Thursday, 21 February 2019

महान कौन : निरंतर ज्ञान की खोज करने वाले अथवा अपने आपको पूर्णज्ञानी कहने वाले

आप ने नोट किया होगा कि - सड़क के किनारे टेंट लगाकर अथवा छोटी सी दुकान खोलकर जो खानदानी (झोलाछाप) हकीम बैठे होते हैं, वो ये दावा करते हैं कि - उनके पास हर बीमारी का इलाज गारंटी के साथ किया जाता है, जबकि बड़े बड़े मेडिकल कालेजों में पढ़ाई करने और बड़े बड़े हस्पतालों में हजारो लोगों का इलाज कर चुके डाकटर, हमेशा यही कहते हैं कि- वो केवल अभ्यास (प्रैक्टिस) कर रहे है और गारंटी का तो सवाल ही नहीं.
कुछ यही हाल विद्वानों का भी है. फर्जी विद्वान् दो-चार किताबे पढ़ लेते हैं और अपने आपको सर्वज्ञानी बताना शुरू कर देते हैं जबकि वास्तविक विद्वान्, जो अपनी सबसे बड़ी पढ़ाई को भी यही कहते हैं कि - "शोध" (रिसर्च) कर रहे हैं अर्थात नए ज्ञान की खोज कर रहे हैं. इसका मतलब साफ है कि- जो अज्ञानी है वो थोडा सा ज्ञान पाकर खुद को सर्वज्ञानी मान लेते है और विद्वान जितना ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, उसके आगे खोजने लगते हैं.
इस उदाहरण को समझने के बाद, अब हम बात करते हैं विभिन्न धर्म, पंथ और सम्प्रदायों की. सबसे पहले बात करते हैं "सनातन धर्म" की जिसको सामान्य बोलचाल में "हिन्दू धर्म" भी कह दिया जाता है. सनातन धर्म का आस्तित्व हजारों बर्षों से है, इसमें हजारों महापुरुष हुए हैं, हजारों किताबे लिखी गई है लेकिन इसके बाबजूद यहाँ ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि - सभी व्यक्ति किसी एक बिचार, किताब या महापुरुष को मानने के लिए बाध्य हों.
भारत (प्राचीन आर्यावर्त) में हजारों बर्षों में, समय समय पर अनेकों विद्वान् और महापुरुष हुए है. जिन्होंने मानव जीवन का अध्यन कर समय समय पर अनेकों सिद्धांत दिए हैं, जिनसे समस्त जगत का कल्याण हो सके. उनके सिद्धांतों को लोगों ने माना भी और उस पर चलकर अच्छा जीवन भी जिया. समय बदल जाने पर कई बार वो सिद्धांत अप्रासंगिक हो गये और उनकी जगह किसी अन्य विद्वान् महापुरुष का सिद्धांत लोग मानने लगे.
भारत में शास्तार्थ की भी एक बहुत महत्वपूर्ण परम्परा रही है. विद्वान् शास्तार्थ कर अपने-अपने सिद्धांत को, तथ्य और तर्क द्वारा सही साबित करते थे और जो अपनी बात को प्रमाणित कर देता था उसकी बात को मान लिया जाता था. अप्रासंगिक हो गए सिद्धांत को देने वाले का भी अपमान नहीं किया जाता था बल्कि यह कहां जाता था कि- यह सिद्धांत पहले के समय के लिए उचित था परन्तु आज के समय में यह अप्रासंगिक हो चुकाहै.
भारत में यह प्रिक्रिया निरंतर चलती आ रही है. यहाँ आपको अनेको ऐसे सिद्धांत मिलेगे जिनमे परस्पर बिरोध तक मिलेगा, परन्तु दोनों को ही बराबर सम्मान भी मिलता रहा है. उदाहरण के लिए - हम मूर्ति पूजा का बिरोध करने वाले "दयानद सरस्वती" का भी सम्मान करते है और मूर्ति पूजा का समर्थन करने वाले "आध्य शंकराचार्य" का भी. हम युद्ध की बात करने वाले "श्रीकृष्ण" का भी सम्मान करते है और शान्ति की बात करने वाले "बुद्ध" का भी.
इस प्रकार भारत में कोई भी व्यक्ति चाहे वह मूर्तिपूजा करता हो या न करता हो, साकार ब्रह्म को मानता हो या निराकार ब्रह्म को, गृहस्त हो या सन्यासी हो, शाकाहारी हो या मांसाहारी हो, एक पत्नी व्रती हो या बहु विवाह करने वाला, अहिंसावादी हो या हिंसावादी, एक ईश्वर को मानने वाला हो या अनेकों देवताओं में विशवास करने वाला हो, मौन साधना करने वाला हो या कीर्तन करने वाला, आदि सभी सनातन धर्म का हिस्सा हो सकते हैं.
महापुरुषों या उनके सिद्धांतों का सम्मान करने में हमारे पूर्वाग्रह कभी आड़े नहीं आये. महापुरुष अपने अनुभव, शोध और शास्तार्थ द्वारा समय समय पर नए-नए सिद्धांत हजारों साल से देते आ रहे हैं, उनको मानने या न मानने को लेकर भी आम जनता पर कभी कोई बाध्यता नहीं रही. भारत में कभी भी किसी खोज को "पूर्ण ज्ञान" मानकर संतुष्ट नहीं हुआ गया बल्कि शोध, शास्तार्थ और अनुभव के माध्यम से ज्ञान की खोज निरंतर जारी है.
जबकि भारत के बाहर ऐसा नहीं है. वहां पर एक महापुरुष ने यदि कोई एक बात कह दी तो वह पत्थर की लकीर मान ली जाती है. चाहे उनकी वह बात आगे जाकर कितनी भी अप्रासंगिक क्यों न हो जाए, वो उसी पर अड़े रहते हैं. अपने वाले महापुरुष की बात को न मानने वाले की हत्या तक कर देते हैं. शास्तार्थ का तो उनके यहाँ कोई प्रावधान ही नहीं है, इस प्रकार वे लोग नई खोज और नए सिद्धांतों के लिए नए रास्ते, खुद ही बंद कर लेते हैं.
मेरा मानना यही है कि- ज्ञान का कोई अंत नहीं है. जो जितना ज्यादा ज्ञान प्राप्त करता जाएगा, उसके लिए ज्ञान प्राप्त करने के और नए-नए बिषय मिलते चले जायेंगे और जो अपने आपको पूर्णज्ञानी मानकर बैठ जाएगा उसके लिए नए ज्ञान की प्राप्ति का रास्ता ही बंद हो जाएगा. इसलिए बेहतर है कि - हम परस्पर बिरोधी सिद्धांतों को भी पूरा महत्त्व दें. किसी एक बात पर अड़े न रहें और दुसरे की बात सही होने पर दुसरे की बात को भी माने.
अपने आपको पूर्णज्ञानी या सर्वज्ञानी समझने के बजाय, ज्ञान की खोज का निरंतर प्रयास करते रहे. तभी हमारा खुद का और हमारे साथ साथ सम्पूर्ण जगत का कल्याण हो सकेगा. वरना अपने-अपने पूर्वाग्रहों को लेकर आपस में लड़ते रहेंगे. कभी दूसरों को नुकशान पहुंचाएंगे और कभी दूसरों के शिकार बनते रहेंगे. बहुत विशाल दुनिया है यह संभव ही नहीं है कि- हर जगह और हर समय एक ही सिद्धांत, हर किसी पर लागू किया जा सके.

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