Saturday, 22 April 2017

बाबू कुंवर सिंह

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महानायक " बाबू कुंवर सिंह" के शहीदी दिवस पर श्रद्धांजली
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आज (23-अप्रेल ) को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के एक महानायक "बाबू कुंवर सिंह" के शहीदी दिवस पर भावभीनी श्रद्धांजली. बाबू कुंवर सिंह सन 1857 के भारतीय स्वतंत्रता के संग्राम के सिपाही थे. इनको 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने के लिए जाना जाता है. इन्होने बुढापे में भी अंग्रेजों को नाकों चने चबबा दिए थे.
 बाबू कुंवर सिंह का जन्म 1777 में , बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था. इनके पिता बाबू साहबजादा सिंह, "राजा भोज" के वंशजों में से थे. उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह भी अपनी आजादी कायम रखने के खातिर सदा लड़ते रहे थे.
1857 में मंगल पाण्डे के बलिदान ने सारे देश में उत्साह पैदा कर दिया था. बिहार की दानापुर रेजिमेंट, बंगाल के बैरकपुर और रामगढ़ के सिपाहियों ने बगावत करदी थी. मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, झांसी और दिल्ली में भी आग भड़क उठी . ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने पूर्वान्चल में, भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया .
27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ, "आरा" नगर पर बाबू कुंवर सिंह ने कब्जा जमा लिया. अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा. बाबू कुंवर सिंह और उनके भाई अमर सिंह अंग्रेजों से छापामार लड़ाई लड़ते रहे और काफी बड़े क्षेत्र को आजाद करा लिया.
बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर आदि क्षेत्र की जनता ने बाबू कुवर सिंह को अपना राजा घोषित कर दिया. इन इन इलाकों में अंग्रेजों से में क्रान्तिकारियों की अनेकों मुठभेड़ हुई लेकिन हमेशा अंग्रेजों को मुह की खानी पडी. बाबू कुंवर सिंह ने अंग्रेजों से एक साल से ज्यादा तक संघर्ष किया और आजादी को कायम रखा.
इसी बीच अंग्रजो ने, भारत के गद्दारों के सहयोग से प्रथम स्वाधीनता संग्राम पर काफी हद तक काबू पा लिया. अब अंग्रजों का मुकाबला करने वाले केवल दो भारतीय क्षेत्र, मध्य-पश्चिम (लक्ष्मी बाई और तात्या टोपे) और पूर्वांचल में (बाबू कुंवर सिंह) बचे थे. तब अंग्रजों ने इन इलाकों को जीतने के लिए अपनी पूरी ताकत इन दो क्षेत्रों में झोक दी.
जब अंग्रेजों को लग रहा था कि - हम आसानी से बाबू कुवर सिंह पर काबू कर लेंगे उसी समय मार्च 1858 में बाबू कुवर सिंह ने एक बड़ा हमला कर आजमगढ़ को भी आजाद करा लिया. इस घटना की खबर ने ब्रिटेन तक में बेचैनी पैदा कर दी. तब अंग्रेजों ने भारत के गद्दार राजों की और अपनी पूरी ताकत पूर्वांचल में लगा दी.
अप्रेल - 1858 में अंग्रेजों और गद्दार भारतीय राजाओं ने उनपर लगातार हमले करने शुरू कर दिए जिससे उनकी सेना कमजोर पड़ने लगी. 23 अप्रेल 1858 को जगदीशपुर में अंग्रेजों से हुए एक मुकाबले में वे बुरी तरह घायल हो गए, लेकिन उसके बाद भी उन्होंने तैरते हुए विशाल गंगा को पार किया. 80 साल के बुजुर्ग ऐसा सोंच भी नहीं सकते.
गंगा पार करने के बाद, अपना अंतिम समय निकट जानकार, उन्होंने खुद अपने हाथ में गंगा जल लेकर, अपना तर्पण किया और भारत माँ की गोद में सो गए. कुछ इतिहासकार मानते है कि - उनका देहांत 24-अप्रेल को हुआ था और कुछ कहते हैं कि 26-अप्रेल को. मगर इस बात में कोई विवाद नहीं है कि 23-अप्रैल 1858 का युद्ध उनका अंतिम युद्ध था,
ब्रिटिश इतिहासकार "होम्स" ने उनके बारे में लिखा है कि- "उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता साथ लड़ाई लड़ी . गनीमत थी कि युद्ध के समय कुंवर सिंह की उम्र अस्सी के करीब थी. अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता". आज उनके बलिदान दिवस पर हम उनको सादर श्रद्धांजली देते है.

Friday, 21 April 2017

स्वामी भक्त घोड़ा "शुभ्रक"

कुतुबुद्दीन, क़ुतुबमीनार, कुतुबुद्दीन की मौत और स्वामी भक्त घोड़ा "शुभ्रक" 
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किसी भी देश पर शासन करना है तो उस देश के लोगों का ऐसा ब्रेनवाश कर दो कि- वो अपने देश, अपनी संस्क्रती और अपने पूर्वजों पर गर्व करना छोड़ दें. इस्लामी हमलावरों और उनके बाद अंग्रेजों ने भी भारत में यही किया. हम अपने पूर्वजों पर गर्व करना भूलकर उन अत्याचारियों को महान समझने लगे जिन्होंने भारत पर बे-हिसाब जुल्म किये थे.
 अगर आप दिल्ली घुमने गए है तो आपने कभी क़ुतुबमीनार को भी अवश्य देखा होगा. जिसके बारे में बताया जाता है कि- उसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनबाया था. हम कभी जानने की कोशिश भी नहीं करते हैं कि- कुतुबुद्दीन कौन था, उसने कितने बर्ष दिल्ली पर शासन किया, उसने कब क़ुतुबमीनार को बनबाया या कुतूबमीनार से पहले वो और क्या क्या बनवा चुका था ?
कुतुबुद्दीन ऐबक, मोहम्मद गौरी का खरीदा हुआ गुलाम था. मोहम्मद गौरी भारत पर कई हमले कर चुका था मगर हर बार उसे हारकर वापस जाना पडा था. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की जासूसी और कुतुबुद्दीन की रणनीति के कारण मोहम्मद गौरी, तराइन की लड़ाई में प्रथ्वीराज चौहान को हराने में कामयाब रहा और अजमेर / दिल्ली पर उसका कब्जा हो गया.
अजमेर पर कब्जा होने के बाद मोहम्मद गौरी ने चिश्ती से इनाम मांगने को कहा. तब चिश्ती ने अपनी जासूसी का इनाम मांगते हुए, एक भव्य मंदिर की तरफ इशारा करके गौरी से कहा कि - तीन दिन में इस मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना कर दो. तब कुतुबुद्दीन ने कहा आप तीन दिन कह रहे हैं मैं यह काम ढाई दिन में कर के आपको दूंगा.
कुतुबुद्दीन ने ढाई दिन में उस मंदिर को तोड़कर मस्जिद में बदल दिया. आज भी यह जगह "अढाई दिन का झोपड़ा" के नाम से जानी जाती है. जीत के बाद मोहम्मद गौरी, पश्चिमी भारत की जिम्मेदारी "कुतुबुद्दीन" को और पूर्वी भारत की जिम्मेदारी अपने दुसरे सेनापति "बख्तियार खिलजी" (जिसने नालंदा को जलाया था) को सौंप कर वापस चला गय था.
कुतुबुद्दीन कुल चार साल ( 1206 से 1210 तक) दिल्ली का शासक रहा. इन चार साल में वो अपने राज्य का विस्तार, इस्लाम के प्रचार और बुतपरस्ती का खात्मा करने में लगा रहा. हांसी, कन्नौज, बदायूं, मेरठ, अलीगढ़, कालिंजर, महोबा, आदि को उसने जीता. अजमेर के विद्रोह को दबाने के साथ राजस्थान के भी कई इलाकों में उसने काफी आतंक मचाया.
जिसे क़ुतुबमीनार कहते हैं वो महाराजा वीर विक्रमादित्य की बेधशाला थी. जहा बैठकर खगोलशास्त्री वराहमिहर ने ग्रहों, नक्षत्रों, तारों का अध्ययन कर, भारतीय कैलेण्डर "विक्रम संवत" का आविष्कार किया था. यहाँ पर 27 छोटे छोटे भवन (मंदिर) थे जो 27 नक्षत्रों के प्रतीक थे और मध्य में विष्णू स्तम्भ था, जिसको ध्रुव स्तम्भ भी कहा जाता था.
दिल्ली पर कब्जा करने के बाद उसने उन 27 मंदिरों को तोड दिया. विशाल विष्णु स्तम्भ को तोड़ने का तरीका समझ न आने पर उसने उसको तोड़ने के बजाय अपना नाम दे दिया. तब से उसे क़ुतुबमीनार कहा जाने लगा. कालान्तर में यह यह झूठ प्रचारित किया गया कि- क़ुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ने बनबाया था. जबकि वो एक विध्वंशक था न कि कोई निर्माता.
अब बात करते हैं कुतुबुद्दीन की मौत की. इतिहास की किताबो में लिखा है कि उसकी मौत पोलो खेलते समय घोड़े से गिरने पर से हुई. ये अफगान / तुर्क लोग "पोलो" नहीं खेलते थे, पोलो खेल अंग्रेजों ने शुरू किया. अफगान / तुर्क लोग बुजकशी खेलते हैं जिसमे एक बकरे को मारकर उसे लेकर घोड़े पर भागते है, जो उसे लेकर मंजिल तक पहुंचता है, वो जीतता है.
कुतबुद्दीन ने अजमेर के विद्रोह को कुचलने के बाद राजस्थान के अनेकों इलाकों में कहर बरपाया था. उसका सबसे कडा बिरोध उदयपुर के राजा ने किया, परन्तु कुतुबद्दीन उसको हराने में कामयाब रहा. उसने धोखे से राजकुंवर कर्णसिंह को बंदी बनाकर और उनको जान से मारने की धमकी देकर, राजकुंवर और उनके घोड़े शुभ्रक को पकड कर लाहौर ले आया.
एक दिन राजकुंवर ने कैद से भागने की कोशिश की, लेकिन पकड़ा गया. इस पर क्रोधित होकर कुतुबुद्दीन ने उसका सर काटने का हुकुम दिया. दरिंदगी दिखाने के लिए उसने कहा कि- बुजकशी खेला जाएगा लेकिन इसमें बकरे की जगह राजकुंवर का कटा हुआ सर इस्तेमाल होगा. कुतुबुद्दीन ने इस काम के लिए, अपने लिए घोड़ा भी राजकुंवर का "शुभ्रक" चुना.
कुतुबुद्दीन "शुभ्रक" पर सवार होकर अपनी टोली के साथ जन्नत बाग में पहुंचा. राजकुंवर को भी जंजीरों में बांधकर वहां लाया गया. राजकुंवर का सर काटने के लिए जैसे ही उनकी जंजीरों को खोला गया, शुभ्रक ने उछलकर कुतुबुद्दीन को अपनी पीठ से नीचे गिरा दिया और अपने पैरों से उसकी छाती पर कई बार किये, जिससे कुतुबुद्दीन बही पर मर गया.
इससे पहले कि सिपाही कुछ समझ पाते राजकुवर शुभ्रक पर सवार होकर वहां से निकल गए. कुतुबुदीन के सैनिको ने उनका पीछा किया मगर वो उनको पकड न सके. शुभ्रक कई दिन और कई रात दौड़ता रहा और अपने स्वामी को लेकर उदयपुर के महल के सामने आ कर रुका. वहां पहुंचकर जब राजकुंवर ने उतर कर पुचकारा तो वो मूर्ति की तरह शांत खडा रहा.
वो मर चुका था, सर पर हाथ फेरते ही उसका निष्प्राण शरीर लुढ़क गया. कुतुबुद्दीन की मौत और शुभ्रक की स्वामिभक्ति की इस घटना के बारे में हमारे स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाता है लेकिन इस घटना के बारे में फारसी के प्राचीन लेखकों ने काफी लिखा है. धन्य है भारत की भूमि जहाँ इंसान तो क्या जानवर भी अपनी स्वामी भक्ति के लिए प्राण दांव पर लगा देते हैं.

पपिस्तान हमारा दुश्मन क्यों है ?

पापिस्तान कभी भारत का अभिन्न अंग था तो फिर आखिर ऐसा क्या हो गया कि वो भारत से अलग हो गया और भारत का दुश्मन बन गया. आखिर पापिस्तानी हिस्से के नागरिकों से शेष भारत ने ऐसा क्या अन्याय किया कि वो भारत को शत्रु मानता है.
इसकी एकमात्र बजह है भारत के उस हिस्से में मुसलमानो का बहुसंख्यक हो जाना. अगर आप अंग्रेजो से भारत को आजाद करने की लड़ाई का इतिहास उठाकर देखें तो आपको पापिस्तान और बंगलादेश में आजादी की लड़ाई की कोई बड़ी घटना देखने को नहीं मिलेगी.
लाहोर, सिंध, चटगाँव में भी जितनी क्रन्तिकारी घटनाये देखने को मिलती है उनमे भी आपको लाला लाजपत राय, भगत सिंह, हेमू कलाणी, मास्टर सूर्यसेन, आदि जैसे नाम ही दिखाई देते है. खान, हुशेन, अली, आदि जैसे सरनेम वाले नाम बहुत मुस्किल से दिखेंगे.
लेकिन जब भारतीय मूल के क्रांतिकारियों की कुर्बानियों से देश आजाद होता दिखाई देने लगा, तो ये मुस्लिम लोग मुस्लिम बहुल इलाकों को भारत से अलग करने में लग गए और अंग्रेजों की चापलूसी कर देश का बहुत बड़ा हिस्सा लेने में कामयाब हो गए.
अलग देश लेने के बाद भी ये लोग चैन से नहीं बैठे और लगातार भारत पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हमले करते रहे. आजाद भारत में भी जिन राज्यों में कश्मीर, केरल, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में मुसलमानों की संख्या ज्यादा थी वहां अन्य का जीना मुश्किल किया है.
पापिस्तान के अलग होने, पापिसान के दुश्मन बनने, कश्मीर में अलगाववाद होने, केरल / बंगाल / उ.प्र. के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में बार बार दंगा होने की बजह वहा मुस्लिम ज्यादा होना ही है. अगर देश को बचाना है तो हिन्दू धर्म और भारतीय संस्क्रती को बचाना होगा.

प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रदूत "मंगल पांडे"


मंगल पाण्डेय का जन्म 19 जुलाई 1827 को वर्तमान उत्तर प्रदेश, ( आगरा व अवध संयुक्त प्रान्त ) के बलिया जिले में स्थित नागवा गाँव में हुआ था. भारत की आजादी की पहली लड़ाई अर्थात् 1857 के विद्रोह की शुरुआत, मंगल पाण्डेय के विद्रोह से हुई, जब उन्होंने गाय व सुअर कि चर्बी लगे कारतूस को इस्तेमाल करने विरोध जताया था.
इसके परिणाम स्वरूप उनके हथियार छीनने और वर्दी उतार लेने का फौजी हुक्म हुआ. 29 मार्च सन् 1857 को उनकी राइफल छीनने के लिये आगे बढे अंग्रेज अफसर मेजर ह्यूसन को मौत के घाट उतार दिया. आक्रमण करने से पूर्व उन्होंने अपने अन्य साथियों से उनका साथ देने का आह्वान भी किया था किन्तु कोर्ट मार्शल के डर से किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया.
इसके बाद विद्रोही मंगल पाण्डेय को अंग्रेज सिपाहियों ने पकड लिया. उन पर कोर्ट मार्शल द्वारा मुकदमा चलाकर 6 अप्रैल 1857 को मौत की सजा सुना दी गयी. कोर्ट मार्शल के अनुसार उन्हें 18 अप्रैल 1857 को फाँसी दी जानी थी. परन्तु इस फैसले का बहुत बिरोध हुआ. अन्य रेजीमेंट्स के भारतीय सैनिक भी मंगल पांडे को समर्थन देने लगे.
इसकी प्रतिक्रिया कहीं विकराल रूप न ले ले, इसी कूट रणनीति के तहत क्रूर ब्रिटिश सरकार ने मंगल पाण्डेय को निर्धारित तिथि से भी , दस दिन पूर्व ही 8 अप्रैल सन् 1857 को फाँसी पर लटका कर मार डाला. मंगल पाण्डेय द्वारा लगायी गयी विद्रोह की यह चिन्गारी, उनकी फांसी के बाद बुझने के बजाय भयानक दावानल बन गई.
एक महीने बाद ही 10 मई सन्1857 को मेरठ की छावनी में बगावत हो गयी. जो देखते ही देखते पूरे उत्तरी भारत में फैल गई. जिससे अंग्रेजों को स्पष्ट संदेश मिल गया कि अब भारत पर राज करना उतना आसान नहीं है. यह बिद्रोह निर्दयता पूर्वक कुचल दिया गया था, मगर मंगल पांडे के बलिदान ने देशवाशियों के दिल में आजादी की चाहत पैदा कर दी थी.
1857 की क्रान्ति को, अंग्रेजों, भारतीय गद्दार राजाओं द्वारा राय बहादुरों, खान बहादुरों के सहयोग से बलपूर्वक कुचल दिया गया और इसे ग़दर कहकर क्रांतिकारियों का महत्त्व कम किया गया. अंग्रेजों के चापलूस और भारत के गद्दार् लेखकों और इतिहास कारों ने भी इस स्वाधीनता संग्राम को बगावत / राजद्रोह / ग़दर आदि ही लिखा.
अंग्रेजो की इस नीति के चलते अधिकांश देशवाशियों ने गुलामी को स्वीकार कर लिया था. लेकिन इसके 50 साल बाद वीर सावरकर ने "1857-प्रथम स्वातंत्र्य समर" नामक ग्रन्थ लिखकर क्रान्तिकारियों को सम्मान दिलाया तथा देशवाशियों को दुसरे स्वतंत्रता संग्राम के लिए तैयार किया. जिसके परिणामस्वरूप हमें 1947 में अंग्रेजों से आजादी मिली.
 

असेम्बली बम काण्ड

असेम्बली बम काण्ड की बरसी ( 8-अप्रेल ) पर समस्त देश वाशियों को शुभकामनाये
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8 अप्रैल, 1929 की, असेम्बली बमकाण्ड की घटना, आजादी की लड़ाई की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है, जब महान स्वतंत्रता सेनानी सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली हाल धमाका कर अंग्रेज सरकार को दहला दिया था और सोये हुए देशवाशियों को जगा दिया था. दिल्ली स्थित असेम्बली (वर्तमान का संसद भवन) में अंग्रेजों की तानाशाही का विरोध में, बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ अपने बिचारों का प्रचार करने के उद्देश्य से, ये धमाके किये गए थे.
उस दिन भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था.इस घटना के बाद बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया था. 12 जून, 1929 को इन दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई. सजा सुनाने के बाद इन लोगों को "लाहौर फोर्ट जेल" में डाल दिया गया . यहां पर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर लाहौर षड़यंत्र केस भी चलाया गया.
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा दी गई थी और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास काटने के लिए "काला पानी जेल" भेज दिया गया. असेम्बली बमकाण्ड और भगत सिंह आदि की फांसी ने युवाओं में देशभक्ति का जज्बा पैदा कर दिया था, जिसका परिणाम देश की आजादी के रूप में मिला. असेम्बली बम काण्ड स्वाधीनता संग्राम की बहुत महत्वपूर्ण घटना है. इसकी गूँज लन्दन की संसद में भी महेसूस की गई थी,
आप भी मेरे साथ बोलिए . इन्कलाब - जिंदाबाद , वन्दे मातरम, भारत माता की जय

गौ -ह्त्या निरोधक कानून का कड़ाई से पालन होना आवश्यक है

देश के अधिकाँश राज्यों में गौ ह्त्या निषेध है अर्थात उन राज्यों में गाय की तश्करी करना, गाय की हत्या करना, गाय का मांस बेचना और गाय का मांस खाना, कानूनी अपराध है. अगर कोई व्यक्ति ऐसे राज्य में रहता है जहां गौ ह्त्या अवैद्ध है और वह यह दावा करता है कि - वह गौ मांस खाता है तो सीधी सी बात है कि- वह व्यक्ति गैर कानूनी काम कर रहा है.
ऐसे लोगों को पकड़कर उनपर सख्त कार्यवाही की जानी चाहिए. उनसे पता लगाना चाहिये कि- वे गौमांस कहाँ से खरीदता है. इस प्रकार गौ हत्यारों के सारे नेटवर्क का पता लगाया जा सकता है. देश के अधिकतर राज्यों में गौ-ह्त्या निषेध है लेकिन इसके बाबजूद उन राज्यों में गौ ह्त्या होती रही है और राजनैतिक दबाब के कारण प्रशासन उसको रोकता नहीं था.
जब सरकार , पुलिस, न्यायालय किसी गैरकानूनी काम को रोकने में असफल रहते हैं तब ही जनता कानून को हाथ में लेती है. आज अगर जनता गौ ह्त्या को लेकर उद्देलित है तो इसकी एकमात्र बजह प्रशासन की दशकों की असफलता है. जो न्यायालय गौ रक्षको पर प्रश्न कर रहा है पहले उसको बताना होगा कि - उसने आजतक कितने गौ हत्यारों को सजा दी है.
जो कोई भी व्यक्ति या संस्था गौ रक्षकों की कार्यवाही पर सवाल उठाता है उनसे मेरा केवल एक ही सवाल है कि - आप गौ मांस खाते है या नहीं ? यदि आप गौ मांस खाते है और ऐसे राज्य में रहते हैं जहाँ यह अपराध हैं तो आप अपराधी है. आपको तो सजा मिलनी चाहिए, फिर भी यदि प्रायश्चित करना चाहते हैं तो आप बताये कि - आप गौ-मांस कहाँ से लाते थे.
यदि आप गौ मांस नहीं खाते हैं और आप गौ हत्या के बिरोधी हैं तो आपको गौ रक्षकों का विरोध क्यों कर रहे हैं ? इस काम में तो आपको उनका साथ देकर कानून की मदद करनी चाहिए. यदि आपको गौ रक्षकों का तरीका गलत लगता है तो आप उन के साथ जाकर उनको अपराधियों से निपटने का सही तरीका बताये, आखिर हैं तो आप भी गौ ह्त्या के बिरोधी ही.
जिन इलाको में ज्यादा चोरियां होती है और प्रशासन रोक नहीं पाता है उन इलाको में अकसर वहां के निवासी लोग ही खुद ठीकरी पहरा देते हैं और उनके हत्थे जब कोई चोर चढ़ जाता है तो उसकी पिटाई भी खूब होती है कई बार तो पिटाई से चोर मर भी जाता है . ऐसे में दोषी वो जनता नहीं होती बल्कि वो चोर होता या वहां का प्रशासन जो चोरी रोकने में नाकाम रहता है.
गौ ह्त्या कानूनी अपराध तो है ही एक बहुत बड़ा सामाजिक अपराध भी है. देश के अधिकाँश लोगों की भावना इससे आहत होती है. इसलिए जिन राज्यों में गौ ह्त्या अपराध है उन राज्यों में अगर किसी के पास भी इस सम्बन्ध में कोई जानकारी है उसे प्रशांसन को बताना चाहिए जिससे उन अपराधियों को सजा दिलाकर , गौ ह्त्या को रोका जा सके.

विवाह संस्कार है या करार

भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह एक संस्कार है जिसको जन्मो का अटूट बंधन माना जाता है. अगर किसी बजह से किसी दम्पत्ति के आपसी सम्बंध में दरार आ जाती है तो उनके परिवार, सम्बन्धी और मित्रगण उनमे सुलह कराने का प्रयास करते हैं. अगर बात बन जाती है तो ठीक है नहीं तो न्यायालय से उनको अलग करने की मांग की जाती है.
न्यायालय में भी पहले उनमे समझौता कराने का ही प्रयास किया जाता है, क्योंकि भारतीय संस्क्रति में परिवार का टूटना अच्छा नहीं माना जाता. जब दम्पत्ति के बीच सुलह की कोई भी संभावना नहीं बचती है , तब ही उनको अलग किया जाता है, उस समय भी उन दोनों के साथ साथ उनके बच्चों के भविष्य और हित का भी ध्यान रखा जाता है.
जबकि अरबी सस्कृति में विवाह एक करार अर्थात एग्रीमेंट है जो कबूल से शुरू होकर तलाक पर ख़त्म हो जाता है. निकाह के समय ही एग्रीमेंट में लिखबाया जाता है कि - अगर तलाक दोगे तो छोड़ते समय कितनी रकम लड़की को दोगे. करार करते समय तो फिर भी लड़के और लड़की की रजामंदी पूँछी जाती है लेकिन करार तोड़ना लड़के के हाथ में होता है.
कोई पुरुष जब चाहे तीन बार तलाक तलाक तलाक बोलकर करार से मुक्ति पा सकता है. उस समय उसको बस करार के समय तय की गई रकम (मेहर) देनी होती है. एक बार तलाक हो जाने के बाद कोई उनको समझा भी नहीं सकता. यदि उनको खुद भी गलती समझ आ जाए तो भी वे दोबारा साथ नहीं रह सकते, इसके लिए पहले महिला को हलाला कराना पड़ता है.
इसमें पहले महिला को किसी और से शादी करनी होती है फिर उसे तलाक लेकर पहले वाले से शादी करनी होती है. अधिकाँश महिलाए इस प्रथा को गलत मानती हैं लेकिन पहले बोल नहीं पाती थीं. आज के समय में शिक्षित महिलाए इस प्रकार के एकतरफा तलाक और हलाला के लिए बिलकुल तैयार नहीं है और इसमें सरकार से हस्तक्षेप की मांग कर रही हैं

"महात्मा ज्योतिवा फुले"

महान विचारक और समाज सुधारक "महात्मा ज्योतिवा फुले" जी के
जन्मदिवस (11 अप्रेल ) पर सारे देशवासियों को हार्दिक बधाई.
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ज्योतिराव गोविंदराव फुले (जन्म - ११ अप्रेल १८२७, मृत्यु - २८ नवम्बर १८९०) महान समाज सेवी तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे. महिलाओं, पिछड़ों और दलितों के उत्थान के लिय इन्होने अनेक कार्य किए. समाज के सभी वर्गो को शिक्षा प्रदान करने के ये प्रबल समथर्क थे. सितम्बर १८७३ में इन्होने महाराष्ट्र में "सत्य शोधक समाज" नामक संस्था का गठन किया और "दीं बंधू" नामक समाचार पत्र भी निकाला था.
उनका परिवार कई पीढ़ी पहले "सतारा" से "पुणे" आ गया था. फूलों के गजरे बनाने बाले और माली के काम में लगे ये लोग 'फुले' के नाम से जाने जाते थे. इनका विवाह 1840 में सावित्री बाई से हुआ, जो बाद में स्‍वयं एक मशहूर समाजसेवी बनीं. समाज कल्याण के क्षेत्र में दोनों पति-पत्‍नी ने साथ मिलकर काम किया था. ज्‍योतिबा फुले भारतीय समाज में प्रचलित जाति आधारित विभाजन और भेदभाव के खिलाफ थे.
स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा ने 1854 में एक स्कूल खोला था. यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था. लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके, अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को ट्रेनिंग देकर इस योग्य बना दिया. "सावित्री बाई फुले" को आधुनिक भारत की पहली महिला शिक्षिका माना जाता है. आज की प्रत्येक शिक्षित महिला को दिल से उनका आभारी होना चाहिए .
ज्योतिबा ने ब्राह्मण पुरोहित के बिना ही विवाह संस्कार आरंभ कराया और इसे मुंबई हाईकोर्ट से मान्यता भी दिलवाई. वे बाल-विवाह के सख्त विरोधी थे और विधवा विवाह के प्रबल समर्थक थे. ज्योतिवा फूले नारी शिक्षा के लिए प्रयास करने वाले शुरूआती लोगों में एक हैं. ज्योतिवा को सम्मान देते हुए उ.प्र. के अमरोहा जिले का नाम " ज्योतिवा फूले नगर" तथा बरेली की रूहेलखंड यूनिवर्सिटी (बरेली) का नाम "महात्मा ज्योतिवा फूले विश्व विधयालय" रखा गया गया है 

सारागढ़ी जंग

 "सारागढ़ी जंग" की बरसी (12 सितम्बर ) पर 10,000 पठानों को हराने वाले 21 वीरों को नमन
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हमारे देश में महान वीरों की इतनी सारी गाथाएँ हैं की उनपर अनेकों ग्रन्थ लिखे जा सकते है. मगर हमाई शिक्षा प्रणाली इतनी ज्यादा भेदभाव पूर्ण रही है की अधिकाँश सच्चे वीरों का जिक्र तक नहीं होता है. ऐसी ही एक दुर्लभ लड़ाई की दास्तान है "सरागढ़ी की लड़ाई" जिसमे मात्र 21 सिक्ख जवानो ने 10,000 पठानों / पश्तूनो को धूल चटाई थी.
"सरागढ़ी" पश्चिमोत्तर भाग में स्थित हिंदुकुश पर्वतमाला की श्रृंखला पर स्थित एक छोटा सा गाँव है. सितम्बर 1897 की बात है यहाँ की एक चौकी पर "36 सिख रेजीमेंट" तैनात थी. यह चौकी सामरिक रूप से महत्वपूर्ण "गुलिस्तान" और "लाकहार्ट" के किले के बीच में स्थित थी और इन दोनों किलों के बीच एक कम्यूनिकेशन नेटवर्क का काम करती थी.
12 सितम्बर की सुबह लगभग 15 हजार पश्तूनों / पठानों ने सारागढ़ी के किले को चारों और से घेर लिया. उस समय वहां केवल 21 सिक्ख सैनिक मौजूद थे. सिग्नल इंचार्ज ‘गुरुमुख सिंह’ ने ले. क. जॉन होफ्टन को हेलोग्राफ पर स्थिति का ब्योरा दिया, परन्तु जॉन होफ्टन ने कहा कि- किले तक तुरंत सहायता पहुँचाना काफी मुश्किल है किसी तरह उनको रोको.
सिक्ख जवानो ने किले के भीतर अलग अलग जगहों पर मोर्चा लगा लिया और हमलावर अफगानों पर सटीक निशाना लगाना शरू कर दिया. सिखों के हौंसले से, पठानों पश्तूनों के कैम्प में हडकंप मच गया. मोर्चा लगाकर सटीक निशाने लगाकर उन्होंने उन पठानों की लाशों के ढेर लगा दिए. अफगानों को लगा कि - किले में कोई बड़ी सेना मौजूद है.
पठानों ने किले की दीवार तोडंने की कोशिश की तो हवलदार इशर सिंह ने अपनी टोली के साथ “जो बोले सो निहाल,सत श्री अकाल” का नारा लगाया और दुश्मन पर झपट पड़े. उन्होंने हाथापाई मे ही 20 से अधिक पठानों को मौत के घात उतार दिया. सारी दिन यह लड़ाई चलती रही. इस युद्ध में 21 सिक्ख जवानो ने 10,000 पठानों को रोके रखा.
इस भीषण लड़ाई में 1400 के लगभग अफगान सैनिक मारे गए तथा किले की रक्षा करने वाले सभी 21 सिक्ख सैनिक भी शहीद हो गए. उन अफगानों के मन में इतना भय बैठ गया था कि -किले से गोली चलना बंद होने के बाद भी उनकी हिम्मत किले में घुसने की नहीं हुई. सुबह तक किले की रक्षा के लिए दुसरी सेना पहुँच गई जिसे देखकर पठान भाग खड़े हुए.
जब ये खबर यूरोप पंहुची तो ब्रिटेन की संसद ने खड़े होकर, इन 21 वीरों की बहादुरी को सलाम किया. इन सभी 21 वीरों को मरणोपरांत "इंडियन आर्डर ऑफ़ मेरिट" दिया गया, जो आज के परमवीर चक्र के बराबर था. इस लड़ाई को दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाइयों में स्थान मिला है मगर अफसोश की बात है कि - भारत में इसका कोई जिक्र नहीं होता है.

"बैसाखी" के अवसर पर, सभी देश वाशियों को बहुत-बहुत बधाई.

खुशहाली के महापर्व, "बैसाखी" के अवसर पर, सभी देश वाशियों को बहुत-बहुत बधाई. इसके साथ-साथ आज के ही दिन हुए "जलियाँवाला बाग़ काण्ड" के शहीदों को श्रद्धांजलि.
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बैसाखी का पर्व किसानो के लिए बहुत ही खुशी का पर्व होता है. उनकी फसल तैयार हो जाती है, जिसे वो बैसाखी वाले दिन से काटना प्रारम्भ करते हैं. आज के दिन उनको अपनी कई महीनो की मेहनत का फल मिलता है. लेकिन बैसाखी के इस खुशहाली के पर्व से एक दुखद घटना भी जुडी हुई है. यह घटना है अंग्रेजों द्वारा किया जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड.
जालियाँवाला बाग, भारत के पंजाब प्रान्त के अमृतसर में, स्वर्ण मन्दिर के निकट है. जलियाँ बाला बाग़ में रौलेट एक्ट का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी, जिसमें जनरल डायर नामक एक अँगरेज ऑफिसर ने अकारण उस सभा में उपस्थित भीड़ पर गोलियाँ चलवा दीं थी, जिसमें 1000 से अधिक व्यक्ति मरे और 2000से अधिक घायल हुए.
13 अप्रैल 1919 को डॉ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी तथा रोलेट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियाँवाला बाग में लोगों ने एक सभा रखी थी, पंजाब के तत्कालीन गवर्नर "माइकल ओडवायर" ने "जनरल डायर" को आदेश दिया कि- वह भारतीयों को सबक सिखा दे. "माइकल ओडवायर" के आदेश पर "जनरल डायर" ने यह काण्ड किया था.
"जनरल डायर" ने 90 सैनिकों को लेकर जलियाँवालाबाग को चारों ओर से घेर लिया और सभा में उपस्थित लोगों पर अंधाधुँध गोलीबारी करवा दी, जिसमें सैकड़ों भारतीय मारे गए. जान बचाने के लिए बहुत से लोगों ने पार्क में मौजूद एक कुएं में छलांग लगा दी. जलियाँवाला बाग में लगी पट्टिका पर लिखा है कि- 120 शव तो सिर्फ कुए से ही मिले थे.
आधिकारिक रूप से मरने वालों की संख्या 371 बताई गई जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार 1500  से 1800 लोग मारे गए.  अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से अधिक थी. जबकि अम्रतसर के लोग मानते हैं कि- उस दिन उस काण्ड में लगभग 3000 लोग मारे गए थे.
जलियाँबाला बाग़ की उस सभा में एक किशोर युवक "उधम सिंह", लोगों को पानी पिलाने का काम कर रहां था. ये सारी भयंकर ह्रदय विदारक घटना उधम सिंह की आँखों के सामने घटी थी. उधम सिंह ने इस हत्याकांड का बदला लेना अपने जीवन का एकमात्र उदेश्य बना लिया था. इसके लिए वह लन्दन गया और वहा जाकर इस काण्ड का बदला लिया.
उधमसिंह ने लन्दन जाकर, एक सभा के बीचो बीच, अपनी पिस्तौल से "माइकल ओडवायर" का बध करके इस हत्या काण्ड का बदला लिया. "माइकल ओडवायर" का बध करने के बाद उधमसिंह ने भागने के बजाये अपनी गिरफ्तारी देकर सारी दुनिया को जलियाँवाला बाग के बारे में बताया. ये घटना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है.
इस हत्याकांड के बाद रबिन्द्रनाथ टैगोर ने 'सर' की उपाधि लौटा दी थी. सरदार भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्र शेखर आजाद, सुभाष चन्द्र बोस, रामप्रसाद बिस्मिल, असफाक उल्ला खान, रोशन सिंह, आदि अनेकों क्रांतिकारियों के जीवन पर इस घटना का बहुत गहरा प्रभाव पडा था. देशभक्तों के लिए जलियाँवाला बाग़ एक पवित्र तीर्थ स्थल है.
जय हिन्द, वन्दे मातरम, भारत माता की जय

खालसा पंथ के, स्थापना दिवस की हार्दिक शुभकामनाये

"गुरु गोविन्द सिंह" द्वारा धर्म की रक्षा और अधर्म के नाश हेतु,
सृजन किये गए खालसा पंथ के, स्थापना दिवस की हार्दिक शुभकामनाये
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सन 1699 ई. में बैसाखी के दिन, तख़्त श्री केशगढ़ साहिब (आनंदपुर साहिब) की धरती पर "श्री गुरु गोविंद सिंह जी महाराज" ने खालसा पंथ की स्थापना की थी. इसका मुख्य उद्देश्य था मुघल आक्रमणकारियों से भयभीत और आत्मविश्वास खो चुकी भारतीय जनता को निर्भय बनाकर, उनमे आत्मविश्वास पैदा करना. गुरू गोविन्द सिंह द्वारा खालसा पंथ के सृजन की भी एक बहुत ही रोचक कथा है.
"गुरु गोविंद सिंह" ने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन करवाया. यज्ञ में "गुरु गोविन्द सिंह" ने लोगों को धर्म की रक्षा और देश की आज़ादी के लिए प्रेरणा प्रदान की. जनभावना को परखने के लिए गुरु जी समस्त जनसमूह के समक्ष नंगी तलवार लेकर आये और कहा- आज देश और धर्म के लिए बलिदान की आवश्यकता है, क्या आप में से कोई ऐसा वीर है, जो अपना सिर दे सके?
सभा में कुछ देर सन्नाटा छा गया. गुरुजी ने फिर कहा- "क्या माँग पूरी नहीं होगी?" तभी एक तीस वर्षीय व्यक्ति बोला- "मैं अपना सिर को भेंट करने को तैयार हूँ" यह लाहौर के निवासी भाई दयाराम खत्री थे. गुरु गोविन्द सिंह उन्हें एक तंबू में ले गये और कुछ देर बाद, तंबू के बाहर रक्त की धारा बहते हुए देखी. गुरु गोविन्द सिंह फिर हाथ में रक्त से सनी तलवार लेकर आये और बोले- "अभी और बलिदान की आवश्यकता हैं.
तब तैंतीस वर्षीय दिल्ली निवासी भाई धर्मसिंह जाट ने आगे आकर सिर झुका दिया. गुरुजी उन्हें भी तंबू में ले गये और रक्त की दूसरी धार बहती दिखाई दी. उसके बाद गुरु जी ने तीन बार और यह मांग की और 36 वर्षीय मोहकमचंद धोबी , 37 बर्षीय साहबचंद नाई और 38 वर्षीय हिम्मतराय कुम्हार ने अपना सिर देना स्वीकार किया. इसके बाद तो सारा जनसमूह ही गुरुजी से कहने लगा कि- "हमारा सिर लीजिए"
कुछ देर बाद पांचो वीर बलिदानी सुन्दर वेषभूषा में तलवार लिए गुरु गोविन्द सिंह के साथ सभा मंच पर आ गये तो लोगों के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा. वास्तविक बात यह थी कि -गुरु गोविन्द सिंह ने उन बलिदानियों के स्थान पर पाँच बकरों को मारकर लोगों के धैर्य तथा दृढ़ता की परीक्षा ली थी. उनका यह प्रयोग सफल हुआ तथा लोगों के ह्रदय में देश और धर्म के लिए बलिदान देने की भावना उत्पन्न हो गई.
जिन पाँच वीरों ने गुरु गोविन्द सिंह के लिए अपने शीश भेंट किये, वे 'पंच प्यारे' नाम से विख्यात हुए. गुरु गोविन्द सिंह ने उनको अमृत पिलाया और फिर उनके हाथों स्वयं अमृत पीकर "सिंह" की उपाधि प्राप्त की. उसके बाद "गुरु गोविंद सिंह" ने गुरुगद्दी को छोड़कर वहा "गुरुग्रंथ साहिब"को स्थापित किया और उन्होंने सभी को "गुरुग्रंथ साहिब" को को सर्वोपरि मानने का आदेश दिया.
गुरु गोविन्द सिंह के आह्वान पर प्रत्येक हिन्दू के घर से एक बेटा खालसा फ़ौज में शामिल होने लगा था. गुरु गोविन्द सिंह के आह्वान पर लाखों लोग जीवन का मोह त्यागकर, सरपर कफ़न और हाथ में तलवार लेकर, धर्म और देश की रक्षा के लिए, जान हथेली पर लेकर निकल पड़े थे. "गुरु गोविंद सिंह जी महाराज" के "सवा लाख से एक लड़ाऊँ " के मन्त्र ने उनमे इतना आत्मविश्वास भर दिया था कि -- उन्होंने जालिम मुग़ल सल्तनत को हिलाकर रख दिया था.
गुरु गोविन्द सिंह के बाद उनके अनुयाइयों ने बन्दा बहादुर, बाबा दीप सिंह, आदि नेत्रत्व में अपना संघर्ष जारी रखा और कालांतर में महाराजा रंजीत सिंह के नेत्रत्व में उत्तर भारत में विशाल खालसा साम्राज्य की स्थापना की.
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देह शिवा बर मोहे ई हे,
शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं
न डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं,
निश्चय कर अपनी जीत करौं ,

डा. भीमराव रामजी अंबेडकर

"डा. भीमराव रामजी आंबेडकर" का जन्म मध्य-प्रदेश के मऊ में हुआ था. उनके पिता का नाम "रामजी मालोजी सकपाल" और माँ का नाम "भीमाबाई मुरबादकर" था. वे अपने माता-पिता की 14 वीं व अंतिम संतान थे . उनके पूर्वज लंबे समय से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे और अंग्रेजों के प्रति बहुत बफादार थे. उनके पिता भी अंग्रेजों की भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवारत थे.
1894 मे रामजी मालोजी सकपाल सेवानिवृत्त हो जाने के बाद सपरिवार सतारा चले गए, जहां 1896 मे अम्बेडकर की मां की मृत्यु हो गई. दो साल बाद 1898 में उनके पिता ने पुनर्विवाह कर लिया. उसके बाद उत्पन्न हुई बिषम परिस्थितियों में उनके नौ भाई बहन अकाल म्रत्यु के शिकार हो गए. उनके केवल दो भाई, बलराम और आनंदराव तथा दो बहने मंजुला और तुलसा ही इन कठिन हालातों मे जीवित बच पाये.
वे महार जाति से थे, जो अछूत कहे जाते थे लेकिन उनके एक ब्राह्मण शिक्षक "महादेव कृष्ण अम्बेडकर" जी, उनकी असाधारण योग्यता के कारण, उनसे विशेष स्नेह रखते थे. जातिगत भेदभाव और पिता की उपेक्षा से निराश बालक " भीमराव रांजी सकपाल" को उनके महान शिक्षक "महादेव कृष्णा अम्बेडकर" जी ने अपना पुत्र कहते हुए, अपना सरनेम "अम्बेडकर" दिया और उसके बाद "भीमराव रामजी सकपाल" हमेशा के लिए "भीमराव रामजी अम्बेडकर" हो गए.
1908 में उन्होंने बंबई के एक सरकारी कॉलेज में प्रवेश लिया और बड़ौदा के गायकवाड़ शासक "सहयाजी राव तृतीय" से पच्चीस रुपये प्रति माह का वजीफा़ प्राप्त किया. 1912 में उन्होंने राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र में डिग्री प्राप्त कीऔर बड़ौदा राज्य सरकार की नौकरी को तैयार हो गये. उसके बाद गायकवाड शासक ने उनको "संयुक्त राज्य अमेरिका" के "कोलंबिया विश्वविद्यालय" मे जाकर अध्ययन के लिये भी छात्रवृत्ति भी प्रदान की.
1916 में पी. एच.डी. पूरी करने के बाद, वे लंदन चले गये जहाँ उन्होने कानून का अध्ययन और अर्थशास्त्र में शोध की तैयारी के लिये अपना नाम लिखवा लिया. लेकिन छात्रवृत्ति समाप्त हो जाने के कारण उन्हें भारत वापस लौटना पडा़. यहाँ कुछ समय बडौदा रियासत में सचिव की नौकरी की फिर उसके बाद बंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स मे राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में काम किया.
1920 में उन्होंने बंबई में, साप्ताहिक "मूकनायक" के प्रकाशन की शुरूआत की. अम्बेडकर ने इसका इस्तेमाल जातीय भेदभाव से लड़ने तथा समाज में जागरूकता फैलाने के लिए किया. एक सम्मेलन के दौरान दिये गये उनके भाषण से कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ को बहुत प्रभावित किया. 1920 में कोल्हापुर के महाराजा के सहयोग से वे एक बार फिर से इंग्लैंड गए. 1923 में उन्होंने अपना शोध "प्रोब्लेम्स ऑफ द रुपी" पूरा कर लिया.
उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टर ऑफ साईंस की उपाधि प्रदान की गयी, इसके साथ ही उन्होंने कानून की पढ़ाई भी पूरी की जिससे उन्हें ब्रिटिश बार मे बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया. भारत आने के बाद उन्होंने वकालत शुरू की जो अच्छे से चल निकली. डॉ. अम्बेडकर ने छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन शुरू करने का फैसला किया. उन्होंने "सबके लिए सार्वजानिक जल के अधिकार" के लिए आन्दोलन किया.
इसमें सफल होने पर अछूतों के लिए, हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये भी संघर्ष किया. सन् 1926 में, वो बंबई विधान परिषद के एक मनोनीत सदस्य बन गये. 1927 में उन्होंने अपना दूसरी पत्रिका "बहिष्कृत भारत" शुरू की. कुछ ही समय में डॉ . अम्बेडकर सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन गए. उनकी बढ़ती लोकप्रियता के चलते 1931 मे लंदन में उन्हें दूसरे गोलमेज सम्मेलन में आमंत्रित किया गया.
1936 में, अम्बेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की, जिसने 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों मे 15 सीटें जीती. उन्होंने अपनी पुस्तक "जाति का विनाश" भी इसी वर्ष प्रकाशित की, जो उनके न्यूयॉर्क मे लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी. 1941 और 1945 के बीच में उन्होंने बड़ी संख्या में कई विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये जिनमे ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ भी शामिल है, जिसमें उन्होने मुस्लिम लीग की आलोचना की .
अम्बेडकर, इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी आलोचक थे. उन्होने भारत विभाजन का पक्ष लिया, लेकिन साथ ही आवादी की अदला-बदली का भी पक्ष लिया. उन्होंने मुस्लिम समाज मे व्याप्त बाल विवाह और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की भी घोर निंदा की थी. उन्होंने लिखा कि मुस्लिम समाज मे तो हिंदू समाज से भी अधिक सामाजिक बुराइयाँ हैं और मुसलमान उन्हें "भाईचारे" जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छुपाते हैं.
अपने विवादास्पद विचारों और गांधी व कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद अम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त, 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व मे आई तो उसने अम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया.
29 अगस्त 1947 को, अम्बेडकर को नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया. उनकी अध्यक्षता में तैयार किया गया संविधान, प्रत्येक नागरिक को , सम्मान से जीने का संवैधानिक अधिकार देता है. इसमें नागरिक स्वतंत्रताओं की सुरक्षा प्रदान की गई है जिससे धार्मिक स्वतंत्रता, अस्पृश्यता का अंत और सभी प्रकार के भेदभावों को गैर कानूनी करार दिया गया.
डा. अम्बेडकर, महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भी उग्र आलोचक थे. डा. अम्बेडकर ने गाँधी जी की आलोचना करते हुये कहा कि - असली महात्मा "गांधी जी " नही बल्कि , असली महात्मा तो "ज्योतिवा फुले" थे. 14 अक्टूबर 1956 को अपने अनुयायियों के साथ उन्होंने "बौद्ध धर्म" अपना लिया था. "बौद्ध धर्म" अपनाने के कुछ ही दिन बाद, 6 दिसंबर 1956 को अचानक उनकी मृत्यु हो गई.

उनकी म्रत्यु को लेकर तरह तरह की अफवाहे भी चलती रही है. कोई कहता है कि- वे रात खाना खाकर ठीक ठाक सोये थे परन्तु सुबह उठे नहीं. कुछ लोगों का कहना है कि- उनका दिल्ली में रोड एक्सीडेंट हुआ था. इसके अलाबा सोशल मीडिया पर उनकी म्रत्यु को लेकर एक अलग ही तरह की स्टोरी चल रही है जिसमे कहा गया है कि- भरतपुर के राजा चौधरी बच्चू सिंह ने उनको संसद में ही गोली मारी थी.

खैर जो भी हुआ हो, 7 दिसंबर को चौपाटी समुद्र तट पर बौद्ध शैली मे उनका अंतिम संस्कार किया गया जिसमें सैकड़ों हजारों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों ने भाग लिया था. बाबा साहब का जीवन प्रेरणा देता है कि - कोई भी व्यक्ति चाहे उसका जन्म चाहे कहीं भी, किसी भी जाति में या गरीब परिवार में ही क्यों न हुआ हो, अगर कोशिश करे तो वह अपनी मेहनत और योग्यता के दम पर, किसी राष्ट्र का संविधान तक को लिखने की जिम्मेदारी पा सकता है.
उन्होंने संविधान में आरक्षण का प्रावधान रखकर, दलितों और पिछडों आगे बढ़ने का अवसर प्रदान किया. आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक न्याय था लेकिन आज इसका लाभ केवल वही दलित और पिछड़े ले पा रहे हैं जो पहले से ही आगे हैं. जो दलित/ पिछड़े लोग आज मजबूत आर्थिक और सामाजिक स्थिति में हैं उनको अन्य जरुरतमंद दलितों और पिछडों के हित में खुद ही अपने लिए बार - बार आरक्षण लेने से मना कर देना चाहिए.
उन्होंने भी अपने पिता की तरह दो विवाह किये . उनका पहला विवाह 15 बर्ष की आयु में 1906 में रामाबाई आंबेडकर से हुआ. बाद में उन्होंने भी अपने पिता की तरह 58 साल की आयु में सविता आंबेडकर से दूसरा विवाह किया था. जिस तरह अपने पिता के दुसरे विवाह से वे दुखी रहे उसी तरह उनके दुसरे विवाह से , उनकी पहली पत्नी के बच्चे भी उनसे आजीवन नाराज रहे.
जय हिन्द , वन्दे मातरम , भारत माता की जय......................

भारत के स्वाभिमान की प्रतीक, चित्तौड़ की "महारानी पद्ममिनी"

चित्तौड़ के महाराज रत्नसिंह की महारानी पद्मिनी अत्यंत सुन्दर थी तथा उनकी सुन्दरता की ख्याति दूर दूर तक फैली हुई थी, अत्यंत रूपवती होने के साथ साथ वे अत्यंत बुद्धिमान साहसी और स्वाभिमानी थीं. राज्य के संचालन में वे अपने पति को पूर्ण सहयोग दिया करती थीं. चित्तौड़ की जनता भी उनको बहुत सम्मान देती थी.
महारानी पद्मिनी के बारे सुनकर दिल्ली का तत्कालीन, अधर्मी बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी, महारानी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उस कामांध दुराचारी ने विशाल सेना के साथ चितौड़गढ़ के दुर्ग पर एक चढ़ाई कर दी. लेकिन कई महीने तक घेरा डालने के बाबजूद उसका कोई सैनिक किले के आस पास तक नहीं पहुँच सका.
तब अलाउद्दीन खिलजी ने अपना स्वाभाविक कमीनापन दिखाते हुए राणा रतनसिंह तक अपना सन्देश भिजवाया कि - “हम आपसे मित्रता करना चाहते है. हमने आपकी महारानी की सुन्दरता के बारे में बहुत सुना है इसीलिए यदि हमें सिर्फ एक बार अपनी महारानी का चेहरा दिखा दीजिये. फिर उसके बाद हम अपना घेरा उठाकर दिल्ली लौट जायेंगे.
सन्देश सुनकर रत्नसिंह आगबबुला हो उठे लेकिन रानी ने उनको समझाया कि -”मेरे कारण व्यर्थ ही चितौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है. तब राणा ने बीच का रास्ता निकालने का प्रस्ताव भेजा कि - रानी का चेहरा आईने में दिखाया जा सकता है. अल्लाउद्दीन भी समझ चुका था कि लड़कर जीतना मुश्किल है इसलिए इसके लिए तैयार हो गया.
चितौड़ के किले में अल्लाउद्दीन का स्वागत रत्नसिंह ने किसी अतिथि की तरह किया.रानी पद्मिनी के महल की खिडकी के सामने वाली दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया और रानी को आईने के सामने बिठाया गया. महारानी का सौन्दर्य देख देखकर अल्लाउद्दीन चकित रह गया और एक कुटिल चाल चलने की तैयारी कर ली.
वह राणा से मित्रवत बातें करने लगा और कहने लगा कि- मैं कल दिल्ली चला जाउंगा और अब आप हमारे मित्र हैं, आपने हमारा बहुत शानदार स्वागत किया है आप भी हमारे यहाँ अतिथि बनकर आइये. उससे मित्रवत बातें करते हुए राणा रत्नसिंह किले के बाहर तक छोड़ने आ गए. बाहर खिलजी की फ़ौज तैयार खड़ी, उसने राणा को गिरफ्तार कर लिया.
खिलजी ने किले में सन्देश भेजा कि - अगर राणा को ज़िंदा वापस चाहते हो तो महारानी को मेरे हवाले कर दो. इस पर राजपूतों का खूनखौल उठा. मगर महारानी ने बुद्धिमानी से काम लिया. रानी ने सन्देश भेजा कि मैं अकेली नहीं आउंगी बल्कि मेरे साथ मेरी सात सौ दासियाँ भी आएँगी जो हर समय मेरी हर जरूरत का ध्यान रखती हैं.
इस पर वो कामांध अधर्मी और भी ज्यादा खुश हो गया. तब चित्तौड़ के एक सरदार "गोरा" के नेत्रत्व में एक काफिला तैयार हुआ. सात सौ पालकियां तैयार की गई उन सब मे स्त्री वेश में एक एक सिपाही और हथियार रखे . प्रत्येक पालकी को उठाने के लिए चार सैनिक कहार बन कर लग गए. एक पालकी में सरदार गोरा का भतीजा "बादल" महारानी बनकर बैठ गया.
जब सारी पालकियां अल्लाउदीन के शिविर के पास आकर रुकीं तो उनमे से राजपूत वीर अपनी तलवारे सहित निकल कर यवन सेना पर अचानक टूट पड़े . इस तरह अचानक हमले से अल्लाउद्दीन की सेना हक्की बक्की रह गयी. गोरा - बादल ने राणा रत्नसिंह को अल्लाउद्दीन की कैद से मुक्त कर, सकुशल चितौड़ के दुर्ग में पहुंचा दिया.
इस हार से अल्लाउद्दीन बुरी तरह से बौखला गया. उसने दिल्ली की सारी सेना के साथ किले को पुनः घेर लिया. छ:माह से ज्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण किले में खाद्य सामग्री का अभाव हो गया. तब राणा रत्न सिंह , रानी पद्मिनी, सरदार गोरा सहित सभी राजपूत सैनिकों और राजपूतानी वीरांगनाओं ने शाका और जौहर करने का निश्चय किया.
18 अप्रेल 1303 के दिन राजपूत केसरिया बाना पहन कर अंतिम युद्ध के लिए तैयार हो गए और रानी पद्मिनी के नेतृत्व में 16000 राजपूत सतियों ने अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया. महाराणा रत्न सिंह के नेतृत्व में 30,000 राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे सिंहों की तरह उस दुराचारी खिलजी की सेना पर टूट पड़े.
उस युद्ध में सभी 30000 राजपूत सैनिक तथा एक लाख से ज्यादा मुस्लिम सैनिक मारे गए. युद्ध में जीत के बाद जब खिलजी ने चित्तौड़ के किले में प्रवेश किया तो सतियों की चिताओं और राजपूतों के शवों के सिवा कुछ नहीं मिला. रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और महारानी पद्मिनी ने भारत के स्वाभिमान की रक्षा की खातिर आत्मदाह कर लिया.
इस के बाद चित्तौड़गढ़ के सुनसान किले पर अलाउद्दीन खिलजी का कब्ज़ा हो गया. कहा जाता है कि - अलाउद्दीन खिलजी को केवल राजपूतानियों की चिताओं की राख से ही, लगभग 20 मन सोना प्राप्त हुआ था. सोना लूटकर अलाउद्दीन खिलजी ने किले का अधिकार अपने बेटे "खिज्र खान" को सौंप दिया और खुद दिल्ली वापस चला गया.
उनका यह बलिदान, सदियों तक आने वाली पीढ़ी को आत्म सम्मान की रक्षा करने की प्रेरणा देता रहेगा. जो लोग अपने आपको सेकुलर बताते हुए विधर्मियों के तलवे चाटते रहते हैं उनको याद रखना चाहिए कि - उनका धर्म और देश, उनके जैसे चापलूसों की बजह से नहीं बल्कि स्वाभिमानी आत्मबलिदानियों के कारण बचा हुआ है.

डा. आंबेडकर के साथ भेदभाव और अन्याय आखिर किसने और कब किया था ?

डा. आंबेडकर के बारे में अक्सर कहा जाता है कि- उनके साथ भेदभाव और अन्याय किया जाता था. उनके ऊपर अध्ययन करने पर तो मुझे आजतक ऐसा कुछ नहीं मिला, जिससे पता चले कि किसी ने उनके साथ भेदभाव या अन्याय किया हो. यदि आप में से किसी के पास इस सम्बन्ध में कोई जानकारी हो तो बताने की कृपा करें.
उनके बारे में पढने पर पता चलता है कि - उनके साथ अगर जीवन में किसी ने अन्याय किया तो वो उनके पिता रामजी सकपाल ने किया था. जिसने 14 बच्चो का बाप होते हुए दूसरी शादी की और दुसरी बीबी के चक्कर में अपने बच्चों को छोड़ दिया. अपने पिता की उपेक्षा और बीमारी के चलते 9 बच्चे अकाल मौत का शिकार हो गए.
अगर स्कूल की बात करें तो उनके स्कूल के ब्राह्मण अध्यापक ने उनको स्नेह और शिक्षा के साथ साथ अपना सरनेम अम्बेडकर तक दे दिया. भीम राव सकपाल ने अपने पिता से नाराज होने के कारण उन का सरनेम "सकपाल" त्याग कर अपने ब्राह्मण अध्यापक महादेव् आंबेडकर का सरनेम लगाया और आजीवन लगाय रहे.
उनकी योग्यता को देखते हुए, उनकी विदेश में उच्च शिक्षा का सारा खर्च बडौदा से सवर्ण गायकबाड़ शासक "सहयाजी राव तृतीय" ने उठाया. उसके बाद लन्दन में शोध करने का सारा खर्च, कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक "शाहू चतुर्थ" ने उठाया. एक ब्राह्मण महिला सविता आंबेडकर ने बिना जाती की परवाह किये उनके साथ विवाह किया.
उनकी शिक्षा को देखते हुए सन 1926 में उनको बाम्बे बिधान परिषद में, सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया और यह काम भी सवर्ण सद्सयो ने ही किया. गांधी के कटु आलोचक होने के बाबजूद उनको "संविधान मसौदा समिति" के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया. एक पूरी समिति के द्वारा किये गए काम का सारा क्रेडिट उनको दे दिया गया.
एक ब्राह्मण शिक्षक दलित बच्चे को शिक्षा के साथ अपना सरनेम दे देता है तथा उसी दलित को सवर्ण राजा उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजते है और उसकी शिक्षा एवं रहने सहने का खर्च उठाता है. एक ब्राह्मण महिला बिना उसकी जाती का बिचार किये उससे उससे विवाह करती है. देश के सवर्ण नेता, देश आजाद होने पर उसे महत्त्वपूर्ण दायित्व देते हैं.
तो फिर आखिर उनके साथ भेदभाव कब और किसने किया था ? इसके बाद भी अगर कोई भेदभाव का आरोप लगाए तो उसे क्या कहना चाहिए ? बालक सकपाल को जिसने शिक्षा और पहेचान दी उस, महान शिक्षक पंडित महादेव अंबेडकर को भूल गए. जिन महान राजाओं ने उच्च शिक्षा का खर्च उठाया, काम निकल जाने के बाद उसको छोड़ दिया ?
जिस धर्म में रहते हुए इतना बड़ा मुकाम पाया, उसकी बुराई करना और म्रत्यु से मात्र डेढ़ महीना पहले जिस पंथ को अपनाया, उसका गुणगान करने लगना आखिर क्या था ? आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के खिलाफ कुछ करने की बात तो छोडिये, किसी क्रांतिकारी की कभी कोई कानूनी सहयाता की हो इसका अगर किसी को पता हो तो बताने की कृपा करे.

महान स्वतन्त्रता सेनानी "तात्या टोपे"

प्रथम स्वाधीनता संग्राम (1857) के एक प्रमुख सेनानायक "तात्या टोपे" के शहीदी दिवस पर हार्दिक श्रद्धांजली. सन 1857 के उस महान विद्रोह में उनकी भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण, प्रेरणादायक और बेजोड़ थी. क्रांति के उस दौर में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, राव साहब, बहादुरशाह जफर, बाबू कुंवर सिंह, आदि के विदा हो जाने के बाद भी करीब एक साल बाद तक तात्या टोपे विद्रोहियों की कमान संभाले रहे थे.
तात्या का जन्म नासिक के निकट पटौदा जिले के येवला नामक गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में 1818 में हुआ था. उनका नाम रामचंद्र पाण्डुरंग राव था, परंतु लोग स्नेह से उन्हें तात्या पुकारते थे. कुछ समय तक तात्या ने ईस्ट इंडिया कम्पनी में बंगाल आर्मी की तोपखाना रेजीमेंट में भी काम किया था, परन्तु स्वाभिमानी तात्या के लिए अंग्रेजों की नौकरी असह्य थी, इसलिए बहुत जल्दी उसे छोड़कर बाजीराव की नौकरी में आ गये.
तोपखाने में नौकरी के कारण ही उनके नाम के साथ टोपे जुड गया, परंतु कुछ लोगों का मानना है कि - बाजीराव ने तात्या को एक बेशकीमती और नायाब टोपी दी थी. तात्या इस टोपे को बडे चाव से पहनते थे. उस टोपी पहनने के कारण लोग उन्हें तात्या टोपी या तात्या टोपे के नाम से पुकारने लगे थे. सत्तावन के विद्रोह की शुरुआत 10 मई को मेरठ से हुई थी और जल्दी ही क्रांति की चिन्गारी समूचे उत्तर भारत में फैल गयी.
कानपुर के सैनिकों ने नाना साहब को अपना नेता घोषित किया. तब तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की. कानपुर और बिठुर में अंग्रेजों को उन्होंने कड़ी टक्कर दी लेकिन अंततः वहां अंग्रेजों का कब्जा हो गया. ग्वालियर की एक सैन्य टुकड़ी में देशभक्ति की भावना प्रज्वलित कर उन्होंने उसे अपने साथ मिलाया और नवंबर 1857 में कानपुर पर आक्रमण कर उसे जीत लिया लेकिन परंतु यह जीत थोडे समय के लिए थी.
ब्रिटिश सेना ने तात्या को छह दिसंबर 1857 को पराजित कर दिया. बहा से जाने के बाद तात्या ने खारी पर कब्जा किया. खारी में उन्होंने अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त हुए. उससे उन्होंने फिर बड़ी सेना तैयार की. इसी बीच 22 मार्च1858 को सर ह्यूरोज ने झाँसी पर घेरा डाल दिया. ऐसे नाजुक समय में तात्या टोपे करीब 20,000 सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मी बाई की मदद के लिए पहुँचे और युद्ध में रानी की विजय हुई.
कानपुर, चरखारी, झाँसी और कोंच की लडाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी लेकिन चरखारी को छोडकर अन्य स्थानों पर उनकी पराजय हो गयी. तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झांसी की रानी पर छोडकर , स्वयं वेश बदलकर ग्वालियर चले गये. जब ह्यूरोज काल्पी की विजय का जश्न मना रहा था, तब तात्या ने महाराजा जयाजी राव सिंधिया की फौज को अपनी ओर मिला लिया और ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया.
झाँसी की रानी, तात्या और राव साहब ने जीत के ढंके बजाते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोशित किया. इस सफलता ने स्वाधीनता सेनानियों के दिलों को खुशी से भर दिया, परंतु इसके पहले कि तात्या टोपे अपनी शक्ति को संगठित करते, ह्यूरोज ने पुनः आक्रमण कर दिया और फूलबाग के पास हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई 18 जून, 1858 को शहीद हो गयीं. कुछ समय में अंग्रेजों ने सारे विद्रोह को कुचल दिया.
तात्या मुट्ठी भर सैनिकों के साथ लम्बे समय तक अंग्रेज सेना से लड़ते रहे. इस दौरान उन्होंने दुश्मन के खिलाफ एक ऐसे जबर्दस्त छापेमार युद्ध का संचालन किया, जिसने उन्हें दुनिया के छापेमार योद्धाओं की पहली पंक्ति में लाकर खडा कर दिया. युद्ध के दौरान तात्या टोपे ने दुर्गम पहाडयों और घाटियों में बरसात से उफनती नदियों और भयानक जंगलों में रहकर मध्यप्रदेश और राजस्थान में अंग्रेजी कैम्प में तहलका मचाये रखा.
नरवर के राजा मानसिंह की गद्दारी के कारण तात्या 8 अप्रैल, 1859 को सोते हुए पकड लिया गया और 18 अप्रैल, 1859 को फांसी चढ़ा दिया. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि- अंग्रेज तात्या को कभी पकड नहीं सके थे और शर्मिंदगी से बचने के लिए किसी अन्य को तात्या बताकर फांसी चढ़ा दिया था. ऐसा कहा जाता है तात्या टोपे, नारायण स्वामी के रूप में गोकुलपुर आगरा में स्थित सोमेश्वरनाथ के मन्दिर में काफी समय रहे थे.
कर्नल मालेसन ने सन् 1857 के विद्रोह का इतिहास लिखा है. उन्होंने लिखा कि- तात्या टोपे चम्बल, नर्मदा और पार्वती की घाटियों के निवासियों के ’हीरो‘ ही नहीं बल्कि सारे भारत के ही ’हीरो‘ बन गये हैं. पर्सी क्रास नामक एक अंग्रेज ने लिखा है कि ’भारतीय विद्रोह में तात्या सबसे तेज दिमाग नेता थे. उनकी तरह कुछ और लोग होते तो अंग्रेजों के हाथ से भारत छीना जा सकता था.

गडवाल की रानी "कर्णावती" : जिसने मुघलों की नाक काटी थी

हमारे देश के वामपंथी इतिहासकारों ने भारत के महान वीरों और वीरांगनाओं के साथ सदैव अन्याय किया है. इन तथाकथित इतिहासकारों ने या तो केवल विदेशी आक्रमणकारियों का गुणगान किया है या फिर कांग्रेसियों का. देश के लिए अपनी जान लड़ाने वाले स्वाभिमानी वीरो को, यह लोग हमेशा ही हाशिये पर डालने की कोशिश करते रहे.
मुघल राजाओं ने भारत के काफी बड़े क्षेत्र पर, अवैद्ध कब्जा कर लिया था लेकिन ये लोग कभी उत्तराखंड पर कब्जा नहीं कर सके. तैमूर भी जब हरिद्वार को विध्वंस करने जा रहा था तो उसको भी महावली जोगराज गुर्जर, हरवीर जाट, रामप्यारी गुर्जरी आदि ने ज्वालापुर की लड़ाई में, तैमूर की तीन चौथाई सेना को मारकर वापस भागने पर मजबूर कर दिया था.
लेकिन ऐसे वीर वीराग्नाओ का इतिहास लोक कथाओं और देशभक्त लेखको के माध्यम से समांतर में चलता रहा. कई विदेशी इतिहासकारों ने भी उनपर लिखा. मेरी कोशिश भी रहती है कि - ऐसे महान वीरों - वीरांगनाओ की गाथा आप तक पहुंचाता रहूँ. आज प्रस्तुत है गडवाल की रानी "कर्णावती" की कहानी जिसने मुघलों की नाक काटी थी.
14 फरवरी 1628 को शाहजहां आगरा का राजा बना. अपने राज्याभिषेक के समय उसने सभी छोटे मोटे राजाओं को आने का निमंत्रण दिया. उस समय गढ़वाल पर राजा महिपतशाह राज करते थे. स्वाभिमानी राजा महिपतशाह को मुघलो की अधीनता स्वीकार नहीं थी इसलिए वे उस कार्यक्रम में नहीं गए. इस बात को लेकर शाहजहाँ उनसे नाराज हो गया.
नजीबाबाद का नवाब, जो पहले से ही राजा महिपतशाह से ईर्ष्या रखता था, उसने "शाहजहां" को नाराज देखकर और ज्यादा भडकाने का काम किया. उसने बताया कि गडवाल के श्रीनगर में सोने की खाने हैं, इसके अलावा गढ़वाल की लडकिया बहुत सुन्दर होती हैं. चिढ, लालच और कामंधता के चलते शाहजहाँ गडवाल पर हमला करने की सोंचने लगा.
लेकिन राजा महिपतशाह और इनके सेनापति माधोसिंह और रिखोला लोदी की वीरता के किस्से इतने मशहूर थे कि - मुघलों की हिम्मत ही नहीं हुई गढ़वाल पर हमला करने की. इसी बीच राजा महिपतशाह की अकालम्रत्यु हो गई, उनका पुत्र प्रथ्वीपतिशाह उस समय मात्र 7 बर्ष के थे. तब रानी कर्णावती ने पुत्र को राजा घोषित कर उनकी जगह राज किया.
रानी कर्णावती बहुत ही बुद्धिमान और गौरवमयी व्यक्तित्व की स्वामिनी थी. सिक्खों के गुरु "गुरु हर गोविन्द सिंह" जी और शिवाजी महाराज के गुरु "समर्थ गुरु रामदास" जी का भी उनको आशीर्वाद प्राप्त था. राजा की म्रत्यु के बारे में जानकर शाहजहाँ ने 1635 में नजाबत खान नाम के मुग़ल सरदार को विशाल सेना देकर गढ़वाल पर हमला करने भेज दिया.
नजाबत खान को हुकुम दिया कि - गढ़वाली लड़कियों को ज़िंदा सही सलामत उसके हरम में लाया जाए, जिससे इन स्वाभिमान गढ़वालियों को अपमानित कर उनकी नाक काट सके. नजाबत खान ने अपने जबरदस्त हमले में दूनघाटी और चंडीघाटी (ऋषिकेश) को अपने कब्जे में ले लिया. इस बिषम परिस्थिति में रानी ने कूटनीति से काम लिया.
रानी ने उन्हें अपनी सीमा में घुसने दिया और जब वे लक्ष्मणझूला से आगे बढ़े, तो उनके आगे और पीछे जाने के, दोनों तरफ के रास्ते रोक दिये. मुघल सैनिक एक तरफ विशाल गंगा और दुसरी तरफ पहाड़ के बीच घिर गए. पहाड़ी रास्तों से अनभिज्ञ मुगल सैनिकों के पास खाने की सामग्री समाप्त होने लगी और मिलने का रास्ता भी बंद हो गया.
मुघल सेना पर, पहाडी सैनिक कभी भी हमला कर आसानी से शिकार बना लेते थे. इससे घबराकर नजाबत खान ने रानी के पास संधि का सन्देश भेजा. तब रानी ने अपना जबाब भेजा कि - अपनी और अपने सैनिको की जान बचानी है तो तुम सबको अपनी नाक कटवानी पड़ेगी. कायर मुग़ल सैनिक अपनी जान बचाने के लिए नाक कटाने को तैयार हो गए.
सैनिकों को भी लगा कि नाक कट भी गयी तो क्या जिंदगी तो बची रहेगी. सभी मुगल सैनिकों के हथियार छीनकर, नाक काट दी गयी. नाक कटा कर मुघल सेना आगरा वापस चल दी. शाहजहाँ को जब खबर मिली तो उसको बहुत शमिन्दगी भी हुई और नजाबत खान पर गुस्सा भी आया. उसने आगरा पहुँचते ही नजाबत को बंदी बनाने का हुक्म दिया.
नजाबत को शाहजहां के गुस्से की खबर मुरादाबाद में ही मिल गई. वह समझ गया कि अब उसका अनजाम बहुत बुरा होने वाला है. सजा के भय से नजाबत खान ने मुरादाबाद में आत्मह्त्या कर ली. रानी कर्णावती ने 1642 तक राज किया और पुत्र के युवा हो जाने पर पुत्र को राजा बना दिया. रानी कर्णावती की गाथा गढ़वाल में खूब सुनाई जाती है
इटली के लेखक "निकोलाओ मानुची" (जो औरंगजेब के समय में आये थे) ने अपनी किताब 'स्टोरिया डो मोगोर' में गढ़वाल की एक रानी के बारे में बताया है जिसने मुगल सैनिकों की नाट काटी थी. शाहजहां के कार्यकाल पर बादशाहनामा लिखने वाले "अब्दुल हमीद लाहौरी" और 'मासिर अल उमरा' लिखने वाले शम्सुद्दौला खान ने रानी कर्णावती का उल्लेख किया है.

Saturday, 1 April 2017

केवल अवैध्य कत्लखानो पर ही प्रतिबन्ध क्यों लगना चाहिये ?

गौ-हत्या पर प्रतिबन्ध की बात करो तो अंध बिरोधी (खासकर अधर्मी हिन्दू) उन राज्यों (जैसे - गोवा, नागालैंड) की बात करने लगते हैं जहाँ पर गौ-हत्या पर प्रतिबन्ध नहीं है. दरअसल उन अधर्मियों का उद्देश्य उन राज्यों में गौ-हत्या को रुकवाना नहीं है बल्कि उनकी आड़ में प्रतिबंधित राज्यों से प्रतिबन्ध उठाने की मांग करना है.
ये लोग चाहते हैं कि उन राज्यों में प्रतिबन्ध लगाने में जो कानूनी और सामाजिक अडचने आयेगी, उनका लाभ उठाकर देश में अराजकता फैलाने का मौक़ा मिलेगा और इस अराजकता की आड़ में प्रतिबंधित राज्यों से प्रतिबन्ध उठाने में कामयाब हो जायेंगे. यह अंधबिरोधी चाहे जितनी भी कोशिश कर लें, इनको कामयाब नहीं होने दिया जाएगा.
उन अंध बिरोधियों को समझ लेना चाहिये कि - ऐसा कोई काम हडबडी में नहीं किया जाएगा जिसका लाभ उठाकर ये लोग अराजकता फैला सकें. इसीलिए अभी फिलहाल कोई नया नियम नहीं बनाने जा रहे है या कोई कानून में बदलाब नहीं कर रहे है. जहाँ जहाँ पहले से जो कानून मौजूद हैं, अभी केवल ही इस्तेमाल किया जाएगा.
सभी जानते हैं कि - नया नियम बनाना, उसको पास कराना, उनको लागू कराना, आदि कितना जटिल काम है इसीलिए यह अंधबिरोधी बार बार यह मुद्दा उठा रहे हैं कि किसी तरह से मामला टल जाये. आप खुद देखिये कि आज जब अवैद्ध कारखानों पर इतना बबाल किया जा रहा है तो वैद्ध कत्लखानो को बंद करने में कितनी मुश्किल होती.
सबसे पहले तो पिछली सरकार द्वारा बनाए गए "जज' उन वैद्ध कत्लखानों को "स्टे" दे देते और फिर प्रतिबन्ध को कई साल चलने वाली प्रिक्रिया में उलझा देते और इन वैद्ध कत्लखानो की आड़ में अवैद्ध गौ-हत्या का धंधा निर्बाध चलता रहता. इस लिए बहुत सोंच समझ कर केवल अवैद्ध कत्लखानो पर कार्यवाही शुरु की गई है. .
अभी केवल वहां-वहां हूँ अवैद्ध कत्लखानो पर कार्यवाही की जायेगी, जहाँ गौ हत्या पहले से ही प्रतिबंधित है. एक एक राज्य में सफलता प्राप्त कर आगे अन्य राज्यों की तरफ बढेंगे. जिन राज्यों में पहले से ही प्रतिबन्ध है पहले उन राज्यों में प्रतिबन्ध को लागू करने के बाद उन राज्यों की तरफ रुख किया जायगा जहाँ पर प्रतिबन्ध नहीं है.
उन राज्यों में पहले जागरूकता अभियान भी चलाना पडेगा और कानून में भी संशोधन करना पडेगा. इसकी भी तैयारियां चल रही है. हमें पूर्ण विशवास है कि हम पुरी तरह से गौ- रक्षा करने में कामयाब रहेंगे. अंध बिरोधी अराजक तत्व, अराजकता फैलाने की चाहे जितनी भी कोशिश कर लें इनको कामयाब नहीं देगे

मुसलमानो, आखिर कब अपनी आँखे खोलोगे.

1. आप कहते हैं कि आप डेढ़ हजार साल से अपने हक के लिए लड़ रहे है, आखिर वो कौन सा हक़ हैं जो दुनिया आपको नहीं दे रही है या आपसे छीन लिया है.
2. कया आप सिर्फ लड़ने के लिए ही पैदा हुए है ? जहाँ गैर-मुस्लिम है वहां आप उनसे लड़ रहे है और जहाँ गैर मुस्लिम नही है वहां आप आपस में ही लड़ रहे है.
3. आप लड़ना बन्द नही कर सकते तो कम से कम लड़ाई के तरीके तो बदलिए. आज लोग आपको आपकी विचारधारा को नकार रहे हैं,
4. आज आप के योगदान के बिना सरकारें बन रही और आपकी मर्जी के खिलाफ पीएम और सीएम बन रहे है और ये नकारात्मक माहौल आपका खुद बनाया है.
5. न आप बड़े उद्योगपति है, न आपके पास कैश है और न ही बैंक एकाउंट में पैसे हैं, लेकिन नोटबन्दी के खिलाफ आप इतने मुखर थे जैसे सबसे बड़ा घाटा आपका ही हुआ.
6. आप खुद ही कहते थे कि - बूचड़खाने भाजपा के हिन्दू नेताओ और जैनियों के है, लेकिन अवैध बूचड़खानों पर कार्यवाही होने से सबसे ज्यादा कपड़े आप ही फाड़ रहे.
7. आप खुद अपने खिलाफ नकरात्मक माहौल बनाते है फिर इलज़ाम दूसरों पर लगाते है. बूचड़खानों पर या तो आप कल झूठ बोल रहे थे या आज झूठ बोल रहे है.
8. आप बहु बेटियों को पर्दे में रखने के हिमायती हैं और आप खुद भी ईमानवाले है अर्थात महिलाओं की इज्ज़त करते हैं, तो एंटीरोमियो स्क्वाड से आपको कया आपत्ति है ?
9. साल भर आप जय भीम जय मीम करते है, भीम भी आपके साथ ब्राह्मणों को गरियाता है और चुनाव के वक्त मीम को छोड़ के भगवा थाम लेता है ?
10. भारत में साधू, संत, देवी, देवता विद्वान्, महापुरुष, आदि जन्मे, अर्थात यह हिन्दुओं का देश है. मुस्लिम बाहरी थे फिर भी हिन्दुओ ने आपको स्वीकार किया.
11. कोई हिन्दू राजा / शासक कभी, आपके इलाको ( इराक ईरान, सीरिया, अरब, मिस्र, आदि) में आपसे जबरन लड़ने या अपनी धौस जमाने नहीं गया.
12. जिस तरह भारत में गजनवी, गौरी, कुतुबुद्दीन, खिलजी, तैमुर, बाबर, नादिर, अब्दाली सहित हजारो मुस्लिम आक्रमणकारी भारत में आये.
13. भारत भूमि का कण कण कहता है की ये राष्ट हिन्दुओ का था और हिन्दुओ के लाखो मन्दिर प्राचीनकाल में मुगलो ने तोड़े उनमे से एक राम मन्दिर भी था
14. सीरिया, पाक, इराक, ईरान, आदि में जेहादियो ने हजारो मस्जिदे बम से उड़ा दी, उनके लिए कभी रोए नही और यहाँ राम मन्दिर की जंगह, मस्जिद के मरे जा रहे

पंजाब में भाजपा को गठबंधन का सिंहावलोकन करने की आवश्यकता है.

पिछले दिनों देश के 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए थे, जिनमे भाजपा को पंजाब को छोड़कर हर जगह जीत हाशिल हुई. पंजाब में भी जो परिणाम आये वो भी हमारी उम्मीद के हिसाब से ठीक ही थे. मेरी फ्रैंडलिस्ट में मौजूद मित्र जानते ही हैं कि- मैं पंजाब में रहता हूँ और पंजाब में मेरा वोट है उसके बाबजूद मैंने उ. प्र. के चुनाव पर ही लिखा और प्रचार किया.
दरअसल पंजाब में पिछले दस साल से कहने को तो अकाली + भाजपा गठबंधन सरकार थी, लेकिन भाजपा की हैशियत सरकार में न के बराबर थी. भाजपा कार्यकर्त्ता बुरी तरह से उपेक्षित थे. किसी भी सरकारी विभाग में भाजपा वालो की कोई सुनवाई नहीं थी. अकाली दल के छुटभैये नेताओं को भी भाजपा के सीनियर नेताओं के ऊपर महत्त्व मिलता था.
2007 से 2012 वाले कार्यकाल में तो फिर भी थोड़ी बहुत गनीमत थी क्योंकि भाजपा के 19 विधायक थे और सरकार उनके समर्थन पर टिकी थी, लेकिन 2012 से 2017 वाला कार्यकाल काफी खराब था क्योंकि तब बीजेपी के केवल 12 विधायक थे और अकाली दल के पास अपना खुद का बहुमत था. इसके अलावा अकाली नहीं चाहते थे कि भाजपा जयादा आगे बढे.
भाजपा कार्यकर्त्ता काफी समय से अपनी छटपटाहट शीर्ष नेत्रत्व को दिखा रहे थे लेकिन शीर्ष नेतृत्व पुराने संबंधों की दुहाई देकर कार्यकर्त्ताओं को खामोश कर देता था, इसकी बजह से कार्यकर्ता बहुत निराश हो गए थे. सिद्धू ने आवाज उठाई तो सिद्धू को ही पार्टी से बाहर कर दिया गया. अकाली दल के लिए भाजपा कार्यकर्ता की हैशियत मुफ्त के मजदूर से ज्यादा नहीं थी.
इन बातों के कारण इस बार पंजाब में भाजपा कार्यकर्ता काफी उदासीन रहे. भाजपा और मोदी जी को समर्थन करने वाले वोटर भी कांग्रेस और आआपा में चले गए और उनको रोकने का कोई प्रयास भी नहीं किया गया. यही सब कारण अकाली + भाजपा गठबंधन की हार का कारण बने. मैं इसको भाजपा के अच्छे भविष्य की नीव का पत्थर मानकर देख रहा हूँ.
हम उम्मीद करते हैं कि - शीर्ष नेत्रत्व गठबंधन की शर्तों की समीक्षा कर इसे पुनः परिभाषित करेगा. अब या तो बराबरी का गठबंधन होगा या फिर भाजपा अकेले मैदान में उतरेगी. आने वाला समय पंजाब में भाजपा के लिए बहुत अच्छा है. बस भाजपा कार्यकर्ता एकजुट रहे और हार के लिए एक दुसरे को जिम्मेदार ठहराने के बजाय गठबंधन की समीक्षा की मांग करें.


अब इसी साल के आखिर में पंजाब में नगर निगमों के चुनाव होने वाले हैं. भाजपा को यह चुनाव अकेले लड़ना चाहिये. अगर भाजपा यह चुनाव अकेले बिना किसी गठबंधन के लडती है तो हमें पूर्ण विशवास है कि भाजपा भारी जीत हाशिल करेगी. भाजपा का बड़ा जनाधार है जो भाजपा को तो जिताना चाहता है मगर अकाली को उनके ऊपर नहीं देखना चाहता.