
इस केंद्र की इस्लामी बिचारधरा को मानने वाले पूरी दुनिया में हैं. दुनिया भर में इस बिचारधारा को "देवबंदी बिचारधरा" कहा जाता है. "दारुल उलूम" को शुरूआत 30 मई 1866 को "हाजी आबिद हुसैन" व "मौलाना क़ासिम नानौतवी" ने की थी. कुछ ही समय बाद "दारुल उलूम" इस्लामिक शिक्षा के शीर्ष केंद्रों में शुमार हो गया.
"इस्लाम" की "हनफी विचारधारा" से प्रभावित "दारुल उलूम" की विचारधारा को परवान चढ़ाने में "मौलाना अशरफ अली थानवी" , "मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही" और "मौलाना कासिम ननोतवी" की अहम भूमिका रही है. विशेष रूप से "मौलाना कासिम ननोतवी" ने इस्लामिक शिक्षा के इस केंद्र को दुनियाभर में खास पहचान दी.
एक स्थान पर इतने सारे मुस्लिम छात्र मिलने के कारण यह स्थान हमेशा आतंकीयों" के निशाने पर भी रहा है. "जैश ए मोहम्मद" के आतंकियों का देवबंद में पकड़ा जाना इस बात का सबूत भी है. देबबंद के स्थानीय लोगों तथा दारुल उलूम को खुद चाहिए कि-वे ऐसे प्रयास करें कि कोई आतंकी वहां पनाह न पा सके, वर्ना उनका संस्थान भी बदनाम हो जाएगा.

इस शहर में महाभारत कालीन कई स्थान हैं, जिनमें "रणखंडी गांव", "पांडु सरोवर" और "बाला सुंदरी शक्तिपीठ" प्रमुख है. पांडु सरोवर के बारे में मान्यता है कि- यहां पांडवों के बड़े भाई युधिष्टिर और यक्ष के बीच प्रश्न उत्तर हुए थे. "त्रिपुर बाला सुंदरी" शक्ति पीठ को हिंदुओं के प्रसिद्ध धार्मिक स्थल के रूप में माना जाता है.
माँ दुर्गा के राजेश्वरी त्रिपुर बाला सुन्दरी के स्वरूप की यहाँ पूजा की जाती है. हर साल चैत्र माह की चतुर्दशी पर यहाँ विशाल मेला लगता है, जो पंद्रह दिन चलता है. देश भर से लाखों लोग इस अवसर पर माता के दर्शन के लिए आते हैं. कहा जाता है कि हर साल चैत्र मास की चतुर्दशी को यहाँ अचानक आंधी के रूप में माता मंदिर में प्रवेश करती हैं.
मंदिर के द्वार पर एक प्राचीन शिलालेख लगा है जिसे आज तक नहीं पढ़ा जा सका है. कुछ लोग देवबंद को "देववृन्द" भी कहते हैं. उनका मानना है कि - देवों का स्थल होने के कारण इसे "देववृन्द" कहा गया है. चाहे जो भी कहें लेकिन महाभारत काल के कई प्राचीन अवशेष आज भी यहां हैं जो इस जगह के देवस्थल होने का एहसास कराते हैं.
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