Friday, 21 April 2017

खालसा पंथ के, स्थापना दिवस की हार्दिक शुभकामनाये

"गुरु गोविन्द सिंह" द्वारा धर्म की रक्षा और अधर्म के नाश हेतु,
सृजन किये गए खालसा पंथ के, स्थापना दिवस की हार्दिक शुभकामनाये
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सन 1699 ई. में बैसाखी के दिन, तख़्त श्री केशगढ़ साहिब (आनंदपुर साहिब) की धरती पर "श्री गुरु गोविंद सिंह जी महाराज" ने खालसा पंथ की स्थापना की थी. इसका मुख्य उद्देश्य था मुघल आक्रमणकारियों से भयभीत और आत्मविश्वास खो चुकी भारतीय जनता को निर्भय बनाकर, उनमे आत्मविश्वास पैदा करना. गुरू गोविन्द सिंह द्वारा खालसा पंथ के सृजन की भी एक बहुत ही रोचक कथा है.
"गुरु गोविंद सिंह" ने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन करवाया. यज्ञ में "गुरु गोविन्द सिंह" ने लोगों को धर्म की रक्षा और देश की आज़ादी के लिए प्रेरणा प्रदान की. जनभावना को परखने के लिए गुरु जी समस्त जनसमूह के समक्ष नंगी तलवार लेकर आये और कहा- आज देश और धर्म के लिए बलिदान की आवश्यकता है, क्या आप में से कोई ऐसा वीर है, जो अपना सिर दे सके?
सभा में कुछ देर सन्नाटा छा गया. गुरुजी ने फिर कहा- "क्या माँग पूरी नहीं होगी?" तभी एक तीस वर्षीय व्यक्ति बोला- "मैं अपना सिर को भेंट करने को तैयार हूँ" यह लाहौर के निवासी भाई दयाराम खत्री थे. गुरु गोविन्द सिंह उन्हें एक तंबू में ले गये और कुछ देर बाद, तंबू के बाहर रक्त की धारा बहते हुए देखी. गुरु गोविन्द सिंह फिर हाथ में रक्त से सनी तलवार लेकर आये और बोले- "अभी और बलिदान की आवश्यकता हैं.
तब तैंतीस वर्षीय दिल्ली निवासी भाई धर्मसिंह जाट ने आगे आकर सिर झुका दिया. गुरुजी उन्हें भी तंबू में ले गये और रक्त की दूसरी धार बहती दिखाई दी. उसके बाद गुरु जी ने तीन बार और यह मांग की और 36 वर्षीय मोहकमचंद धोबी , 37 बर्षीय साहबचंद नाई और 38 वर्षीय हिम्मतराय कुम्हार ने अपना सिर देना स्वीकार किया. इसके बाद तो सारा जनसमूह ही गुरुजी से कहने लगा कि- "हमारा सिर लीजिए"
कुछ देर बाद पांचो वीर बलिदानी सुन्दर वेषभूषा में तलवार लिए गुरु गोविन्द सिंह के साथ सभा मंच पर आ गये तो लोगों के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा. वास्तविक बात यह थी कि -गुरु गोविन्द सिंह ने उन बलिदानियों के स्थान पर पाँच बकरों को मारकर लोगों के धैर्य तथा दृढ़ता की परीक्षा ली थी. उनका यह प्रयोग सफल हुआ तथा लोगों के ह्रदय में देश और धर्म के लिए बलिदान देने की भावना उत्पन्न हो गई.
जिन पाँच वीरों ने गुरु गोविन्द सिंह के लिए अपने शीश भेंट किये, वे 'पंच प्यारे' नाम से विख्यात हुए. गुरु गोविन्द सिंह ने उनको अमृत पिलाया और फिर उनके हाथों स्वयं अमृत पीकर "सिंह" की उपाधि प्राप्त की. उसके बाद "गुरु गोविंद सिंह" ने गुरुगद्दी को छोड़कर वहा "गुरुग्रंथ साहिब"को स्थापित किया और उन्होंने सभी को "गुरुग्रंथ साहिब" को को सर्वोपरि मानने का आदेश दिया.
गुरु गोविन्द सिंह के आह्वान पर प्रत्येक हिन्दू के घर से एक बेटा खालसा फ़ौज में शामिल होने लगा था. गुरु गोविन्द सिंह के आह्वान पर लाखों लोग जीवन का मोह त्यागकर, सरपर कफ़न और हाथ में तलवार लेकर, धर्म और देश की रक्षा के लिए, जान हथेली पर लेकर निकल पड़े थे. "गुरु गोविंद सिंह जी महाराज" के "सवा लाख से एक लड़ाऊँ " के मन्त्र ने उनमे इतना आत्मविश्वास भर दिया था कि -- उन्होंने जालिम मुग़ल सल्तनत को हिलाकर रख दिया था.
गुरु गोविन्द सिंह के बाद उनके अनुयाइयों ने बन्दा बहादुर, बाबा दीप सिंह, आदि नेत्रत्व में अपना संघर्ष जारी रखा और कालांतर में महाराजा रंजीत सिंह के नेत्रत्व में उत्तर भारत में विशाल खालसा साम्राज्य की स्थापना की.
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देह शिवा बर मोहे ई हे,
शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं
न डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं,
निश्चय कर अपनी जीत करौं ,

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