी सेना का मुकाबला कर रहे थे. इंदिरा गांधी इसे पापिस्तान का अंदरूनी मामला बताती थी. 3 दिसंबर 1971 को जब पापिस्तान ने भारत पर हमला किया था उस दिन भी इंदिरा गांधी कोलकाता में भी लोगों को यही समझा रही थी.

3 दिसम्बर को पापिस्तान द्वारा भारत पर किये गए हवाई हमले (आपरेशन चंगेज खान) के बाद भी इंदिरा गांधी युद्ध का निर्णय नहीं ले पा रही थी. तब जनरल मानेकशा ने कहा था कि- आप घोषणा करती हैं या फिर मैं खुद युद्ध की घोषणा करू ? उस युद्ध की घोषणा के बाद युद्ध की सारी कमान जनरल मानेकशा के हाथ में थी.

जनरल मानेकशा ने तो नेताओं के द्वारा, युद्ध को लेकर कोई बयान तक देने पर रोक लगा दी थी. उस 14 दिन के भीषण युद्ध में भारतीय सेना ने बहुत सीमित संसाधनों के साथ पापिस्तान को शिकस्त दी थी. इंदिरा गांधी या उनकी सरकार का काम था सेना को अधिक से अधिक आधुनिक हथियार उपलब्ध कराना जिसमे वह नाकाम रही थी.

अगर किसी मोर्चे पर 123 सैनिको ने साधारण MMG के साथ 3,000 पापिस्तानियो की टैंक ब्रिगेड को तबाह कर दिया था, तो यह उन सैनिको की जीत थी न कि - सरकार की. अगर एक देशभक्त डाकू (बलबंत सिंह भाखासर) की सहायता से सेना ने पापिस्तान के 100 से ज्यादा गाँवों पर कब्ज़ा कर लिया था तो क्या यह इंदिरा की जीत थी ?

अगर साधारण टूरिस्ट मैप की सहायता से भारतीय वायुसेना ने मात्र 3 मिनट के हवाई हमले में, ढाका में मौजूद पापिस्तानी मुख्यालय को उड़ा दिया था तो यह उन जोशीले वायु सैनिको की बहादुरी और बुद्धिमानी थी या इसके पीछे इंदिरा गांधी की कोई रणनीति काम कर रही थी ? सैनिको की बहादुरी की ऐसी अनेकों घटनाएं उस युद्ध के इतिहास में दर्ज हैं.

भारत के नौसैनिकों ने एक साधारण युद्धपोत की सहायता से पापिस्तान की पनडुब्बी (पीएनएस गाजी) को नष्ट कर दिया तो यह उन नौसैनिको की जीत थी न कि - उस निकम्मी सरकार की, जो नौसेना के लिए तब तक एक पनडुब्बी भी उपलब्ध नहीं करा सकी थी. उस युद्ध की महत्वपूर्ण घटनाए आप मेरे ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं.

14 दिन के उस भीषण युद्ध में भारतीय सेना ने अनेकों देशभक्त गाँव वालों के सहयोग से पापिस्तान को करारी शिकस्त दी और हजारों पापिस्तानी सैनिको को बंदी बना लिया था. जिस समय बंगलादेश में पपिस्तानी सेना के 30,000 सैनिको ने भारतीय सेना ने हथियर डाले थे उस समय बंगलादेश में भारत के केवल 3,000 सैनिक मौजूद थे.

भारतीय सेना ने अपनी बहादुरी और कुर्बानियों के द्वारा पापिस्तान पर जो जीत हाशिल की थी, इंदिरा गांधी ने तो उस जीत को ही "शिमला समझौते" के द्वारा हार में बदल दिया था. युद्ध के बाद जब सेना बैरकों में वापस लौट गई तब कांग्रेसियों ने इंदिरा का ऐसे गुणगान शुरू कर दिया जैसे युध्ह इंदिरा गांधी ने खुद लड़ा हो.

अपने झूठ को और पक्का बनाने के उद्देश्य से कांग्रेसियों ने एक झूठ और गढ़ा कि- युद्ध में इंदिरा गांधी की बाहादुरी को देखते हुए, जनसंघ के नेता "अटल बिहारी बाजपेई" उनको दुर्गा का अवतार कहते थे. अटल जी सारी जिन्दगी हर मंच पर इसका खंडन करते रहे, लेकिन कांग्रेसी यही झूठ फैलाते रहे कि-अटल जी इंदिरा को दुर्गा कहते थे.

अगर अटल जी इंदिरा गांधी को दुर्गा मानकर पूजते थे और इंदिरा गांधी भी अटल जी को सम्मान देती होतीं तो, आपातकाल की घोषणा होते ही , उसी रात को अटल जी को गिरफ्तार कर जेल में न भेज देतीं. इंदिरा गांधी की प्रशंसा में गाये जाने वाले गीत उतने ही सच्चे हैं, जितना गांधी के चरखे द्वारा भारत को आजाद कराने का सच.
और हाँ, उस काल की सबसे निंदनीय घटना के बारे में तो बताना रह ही गया. बांग्लादेश में चल रहे गृहयुद्ध के दौरान मुक्तिवाहिनी की मदद करने के नाम पर बैंको से खूब पैसा निकाला गया. 1972 में जिसमे एक मामला "नागरवाला घोटाला काण्ड" खुल गया था. इस घोटाले के बारे में पुराने लोग जानते ही हैं और नए लोग गूगल पर सर्च कर सकते है.  

1971 युद्ध : तीन मिनट का आख़िरी हमला (14 दिसंबर)

3 दिसम्बार 1971 को पापिस्तान ने अमेरिकी हथियारों के दम पर भारत पर यह सोंच कर हमला किया था कि वो युद्ध मे भारत को मात दे देगा, लेकिन भारतीय सेना ने उसे दस दिन में ही छठी का दूध याद दिला दिया था. भारतीय सेना ने पापिस्तान को हर मोर्चे पर मात दी. भारतीय सेना के हौशले के सामने पापिस्तानी टिक ही नहीं पाए.
थल सेना ने पूर्वी और पश्चिमी दोनों पापिस्तान में बड़े भूभाग को जीत लिया था. कराची के बन्दरगाह पर भारतीय नौसेना ने कब्जा कर लिया था. पापिस्तान के सैकड़ों टैंक, तीन युद्धपोत, एक बड़ी पनडुब्बी, अनेको लड़ाकू विमान, आदि को भारतीय सेना ध्वस्त कर चुकी थी. इसके अलावा पूर्वी पापिस्तान की आम जनता भारत के साथ आ गई थी.
इस हालात से निपटने के लिए, पूर्वी पापिस्तान के गवर्नर "डाक्टर ए. एम. मलिक" ने 14 दिसंबर 1971 को सर्किट हाउस में एक मीटिंग बुलाई, जिसमे पापिस्तानी प्रशासन के सारे आला अधिकारी भाग लेने वाले थे. उनका यह मैसेज भारतीय वायुसेना के एक रेडियों ने पकड़ लिया. वायु सेना ने निर्णय लिया कि - इस मीटिंग के समय बड़ा हमला करना है.
गुवाहाटी से 150 मील दूर हाशिमारा एयर बेस में विंग कमांडर आरवी सिंह ने, 37 स्कवॉड्रन के सी.ओ. विंग कमांडर एसके कौल को बुला कर ब्रीफ़ किया कि- उन्हें ढाका के सर्किट हाउस को ध्वस्त करना है. साथ ही उनको निर्देश दिया गया कि- हमले में ध्यान रखना कि - बंगाल की आम जनता को कोई नुकशान नहीं होना चाहिए.
दुसरी तरफ गुवाहाटी में विंग कमांडर बी.के.बिश्नोई के नेतृत्व 4 मिग को इस काम की जिम्मेदारी दी गई. विश्नोई का विमान उड़ने ही वाला था कि -एक अफसर एक कागज़ लहराते हुए, दौड़ते हुए उनके पास आया और बताया कि - लक्ष्य बदल दिया गया है. मीटिंग सर्किट हाउस के बजाय गवर्नर हाउस में हो रही है, इसलिए वहीं हमला करना है.
बिश्नोई ने पूछा- ये है कहाँ ? तो उसका जवाब था कि आप को ही पता करना है कि- वो कहाँ है. बिश्नोई को अगले 24 मिनट में हमला करना था जिसमे से 21 मिनट वहां पहुँचने में ही लगने वाले थे. उनके पास इतना समय भी नहीं था कि उस पर चर्चा कर पाते. वे अपने साथी पायलेट्स को भी रेडियो पर नहीं बता सकते थे, क्योंकि मैसेज पकडे जाने का डर था.
बीस मिनट की उड़ान ने बाद वे ढाका के पहुँच गए, वहां पहुँच कर उन्होंने टूरिस्ट मैप को निकाल कर देखा और अपने साथी पायलेट्स को रेडियो पर संदेश भेजा कि - ढाका हवाई अड्डे के दक्षिण में लक्ष्य को ढ़ूंढ़ने की कोशिश करें. अब ये लक्ष्य सर्किट हाउस न हो कर गवर्मेंट हाउस है. उनके दुसरे पायलट विनोद भाटिया ने सबसे पहले गवर्मेंट हाउस को ढूंढ़ा.
विनोद भाटिया ने उसके बारे में विश्नोई को सूचित किया. लोकेशन सुनिश्चित करने के लिए बिश्नोई अपने मिग को बहुत नीचे ले आये. नीचे बहुत सारी कारें और बहुत सारे सैनिक देखकर उनको लक्ष्य पक्का हो गया. भवन की गुम्मद पर पापिस्तान का झंडा देखने के बाद उन्होंने अपने साथी पायलट्स को बोला - यही लक्ष्य है, हमें यहीं हमला करना है.
उनके आगे निकलते ही अन्य विमानों ने राकेट दाग दिए. वहां एकदम अफरा तफरी मच गई. इससे पहले की वे लोग कुछ समझ पाते, विंग कमांडर एस.के. कौल भी अपनी टीम के साथ पहुँच गए. उनके निशाने इतने सटीक लगे थे कि - गवर्नर हाउस के आसपास की किसी बिल्डिंग को कोई नुकशान नहीं हुआ. हवाई हमले में ऐसा होना बहुत बड़ी बात है.
इस हमले के समय गवर्नर हाउस में गवर्नर ए. एम. मलिक अपने मंत्रिमंडल के साथियों से मंत्रणा कर रहे थे और संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि जॉन केली भी उसी समय वहां पहुंचे थे. उनके बीच चर्चा हो ही रही थी कि - अचानक यह हमला हो गया. केली और उनके साथी व्हीलर जंगले से बाहर कूदे और बचने के लिए बाहर खड़ी एक जीप के नीचे छिप गए.
इस हमले के बाद गवर्नर ए. एम. मलिक ने हार मान ली और रेडियो पर ही अपना इस्तीफा राष्ट्रपति याहया खान को दे दिया. याहया खान ने कहा कि- जनरल नियाजी भारत को इसका जबाब देगा, लेकिन मलिक ने कहा अब कोई कुछ नहीं कर पायेगा, अब हम खुद शरणार्थी हैं. इस हमले के बाद 14 दिसंबर को पापिस्तान का प्रतिरोध समाप्त हो गया था.
मुक्तिवाहिनी के सैनिक सड़कों पर आ गए और वो पापिस्तानी सैनकों से गिन गिन कर जुल्म का हिसाब लेने लगे. इधर लेफ्लीनेंट जनरल जैकव के नेतृत्व में थल सेना ढाका पहुच गई. जैकव ने नियाजी को सन्देश दिया कि- अगर सरेंडर कर दोगे तो हम तुम्हारी रक्षा का बचन देते हैं, वरना ये मुक्ति वाहिनी वाले तुममे से किसी को ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे.
उस समय ढाका शहर में ही पापिस्तान के 30,000 सैनिक थे और भारत के केवल 3,000, लेकिन पापिस्तानियों की हिम्मत जबाब दे चुकी थी. अपने अधिकारियों से मंत्रणा करने के बाद जनरल नियाजी ने आत्मसमर्पण करने का निर्णय ले लिया और जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. इसके साथ ही वह युद्ध समाप्त हो गया.
तीन मिनट के इस हमले ने पापिसान की हार निश्चित कर दी थी. युद्ध में असाधारण वीरता दिखाने के लिए विंग कमांडर एसके कौल को महावीर चक्र और विंग कमांडर बीके बिश्नोई और हरीश मसंद को वीर चक्र प्रदान किए गए. आगे चलकर विंग कमांडर एसके कौल वायुसेना अध्यक्ष बने तथा उनके बाद हरीश मसंद भी वायुसेना अध्यक्ष बने.


Monday, 25 June 2018

1975 का आपातकाल

1966 में लालबहादुर शास्त्री जी की म्रत्यु के बाद "नेहरु" परिवार के बफादार "इंदिरा गाँधी" को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन ज्यादातर सीनियर नेता किसी बड़े कांग्रेसी नेता को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे, इसलिए अस्थाई तौर पर "गुलजारी लाल नंदा" जी को कामचलाऊ प्रधानमन्त्री बनाया गया. गौर तलब है कि उस समय विपक्ष ज्यादा मजबूत नहीं था और इन्दिरा गांधी का जो भी बिरोध था वो कांग्रेस के अन्दर ही था.
नेहरु परिवार के बफादारों ने 1967 में कांग्रेस को दोफाड़ कर दिया. अब कांग्रेस दो भागों (कांग्रेस "ओ" और कांग्रेस "आर") में विभाजित हो गई. कांग्रेस "ओ" का नेत्रत्व "कामराज" और "मोरारजी देसाई" कर रहे थे और कांग्रेस "आर" का "इंदिरा गांधी". कांग्रेस "आर" ने इंदिरागांधी को प्रधानमंत्री बना दिया. अब 1971 के आम चुनाव में कांग्रेस "आर" को किसी भी तरह जिताना इंदिरा गांधी का लक्ष्य था,
उस समय गैर कांग्रेसी विपक्ष बहुत कमजोर था और "इंदिरा गांधी" का मुकाबला कांग्रेस "ओ" के ही बड़े और सीनियर नेताओं से था. 1971 का चुनाव जीतने के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अनैतिकता की सारी सीमाएं लाँघ दीं. जमकर धनबल, बाहुबल और सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग हुआ. कहीं वोटरों को पैसा दिया गया, कहीं बूथ कैप्चरिंग कराई गई और कहीं सरकारी अधिकारियों द्वारा गिनती में हेराफेरी की गई.
इस प्रकार इंदिरा गांधी 1971 का चुनाव भारी बहुमत ( 352 / 518 ) से जीत गईं. इन धांधलियों के खिलाफ देश की अनेकों अदालतों में, अनेकों केस किये गए. ऐसा ही एक केस समाजवादी नेता राजनारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में "जस्टिस जगमोहनलाल सिन्हा" की अदालत में किया था. इस मामले में "इंदिरा गांधी" की पैरवी प्रशिद्ध वकील "नानी पालकीवाला" और राज नारायण की पैरवी "शान्ति भूषण" ने की थी.
दोनों पक्षों को सुनने के बाद , 12 जून 1975 को जस्टिस "जगमोहनलाल सिन्हा" ने इंदिरा गांधी को वोटरों को घूस देने, सरकारी मशनरी का गलत इस्तेमाल, सरकारी संसाधनों का गलत इस्तेमाल जैसे 14 आरोपों में दोषी घोषित किया और 6 साल तक कोई भी चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया. इंदिरा गांधी ने इस फैसले को मानने से इनकार कर दिया और फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी.
24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने भी इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा लेकिन अगली व्यवस्था होने तक इंदिरा को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहने की इजाजत दे दी. 25 जून 1975 की सुबह लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग की और इस्तीफ़ा न देने पर राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन करने का ऐलान कर दिया. जे.पी. की इस घोषणा का सभी विपक्षी दलों ने भी समर्थन कर दिया.
इस सब को देखते हुए हुए इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 की रात को ही, राष्ट्राध्यक्ष "फखरुद्दीन अली अहेमद" के द्वारा देश में आंतरिक आपातकाल की घोषणा करवा दी. अब देश की सभी लोकतांत्रिक और सवैधानिक संस्थायें निष्प्रभावी हो चुकी थी और इंदिरा गांधी भारत की शासक (डिक्टेटार) बन गईं थी. संजय गांधी, बंसीलाल, वी,सी.शुक्ल, ओम मेहता की चौकड़ी, मनमाने तरीके से देश को चलाने लगा.
देश में सारे मानवाधिकार खत्म हो चुके थे, दिखावे के लिए संजय गांधी का पांच सूत्रीय कार्यक्रम चल रहा था जिसका काम - प्रौढ़ शिक्षा, दहेज प्रथा का खात्मा, पेड़ लगाना, परिवार नियोजन और जाति प्रथा उन्मूलन था. लेकिन सबसे ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था. पुलिसवाले गांव को घेर लेते थे और पुरुषों की जबरदस्ती नसबंदी कर दी जाती थी, इस दौरान 83 लाख पुरुषों की जबरन नसबंदी की गई थी.
25 जून की रात को ही, इंदिरा गांधी ने तमाम बड़े विपक्षी नेताओं जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी बाजपेई, लाल कृष्ण अडवानी, राज नारायण, मोरारजी देसाई, आदि को गिरफ्तार कर जेल में भेज दिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसका इस मामले में कोई रोल नहीं था उसके स्वयंसेवकों को पकड़कर जेल भेजा जाने लगा. आरएसएस पर यह आरोप लगाया कि- उसके मुखपत्र आर्गनाइजर ने "इंदिरा गांधी" के बिरोध में लिखा था.
इंदिरा को लगा कि- विपक्ष के बड़े नेताओं को गिरफ्तार करने से विपक्ष दब जायेगा लेकिन हुआ इसका उल्टा. अब अनेकों नेता तथा युवा इंदिरा गांधी के खिलाफ सड़कों पर उतर आये, जिनमे चंद्रशेखर, बालासाहब देवरस, सुब्रहमन्यम स्वामी, लालू यादव, नरेंद्र मोदी, मुलायम सिंह यादव, अरुण जेटली, सीताराम येचुरी, संतोष गंगवार, नितीश कुमार, शिवराज सिह चौहान, कल्याण सिंह, शंकर सिंह बाघेला, आदि प्रमुख थे.
लालू, मुलायम, मोदी और स्वामी तो इतना प्रचंड आन्दोलन कर रहे थे कि- सरकार ने इनको गिरफ्तार करने के बजाय सीधे गोली मार देने की साजिश कर ली थी. लालू प्रसाद यादव ने तो एक अफवाह फैलवाकर कि - लालू को मारकर गंगा में फेंक दिया है, अपना बचाव किया और फिर भूमिगत रहकर आन्दोलन चलाया. नरेंद्र मोदी और सुब्रहमन्यम स्वामी सिक्ख वेश में फरार होकर सरकार के खिलाफ अलख जगाते रहे.
इस प्रकार 21 माह के इस आपातकाल ने जितने नेताओं को कैद किया था, उससे कहीं ज्यादा नए नेताओं को जन्म दिया. आज लोग फेसबुक, ट्वीटर, आदि पर लिखते हैं कि - मोदी ने अघोषित आपातकाल लगा रखा है उनको पता होना चाहिए कि- आपातकाल में मामूली सा बिरोध करने की भी इजाजत नहीं थी. उस समय कोई भी व्यक्ति, पत्रकार, कर्मचारी, आदि किसी भी प्रकार से सरकार के खिलाफ नहीं बोल सकते थे.
इंदिरा गांधी ने जिस तरह अचानक आपातकाल लगाने की घोषणा की थी उसी तरह 18 जनवरी 1977 को, लोकसभा चुनाव कराने की घोषणा कर दी. 6-20 मार्च के बीच देश में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की ऐतिहासिक हार हुई. इंदिरा और संजय गांधी दोनों ही चुनाव हार गए. 21 मार्च 1977 को आपातकाल हटा दिया गया और 24 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई के नेतृत्व में देश में पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनी.

Saturday, 23 June 2018

बन्दा सिंह बहादुर

बाबा बंदा सिंह बहादुर के 302वें शहीदी ..."बन्दा सिंह बहादुर" का जन्म 27 अक्टूबर 1670 ई. में, कश्मीर के पुंछ ज़िले के राजौरी क्षेत्र में, भारद्वाज गोत्र के एक राजपूत परिवार में हुआ था. उनका बचपन का नाम लक्ष्मण देव था तथा उनके पिता का नाम रामदेव था. वे बचपन से ही बहुत बहादुर थे और वे अक्सर अकेले ही, तीर-कमान लेकर जंगल में शिकार के लिए चले जाया करते थे.
15 वर्ष की उम्र में उनके हाथों एक गर्भवती हिरनी का शिकार हो गया. हिरनी तथा उसके नवजात बच्चे की दर्दनाक म्रत्यु देखकर, उनको बहुत ग्लानि हुई और मन में वैराग्य पैदा हो गया और वे वैरागी संत जानकी प्रसाद के शिष्य बन गए, उनके गुरु ने उनका नाम माधोदास बैरागी रख दिया. बाद उन्होंने संत रामदास बैरागी का शिष्यत्व ग्रहण किया.
अपने गुरु संत बाबा रामदास बैरागीके साथ वे पंचवटी (नासिक, महाराष्ट्र) चले गए. वहाँ उन्हने एक अन्य संत औघड़नाथ से योग की शिक्षा प्राप्त की और योगी हो गए. कुछ ही समय में उनका उस क्षेत्र में प्रभाव बढ़ गया, तो उन्होंने नांदेड में अपना आश्रम बना लिया. कहा जाता है कि - उन्होंने योगबल द्वारा अनेकों सिद्धियाँ भी प्राप्त कर ली थीं.
इधर औरंगजेब के हाथों परिवार, शिष्यों और साथियों के शहीद हो जाने के बाद, गुरु गोविन्द सिंह भी, पंजाब को छोड़कर दक्षिण की तरफ चले गए. एक बार वे संत माधव दास के आश्रम में पहुंचे. जब माधव दास को गुरु जी की कीर्ति का पता चला तो उसने गुरु जी को बहुत सम्मान दिया और उनसे पंजाब का हाल पूंछा.

गुरु जी ने जब उत्तर भारत में हो रहे मुघलिया अत्याचार के बारे में बताया, तो उनका खून खौल उठा और उन्होंने मुघलो से अत्याचार का बदला लेने की कसम खाई. उन्होंने गुरु जी के आगे शीश नवाकर उनको अपना गुरु धारण कर लिया. गुरु गोविन्द सिंह ने उनको अमृतपान कराकर नया नाम दिया "गुरुबख्श सिंह". हालांकि कुछ लोगों का यह भी कहना है कि उन्होंने धर्म परिवर्तन नहीं किया था 
गुरु गोविन्द सिंह जी का हुक्म मानकर "गुरुबख्श सिंह" अपने साथियों के साथ दिल्ली के लिए निकल पड़े. ऐसा बताया जाता है कि- गुरु गोविन्द सिंह ने "गुरुबख्श सिंह" को दिए अपने हुक्मनामे में अपने अनुयायियों को सन्देश दिया कि- यह बंदा बहुत बहादुर है इसको मेरा प्रतिनिधि मानकर इसका साथ देना.
इसके कारण लोग उनको बंदा बहादुर भी कहने लगे और धीरे धीरे उनका यही नाम प्रशिद्ध हो गया. इस प्रकार "लक्ष्मण देव", "माधोदास बैरागी", "स. गुरुबख्श सिंह", "बंदा बहादुर", "बंदा सिंह बहादुर", "बंदा बैरागी" सभी नाम एक ही महान व्यक्ति के हैं. इसलिए उनके नाम पर विवाद करने के बजाय, उनके महान काम पर ध्यान देना चाहिए.
गुरु गोविन्द सिंह ने बन्दा बहादुर को, पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर कहा कि - उत्तर में जाकर यह निशानियाँ मेरे अनुयायियों को दिखाना, वो तुम्हारा साथ देंगे. बन्दा सिंह बहादुर जानते थे कि- दिल्ली में कुछ किये बिना कोई हलचल नहीं होगी, लेकिन मुट्ठीभर साथियों के साथ दिल्ली पर हमला करना खुदकशी होगा,
उन्होंने सबसे पहले उस जल्लाद जलालुद्दीन का बध किया, जिसने गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटा था. उसके बाद सारे इलाके में खबर फ़ैल गई कि - गुरु गोविन्द सिंह का कोई बहादुर शिष्य आया है. गुरु गोंविंद सिंह के जाने के बाद नेत्रत्वहींन सिक्ख इधर उधर भटक रहे थे. गुरु जी की निशानिया देखने के बाद, सबने उनको अपना सरदार मान लिया.
तब अपने साथ विशाल फ़ौज को संगठित कर, बन्दा बहादुर ने सरहिंद पर हमला कर दिया. 12 मई 1710 की यह लड़ाई "चप्पड़चिड़ी की जंग" के नाम से मशहूर है. इसमें बजीर खान मारा गया. उसके बाद उन्होंने लोहगढ़ किले को अपनी राजधानी बनाकर खालसा राज की नींव रखी. उन्होंने गुरु नानक देव जी और गुरू गोबिन्द सिंह जी के नाम से सिक्का और मोहरे जारी की.

उसके बाद बन्दा बहादुर ने मलेरकोटला पर हमला किया और मलेरकोटला  भी जीत लिया. लड़ाई में मलेरकोटला का नबाब शेरबहादुर खान मारा गया. उनका साथ देने वाले भाई आली सिंह और माली सिंह ने बताया कि - नबाब नबाब शेरबहादुर खान हिन्दू महिलाओं को उठा लाता था और उनको मुस्लमान बनाकर उनपर जुल्म करता था.

उन्होंने बन्दा बहादुर को बीबी अनूप कौर के बारे में बताया जिसने अपने धर्म और इज्जत को बचाने के लिए अपनी जान देदी थी तब बन्दा बहादुर ने कब्रिस्तान की खुदाई कराकर बीबी अनूप कौर के अवशेष निकलकर उनका दाह संस्कार कराया. हालांकि इस घटना को वामपंथी इतिहासकारो ने इसे कब्रों को खुदवाकर लाशों की बेअदबी करना लिखा है.   

उन्होंने मुघलों के बिठाए जमीदारों से जमीन छीनकर, भूमिहींन किसानो को उन जमीनों का मालिक घोषित किया. उनकी बढ़ती ताकत से घबराकर दिल्ली के बादशाह फर्रुखसियर ने एक कुटिल चाल चली. उन दिनों गुरु गोबिन्द सिंह की दो पत्नियां बीबी साहिब कौर और माता सुंदरी दिल्ली मेंमुगलों के संरक्षण में रह रही थीं. फर्रुखसियर ने बन्दा के सैनिकों में फूट डालने के "माता सुंदरी" का सहारा लिया. 

माता सुंदरी ने  फर्रुखसियर के बहकावे में आकर बन्दा को यह निर्देश दिया कि वह मुगलों के सामने आत्मसमर्पण कर दें, लेकिन बन्दा ने इसे मानने से इंकार कर दिया. बन्दा बहादुर का कहना था कि गुरु महाराज के सामने मुगलों का नामोनिशान मिटाने का जो संकल्प लिया है उसे वह भंग नहीं कर सकता. 

इससे चिढ़कर माता सुंदरी ने सिखों का यह निर्देश दिया कि- वे बन्दा का साथ छोड़ दें. गुरुमाता के आदेश पर बन्दा के सैनिकों में भारी विभाजन हुआ. तत खालसा नामक एक बड़ा गुट बन्दा का साथ छोड़कर मुगल सेना में शामिल हो गया जबकि दूसरा गुट जो बंदई खालसा कहलाते थे, उन्होंने अंत तक बन्दा बहादुर का साथ दिया.

जनवरी 1715 ई. में दिल्ली के बादशाह फर्रुखसियर ने, अब्दुल समद खाँ को 10 लाख की फ़ौज देकर भेजा. उसने अपने साथ आये हुए तत खालसा के सैनिको को भी अपनी सेना के साथ भेजा जिससे कि - सिक्ख आपस में ही लड़ें.  तत खालसा और मुगलों की संयुक्त शक्ति के कारण बन्दा को लौहगढ़ के किले में शरण लेनी पड़ी.

कई माह की घेराबंदी के कारण खाद्य सामग्री का अभाव हो गया. तब उन्होंने 7 दिसम्बर 1715 ई. में इस शर्त पर आत्मसमर्पण कर दिया कि - केवल उनको गिरफ्तार किया जाएगा, उनके बाक़ी सभी साथियों को जाने दिया जाएगा. लेकिन उनके समर्पण करते ही अब्दुल समद खाँ वादे से मुकर गया और उनके सभी साथियों को भी पकड़ लिया.

मुगलों ने गुरदास नंगल के किले में रहने वाले 40 हजार से अधिक बेगुनाह मर्द, औरतों और बच्चों की निर्मम हत्या कर दी. मुगल सम्राट के आदेश पर पंजाब के गर्वनर अब्दुल समन्द खां ने अपने पुत्र जाकरिया खां और 21 हजार सशस्त्र सैनिकों की निगरानी में बाबा बन्दा बहादुर को दिल्ली भेजा. 

बन्दा बहादुर को जंजीरों से बांधकजर एक पिंजरे में बंद किया गया था. इस जुलुस में 101 बैलगाड़ियों पर सात हजार सिखों के कटे हुए सिर रखे हुए थे जबकि 794 सैनिको को भी कैदी बनाकर ले जाया गया. फरवरी 1716 को 794 सिक्खों के साथ वह दिल्ली लाये गए, जहाँ उनको बहुत प्रताड़ित किया गया. 

बादशाह फर्रुखसियर ने उनको कहा कि - अगर तुम इस्लाम कबुल कर लो और मुघलो की आधीनता स्वीकार लो तो तुमको छोड़ दिया जाएगा और पंजाब के क्षेत्र की जागीरदारी भी दे दी जायेगी, अन्यथा सभी को दर्दनाक मौत देकर मार दिया जाएगा.  मगर उन्होंने फर्रुखसियर के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और जान से ज्यादा धर्म को अहमियत दी.  

मुगल इतिहासकार मिर्जा मोहम्मद हर्सी ने अपनी पुस्तक इबरतनामा में लिखा है कि- हर शुक्रवार को नमाज के बाद 101 कैदियों को जत्थों के रुप में दिल्ली की कोतवाली के बाहर कत्लगाह के मैदान में लाया जाता था. काजी उन्हें इस्लाम कबूल करने या हत्या का फतवा सुनाते.  मोहम्मद हर्सी के अनुसार  यह सिलसिला डेढ़ महीने तक चलता रहा. 

अपने सहयोगियों की हत्याओं को देखने के लिए बन्दा को एक पिंजरे में बंद करके कत्लगाह तक लाया जाता ताकि वह अपनी आंखों से इस दर्दनाक दृश्य को देख सकें. बादशाह के आदेश पर तीन महीने तक बंदा बहादुर और उसके 27 सेनापतियों को लालकिला में कैद रखा गया. उनसे इस्लाम कबूल करवाने के लिए कई तरह के हथकंडो का इस्तेमाल किया गया.  

जब सभी प्रयास विफल रहे तो जून माह में बन्दा की आंखों के सामने उसके एक-एक सेनापति की हत्या की जाने लगी. जब यह प्रयास भी विफल रहा तो 16 जून 1716 को बन्दा बहादुर को पिंजरे में बंद करके महरौली ले जाया गया. फर्रुखसियर ने फिर प्रस्ताव दोहराया, लेकिन उन्होने नहीं माना. तब फर्रुखसियर ने बहशियाना कार्य किया. 
बन्दा सिंह बहादुर का बलिदान, ये वीर ...
बन्दा सिंह बहादुर को बांधकर, उनके चार वर्षीय अबोध पुत्र  अजय सिंह को उनके समने काटकर, उसका दिल निकाल कर कर, जबरन उनके मुह में डाला. उसके बाद और भी ज्यादा दरिंदगी दिखाने के लिए, उसने उनके शरीर के मांस को चिमटों से नोच नोच कर, बुरी तरह तड़पा कर मारने का आदेश दे दिया. 

काजी के कहने पर फर्रूखशियार ने बन्दा बहादुर और उनके बचे हुए मुख्य सैन्य-अधिकारियों के भी, शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर बलिदान कर दिया. धर्मवीर बन्दा तब भी निर्विकार और शांत बने रहे. जब बन्दा टस से मस न हुआ तो उनका एक-एक अंग  काटा जाने लगा. अंत में उनका सिर काट कर उनकी हत्या कर दी गई.

पंजाब की पिछली "बादल सरकार" ने मोहाली के पास "चप्पड़चिडी" में "चप्पड़चिडी की जंग" का भव्य स्मारक का निर्माण करवाया है. जिसमे मध्य में एक विशाल मीनार का निर्माण किया गया है तथा मीनार के आस पास महान योद्धाओं की विशाल प्रतिमाये भी बनबाई है. आपको अपने बच्चों को एक बार वहां लेकर अवश्य जाना चाहिए.

गुरु अर्जुनदेव

सिक्ख गुरु परम्परा में "गुरु अर्जुनदेव" पांचवें स्थान पर आते हैं. गुरु अर्जन देव सिक्खों के चौथे गुरु, "गुरु रामदास" के पुत्र थे. उनका जन्म 15 अप्रैल 1563 गोइंद्वाल साहब में हुआ था. वे सन 1581 ई. में गुरू गद्दी पर बैठे थे . पवित्र ग्रन्थ 'गुरु ग्रंथ साहब' आज जिस रूप में उपलब्ध है, उसका संपादन "गुरु अर्जुनदेव" जी ने ही किया था.
आध्यात्मिक जगत में "गुरु अर्जुनदेव" जी को बहुत ऊंचा स्थान प्राप्त है. उन्हें ब्रह्मज्ञानी भी कहा जाता है. ग्रंथ साहिब का संपादन गुरु अर्जुन देव जी ने भाई गुरदास की सहायता से 1604 में किया था. गुरुग्रंथ साहिब में तीस रागों में गुरु जी की वाणी संकलित है. गणना की दृष्टि से श्री गुरुग्रंथ साहिब में सर्वाधिक वाणी पंचम गुरु की ही है.
अमृतसर के स्वर्ण मंदिर और तरन तारन के भव्य गुरुद्वारे के साथ विशाल सरोवर बनवाने का श्रेय भी उनको को ही जाता है. गुरु अर्जुन देव का बहुत ज्यादा प्रभाव था. उनके शिष्यों में सिक्ख और हिन्दुओं के अलावा बहुत से मुस्लिम भी शामिल हो गए थे. गुरु जी का बढ़ता प्रभाव सत्ता से नजदीकी वाले (अ)धार्मिक नेताओं को रास नहीं आ रहा था.
उन दिनों दिल्ली पर अकबर का शासन था. कुछ असामाजिक तत्वों ने अकबर बादशाह के पास यह शिकायत की कि - ग्रंथ में इस्लाम के खिलाफ लिखा गया है. अकबर ने जांच करने पर शिकायत को झूठा पाया, लेकिन अकबर का पुत्र जहांगीर गुरु अर्जुन देव के खिलाफ ही रहा और उनके खिलाफ कार्यवाही करने का मौक़ा तलाश करने लगा.
अकबर की म्रत्यु के बाद जहांगीर दिल्ली का शासक बना. वह बहुत ही ज्यादा कट्टर था, उसे अपने धर्म के अलावा, कोई अन्य कोई धर्म पसंद नहीं था. जहाँगीर ने अपने चापलूस और गुरु जी के परिचित "चंदू" के माध्यम से कहलवाया कि - अपने ग्रन्थ में मोहमद साहिब की स्तुति लिखनी होगी, जिसे गुरु अर्जुन देव ने अस्वीकार कर दिया.
इसी बीच जहाँगीर के एक बेटे खुसरो ने बगावत कर दी थी. खुसरो ने गुरु अर्जुन देव से सहायता मांगी. जहाँगीर को यह शक था कि - गुरू जी ने बाग़ी शहजादा खुसरो की मदद की थी. शेखुलर इतिहासकार जिस जहाँगीर को इन्साफ का पुजारी बताते है, उस जहाँगीर ने बिना "गुरु जी" पक्ष जाने को यातना देकर मारने का फरमान दे दिया.
जहागीर के चमचे "चंदू" ने गुरु जी को अकेले बुलाकर लालच दिया कि - अगर आप मेरी बेटी का रिश्ता अपने बेटे के साथ कर दें और अपने ग्रंथ में मोहमद साहिब की स्तुति लिखने को तैयार हों तो मैं आपकी सजा माफ़ करा दूंगा. इस पर गुरुजी ने कहा - प्राणी मात्र के उद्धार के लिए हमें करतार से जो प्रेरणा मिलती है इसमें हम केवल वही लिख सकतें हैं.
तब उनको गर्म तबे पर बिठाया गया, गर्म रेत डाली गई, देग में गर्म पानी में उबाला गया मगर गुरुजी सारी यातनाएं झेलने के बाद भी अधर्मियों के आगे नहीं झुके. अगले दिन फिर जहाँगीर का चमचा "कमीना चंदू" फिर अपनी बात मनाने के लिए गुरु जी के पास पहुँचा तो गुरु जी ने उससे रावी में स्नान करने की इच्छा व्यक्त की.
अनुमति मिलने पर गुरु जी पांच सिखों सहित रावी तट पर आ गए और "जपुजी साहिब" का पाठ करके "भाई लंगाह" को कहा कि - अब हमरी परलोक गमन कि तैयारी है. आप जी श्री हरिगोबिंद को धैर्य देना और कहना कि शोक नहीं करना, करतार का हुकम मानना. हमारे शरीर को जल प्रवाह ही करना, संस्कार नहीं करना.
इसके पश्चात गुरु जी ने रावी में प्रवेश करके अपना शरीर त्याग दिया. उस दिन ज्येष्ठ सुदी चौथ संवत 1553 विक्रमी थी. गुरु जी का ज्योति ज्योत समाने का सारे शहर में बड़ा शोक बनाया गया. गुरु जी के शरीर त्यागने के स्थान पर गुरुद्वारा "ढ़ेरा साहिब" लाहौर के शाही किले के पास ही विद्यमान है. गुरु जी की धर्मनिष्ठा को कोटि कोटि नमन ..

बाला साहब देवरस

महान संगठनकर्ता "बाला साहब देवरस" के जन्मदिवस (11 दिसंबर) पर सादर नमन 
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बाला साहब देवरस जी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक थे. उनका वास्तविक नाम "मधुकर दत्तात्रेय देवरस" था परन्तु वे 'बाला साहब देवरस" नाम से अधिक प्रसिद्ध थे. श्री बाला साहब देवरस का जन्म 11 दिसम्बर 1915 को नागपुर में हुआ था. उनका परिवार मूलरूप से मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के का रहने वाला था.
उनके पिताजी नागपुर आकर बस जाने के कारण वे नागपुर के हो गए थे. उनकी सम्पूर्ण शिक्षा नागपुर में ही हुई. उनकी कुशाग्र बुद्धि को देखते हुए उनके पिता जी उनको बड़ा अफसर बनाना चाहते थे. उनको अंग्रेजी स्कूल "न्यू इंगलिश स्कूल" मे पढने भेजा. लेकिन जब डा.हेडगेवार जी ने नागपुर में आरएसएसकी स्थापना की, तो वे शाखा में जाने लगे
संघ की शाखा में जाने के बाद उनका अंग्रेजी से मोह भंग हो गया. अब उन्होने अपना लक्ष्य, सरकारी नौकरी के बजाय भारतीय प्राचीन ज्ञान को जन जन तक पहुंचाना बना लिया. इस उद्देश्य के लिए उन्होंने संस्कृत और दर्शनशास्त्र विषय लेकर पढ़ाई शुरु की और 1935 मे उन्होंने संस्कृत और दर्शनशास्त्र में बी.ए. की डिग्री हाशिल की.
1937 में उन्होंने लॉ की डिग्री हाशिल की. विधि स्नातक बनने के बाद बालसाहेब ने दो वर्ष तक एक 'अनाथ विद्यार्थी बस्ती' मे निशुल्क अध्यापन का कार्य किया. वे पढ़ाई करने के साथ साथ संघ से समय समय पर मिलने वाले दायित्वों को पूरी निष्ठा से निभाते रहे. उनकी क्षमताओं को देखते हुए "श्री गुरुजी " उनसे बहुत स्नेह करते थे.
देवरस जी, छुआछूत के बहुत खिलाफ थे. वे कहते थे कि - अगर अस्पर्षयता पाप नहीं है तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं है. संघ के स्वयंसेवकों को एक दुसरे नाम को पुकारते समय, जाति के बजाय नाम में "जी" लगाकर पुकारने की परम्परा उन्होंने ही शुरू की थी. 1965 में उन्हें सरकार्यवाह का दायित्व सौंपा गया जो 6 जून 1973 तक उनके पास रहा.
श्रीगुरूजी के स्वर्गवास के बाद 6 जून 1973 को सरसंघचालक के दायित्व को ग्रहण किया. उनके कार्यकाल में संघ कार्य को नई दिशा मिली. उन्होने सेवाकार्य पर बल दिया परिणाम स्वरूप उत्तर पूर्वाचल के साथ साथ, देश के वनवासी क्षेत्रों के हजारों की संख्या में सेवाकार्य आरम्भ हुए. उनके कार्यकाल में संघ का सर्वाधिक विस्तार हुआ.
उन दिनों इंदिरा गांधी का शासन था, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के बजाय स्वयं की मर्जी इ शासन चलाने में विशवास रखती थीं. अपनी मर्जी से राज करने तथा बिरोधियों का दमन करने के उद्देश्य से 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया. ाष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसका बिरोध किया तो इंदिरा गांधी ने संघ पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया.
स्वयंसेवको की धर पकड़ शुरु की. उनको निरपराध ही गिरफ्तार कर प्रताड़ित किया जाने लगा. इदिरा गांधी ने संघ के हजारों स्वयंसेवको को "मीसा" तथा "डी आई आर" जैसे काले कानून के अन्तर्गत जेलों में डाल दिया. तब परम पूज्यनीय बाला साहब देवरस जी ने आपातकाल के बिरोध में अखिल भारतीय स्टार विशाल सत्याग्रह प्रारम्भ कर दिया.
उनके मार्गदर्शन में लाखों स्वयंसेवक इंदिरागांधी की निरंकुशता का बिरोध करने लगे. देवरस जी ने ही तत्कालीन "भारतीय जनसंघ" को अन्य कांग्रेस बिरोधी दलों को एक मंच पर लाने का निर्देश दिया. सभी कांग्रेस बिरोधी लोगों ने एक मच "जनता पार्टी" बनाकर 1977 में कांग्रेस को पराजित किया और जनता की सरकार बनाई.
जनता पार्टी की सरकार बन्ने के बाद संघ से प्रतिबन्ध हटा. आपातकाल का बिरोध बहुत सारे गैर कांग्रेसी दलों ने किया था और सभी दलों के लोग जेल गए थे लेकिन कुल जेल जाने वाले सत्याग्रहियों में आधे से अधिक संख्या केवल अकेले "राष्ट्रे स्वयंसेवक संघ के" स्वयंसेवकों की थी. लेकिन इसके बाबजूद कांग्रेसी मूल के नेता संघ से नफरत करते रहे.
जनता पार्टी की सरकार बनवाने ,में महत्वपूर्ण योगदान देने के बाबजूद "जनता पार्टी" के कुछ नेता संघ से नफरत करते थे. जनसंघ के नेताओं पर दबाब बनाया जाने लगा कि - वे या तो संघ को छोड़ दें या जनता पार्टी को. जनसंघ के नेताओं ने भी स्पष्ट कर दिया कि - वे सत्ता छोड़ सकते हैं लेकिन संघ को किसी हाल में नहीं छोड़ सकते.
इसी बीच चौधरी चरण सिंह जैसे कई नेता तो "जनता पार्टी" से गद्दारी कर इंदिरा गांधी से भी मिल गए थे. इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह को प्रधान मंत्री बनबाने का लालच देकर जनता पार्टी को तोड़ दिया. तब बाला साहब देवरस जी के आशीर्वाद से ही जनसंघ के नेताओं में जनता पार्टी से अलग होकर, भारतीय जनता पार्टी नाम की नई पार्टी का गठन किया.
बाला साहब देवरस जी हमेशा जाति पात को छोड़कर हिंदुत्व को मजबूत करने की प्रेरणा देते थे. उन्होंने निर्धन बस्तियों में सेवा कार्य चलाकर धर्मान्त्रण को रोकना का कार्य किया. उन्होंने प्रांत स्तर पर तथा व्यवसाय के स्तर पर अनेकों अनुशागिक संगठन गठित किये, जो स्थानीय उद्देश्यों तथा व्यवसाय हितों को पूरा करते हैं.
मधुमेह के कारण स्वाथ्य गिर जाने पर उन्होंने स्वयंसेवकों से परामर्श कर, अपने जीवनकाल में ही, अपना दायित्व प्रो. रज्जू भैया को सौंप दिया. 17 जून, 1996 को उन्होंने अन्तिम श्वास ली. उनकी इच्छानुसार उनका दाहसंस्कार रेशीमबाग की बजाय नागपुर में सामान्य नागरिकों के शमशान घाट में किया गया.
हिंदुत्व के उत्थान में उनका योगदान सदैव याद किया जाता रहेगा. उन्होंने जाति को मिटाकर हिन्दू समाज को संगठित करने का संकल्प लिया था. आपातकाल का बिरोध और अयोध्या आन्दोलन में उनका बहुत योगदान था. वंदेमातरम्, भारत माता की जय

डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी

डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी नवभारत के निर्माताओं में से एक महत्त्वपूर्ण स्तम्भ है. जिस प्रकार हैदराबाद को भारत में विलय करने का श्रेय सरदार पटेल को जाता है, ठीक उसी प्रकार बंगाल, पंजाब और कश्मीर के अधिकांश भागों को भारत का अभिन्न अंग बनाये रखने की सफलता प्राप्ति में डॉ. मुखर्जी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता.
उन्हें आज भी एक प्रखर राष्ट्रवादी और कट्टर देशभक्त के रूप में याद किया जाता है. वे एक महान शिक्षाविद और चिन्तक होने के साथ-साथ भारतीय जनसंघ के संस्थापक भी थे. उन्हें किसी दल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता क्योंकि उन्होंने जो कुछ किया देश के लिए किया और इसी भारतभूमि के लिए अपना बलिदान तक दे दिया था.
डॉ. मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई, 1901 को एक प्रसिद्ध बंगाली परिवार में हुआ था. उनके पिता आशुतोष मुखर्जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे एवं शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे. अपने पिता का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी अल्पायु में ही विद्याध्ययन के क्षेत्र में अनेकों उल्लेखनीय सफलताएँ अर्जित कर ली थीं.
33 वर्ष की अल्पायु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने. अपने कार्यकाल के दौरान अनेक रचनात्मक सुधार कार्य किए तथा 'कलकत्ता एशियाटिक सोसायटी' में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया. वे 'इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ साइंस', बंगलौर की परिषद एवं कोर्ट के सदस्य और इंटर-यूनिवर्सिटी ऑफ़ बोर्ड के चेयरमैन भी रहे.
कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में बंगाल विधान परिषद के सदस्य चुने गए थे, लेकिन कुछ समय बाद कांग्रेस की नीतियों से क्षुब्ध होकर त्यागपत्र दे दिया. उसके बाद स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा और चुनाव में पुनः भारी बहुमत से निर्वाचित हुए.
मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल का वातावरण दूषित हो रहा था. ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो. इसी समय वे वीर सावरकर के राष्ट्रवाद के प्रति आकिर्षत हुए और हिन्दू महासभा में सिम्मलित हो गए.
बंटबारे के समय पंजाब और बंगाल की कई रियासतें स्वतंत्र रहना चाहती थी उनको भारत में विलय के लिए राजी करने का काम डा. मुखर्जी ने किया. गान्धी जी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वे भारत के पहले मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए. उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गयी.
नेहरु की कश्मीर नीति का उन्होंने बिरोध किया था. नेहरु और लियाकत अली के दिल्ली समझौते के मुद्दे पर 6 अप्रैल, 1950 को उन्होंने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया. उसके बाद उन्होंने आरएसएस के संघचालक गुरुजी से परामर्श करने के बाद 21 अक्तूबर, 1951 को दिल्ली में 'भारतीय जनसंघ' की नींव रखी.
उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था. वहाँ के मुख्यमन्त्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था. जम्मू कश्मीर में प्रवेश के लिए गैर कश्मीरियों को परमिट लेना पड़ता था. अगस्त 1952 में जम्मू रैली में कहा था या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा.
जून -1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े. वहाँ पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबन्द कर लिया गया और श्रीनगर जेल में बंद कर दिया गया. वे 22 जून 1953 की रात को सोये और 23 जून की सुबह को रहस्यमय परिस्थितियों में मृत पाए गए. इसलिए 22 जून / 23 जून दोनों तिथियों में से सही किया है किसी को नहीं पता.
डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी की म्रत्यु भी, सुभाष चन्द्र बोष और लाल बहादुर शास्त्री की मौत की तरह अनसुलझा रहस्य है. डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी रहस्यमयी मौत को, आज भी बहुत से लोग, नेहरु और शेख अब्दुल्ला की साजिश मानते हैं. कश्मीर की समस्या के लिए भी यही दोनों जिम्मेदार माने जाते हैं.
कश्मीर को लेकर डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नारा दिया था. "नहीं चलेगा एक देश मे, दो निशान - दो विधान - दो प्रधान". उनकी बनाई भारतीय जनसंघ ने लम्बे समय तक ससक्त विपक्ष की भूमिका निभाई. इंदिरा गांधी की निरंकुशता को रोकने के लिए 1977 में उसने अपना जनता पार्टी में विलय भी कर लिया था .
लेकिन जनता पार्टी को चौधरी चरण सिंह द्वारा धोखा देकर तोड़ देने के बाद भारतीय जनसंघ के पूर्व नेताओं ने एक नई पार्टी का गठन किया जिसे नाम दिया "भारतीय जनता पार्टी ". आज डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के आशीर्वाद से "भारतीय जनता पार्टी " हिन्दुस्थान की सबसे सशक्त और दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन कर देश को सम्हाल रही है.

संघ की एक घंटे की "शाखा" का महत्त्व

जिनको लगता है कि - शाखा में एक घंटा खेलकूद कर, छोटे छोटे बच्चे देश को कैसे बदल सकते हैं, उनको "महाराणा हम्मीर सिंह" के पिता "अरी सिंह" और माता "उर्मिला" की कहानी पढनी चाहिए. चित्तौड़गढ़ को खिलजियों से आजाद कराने वाले "महाराणा हम्मीर सिंह" को उनके पिता "अरी सिंह" ऐसे ही तैयार किया था.
जैसा कि आपको पता ही है कि- 1303 में राणा रत्नसेन के शाका और माता पद्मावती के जौहर के बाद, चित्तौड़गढ़ पर अलाउद्दीन खिलजी का कब्ज़ा हो गया था. अलाउद्दीन ने चित्तौड़गढ़ का शासन अपने बेटे खिज्रखान को सौंपकर किले का नाम खिजराबाद रख दिया था. खिज्रखान गद्दार राजपूत मालदेव के सहयोग से सत्ता सम्हालता था.
खिलजी के आक्रमण के समय "अरी सिंह" के पिता चित्तौड़गढ़ किले के रक्षक थे. उन्होंने राणा रत्नसेन के साथ शाका और उनकी पत्नी ने माता पद्मावती के साथ जौहर किया था. शाका और जौहर के समय "अरी सिंह" चित्तौडगढ़ से दूर अपनी ननिहाल में थे. अरी सिंह हमेशा चित्तौड़ और समस्त मेवाड़ को आजाद कराने का स्वप्न देखते थे.
उन्होंने अपने आसपास के छोटे छोटे बच्चों को इकठ्ठा कर खेलकूद के माध्यम से युद्ध्भ्यास कराना प्रारम्भ किया. वे उन बच्चों को चित्तौड़गढ़ के माहन वीरों / वीरांगनाओं की महानता की कहानिया सुनाते थे और कहते थे कि - हमें केवल चित्तौड़गढ़ और मेवाड़ को ही नहीं बल्कि पूरे हिन्दुस्थान को इन विदेशियों से आजाद कराना है.
अरी सिंह की पत्नी "उर्मिला" भी आस-पास की बच्चियों को लेकर, इसी तरह शाखा लगाती और उनको खेलकूद के साथ साथ लड़ना सिखाती. उनको महारानी पद्मावती के जौहर के बारे में बताती और साथ ही कहतीं कि - अगर कोई तुमको परेशान करे तो तुम में उसकी जान लेने की ताकत की भी होनी चाहिए और अपनी जान देने का साहस भी.
और इतिहास गवाह है खेलकूद में तैयार हुए उन बालकों ने, 12 बर्षीय राणा हम्मीर सिंह के नेत्रत्व में सभी चित्तौड़वाशियों को एकजुट किया और चित्तौडगढ़ को 23 साल बाद खिलजी / मालदेव से आजाद कराया था. उस महापुरुष "अरी सिंह" की कार्यशैली को ही "मुंजे जी" और "हेडगेवार जी" ने संघ की शाखा का में स्वयंसेवक तैयार करने में उपयोग किया.
संघ की शाखा में छोटे / बड़े एकसाथ खेलते है. वहां खेलकूद में उनको बहादुर बन्ने की प्रेरणा तथा देशभक्ति की शिक्षा दी जाती है. एक साथ खेलने के कारण वे बच्चे उम्र, जाती, पंथ के आधार पर भेदभाव से दूर रहते हैं. उनको शाखा में भारत के महान देशभक्तों की कहानिया सुनाई जाती है जिससे उनको भी बैसा बन्ने की प्रेरणा मिलती है.
खेलकूद में तैयार होने वाले ये स्वयंसेवक आज भारत में महत्वपूर्ण पदों पर बैठकर देश की सेवा कर रहे हैं. आज भारत के राष्ट्रध्यक्ष, प्रधानमंत्री और अनेकों राज्यों के मुख्यमंत्री वही लोग हैं जो कभी शाखा में जाकर खेलकूद करते थे. आज भारतीय सेना में ऐसे जवानो की संख्या बहुत ज्यादा है जो बचपन से शाखा में जाते रहे है.

आजाद भारत के सत्तर बर्षों का सिंहावलोकन करने की आवश्यकता

देश आजाद होते समय अनेकों जटिलताये थी. अंग्रेजों ने जाने से पहले देशी राजाओं और गांधी / नेहरु की सहमती से एक ऐसी व्यवस्था बना दी थी कि - रियासतों के राजा, कांग्रेस के नेता और अंग्रेज मिलकर यह निर्धारित करेंगे कि - भारत क्या स्वरूप होगा. जिनके कारण आजादी मिली थी उन क्रांतिकारियों को दरकिनार कर दिया गया था.
वो तो कहिये कि - उस समय कांग्रेस में भी सरदार पटेल जैसे कुछ राष्ट्रवादी नेता थे तथा कांग्रेस के बाहर डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी , श्री गुरूजी जैसे कई प्रभावशाली नेता मौजूद थे, जिन्होंने राजाओं को समझाकर भारत में विलय के लिए राजी कर लिया. उन राजाओं को समझाया कि - अगर उन्होंने कुछ गड़बड़ की तो उनकी प्रजा बगावत कर देगी.
इस बजह से ज्यादातर रियासतों का विलय तो आसानी से हो गया लेकिन कुछ राज्यों में समस्या बनी रही. तब उस समय स्थिति को सम्हालने के लिए संविधान में आर्टिकल 370 और आर्टिकल 371, जैसे अस्थाई प्रावधान किये गये. इन अस्थाई प्राव्धानो द्वारा कुछ राज्यों को कुछ विशेषाधिकार देकर उनको भारत में शामिल किया गया.
इन आर्टिकल के द्वारा जम्मू -कश्मीर, हिमाचल, नागालैंड, आदि जैसे कुछ राज्यों को कुछ विशेषाधिकार दिए गए. इसके अलावा कई साल बाद आजाद होने वाले और भारत में शामिल होने वाले गोवा , सिक्किम आदि को भी कुछ अन्य विशेषाधिकार दिए गए. इसके अलावा भाषा और भौगोलिक स्थति के आधार पर राज्यों का निर्माण किया गया.
हम जानते हैं कि - उस समय ऐसा करना नेताओ की मजबूरी भी थी, उस समय किसी भी तरह से भारत को एक राष्ट्र बनाना सभी की प्राथमिकता थी, इसलिए इन बातों को मानकर कुछ अस्थाई अलगाववादी प्रावधानों को भी देशवाशियों ने स्वीकार कर लिया था. मगर गलती यह हुई कि- उन अस्थाई पाव्धानो को बाद में हटाया नहीं गया.
राज्य स्तरीय क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने राजनैतिक लाभ के लिए, राष्ट्र के बजाय राज्य की बात कर देश को कमजोर करने का काम शुरू कर दिया जिसमे वे आज भी लगे हुए हैं. लेकिन अब ऐसी तुच्छ मानशिकता वाली क्षेत्रीय पार्टियों पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है. साथ ही उन अलगाववादी प्रावधानों को भी ख़त्म करना चाहिए.
अब समय आ गया है कि - संविधान की ऐसी विघटनकारी धाराओं को समाप्त किया जाए और राज्यों का पुनर्गठन किया जाए. सम्पूर्ण "भारतबर्ष" को एक संप्रभुतासंपन्न राष्ट्र घोषित कर, राज्य को केवल प्रशासन का विकेंद्रीकर्ण करने की इकाई मात्र माना जाए, प्रत्येक प्राकतिक संसाधन पर प्रत्येक नागरिक का हक़ हो.
मुख्यमंत्री अपने आपको अपनी रियाशत का राजा समझने के बजाय, केवल उस क्षेत्र का प्रतिनिधि समझे. अपने राज्य के प्राक्रतिक संशाधन या राज्य से गुजरने वाली नदी को वहां के नेता अपनी निजी संपत्ति समझने की भूल न करें. देश समस्त नदियों को आपस में जोड़कर पूरे भारत में पानी पहुंचाकर बाढ़ / सूखे का स्थाई हल किया जाए.
ऐसे ही जाती / धर्म / क्षेत्र / लिंग आदि जैसे शब्दों को संविधान से निकालकर इनके आधार पर किया जाने वाला हर भेदभाव समाप्त कर देना चाहिए. सभी के लिए एक समान अधिकार और कर्तव्य निर्धारित हों. सबके लिए एक सामान कानून हों. किसी को भी भाषा, क्षेत्र, जाती, धर्म, लिंग, आदि के आधार पर श्रेष्ठ अथवा तुच्छ न माना जाए.
शिक्षा / चिकित्सा / सुरक्षा / न्याय ववस्था / सबके न्यूनतम आवश्यकता लायक भोजन / पानी आदि को पूरी तरह निशुल्क तथा पारदर्शी किया जाए. चाहे तो इसके लिए अलग से कोई टैक्स भी लगाया जा सकता है. अभी इन प्रणालियों पर धनवानों का कब्ज़ा है. धनवान धनबल से इनका उपयोग अपना हित साधने में कर लेते हैं और गरीब बंचित रह जाते हैं.
देश आजाद होते समय मजबुरिया, जल्दबाजी और अनुभवहीनता के कारण, नियम बनाते बहुत सारी कमिया रह गई थी जिनके कारण निरंतर विवाद / झगड़े / दंगे / अराजकता होती रहती हैं. अब आजादी के 70 बर्षो के अनुभव का सिंहावलोकन करके, नए सिरे से राज्यों का पुनर्गठन करने तथा नए नियम बनाने, आदि की आवश्यकता है.

सेठ अमरचन्द बाठिया

"सेठ अमरचन्द बाठिया" के पिता का नाम "अबीर चन्द बाँठिया" था. वे जैन मत के अनुयायी थे. वे मूलतः बीकानेर (राजस्थान) के निवासी थे और व्यापार के लिए ग्वालियर आये और यहाँ सोने के व्यापार (सर्राफा" में सफल होने के कारण वे यहीं बस गए.
पिता-पुत्र ने अपने परिश्रम, ईमानदारी एवं सज्जनता के कारण इतनी प्रतिष्ठा पायी कि-ग्वालियर राजघराने ने उन्हें नगर सेठ की उपाधि देकर सम्मानित किया और आगे चलकर उन्हें ग्वालियर राज्य के राजकीय राजकोष का प्रभारी नियुक्त किया.
1857 में जब अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीयों ने अपना प्रथम स्वाधीनता संग्राम छेड़ा तो भारत के कुछ गद्दार राजाओं ने भी उसमे क्रांतिकारियों के खिलाफ अंग्रेजों का साथ दिया. ग्वालियर का राजा "जयाजीराव सिंधिया" भी उन गद्दार राजाओं में से एक था,
उस समय "सेठ अमरचन्द बाठिया" ने अपने राजा से बगाबत कर क्रांतिकारियों का साथ दिया. उन्होंने अपनी समस्त संपत्ति क्रांतिकारियों को सौंप दी. ओरछा, दतिया और ग्वालियर के बागी सैनिको ने इस धन की सहायता से अंग्रेजों को कड़ी टक्कर दी.
इसके अलावा जब "तात्या टोपे" ने भारतीय मूल के सैनिको से क्रांतिकारियों का साथ देने का आव्हान किया तो उन्होंने ग्वालियर के सैनिको से तात्या टोपे का साथ देने को कहा. साथ ही उन्होंने ग्वालियर राजकोष से गवन करके वह धन "तात्या टोपे " को सौप दिया.
इसके बाद "सेठ अमरचन्द बाठिया" ग्वालियर से फरार हो गए और भूमिगत रहकर क्रांतिकारियों की मदद करने लगे. परन्तु एक दिन वे पकडे गए और उन्हें कारागार में डाल दिया गया. हमेशा सुख-सुविधाओं में पले "नगर सेठ जी" को वहाँ भीषण यातनाएँ दी गयीं.
मुर्गा बनाना, पेड़ से उल्टा लटका कर चाबुकों से मारना, हाथ पैर बाँधकर चारों ओर से खींचना, लोहे लगे जूतों से मारना, अण्डकोषों पर वजन बाँधकर दौड़ाना, मूत्र पिलाना, भूखा रखना, नंगा करके धूप में खड़ा रखना, आदि अमानवीय अत्याचार उन पर किये गये.
अंग्रेज चाहते थे कि- वे क्षमा माँग लें और क्रांतिकारियों का पता बता दें, लेकिन सेठजी तैयार नहीं हुए. इस पर अंग्रेजों ने उनके 8 वर्षीय निरपराध पुत्र को भी पकड़ लिया.और धमकी दी - यदि तुमने क्षमा नहीं माँगी, तो तुम्हारे पुत्र की हत्या कर दी जाएगी.
यह बहुत कठिन घड़ी थी; पर सेठजी तनिक भी विचलित नहीं हुए. इस पर उनके मासूम पुत्र को तोप के मुँह पर बाँधकर गोला दाग दिया गया. बच्चे का शरीर चिथड़े-चिथड़े हो गया. इसके बाद सेठ जी के लिए 22 जून, 1858 को फाँसी की तिथि निश्चित कर दी गयी.
इतना ही नहीं, नगर और ग्रामीण क्षेत्र की जनता में आतंक फैलाने के लिए अंग्रेजों ने यह भी तय किया गया कि सेठजी को 'सर्राफा बाजार' में सबके सामने खुलेआम फाँसी दी जाएगी. अन्ततः 22 जून भी आ गया. सेठजी तो अपने शरीर का मोह छोड़ चुके थे.
अन्तिम इच्छा पूछने पर उन्होंने नवकार मन्त्र जपने की इच्छा व्यक्त की. उन्हें इसकी अनुमति दी गयी; इस महान धर्मप्रेमी सेठ जी को फाँसी देते समय दो बार ईश्वरीय व्यवधान भी आया. एक बार तो रस्सी और दूसरी बार पेड़ की डाल ही टूट गयी.
तीसरी बार उन्हें एक मजबूत नीम के पेड़ पर लटकाकर फाँसी दी गयी. लोगों में भय पैदा करने के लिए उनके शव को तीन दिन वहीं लटके रहने दिया गया. इस प्रकार बिना कोई हथियार उठाये उन्होंने क्रांतिकारियों की सूची में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया.
सर्राफा बाजार में स्थित जिस नीम के पेड़ पर, सेठजी को फाँसी दी गयी, उसके निकट ही उनकी प्रतिमा स्थापित है. हर साल 22 जून को वहाँ बड़ी संख्या में लोग आकर देश की स्वतन्त्रता के लिए प्राण देने वाले उस अमर हुतात्मा को श्रद्धा॰जलि अर्पित करते हैं.
स्व्तान्त्र्वीर सावरकर ने अपने ग्रन्थ "1857-प्रथम स्वातंत्र्य समर" में सेठ जी को बहुत महत्वपूर्ण स्थान दिया था. परन्तु जब चरखे वालों ने उन महान स्वाधीनता सेनानी को ही कोई स्थान नहीं दिया तो उनके बताये हुए क्रांतिकारियों के लिए क्या उम्मीद करें.

Wednesday, 13 June 2018

राजनैतिक "रोजा इफ्तार पार्टियाँ" :: सद्भावना है ड्रामेबाजी

हिन्दू धर्म में दान का बहुत महत्त्व है. कोई भी पर्व / त्यौहार हो उसमे अपनी सामर्थ्य के अनुसार गरीबों, जरूरतमंदों. भंडारों, गौ-शालाओं, मंदिरों, आदि में दान देने का प्रावधान है. छोटे मोटे काम करने वाले लोग भी यह जानते हैं और कोई भी पर्व आने पर त्योहारी मांगने निकल पड़ते हैं और उनको मिलती भी है.
दान की महिमा पर हिन्दुओं के प्राचीन ग्रंथों में इतना लिखा हुआ है कि उन बातों को संकलित कर विस्त्रत ग्रन्थ तैयार किया जा सकता है. लेकिन दान की महिमा का बखान करते हुए भी यह कहा गया है कि - दाहिने हाथ से किये गए दान का पता बाएं हाथ तक को नहीं चलना चाहिए, अर्थात उस दान / पुण्य का दिखावा न किया जाए.
ज्यादातर हिन्दू इन परम्पराओं को मानते हुए त्योहारों, तीर्थों, आदि में दान / पुन्य करते भी है. इसी लिए ज्यादातर गरीब और लाचार लोग मंदिरों, तीर्थों के आसपास शरण लेते है. जगह-जगह होने वाले धार्मिक और सामजिक क्रार्यक्रम इसी दान से चलते हैं. दीपावली पर हिन्दू मालिक अपने कर्मचारियों को उपहार, बोनस, आदि देते हैं.
मेरी नजर में मुस्लिम्स का रोजा नाम का व्रत बहुत कठिन व्रत है जिसमे पूरा दिन भूख और प्यास पर नियत्रण रखते हुए अपने रोजमर्रा के सारे काम भी करने होते हैं. वह भी केवल एक दिन नहीं बल्कि पूरे एक महीने भर लगातार. मुझे लगता है ऐसे में अगर हम उनको कोई राहत दे पाने में सक्षम हों, तो हमें अवश्य करना ही चाहिए.
पहले मैं जब अखबारों में पढता था कि- हिन्दू नेताओं ने मुसलमानों को रोजा इफ्तार की पार्टी दी है, तो मुझे अपने उन हिन्दू नेताओं पर बड़ा गर्व महेसूस होता था क्योंकि मुझे लगता कि- वे नेता अपनी सनातन परंपरा को निभाते हुए दुसरे धर्म के लोगों को भी राहत देते हे और गरीब मुसलमानों को बेहतरीन पकवान खिलाते हैं.
जब मुझे वास्तविकता का पता चला कि- यह कोई सभी (अमीर / गरीब सब के लिए) मुसलमानों के लिए लगने वाला सार्वजनिक भंडारा या लंगर नहीं होता है बल्कि अपने राजनैतिक फायेदे के लिए अमीर और प्रभावशाली मुसलमानों को अपने यहाँ दावत पर बुलाने का बहाना मात्र होता है तो बहुत दुःख हुआ क्योंकि यह हमारी परम्परा नहीं है.
मेरा सभी हिन्दू भाइयों से विनम्र निवेदन है कि- ऐसी ड्रामेबाजियों से दूर रहें. यह सद्भावना का नहीं बल्कि स्वार्थ का प्रतीक है. यदि आप कुछ कर पाने में सक्षम है और मुस्लिम्स के त्यौहार में उनके लिए वास्तव में कुछ करना चाहते हैं तो जरुर कीजिए, यह बहुत अच्छी बात है. लेकिन जो भी करें सद्भावना के साथ करे, किसी स्वार्थ को साधने के लिए नहीं.
यदि आपकी दूकान / कारखाने / दफ्तर / प्रतिष्ठान आदि में कोई मुस्लिम कर्मचारी काम करते हैं तो उन रोजेदार मुस्लिम कर्मचारियों को मेहनत वाले काम में राहत दीजिये, अतिरिक्त बोनस दीजिये, उनके परिबार के लिए उपहार दीजिये , मस्जिद जाने के लिए अपना बाहन दीजिये, उनके लिए सार्वजनिक लंगर लगाइए. आदि जैसे काम कीजिए.
लेकिन केवल अमीर और प्रभावशाली मुसलमानों को शानदार दावत देकर फोटो खिंचवाने वाली पार्टियाँ देनेवाली परिपाटी से दूर रहिये. यह आपकी सद्भावना नहीं बल्कि आपकी सौदेबाजी है और यह बैसा ही है जैसा चालाक व्यापारी लोग नए आर्डर को पाने के लिए, अपने ग्राहकों या संभावित ग्राहकों को, पार्टिया देकर फुसलाने का काम करते हैं.

Wednesday, 6 June 2018

बक्फ बोर्ड की जमीन

इस्लामी हम्लाबरों ने भारत पर हमला कर, भारत में अवैध कब्ज़ा किया था. भारत के हिन्दुओं की हत्या कर, उनकी संपत्ति पर कब्ज़ा कर लिया था. कई इलाकों में उनका शासन भी हो गया. जैसे जैसे मुस्लिम्स की संख्या बढ़ती चली गई, उन्होंने कुछ जमीने अपने सामाजिक कार्यों कब्रिस्तान, मस्जिद, मदरसे, आदि के लिए आरक्षित कर दी.
इस जमीन को बक्फ की जमीन कहा जाता था. इस जमीन का इस्तेमाल इस्लामी सामाजिक और धार्मिक कार्य के लिए ही हो सकता था. इस्लामी और अंग्रेजी शासन में भी यह जमीन समस्त भारतीय भूभाग का बहुत छोटा सा हिस्सा थी, लेकिन 1947 में आजादी के बाद यह बेतहाशा बढ़ गई, इसका कारण नेहरु की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति थी .
देश की अंग्रेजों से आजादी के समय भारत का, हिन्दू / मुस्लिम के नाम पर बंटबारा हो गया. बंटबारे में लाखों हिन्दू/सिक्ख अपनी जमीन जायदात पापिस्तान में छोड़कर भारत में शरणार्थी बनकर आये. इसी तरह लाखों मुसलमान भी भारत को छोड़कर पापिस्तान गए. पापिस्तान ने हिन्दुओं / सिक्खों की जमीन में से उनको जमीन और मकान दिए गए.
परन्तु भारत में नेहरु / गांधी ने महात्मागिरी दिखाते हुए, मुसलमानो द्वारा छोडी गई जमीन और मकान, विस्थापित होकर आये हिन्दुओं / सिक्खों को देने से इनकार कर दिया. नेहरु ने उसको "बक्फ" की सम्पत्ति घोषित कर दिया. हिन्दू महासभा, आरएसएस के अलावा बहुत से कांग्रेसी भी चाहते थे कि - ये विस्थापितों को मिले. मगर नेहरु नहीं माने.
हिन्दू महासभा, आरएसएस और आर्य समाजी नेताओं के साथ साथ पंजाब, दिल्ली, बंगाल, महाराष्ट्र, की अनेको संस्थाओं ने सरकार से मांग की, कि- पापिस्तान से विस्थापित होकर आये लोगों को उस जमीन में से रहने और काम करने लायक जगह दी जाए, लेकिन गांधी और नेहरु टस से मस नहीं हुए. इसी बीच गांधी की ह्त्या हो गई.
गांधी की ह्त्या का बहाना बनाकर नेहरु ने आरएसएस पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा हिन्दू महासभा के अनेकों नेताओं को गिरफ्तार कर लिया. जो लोग स्वतंत्र रूप से जमीन के लिए आवाज उठा रहे थे उनमे से भी कईयों को आरएसएस तथा हिन्दू महासभा का एजेंट कह कर गिरफ्तार करवा दिया और विस्थापितों को जमीन देने की मांग को ठुकरा दिया.
एक वेवसाईट के अनुसार पूरे भारत में लगभग 12 लाख एकड़ जमीन बक्फ बोर्ड के पास है. देश में करीब 3 लाख अचल संपत्तियाँ "वक्फ संपत्ति" के रूप में पंजीकृत हैं, जिनका अनुमानित मूल्य लगभग 12 लाख करोड़ रूपय है. इस सम्पत्ति का कहाँ और कैसे इस्तेमाल होता है इसका जाबाब तो जानकार लोग ही दे सकते हैं.
मेरा देशवाशियों से आग्रह है कि - हम सरकार से मांग करें कि- बक्फ बोर्ड को भंग कर इस संपत्ति को इस्लामी संपत्ति के बजाय राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किया जाए. बैसे तो आपने जब बंटबारा कर ही दिया था और एक हिस्से को पापिस्तान बना दिया गया था, तो दुसरे हिस्से को तो अपने आप हिन्दुस्थान घोषित करना ही चाहिए था.
अगर अपने आपको महान-आत्मा साबित करने के चक्कर में आपने ऐसा नहीं किया, तो भी कोई बात नहीं कम से कम, भारत में अपनी जमीन - जायदात छोड़कर गए मुसलमानो की जमीन पर पापिस्तान से विस्थापित होकर आये हिन्दुओं / सिक्खों को बसाना चाहिए था. उस समय अगर यह काम नहीं किया, तो कम से कम आज यह काम करना चाहिए.
आज हमारे देश में करोड़ों, गरीब, दलित और पिछड़े, भूमिहीन मजदूर है जो अत्यंत गरीबी और मजबूरी का जीवन जी रहे हैं. उन गरीबो / दलितों / पिछड़ों को भी इसमें से जमीन बांटी जानी चाहिए. इस बिषय पर सोंच बिचार कीजिए और अगर उचित लगे तो शेयर करके इस पोस्ट को आगे बढ़ाइए, ताकि किसी जिम्मेदार व्यक्ति तक यह बात पहुँच सके.

हिन्दू साम्राज्य दिवस

परमपूज्य भगवाध्वज, आदरणीय अधिकारीगण एवं स्वयंसेवक बंधुओं को मेरा सादर अभिनंदन एवं आप सबको "हिन्दू साम्राज्य दिवस" की हार्दिक शुभकामनाएं.
आप सभी को पता हैं कि - आज हम यहाँ "हिन्दू साम्राज्य दिवस" मना रहे है. मैं आपको एक छोटी सी बात बताना चाहता हूँ. कल मैंने फेसबुक पर "हिन्दू साम्राज्य दिवस" पर एक लेख लिखा था . उसे देखकर कुछ मित्रों ने प्रश्न किया कि – रोज डे, चाकलेट डे, वैलेंटाइन डे, के बारे में तो सुना है, लेकिन यह "हिन्दू साम्राज्य दिवस" कब से शुरू हो गया?
इस प्रश्न को देखकर अत्यंत दुःख हुआ कि - हमारी युवा पीढ़ी किस और जा रही है? निरर्थक विदेशी दिवस तो याद हैं लेकिन जिन दिवस पर हमें अपने देश और धर्म पर गर्व करना चाहिये, वो हमको पता तक नहीं हैं. आप सभी को पता ही है कि - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा 6 त्यौहार राष्ट्रीय स्तर पर मनाये जाते है.
हमारे यह 6 त्यौहार है : वर्ष प्रतिपदा, हिन्दू साम्राज्य दिवस, गुरु पूर्णिमा, रक्षा बंधन, विजय दशमी और मकर संक्राति. इन सभी त्योहारों को चुनने के पीछे भी अलग अलग कारण है. लेकिनं आज हम उन पर कोई चर्चा नहीं करेंगे बल्कि अपना सारा ध्यान केवल "हिन्दू साम्राज्य दिवस" पर ही देना चाहते हैं.
आज भारतीय कैलेण्डर के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ला की त्रियोदशी है. सन 1674 में आज के दिन ही छत्रपति शिवाजी महाराज का राजतिलक हुआ था. एक प्रश्न यह भी उठता है कि - भारत में अनेकों महान राजा हुए हैं तब "हिन्दू साम्राज्य दिवस" मनाने के लिए केवल शिवाजी के राजतिलक का दिन ही क्यों चुना गया ? इसका भी एक विशेष कारण है :
उस समय लगभग सारे भारत पर मुघलों का राज था. जिन छोटी रियासतों में हिन्दू राजा थे, वो भी दिल्ली की मुग़ल सल्तनत के अधीन ही थे. ऐसे समय में एक साधारण बालक ने असाधारण क्षमता दिखाते हुए. एक स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की. शिवाजी का जीवन प्रेरणा देता है कि - जो देश के लिए कुछ करना चाहता है उसका रास्ता कोई नहीं रोक सकता.
जिस तरह हम प्रतिदिन शाखा लगाते हैं, शिवाजी महाराज ने उसी तरह से अपने साथियों को इकठ्ठा करना प्रारम्भ किया था. वहां पर वे खेलकूद करते और देश की स्थिति पर बिचार करते थे. उनकी माता जीजाबाई उनको रामायण, महाभारत, विक्रमादित्य, प्रताप "महान", आदि की कहानिया सुनाती थी, जिनको शिवाजी अपने साथियों को जाकर सुनाते थे.
वे महाराणा प्रताप "महान" के जीवन से बहुत प्रभावित थे, लेकिन उन्होंने उनके जीवन से यह सबक भी सीखा कि - केवल महान योद्धा होना और बहादुरी से लड़ते हुए मरना ही काफी नहीं है बल्कि युद्ध में जीतना सबसे ज्यादा जरुरी है. इसके लिए उन्होंने गुरिल्ला युद्ध की तकनीक विकसित की. जिस गुरिल्ला युद्ध को लोग माओ की तकनीक बताते है वो उनकी तकनीक थी.
उन्होंने युद्ध की ऐसी प्रणाली बनाई कि - शत्रु पर हमला करो, उसको अधिक से अधिक नुकशान पहुँचाओ और फिर शीघ्रता से बहा से हट जाओ. इस तकनीक के सहारे उन्होंने सैकड़ों लड़ाईया जीती. अपने साथियों के साथ उन्होंने 1655 में बीजापुर की कमज़ोर सीमा चौकियों पर कब्ज़ा करना शुरू किया.
जब उनको छोटी-छोटी विजय मिलना प्रारम्भ हुई, तो उनका भी आत्मविश्वास बढ़ने लगा तथा अन्य लोग भी उनके साथ आने लगे. शिवाजी को सबक सिखाने के लिए बीजापुर के सुलतान ने कई बार कोशिश की, परन्तु शिवाजी हर वार विजयी रहे. अफजल खान का बध करने के बाद तो पूरे देश में उनके नाम का डंका बजने लगा था.
धीरे-धीरे बहुत बड़ा क्षेत्र शिवाजी महाराज के अधिकार क्षेत्र में आ गया. उनकी माता जीजाबाई और समर्थ गुरु रामदास चाहते थे कि - शिवाजी का राजतिलक इतना भव्य होना चाहिए कि - मुग़लो की आँखे चकाचौंध हो जाएँ, साथ ही अन्य छोटे हिन्दू राजाओं में भी स्वाभिमान की भावना जाग्रत हो. इसलिए उनके राजतिलक का भव्य आयोजन किया गया.
उनके राजतिलक को शिवाजी का राजतिलक नहीं कहा गया, बल्कि एक हिन्दू राजा का राजतिलक कहा गया. उन दिनों रियासतों में जितने भी हिन्दू राजाओं के राजतिलक होते थे, वो भी मुग़ल राजाओं की अनुमति से होते थे, यह पहला राजतिलक था जो मुगलिया सल्तनत को चुनौती देते हुए हो हुआ था. इसके बाद अनेकों छोटे राजा, शिवाजी के साथ आ गए थे.
शिवाजी महाराज का राज, पुरी तरह से हिन्दू जीवन शैली पर आधारित था, जिसमे समस्त प्रजा को एक परिवार और राजा को परिवार का मुखिया माना जाता था. शिवाजी के राजतिलक के बाद, देश के अनेको हिस्सों में मुगलों के खिलाफ आजादी की लडाइयां प्रारम्भ हो गई. पंजाब, राजस्थान, बुंदेलखंड, मालवा, गुजरात की अनेकों हिन्दू रियासतों ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया.
इसीलिए संघ ने अपना त्यौहार "हिन्दू साम्राज्य दिवस" मनाने के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज के राजतिलक का दिन चुना. यहाँ शाखा में प्रतिदिन उनकी ही तरह खेलकूद के साथ साथ राष्ट्रवाद सिखाया जाता है, देश के प्रति समर्पण सिखाया जाता है और देश के लिए लड़ने योग्य बनना सिखाया जाता है.
आज का दिन हिदुओं के लिए बहुत ही गौरवशाली दिन है. अब मैं और ज्यादा समय न लेते हुए अपनी बात समाप्त करता हूँ. आपसे यही निवेदन है कि भारतीय संस्क्रती से जुड़े हुए त्योहारों को गर्व से मनाएं. इन त्योहारों को मनाने से हमें राष्ट्र के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा मिलती है.
आखिर में आप सब मेरे साथ उद्घोष करेंगे
जय शिवा सरदार की, जय राणा प्रताप की,
वन्दे मातरम, भारत माता की जय .

आओ ... नए भारत का निर्माण करें

देश आजाद होते समय अनेकों जटिलताये थी. अंग्रेजों ने एक चाल के तहत ऐसी व्यवस्था की थी कि - जिनका आजादी की लड़ाई में कोई योगदान नहीं था वो राजा, कांग्रेस के नेता और अंग्रेज मिलकर यह निर्धारित करेंगे कि - भारत क्या स्वरूप होगा. जिनके कारण आजादी मिली थी उन क्रांतिकारियों को दरकिनार कर दिया गया था.
वो तो कहिये कांग्रेस में भी एक राष्ट्रवादी सरदार पटेल थे, जिन्होंने राजाओं को समझाकर / धमकाकर भारत में विलय के लिए राजी कर लिया. उन राजाओं को भी पता था कि - अगर उन्होंने कुछ गड़बड़ की तो उनकी प्रजा बगावत कर देगी. ज्यादातर रियासतों का विलय आसानी से हो गया लेकिन कुछ राज्यों में समस्या बनी रही.
तब उस समय स्थिति को सम्हालने के लिए संविधान में आर्टिकल 370 और आर्टिकल 371, जैसे कुछ प्रावधान किये गए. इन आर्टिकल से जम्मू -कश्मीर , हिमाचल, नागालैंड, आदि जैसे कुछ राज्यों को कुछ विशेषाधिकार दिए गए. इसके अलावा, कई बर्ष बाद में आजाद होने वाले गोवा आदि को भी विशेषाधिकार दिए गए.
इसके अलावा बाद में राज्यों का निर्माण करते समय कहीं भाषा के आधार पर, तो कहीं भौगोलिक स्थति के आधार पर राज्यों का निर्माण किया जाने लगा. राज्य स्तरीय पार्टियों ने अपने राजनैतिक लाभ के लिए राष्ट्र के बजाय राज्य राज्य की बात कर देश को कमजोर करने का काम किया और आज भी कर रहे हैं.
अब समय आ गया है कि - संविधान की विघटनकारी धाराओं को समाप्त किया जाए और राज्यों का पुनर्गठन किया जाए. सम्पूर्ण "भारतबर्ष" को एक संप्रभुतासंपन्न राष्ट्र घोषित कर, राज्य को केवल प्रशासन का विकेंद्रीकर्ण करने की इकाई मात्र माना जाए, प्रत्येक प्राकतिक संसाधन पर प्रत्येक नागरिक का हक़ हो.
मुख्यमंत्री अपने आपको अपनी रियाशत का राजा समझने के बजाय, केवल उस क्षेत्र का प्रतिनिधि समझे. अपने राज्य से गुजरने वाली नदी को वहां के नेता अपनी निजी संपत्ति समझने की भूल न करें. देश समस्त नदियों को आपस में जोड़कर पूरे भारत में पानी पहुंचाकर बाढ़ / सूखे का स्थाई हल किया जाए.
जाती / धर्म / क्षेत्र / लिंग / भाषा आदि के आधार पर भेदभाव करने वाले प्रावधानों को संविधान से निकालकर, सबको एक समान माना जाए. इनके आधार पर किया जाने वाला भेदभाव समाप्त किया जाए. शिक्षा / चिकित्सा / सुरक्षा / न्याय को पूरी तरह निशुल्क तथा पारदर्शी किया जाए. इसके लिए अलग से कोई टैक्स लगाया जा सकता.
देश आजाद होते समय जल्दबाजी और अनुभवहीनता के कारण, नियम बनाते बहुत सारी कमिया रह गई थी जिनके कारण निरंतर विवाद / झगड़े / दंगे होते रहते हैं. अब आजादी के 70 बर्षो के अनुभव का सिंहावलोकन करके, नए सिरे से राज्यों का पुनर्गठन, नए नियम बनाने, नई व्यवस्थाये, आदि की आवश्यकता है.