Monday, 11 February 2019

जब आरएसएस ने पापिस्तानियों से श्रीनगर की रक्षा की

15 अगस्त 1947 को अंग्रेजी शासन से देश आजाद होते ही देश दो भागों (पापिस्यान और हिन्दुस्थान) में बंट गया. आजादी की जंग से दूर रहने और जनसंख्या के अनुपात से ज्यादा जमीन मिल जाने के बाबजूद पापिस्तानियों की कश्मीर पर नीयत खराब थी. वे किसी भी तरह से कश्मीर को भी पापिस्तान में मिला लेना चाहते थे.
पापिस्तानी सेना ने कबायलियों के बेश में कश्मीर पर हमला कर दिया और कश्मीर में मारकाट, लूट और बलात्कार शुरू कर दी. उस समय तक कश्मीर का भारत में विलय नहीं हुआ था. कश्मीर के महाराज हरीसिंह ने नेहरु से मदद मांगी तो नेहरु ने साफ़ कह दिया कि - जब तक आप कश्मीर की सत्ता नहीं छोड़ते कोई मदद नहीं दी जायेगी.
नेहरु चाहते थे कि- महाराज हरीसिंह अपने समस्त अधिकार शेख अब्दुल्ला को सौंपकर कश्मीर छोड़ दें. पापिस्तानी हमले के बाद भी नेहरु को कोई चिंता नहीं थी उनका मानना था कि पापिस्तान अगर वहां कब्जा कर भी लेगा तो हम उसे बाद में खाली करा लेंगे लेकिन पहले महाराज हरीसिंह को कश्मीर से हटाया जाए.
कश्मीर के हालात दिन व दिन खराब होते जा रहे थे. कबायलियों और पापिस्तानी सैनिक मारकाट और बलात्कार कर रहे थे. तब कश्मीर की जनता की बदहाली का हवाला देकर गुरु गोल्बलकर और बलराज मधोक ने महाराज हरीसिंह को नेहरु की बात मान लेने पर राजी किया और "26 अक्टूबर सन् 1947" को उन्होंने विलयपत्र पर हस्ताक्षर कर दिए.
विलय पत्र पर हस्ताक्षर होते ही सरदार पटेल ने सेना को कश्मीर की रक्षा के लिए भेजने की इजाजत दे दी और कश्मीर में हवाई मदद भेजने का आदेश दे दिया. लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी. पापिस्तानी सेना और कबायली श्रीनगर के नजदीक पहुँच चुके थे. और वो श्रीनगर हवाई अड्डे पर कब्जा करना चाहते थे.
पापिस्तानी शत्रु बहुत तेजी से श्रीनगर की तरफ बढ़ रहे थे. श्रीनगर के सेना मुख्यालय से दिल्ली को सन्देश भेजा गया कि - "हमें मदद की जरूरत है". इस खबर के बाद दिल्ली के सेना मुख्यालय में भी हडकंप मच गया. हालात का पता चलते ही सरदार पटेल ने एयरफ़ोर्स को किसी भी तरह से श्रीनगर को सैन्य मदद भेजने का आदेश दिया.
दिल्ली सैन्य मुख्यालय ने श्रीनगर सैन्य मुख्यालय को सन्देश दिया - किसी भी तरह उनका मुकाबला करो और ध्यान रहे भले ही शहर पर शत्रु का कब्जा हो जाए, लेकिन किसी भी हाल में हवाई अड्डे पर शत्रु का कब्जा न होने पाए. दिल्ली ने श्रीनगर को कहा कि - हम बहुत जल्द आपके पास हवाई जहाजो द्वारा सैन्य मदद भेज रहे हैं.
श्रीनगर ने कहा - लेकिन हवाईपट्टी पर तो बर्फ जमी हुई है. इसपर दिल्ली ने कहा कि- कुछ भी करके रात में ही बर्फ हटाइये, कहीं से भी मजदूर लाइए, चाहे कितनी भी मजदूरी क्यों न देनी पड़े. श्रीनगर सेना कार्यालय ने कोशिश की कहीं से मजदूर मिल जाएँ मगर शाम का समय हो जाने और युद्ध के माहौल होने कारण मजदूर नहीं मिले.
तब एक सैन्य अधिकारी जो एक पुराने स्वयंसेवक भी थे उन्होंने कहा कि - हमें आरएसएस वालों से बात करनी चाहिए, वे लोग इस काम में हमारी मदद अवश्य करेंगे. श्रीनगर सेना प्रमुख ने इसे भी आजमाकर देख लेने को कहा, हालांकि उनको भी कोई उम्मीद नहीं थी. अधिकारी एक जीप लेकर रात्री 11 बजे संघ कार्यालय के सामने पहुंचे.
संघ कार्यालय में भी उस समय युद्ध के हालात पर, प्रमुख स्वंय सेवकों की बैठक चल रही थी. प्रेमनाथ डोगरा व अर्जुन जीं वही बैठे थें. सेनाधिकारी ने गंभीर स्थिति का संदेश दिया और पूंछा कि - आप बर्फ हटाने के लिए, कहीं से कुछ मजदूरों की व्यवस्था कर सकते हैं ? अर्जुन जी ने पूंछा- आपको कितने व्यक्ति चाहिए ?
सेनाधिकारी ने कहा कि- अगर लगभग डेढ़ सौ मजदूर मिल जाएँ, तो हम सुबह तक बर्फ हटा सकते हैं. सुबह दिल्ली से विमान आने हैं. इस पर अर्जुन जी ने कहा कि - आप गाड़ियों का इंतजाम कीजिए, हम 45 मिनट में आपको लगभग 600 आदमी देते हैं. इस पर वो सैन्यअधिकारी भी आश्चर्य में पड़ गया.
उसने फिर पूंछा - इतनी रात में 600 आदमी ? क्या यह संभव है ? प्रेमनाथ डोगरा जी ने कहां आप हैरान मत होईये, यहाँ से आदमियों को लेजाने के लिए गाड़ियों का इंतजाम कीजिए, ठीक 45 मिनट में आपको 600 आदमी तैयार मिलेंगे. वो सैन्य अधिकारी गाड़ियों का इनजाम करने छावनी वापस चला गया.
थोड़ी देर में संघ कार्यालय पर गाड़ियां पहुँच गई. जब गाड़ियां स्वयंसेवकों को लेकर हवाई अड्डे पर पहुंची तो सैन्य अधिकारी भी उनको देखकर आश्चर्यचकित रह गए. उनमे से कुछ स्वयंसेवकों को सैन्यअधिकारी भी जानते थे. सैन्य अधिकारी ने कहा- ये मजदूर नहीं हैं बल्कि इनमे से कुछ तो डाक्टर, वकील, व्यापारी और DAV कालेज के छात्र है.
तब अर्जुन जी ने कहा आप औजार दीजिये और कार्य का निरीक्षण कीजिए, बाकी किसी बात की कोई चिंता मत कीजिए. वे सभी लोग सैन्य अधिकारियों के निर्देशन में बरफ उठाने के काम में जुट गए. काम शुरू हो जाने और तसल्ली हो जाने के बाद, सैन्य अधिकारी ने दिल्ली को खबर कर दी कि - आप विमान भेज दीजिये.
तब दिल्ली ने भी आश्चर्य से पूंछ - क्या इतनी रात में मजदूर मिल गए. श्रीनगर ने बताया मजदूर तो नहीं मिले, लेकिन आरएसएस के 600 स्वयंसेवक मिल गए हैं, जो जीजान से काम में जुटे हैं. सुबह होने से पहले ही हवाई पट्टी पूरी तरह से साफ़ हो चुकी थी. उसके बाद स्वयंसेवक भी विमानों का इन्तजार करते हुए आराम करने लगे.
27 अक्टूबर की सुबह, सबसे पहले सिख रेजीमेन्ट के 329 सैनिक हवाई जहाज से श्रीनगर में उतरे और उन्होने भी बड़े प्रेम से स्वंयसेवको को गले से लगाया. थोड़ी ही देर में एक एक करके 8 विमान श्रीनगर में पहुँच गए. विमानों में रखे हथियारों और अन्य सामानों को भी स्वयंसेवकों ने उतारकर भण्डार कक्ष तक पहुंचाया.
शत्रु को टुकड़ी को यह उम्मीद ही नहीं थी कि - इस समय किसी बड़ी सेना से सामना होगा. उनको लगता था कि- वहां थोड़े से सैनिक होंगे जिनको मारकर हवाई अड्डे पर आसानी से कब्ज़ा कर लेंगे. लेकिन हमारे सैनिकों ने सभी पापिस्तानी और कबाइली हमलावर मार गिराए. हवाई अड्डा भी बच गया और श्रीनगर भी.
पढ़े लिखे डाक्टर्स, वकील, अध्याक, व्यापारी, आदि उस सर्द रात में मजदूरों की तरह बर्फ हटाने का काम कर रहे थे. एक सैन्यअधिकारी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि - सेना का तो बड़े से बड़ा अधिकारी जरूरत पड़ने पर छोटे से छोटा काम भी करता है, लेकिन कोई सिविलियन भी ऐसा कर सकता है, हम यह सोंच भी नहीं सकते.
उसके बाद हवाई पट्टी को चौड़ी करने का काम शुरू हुआ. तब तक सेना ने भी अपने सैनको और मजदूरों की व्यवस्था कर ली. उसके बाबजूद स्वयंसेवकों ने सेना को अपना भरपूर सहयोग दिया. उन स्वयंसेवकों की बजह से ही उस रात हवाई अड्डे और श्रीनगर को बचाया जा सका था. ऐसे देशभक्तों को कोटि कोटि नमन.
घटना के बाद "सरदार पटेल" ने "गुरु गोलवलकर" जी को पत्र लिखकर धन्यवाद भी दिया था. उन्होंने लिखा था कि - इस में कोई शक नहीं है कि संघ ने हिंदू समाज की बहुत सेवा की है. जिन क्षेत्रों में मदद की आवश्यक्ता थी उन जगहों पर आपके लोग पहुंचे और श्रेष्ठ काम किया है. मुझे लगता है इस सच को स्वीकारने में किसी को भी आपत्ति नहीं होगी"

भारतीय सेना ने अगले तीन चार दिन में पापिस्तान द्वारा कब्जा किये गए इलाके खाली करा लिए. लेकिन नेहरू, माउंटवेटन, शेख अब्दुल्ला और जिन्ना के षड्यंत्रों के चलते नेहरू ने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी और कश्मीर का 40 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तान के हिस्से में ही रह गया.

शेख अब्दुल्ला को जम्मू -कश्मीर का प्रधानमंत्री (उस समय कश्मीर के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री ही कहा जाता था) बना दिया गया, जिन आरएसएस के स्वयंसेवकों के कारण कश्मीर की रक्षा हुई थी, शेख अब्दुल्ला द्वारा उनको ही सबसे ज्यादा प्रताड़ित किया गया. जिस कार्य के लिए उन्हें ईनाम मिलना चाहिए था , उसकी उनको सजा मिली.

तीन माह बाद 30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या हो गई. झूठे शक (या नेहरु की साजिश) के आधार पर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. कश्मीर में शेख अब्दुल्ला सरकार द्वारा विभिन्न बेबुनियाद इल्जामो में स्वयंसेवकों को गिरफ्तार किया जाने लगा. अनेकों स्वयंसेवकों को मारकर खाइयों में फेंक दिया गया.

DAV पोस्ट ग्रेजुएट कालेज के उपप्रधानाचार्य बलराज मधोक, जिनके कहने पर कालेज के छात्रों ने सर्द रात में हवाई पट्टी से बर्फ हटाने का काम किया था, उन बलराज मधोक की भी हत्या की कोशिश की गई. तब किसी प्रकार से  बलराज मधोक और प्रेमनाथ डोगरा अपनी जान बचाकर "जम्मू" पहुँचने में कामयाब रहे.

नेहरु ने कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दे दिया था. उसका मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री कहलाता था, कश्मीर का अलग झंडा था, उनके ऊपर भारत का संविधान भी लागू नहीं होता था. तब एक और संघी, भारतीय जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आनोलन किया और नारा दिया "नहीं चलेंगे एक देश में - दो प्रधान - दो विधान - दो निशान"

इस आन्दोलन के कारण डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को गिरफ्तार कर लिया गया जहाँ हिरासत में उनकी रहस्यमयी म्रत्यु हो गई . अधिकाँश लोग मानते  है कि - उनकी मौत प्राकर्तिक नहीं बल्कि हत्या थी जिसके सूत्रधार शेख अब्दुल्ला और नेहरु थे.  अब आपको समझ आ चूका होगा कि - वास्तव में कश्मीर की समस्या नेहरु और शेख अब्दुल्ला की ही देन है. 

1947 से लेकर आजतक संघ के स्वयंसेवक अपना बलिदान देकर कश्मीर की रक्षा करते आये हैं.    सदा वत्सले मातृभूमे

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