Friday, 21 April 2017

महान स्वतन्त्रता सेनानी "तात्या टोपे"

प्रथम स्वाधीनता संग्राम (1857) के एक प्रमुख सेनानायक "तात्या टोपे" के शहीदी दिवस पर हार्दिक श्रद्धांजली. सन 1857 के उस महान विद्रोह में उनकी भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण, प्रेरणादायक और बेजोड़ थी. क्रांति के उस दौर में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, राव साहब, बहादुरशाह जफर, बाबू कुंवर सिंह, आदि के विदा हो जाने के बाद भी करीब एक साल बाद तक तात्या टोपे विद्रोहियों की कमान संभाले रहे थे.
तात्या का जन्म नासिक के निकट पटौदा जिले के येवला नामक गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में 1818 में हुआ था. उनका नाम रामचंद्र पाण्डुरंग राव था, परंतु लोग स्नेह से उन्हें तात्या पुकारते थे. कुछ समय तक तात्या ने ईस्ट इंडिया कम्पनी में बंगाल आर्मी की तोपखाना रेजीमेंट में भी काम किया था, परन्तु स्वाभिमानी तात्या के लिए अंग्रेजों की नौकरी असह्य थी, इसलिए बहुत जल्दी उसे छोड़कर बाजीराव की नौकरी में आ गये.
तोपखाने में नौकरी के कारण ही उनके नाम के साथ टोपे जुड गया, परंतु कुछ लोगों का मानना है कि - बाजीराव ने तात्या को एक बेशकीमती और नायाब टोपी दी थी. तात्या इस टोपे को बडे चाव से पहनते थे. उस टोपी पहनने के कारण लोग उन्हें तात्या टोपी या तात्या टोपे के नाम से पुकारने लगे थे. सत्तावन के विद्रोह की शुरुआत 10 मई को मेरठ से हुई थी और जल्दी ही क्रांति की चिन्गारी समूचे उत्तर भारत में फैल गयी.
कानपुर के सैनिकों ने नाना साहब को अपना नेता घोषित किया. तब तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की. कानपुर और बिठुर में अंग्रेजों को उन्होंने कड़ी टक्कर दी लेकिन अंततः वहां अंग्रेजों का कब्जा हो गया. ग्वालियर की एक सैन्य टुकड़ी में देशभक्ति की भावना प्रज्वलित कर उन्होंने उसे अपने साथ मिलाया और नवंबर 1857 में कानपुर पर आक्रमण कर उसे जीत लिया लेकिन परंतु यह जीत थोडे समय के लिए थी.
ब्रिटिश सेना ने तात्या को छह दिसंबर 1857 को पराजित कर दिया. बहा से जाने के बाद तात्या ने खारी पर कब्जा किया. खारी में उन्होंने अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त हुए. उससे उन्होंने फिर बड़ी सेना तैयार की. इसी बीच 22 मार्च1858 को सर ह्यूरोज ने झाँसी पर घेरा डाल दिया. ऐसे नाजुक समय में तात्या टोपे करीब 20,000 सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मी बाई की मदद के लिए पहुँचे और युद्ध में रानी की विजय हुई.
कानपुर, चरखारी, झाँसी और कोंच की लडाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी लेकिन चरखारी को छोडकर अन्य स्थानों पर उनकी पराजय हो गयी. तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झांसी की रानी पर छोडकर , स्वयं वेश बदलकर ग्वालियर चले गये. जब ह्यूरोज काल्पी की विजय का जश्न मना रहा था, तब तात्या ने महाराजा जयाजी राव सिंधिया की फौज को अपनी ओर मिला लिया और ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया.
झाँसी की रानी, तात्या और राव साहब ने जीत के ढंके बजाते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोशित किया. इस सफलता ने स्वाधीनता सेनानियों के दिलों को खुशी से भर दिया, परंतु इसके पहले कि तात्या टोपे अपनी शक्ति को संगठित करते, ह्यूरोज ने पुनः आक्रमण कर दिया और फूलबाग के पास हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई 18 जून, 1858 को शहीद हो गयीं. कुछ समय में अंग्रेजों ने सारे विद्रोह को कुचल दिया.
तात्या मुट्ठी भर सैनिकों के साथ लम्बे समय तक अंग्रेज सेना से लड़ते रहे. इस दौरान उन्होंने दुश्मन के खिलाफ एक ऐसे जबर्दस्त छापेमार युद्ध का संचालन किया, जिसने उन्हें दुनिया के छापेमार योद्धाओं की पहली पंक्ति में लाकर खडा कर दिया. युद्ध के दौरान तात्या टोपे ने दुर्गम पहाडयों और घाटियों में बरसात से उफनती नदियों और भयानक जंगलों में रहकर मध्यप्रदेश और राजस्थान में अंग्रेजी कैम्प में तहलका मचाये रखा.
नरवर के राजा मानसिंह की गद्दारी के कारण तात्या 8 अप्रैल, 1859 को सोते हुए पकड लिया गया और 18 अप्रैल, 1859 को फांसी चढ़ा दिया. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि- अंग्रेज तात्या को कभी पकड नहीं सके थे और शर्मिंदगी से बचने के लिए किसी अन्य को तात्या बताकर फांसी चढ़ा दिया था. ऐसा कहा जाता है तात्या टोपे, नारायण स्वामी के रूप में गोकुलपुर आगरा में स्थित सोमेश्वरनाथ के मन्दिर में काफी समय रहे थे.
कर्नल मालेसन ने सन् 1857 के विद्रोह का इतिहास लिखा है. उन्होंने लिखा कि- तात्या टोपे चम्बल, नर्मदा और पार्वती की घाटियों के निवासियों के ’हीरो‘ ही नहीं बल्कि सारे भारत के ही ’हीरो‘ बन गये हैं. पर्सी क्रास नामक एक अंग्रेज ने लिखा है कि ’भारतीय विद्रोह में तात्या सबसे तेज दिमाग नेता थे. उनकी तरह कुछ और लोग होते तो अंग्रेजों के हाथ से भारत छीना जा सकता था.

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