भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह एक संस्कार है जिसको जन्मो का अटूट बंधन माना जाता है. अगर किसी बजह से किसी दम्पत्ति के आपसी सम्बंध में दरार आ जाती है तो उनके परिवार, सम्बन्धी और मित्रगण उनमे सुलह कराने का प्रयास करते हैं. अगर बात बन जाती है तो ठीक है नहीं तो न्यायालय से उनको अलग करने की मांग की जाती है.
न्यायालय में भी पहले उनमे समझौता कराने का ही प्रयास किया जाता है, क्योंकि भारतीय संस्क्रति में परिवार का टूटना अच्छा नहीं माना जाता. जब दम्पत्ति के बीच सुलह की कोई भी संभावना नहीं बचती है , तब ही उनको अलग किया जाता है, उस समय भी उन दोनों के साथ साथ उनके बच्चों के भविष्य और हित का भी ध्यान रखा जाता है.
जबकि अरबी सस्कृति में विवाह एक करार अर्थात एग्रीमेंट है जो कबूल से शुरू होकर तलाक पर ख़त्म हो जाता है. निकाह के समय ही एग्रीमेंट में लिखबाया जाता है कि - अगर तलाक दोगे तो छोड़ते समय कितनी रकम लड़की को दोगे. करार करते समय तो फिर भी लड़के और लड़की की रजामंदी पूँछी जाती है लेकिन करार तोड़ना लड़के के हाथ में होता है.
कोई पुरुष जब चाहे तीन बार तलाक तलाक तलाक बोलकर करार से मुक्ति पा सकता है. उस समय उसको बस करार के समय तय की गई रकम (मेहर) देनी होती है. एक बार तलाक हो जाने के बाद कोई उनको समझा भी नहीं सकता. यदि उनको खुद भी गलती समझ आ जाए तो भी वे दोबारा साथ नहीं रह सकते, इसके लिए पहले महिला को हलाला कराना पड़ता है.
इसमें पहले महिला को किसी और से शादी करनी होती है फिर उसे तलाक लेकर पहले वाले से शादी करनी होती है. अधिकाँश महिलाए इस प्रथा को गलत मानती हैं लेकिन पहले बोल नहीं पाती थीं. आज के समय में शिक्षित महिलाए इस प्रकार के एकतरफा तलाक और हलाला के लिए बिलकुल तैयार नहीं है और इसमें सरकार से हस्तक्षेप की मांग कर रही हैं
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