Thursday, 28 February 2019

क्या है जेनेवा संधि

कल भारत के विंग कमांडर "अभिनंदन वर्धमान" को रिहा किया जायेगा. ऐसा जेनेवा संधि के तहत किया जा रहा है. लेकिन यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि - नियम कानून भी तब लागू हो पाते है जब आपमें ताकत है. यह निश्चित रूप से भारत कि कूटनीतिक सफलता का बहुत बड़ा सबूत है. इसके सरकार निश्चित रूप से साधुवाद की पात्र है.
आइये अब ज़रा यह जान लें कि - जेनेवा संधि क्या है ? पूरे विश्व में कहीं भी युद्ध होने पर युद्धबंदियों के अधिकारों को बरकरार रखने के कुछ नियम बनाए गए इनको जेनेवा समझौते (Geneva Convention) के नाम से जाना जाता है. जेनेवा समझौते में चार संधियां और तीन अतिरिक्त प्रोटोकॉल (मसौदे) शामिल हैं,
युद्ध के हालात में भी मानवता को बरकरार रखने के लिए पहली संधि 1864 में हुई थी. इसके बाद दूसरी और तीसरी संधि 1906 और 1929 में हुई. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1949 में 194 देशों ने मिलकर चौथी संधि की थी. इसमें साफ तौर पर ये बताया गया है कि युद्धबंदियों (Prisoner of War) के क्या अधिकार हैं
जेनेवा समझौते में दिए गए अनुच्छेद 3 के मुताबिक युद्ध के दौरान घायल होने वाले युद्धबंदी का अच्छे तरीके से उपचार होना चाहिए. इंटरनेशनल कमेटी ऑफ रेड क्रास के मुताबिक जेनेवा समझौते में युद्ध के दौरान गिरफ्तार सैनिकों और घायल लोगों के साथ कैसा बर्ताव करना है इसको लेकर दिशा निर्देश दिए गए हैं.
इस संधि के मुताबिक युद्धबंदियों पर केवल मुकदमा चलाया जा सकता है, लेकिन उन युद्धबंदी सैनिको को कानूनी सुविधा भी मुहैया करानी होगी. युद्धबंदियों (POW) के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार नहीं होना चाहिए. साथ ही युद्धबंदियों को डराया-धमकाया नहीं जा सकता और न ही उन्हें अपमानित किया जा सकता है.
युद्धबंदियों से सिर्फ उनके नाम, सैन्य पद, नंबर और यूनिट के बारे में पूछा जा सकता है.कोई भी देश युद्धबंदियों को लेकर जनता में उत्सुकता पैदा नहीं कर सकता. उनकी अपने देश की जनता के सामने नुमाइश नहीं कर सकता है. इसके अलावा युद्ध के बाद युद्धबंदियों को वापस लैटाना होता है. जेनेवा संधि से जुड़ी मुख्य बातें
* इस संधि के तहत घायल सैनिक की उचित देखरेख की जाती है.
* संधि के तहत उन्हें खाना पीना और जरूरत की सभी चीजें दी जाती है.
* किसी भी युद्धबंदी के साथ अमानवीय बर्ताव नहीं किया जा सकता.
* किसी देश का सैनिक जैसे ही पकड़ा जाता है उस पर ये संधि लागू होती है.
* संधि के मुताबिक युद्धबंदी को डराया-धमकाया नहीं जा सकता.
* युद्धबंदी की जाति, धर्म, जन्‍म, आदि बातों के बारे में नहीं पूछा जा सकता

Monday, 25 February 2019

कब मिलेगी भारत को पूर्ण आजादी ?

पिछले हजार साल में मंगोलों, अरबो, अफगानों, तुर्कों, आदि ने भारत पर सैकड़ों हमले किये. इन लड़ाइयों में भारत की बहुत ज्यादा जन - धन की हानि हुई. इन लड़ाइयों में हिन्दुस्थानियो को कई बार हार का सामना भी करना पड़ा. इन हमलावरों ने भारत की जनता, भारत की इज्जत और भारतीयों की आस्था पर भयंकर अत्याचार किये.
ज्यादातर भारतीय उन हमलावरों से संघर्ष करते रहे लेकिन कुछ गद्दार भारतीय अपने फायदे के लिए उनसे मिलते भी रहे. जिसके कारण भारत के काफी हिस्से पर उन हमलावरों का कब्जा भी हो गया. लेकिन देशभक्त हमेंशा उस जबरन कब्जे के खिलाफ अत्याचारियों से संघर्ष करते रहे और समय समय पर काफी हिस्से उनसे वापस आजाद कराते रहे.
अभी इस समस्या से ही पार नहीं पा पाए थे कि - अंग्रेजों के रूप में एक और भयंकर समस्या भारत में आ गई. देखते ही देखते कुछ ही समय में अंग्रेजों ने सारे भारत पर कब्जा कर लिया. तब कही जाकर हिन्दुस्थानियो को होश आया. तब हिन्दुस्थानियों ने उन विदेशियों से भारत को आजाद कराने की खातिर फिर से एक भीषण संघर्ष प्रारम्भ किया.
1857 के पहले संघर्ष में तो वो मुस्लिम लोग भी, अंग्रेजों से सघर्सं में हिन्दुओं के साथ हो गए क्योंकि उनको उम्मीद थी इससे उनको अपनी रियाश्तें फिर से वापस मिल जायेंगी. 1857 में अंग्रेजों से सभी लोग लड़ रहे थे लेकिन उन सभी का उद्देश्य केवल अपनी अपनी रियासतों का आजाद कराना था, पूरे देश से उनको कोई ख़ास ज्यादा मतलब नहीं था.
अंग्रेज भारत के दुश्मन थे लेकिन हिन्दुस्थान पर अरबो, अफगानों, तुर्कों, आदि ने भी कोई कम जुल्म नहीं किये थे. देश के लोग सभी विदेशी हमलावरों से पूर्ण आजादी चाहते थे. इधर उस प्रथम स्वाधीनता संग्राम के असफल हो जाने के बाद ज्यादातर मुस्लिम्स ने सोचा कि - अंग्रेजों से आजादी के बाद हिंदुस्थानी फिर से अपने देश के मालिक बन जायेंगे.
इसलिए दुसरे स्वाधीनता संग्राम के समय, आजादी की लड़ाई में शामिल होने के बजाय, वो अपने लिए अलग भूभाग (पापिस्तान) की मांग करने लगे. इस चक्कर में उन लोगों ने कई जगह दंगा फसाद भी किया. अब देशभक्तों के सामने दोहरी समस्या थी. एक अंग्रेजों को देश से निकालना तथा दुसरी दंगा फसाद से देश और देशवाशियों को बचाना.
हिन्दुओं अंग्रेजों को निकालने का सघर्ष जारी रखा और उन अरबो, अफगानों, तुर्कों, आदि के अत्याचार को भी भुला दिया और उनको उनकी आवादी के हिसाब से भी ज्यादा जमीन देना मंजूर कर लिया, ताकि रोज-रोज का झगडा ख़त्म हो जाए. मगर यहाँ भी कुछ लोगों ने अपने आपको महान आत्मा दिखाने के चक्कर में देश के साथ धोखा कर दिया.
मुसलमानों को अलग देश पपिस्तान दे दिया लेकिन हिन्दुओं को हिन्दुस्थान नहीं दिया. यूं तो सभी विदेशियों हमलावरों से भारत को पूर्ण आजादी मिलनी चाहिए थी लेकिन अगर आपने काफी समय से देश में रह रहे लोगों को, उनके किये गए अत्याचारों को भुलाकर, अपने देश में हकदार मान भी लिया, तो बंटबारा तो न्यायपूर्ण होना चाहिए था.
जो लोग साथ नहीं रह सकते हो उनको अलग अलग कर देना बुद्धिमानी है. लेकिन बंटबारा करते समय, झगडालू को उसका हिस्सा देने के बाद भी अपने हिस्से में रहने देना, सद्भावना नहीं बल्कि मुर्खता थी. उन्होंने तो अपना हिस्सा ले लिया और आप आज भी कश्मीर, केरल, मालदा, गोधरा, मेरठ, मुरादाबाद, भागलपुर, अलीगढ़ और कैराना में उलझे हैं.

Sunday, 24 February 2019

संविधान की धारा (आर्टिकल ) 370 के बिरोध का बिरोध क्यों ?

संविधान की धारा- 370 का बिरोध करने वाले का बिरोध, अगर कोई कश्मीरी करता है, तो समझ में आता है क्योंकि कोई भी मुफ्त मिले विशेषाधिकार को भला क्यों छोड़ना चाहेगा ? लेकिन अगर शेष भारत का कोई नागरिक (मुस्लिम या मुस्लिम वोट के सहारे राजनीति करने वाला) बिरोध करता है तो उसका तो कोई कारण समझ नहीं आता.
संविधान की धारा-370 के कारण कश्मीर को जो विशेष दरजा दिया गया है, उसका लाभ केवल कश्मीरी को ही मिलता है शेष भारत के किसी अन्य मुसलमान को नहीं. पता नहीं शेष भारत के मुसलमानों को इसकी जानकारी है या नहीं ? धारा-370 के कारण शेष भारत का कोई भी व्यक्ति कश्मीर में नहीं बस सकता चाहे वो मुस्लिम ही क्यों न हो?
संघ का अंधा बिरोध करने वालों ने, देश में भ्रम फैलाया है कि- धारा- 370 खतम हो जाने से मुसलमानों का नुकशान होगा. जबकि धारा- 370 केवल कश्मीरी के नागरिक (हिन्दू मुस्लिम दोनों) के लिए ही विशेषाधिकार प्रदान करती है, शेष भारत के किसी मुसलमान के लिए नही. धारा- 370 का बिरोध तो शेष भारत के हर मुस्लिम को भी करना चाहिए.
धारा- 370 की तरह ही हिमाचल और नागालेंड जैसे राज्यों में भी धारा- 371 लागू है जो इन राज्यों को कुछ विशेषाधिकार (कश्मीर से थोडा कम ) देती है. आजादी के समय देश में परिस्थितिया तेज़ी से बदल रहीं थी कि - उस समय नेताओं को उनपर सोंचने का ज्यादा समय नहीं मिल पाया होगा इसलिए इन विवादास्पद बातों को उन्होंने मंजूर किया होगा.
लेकिन अब देश के सभी नेताओं और नागरिकों को मिलकर पुनर्बिचार करके विघटनकारी धाराओं को ख़तम करके सभी के लिए समान कानून बनाना चाहिए. देश में कहीं भी, किसी भी क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को जाति, धर्म या क्षेत्र के आधार पर किसी को भी न तो कोई विशेष का दर्जा दिया जाए और न ही किसी को अछूत ही माना जाए.

क्या है धारा 370 ( आर्टिकल 370 ) ?

संविधान की धारा -370 "जम्मू & कश्मीर" राज्य को विशेष दर्जा प्रदान करती है. यह धारा भारतीय राजनीति में शुरू से ही विवादित रही है. इस बिशेष दर्जे के कारण "जम्मू एवं कश्मीर" शेष भारत से बहुत अलग है. राष्ट्रवादी दल इसे "जम्मू एवं कश्मीर" में व्याप्त अलगाववाद के लिये जिम्मेदार मानते हैं तथा इसे समाप्त करने की मांग करते रहे हैं.
मुस्लिम वोटबैंक की राजनीति करने वाले नेताओं ने ऐसा झूठा फैलाया हुआ है कि - अगर धारा -370 हटायेंगे, तो देश के मुसलमानों का नुकशान होगा, जबकि इस धारा का लाभ केवल जम्मू-कश्मीर के निवासी (चाहे मुसलमान हो या हिन्दू) शेष भारत के किसी मुस्लिम को नहीं. इस धारा के कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं :-
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1. जम्मू & कश्मीर" का अपना अलग संबिधान और अपना अलग निशान (झंडा) है.
2. पापिस्तान का कोई नागरिक अगर किसी कश्मीरी लड़की से शादी करता है तो उसको कश्मीर की नागरिकता मिल जायेगी.
3. कश्मीर की लड़की अगर किसी शेष भारत के व्यक्ति से शादी करती है तो उसके बिशेशाधिकार समाप्त हो जायेंगे.
4. भारत की संसद को "जम्मू & कश्मीर" के बारे में केवल रक्षा, विदेश और संचार के अलावा, किसी विषय में कानून बनाने का अधिकार नही है,
5. भारतीय संविधान की "धारा - 360" जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है, वह भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती.
6. "जम्मू & कश्मीर" राज्य पर संविधान की धारा-356 लागू नहीं होती. इस कारण राष्ट्र-अध्यक्ष के पास राज्य के संविधान को बरख़ास्त करने का अधिकार नहीं है.
7. "जम्मू & कश्मीर" पर संविधान की धारा 356 लागू नहीं होती. इस कारण भारत के राष्ट्र-अध्यक्ष के पास राज्य की सरकार को बरख़ास्त करने का अधिकार नहीं है
8. "जम्मू & कश्मीर" का निवासी शेष भारत में कहीं भी जमीन खरीद कर वहां रह सकता है लेकिन शेष भारत का कोई नागरिक "जम्मू & कश्मीर" में नही रह सकता.
9. भारतीय संविधान की पाँचवी अनुसूची (अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जन-जातियों के प्रशासन और नियंत्रण से संबंधित) और छठी अनुसूची (जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन के विषय मे) "जम्मू & कश्मीर" मे लागु नही होती.
10. "जम्मू & कश्मीर" की विधानसभा की अनुमति के बिना राज्य के सीमा को परिवर्तित करने वाला कोई भी विधेयक भारत की संसद मे पेश नही किया जा सकता
11. बंटबारे के समय पापिस्तान चले गए लोगों को नागरिकता देने से इनकार करने का प्रावधान, "जम्मू & कश्मीर" से पापिस्तान गए लोगों पर लागू नही होता.
13. "जम्मू & कश्मीर" का मुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री नही बल्कि "जम्मू & कश्मीर" का प्रधान मंत्री होगा ( यह नियम श्यामा प्रसाद मुखार्जी के बलिदान के बाद बदला गया )
14. शेष भारत के नागरिक को "जम्मू & कश्मीर" आने के लिए परमिट लेना होगा
(यह नियम भी डा. श्यामा प्रसाद मुखार्जी के बलिदान के बाद खारिज किया गया )
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ऐसे ही कई ऐसे बिंदु हैं जिनसे अलगाववाद को बढाबा मिलता है. "भारतीय जनसंघ" के नेता डा. श्यामा प्रसाद मुखार्जी ने धारा -370 के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाया. उन्होंने नारा दिया था - "नहीं चलेंगे एक देश में - दो विधान, दो प्रधान, दो निशान" और बिना परमिट "जम्मू & कश्मीर" में प्रवेश किया.
इस अपराध के लिए उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया जहां रहस्यमयी परिस्तिथियों में उनकी म्रत्यु हो गई. आज भी बहुत से लोग इसे ह्त्या मानते है. डा. श्यामा प्रसाद मुखार्जी के बलिदान के बाद उत्पन्न हुए जन बिरोध को देखते हुए जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्लाह को धारा -370 कुछ प्रावधानों को बदलने पर मजबूर होना पडा था.
जिनमे प्रधानमंत्री की जगह मुख्यमंत्री कहना स्वीकार किया गया था, शेष भारत के लोगों को जम्मू कश्मीर जाने के लिए परमिट लेने का नियम ख़त्म किया गया, इसके अलावा "तिरंगे" को ही राष्ट्रीय ध्वज मानना प्रमुख है. अगर यह नहीं हुआ होता तो आज हमें वैष्णोदेवी और अमरनाथ जाने के लिए पहले कश्मीर सरकार से परमिट लेना पड़ता

कश्मीर को विशेषाधिकार क्यों दिए गए थे ? और कैसे लागू हुई थी धारा 370 ?

कश्मीर को महाऋषि कश्यप की कर्मभूमि माना जाता है. कश्मीर में अधिकाँश समय हिन्दू राजाओं का राज रहा और उनके राज में कश्मीर की प्रतिष्ठा सारे विश्व में थी. कश्मीर को भारत का स्वर्ग कहा जाता था. कश्मीर की पहाड़ियों को सौन्दर्य सारी दुनिया के पर्यटकों को लुभाता था. कुल मिलाकर कश्मीर एक खुशहाल राज्य था.
ऐसा कहा जाता है कि - 1930 में हुए गोलमेज सम्मलेन के समय जहाँ सभी राजा और नेता, अंग्रेजो से दब कर बात कर रहे थे. वहीँ महाराजा हरिसिंह ने अंग्रेजों के सामने खुद को हिन्दुस्थान का राजा कहा था. वहीँ पर महाराजा हरि सिंह और जवाहरलाल नेहरु के बीच भी कुछ विवाद हो गया था. इस विवाद के कारण नेहरु, महाराजा हरिसिंह से नाराज हो गए थे
उन्ही दिनों कश्मीर में एक युवा नेता "शेख अब्दुल्ला" उभर रहे थे. शेख अब्दुल्ला एक बहुत ही विवादित नेता थे. माना जाता है कि - वो अंग्रेजों के एक भेदिये के रूप में काम करते थे. शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का सुलतान बन्ने की महत्वाकांक्षा थी. शेख कश्मीर से बाहर सेक्युलर बनकर रहता था लेकिन कश्मीर पहुँचते की कट्टर मुसलमान बन जाता था.
अंग्रेजों के इशारे पर शेख ने "मुस्लिम कांफ्रेंस" नाम के एक दल का गठन किया गया, जिसके प्रमुख सदस्य थे - शेख अब्दुल्ला, मीर बाईज युसूफ शाह, सरदार इब्राहिम, गुलाम अब्बास. बाद में नेहरु के कहने पर शेख अब्दुल्ला ने "मुस्लिम कांफ्रेंस" का नाम बदलकर "नेशनल कांफ्रेंस" रख लिया था. धीरे - धीरे शेख और नेहरु में बहुत घनिष्ठता हो गई.
महाराज हरिसिंह को परेशान करने के लिए, मांउटबेटन और नेहरु ने भी शेख अब्दुल्ला को सपोर्ट किया. इसी बीच कश्मीर रियासत का दीवान "गोपाल स्वामी आयंगर" भी नेहरु से मिल गया. भारत आजाद होते समय नेहरु ने साफ़ कह दिया कि - महाराज हरि सिंह को अपने अधिकार शेख अब्दुल्ला को सौंपकर कश्मीर से बाहर जाना पड़ेगा.
विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने में हुई देरी का यही एकमात्र कारण था. 20 अक्तूबर 1947 को पापिस्ताना ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया. लेकिन नेहरु ने साफ़ कह दिया कि -जब तक हरिसिंह विलयपत्र पर हस्ताक्षर करके कश्मीर नहीं छोड़ते हैं तब तक कश्मीर को कोई सैन्य मदद नहीं दी जायेगी, तब जनता की रक्षा की खातिर उनको इसे मानना पड़ा.
नेहरू ने यह भ्रम भी फैलाया कि - महाराज हरिसिंह ने कश्मीर के लिए विशेष अधिकार मांगे थे जबकि हकीकत यह है कि - उस समय महाराज हरिसिंह शर्त रखने की स्थिति में नहीं थे बल्कि खुद मजबूर थे. उनको तो खुद कश्मीर छोड़ना पडा और मुंबई में निर्वासित जीवन बिताना पडा. कश्मीर के लिए विशेष अधिकार तो शेख अब्दुल्ला ने मांगे थे.
शेख अब्दुल्ला ने एक ड्राफ्ट तैयार किया, जिसे धारा 306-A कहा जाता था. इस ड्राफ्ट को "गोपाल स्वामी आयंगर" ने नेहरु और माउंटबटन के सामने प्रस्तुत किया. धारा 306-A के अनुसार जम्मू & कश्मीर को विशेष अधिकार देने की बात कही गई थी. इस धारा 306-A को लेकर नेहरु ने सरदार पटेल तक को अँधेरे में रखा गया था.
नेहरु और पटेल के बीच विवाद की सबसे बड़ी बजह यही थी. डॉ भीमराव अंबेडकर ने भी इस धारा को लागू करने से मना कर दिया था. लेकिन कश्मीर के खराब हालात का हवाला देकर नेहरू जबरदस्ती इस धारा को लागू कर दिया. उस समय नेहरु ने भी यही कहा था कि - हालात सुधर जाने के बाद इस धारा को ख़त्म कर दिया जाएगा.
लेकिन संविधान लिखते समय यही धारा थोड़े से परिवर्तन के बाद संविधान में "आर्टिकिल -370" के रूप में रख दी गई. 26 जनवरी 1950 को जब संविधान पारित हुआ तब अनेकों राष्ट्रवादी नेताओं ने "आर्टिकिल 370" पर सवाल उठाया. उद्योग मंत्री "डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी" ने इस पर नेहरु से बात करनी चाही तो नेहरु ने साफ़ इनकार कर दिया.
इससे नाराज होकर 6 अप्रैल 1950 को "डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी" ने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया. उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर-संघचालक गुरु गोलवलकर जी से परामर्श लेकर 21 अक्टूबर 1951 को "भारतीय जनसंघ" की स्थापना की. 1951-52 के आम चुनावों में राष्ट्रीय जनसंघ के 3 सांसद चुने गए जिनमे एक डॉ. मुखर्जी भी थे.
उसके बाद उन्होंने संसद के अन्दर 32 लोकसभा और 10 राज्यसभा सांसदों के सहयोग से "नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी" (गठबंधन) का गठन किया. डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत की अखंडता और कश्मीर के विलय के दृढ़ समर्थक थे. उन्होंने अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को भारत की अखंडता के लिए बहुत बड़ा ख़तरा बताया.
अनुच्छेद 370 के राष्ट्रघातक प्रावधानों को हटाने के लिए "जनसंघ" ने "हिन्दू महासभा" और "रामराज्य परिषद" के साथ मिलाकर सत्याग्रह आरंभ किया. डॉ मुखर्जी ने कश्मीर के परमिट सिस्टम का बिरोध करते हुए बिना परमिट कश्मीर जाने की घोषणा कर दी. 11 मई 1953 को उन्होंने परमिट सिस्टम का उलंघन करके कश्मीर में प्रवेश किया.
उनका नारा था . "नहीं चलेंगे एक देश में, दो निशान - दो विधान - दो प्रधान". कश्मीर में प्रवेश करते ही उनको शेख अब्दुल्ला सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया. हिरासत में ही संदिग्ध परिस्थितियों में 23 जून 1953 को उनकी म्रत्यु हो गई. अधिकाँश लोग आजतक यही मानते हैं कि - उनकी म्रत्यु राजनैतिक हत्या थी.
तब से लेकर आजतक राष्ट्रवादी लोग इस विघटनकारी "धारा 370" को ख़त्म करने की मांग करते आ रहे हैं. परन्तु कांग्रेस ने चालाकी से यह झूठी बात फैला दी कि - जो लोग धारा 370 का बिरोध कर रहे हैं वे दरअसल मुस्लिम बिरोधी हैं. इसलिए भारत के मुसलमान भी धारा 370 का बिरोध करने वालों को अपना दुश्मन समझने लगे.
जबकि धारा 370 केवल कश्मीरी मूल के लोगों के लिए ही है. कश्मीर के बाहर के शेष भारत के मुसलमानों के लिए बैसी ही है जैसे कश्मीर के बाहर के हिन्दुओं के लिए. कांग्रेस द्वारा फैलाए गए भ्रम के कारण भारत के मुसलमान आज भी यही समझते हैं कि- शायद धारा 370 उनके फायेदे की चीज है जिसे भाजपा वाले ख़त्म करना चाहते हैं
इसी कारण देश की अन्य पार्टियां भी धारा 370 का बिरोध करने से घबराती है कि - कहीं इससे उनके मुसलमान वोटर नाराज न हो जायें. संविधान में बदलाब करने के लिए संसद में दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है अगर सभी देशवाशियों को इसकी सच्चाई समझ आ जाए तो 90% लोग भी इसे ख़त्म करने को तैयार हो जायेंगे.

Friday, 22 February 2019

देववन या देवबंद

"देवबंद" सहारनपुर जिले का 1 लाख आवादी वाला एक बड़ा क़स्बा है जो सहारनपुर-मुजफ्फरनगर मार्ग पर स्थित है. यह मुसलमानों का एक बहुत ही प्रभावी संस्थान "दारुल उलूम" है, जिसे इस्लामी शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र माना जाता है. दारुल उलूम को एक पूरी मुस्लिम विचारधारा का जनक माना जाता है.
इस केंद्र की इस्लामी बिचारधरा को मानने वाले पूरी दुनिया में हैं. दुनिया भर में इस बिचारधारा को "देवबंदी बिचारधरा" कहा जाता है. "दारुल उलूम" को शुरूआत 30 मई 1866 को "हाजी आबिद हुसैन" व "मौलाना क़ासिम नानौतवी" ने की थी. कुछ ही समय बाद "दारुल उलूम" इस्लामिक शिक्षा के शीर्ष केंद्रों में शुमार हो गया.
"इस्लाम" की "हनफी विचारधारा" से प्रभावित "दारुल उलूम" की विचारधारा को परवान चढ़ाने में "मौलाना अशरफ अली थानवी" , "मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही" और "मौलाना कासिम ननोतवी" की अहम भूमिका रही है. विशेष रूप से "मौलाना कासिम ननोतवी" ने इस्लामिक ‌‌शिक्षा के इस केंद्र को दुनियाभर में खास पहचान दी.
एक स्थान पर इतने सारे मुस्लिम छात्र मिलने के कारण यह स्थान हमेशा आतंकीयों" के निशाने पर भी रहा है. "जैश ए मोहम्मद" के आतंकियों का देवबंद में पकड़ा जाना इस बात का सबूत भी  है. देबबंद के स्थानीय लोगों तथा दारुल उलूम को खुद चाहिए कि-वे ऐसे प्रयास करें कि कोई आतंकी वहां पनाह न पा सके, वर्ना उनका संस्थान भी बदनाम हो जाएगा.
आइये अब जरा देवबंद का इतिहास भी जान लेते है. देवबंद एक महाभारत कालीन स्थान है. गंगा और यमुना के बीच का यह इलाका घने जंगलों वाला था. इस जंगल को "ऋषि-मुनि" लोग यज्ञ, शोध कार्य, तपस्या, शिक्षा केंद्र, आदि के लिए काफी उपयुक्त मानते थे. इन्ही कारणों से इसे "देववन" अर्थात देवताओं का वन (जंगल) कहा जाता था.
इस शहर में महाभारत कालीन कई स्‍थान हैं, जिनमें "रणखंडी गांव", "पांडु सरोवर" और "बाला सुंदरी शक्तिपीठ" प्रमुख है. पांडु सरोवर के बारे में मान्यता है कि- यहां पांडवों के बड़े भाई युधि‌ष्टिर और यक्ष के बीच प्रश्न उत्तर हुए थे. "त्रिपुर बाला सुंदरी" शक्ति पीठ को हिंदुओं के प्रसिद्ध धार्मिक स्‍थल के रूप में माना जाता है.
माँ दुर्गा के राजेश्वरी त्रिपुर बाला सुन्दरी के स्वरूप की यहाँ पूजा की जाती है. हर साल चैत्र माह की चतुर्दशी पर यहाँ विशाल मेला लगता है, जो पंद्रह दिन चलता है. देश भर से लाखों लोग इस अवसर पर माता के दर्शन के लिए आते हैं. कहा जाता है कि हर साल चैत्र मास की चतुर्दशी को यहाँ अचानक आंधी के रूप में माता मंदिर में प्रवेश करती हैं.
मंदिर के द्वार पर एक प्राचीन शिलालेख लगा है जिसे आज तक नहीं पढ़ा जा सका है. कुछ लोग देवबंद को "देववृन्द" भी कहते हैं. उनका मानना है कि - देवों का स्‍थल होने के कारण इसे "देववृन्द" कहा गया है. चाहे जो भी कहें लेकिन महाभारत काल के कई प्राचीन अवशेष आज भी यहां हैं जो इस जगह के देवस्थल होने का एहसास कराते हैं.

रानी कित्तूर चेनम्मा

दक्षिण भारत के कर्णाटक राज्य की "रानी कित्तूर चेनम्मा" के अंग्रेजों से संघर्ष की कथा उत्तर में कम लोग जानते है, लेकिन दक्षिण में उनको वही सम्मान है जैसा उत्तर में रानी लक्ष्मीबाई का है. कर्नाटक में बेलगाम के पास एक गांव ककती में 1778 को पैदा हुई चेनम्मा, बचपन से ही घुड़सवारी, तलवारवाजी, तीरंदाजी में विशेष रुचि रखने वाली थी.
रानी चेनम्मा की शादी बेलगाम में कित्तूर राजघराने में हुई थी. चेनम्मा के जीवन में प्रकृति ने कई बार क्रूर मजाक किया . पहले पति का निधन हो गया और कुछ साल बाद एकलौते पुत्र का भी निधन हो गया. रानी चेनम्मा ने पुत्र की मौत के बाद शिवलिंगप्पा को अपना उत्ताराधिकारी बनाया लेकिन अंग्रेजों ने रानी के इस कदम को स्वीकार नहीं किया.
अंग्रेजों ने शिवलिंगप्पा को पद से हटाने का का आदेश दिया लेकिन रानी चेनम्मा ने अंग्रेजों का आदेश स्वीकार करने से इनकार कर दिया. ईस्ट इण्डिया कम्पनी की विशाल व शक्तिशाली सशस्त्र सेना ने कित्तूर दुर्ग को घेर लिया था. रानी इससे भयभीत नहीं हुई बल्कि सेना और नागरिको को युद्ध के लिए तैयार किया.
अचानक कित्तूर दुर्ग का फाटक खुला और देखते ही देखते अन्दर से एक वीरागंना पुरुष वेश में शेरनी के समान गरजते हुए शत्रु दल पर टूट पड़ी . भयानक युद्ध हो रहा था, रानी रणचण्डी बन शत्रु के सैनिकों का संहार कर रही थीं, थैकरे मारा गया और अग्रेंजी सेना भाग खड़ी हुई. अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में रानी चेनम्मा ने अपूर्व शौर्य का प्रदर्शन किया .
अग्रेजों ने पुन: दुर्ग पर डेरा डाला, कित्तूर की फौज ने दृढ़ता के साथ प्रतिरोध किया . रानी लंबे समय तक अंग्रेजी सेना का मुकाबला नहीं कर सकी. उन्हें कैद कर बेलहोंगल किले में रखा गया जहां उनकी ( 21-फरवरी -1829 ) मृत्यु हो गई. कहते हैं कि मृत्यु से पूर्व रानी चेनम्मा काशीवास करना चाहती थीं पर उनकी यह चाह पूरी न हो सकी थी.
यह संयोग ही था कि रानी चेनम्मा की मौत के छः वर्ष बाद काशी में ही लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ. रानी लक्ष्मी बाई का जीवन भी काफी हद तक रानी चेनम्मा के जीवन से मिलता जुलता ही रहा है. इतिहास के पन्नों में अंग्रेजों से लोहा लेने वाली प्रथम वीरांगना कित्तूर की रानी चेनम्मा को ही माना जाता है.
पुणे बेंगलूर राष्ट्रीय राजमार्ग पर बेलगाम के पास कित्तूर का राजमहल तथा अन्य इमारतें गौरवशाली अतीत की याद दिलाने के लिए मौजूद हैं. उनके सम्मान में उनकी एक प्रतिमा संसद भवन परिसर में भी लगाई गई है . रानी चेनम्मा पहली महिलाओं में से थीं जिन्होंने अनावश्यक हस्तक्षेप और कर संग्रह प्रणाली को लेकर अंग्रेजों का विरोध किया था

Thursday, 21 February 2019

महान कौन : निरंतर ज्ञान की खोज करने वाले अथवा अपने आपको पूर्णज्ञानी कहने वाले

आप ने नोट किया होगा कि - सड़क के किनारे टेंट लगाकर अथवा छोटी सी दुकान खोलकर जो खानदानी (झोलाछाप) हकीम बैठे होते हैं, वो ये दावा करते हैं कि - उनके पास हर बीमारी का इलाज गारंटी के साथ किया जाता है, जबकि बड़े बड़े मेडिकल कालेजों में पढ़ाई करने और बड़े बड़े हस्पतालों में हजारो लोगों का इलाज कर चुके डाकटर, हमेशा यही कहते हैं कि- वो केवल अभ्यास (प्रैक्टिस) कर रहे है और गारंटी का तो सवाल ही नहीं.
कुछ यही हाल विद्वानों का भी है. फर्जी विद्वान् दो-चार किताबे पढ़ लेते हैं और अपने आपको सर्वज्ञानी बताना शुरू कर देते हैं जबकि वास्तविक विद्वान्, जो अपनी सबसे बड़ी पढ़ाई को भी यही कहते हैं कि - "शोध" (रिसर्च) कर रहे हैं अर्थात नए ज्ञान की खोज कर रहे हैं. इसका मतलब साफ है कि- जो अज्ञानी है वो थोडा सा ज्ञान पाकर खुद को सर्वज्ञानी मान लेते है और विद्वान जितना ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, उसके आगे खोजने लगते हैं.
इस उदाहरण को समझने के बाद, अब हम बात करते हैं विभिन्न धर्म, पंथ और सम्प्रदायों की. सबसे पहले बात करते हैं "सनातन धर्म" की जिसको सामान्य बोलचाल में "हिन्दू धर्म" भी कह दिया जाता है. सनातन धर्म का आस्तित्व हजारों बर्षों से है, इसमें हजारों महापुरुष हुए हैं, हजारों किताबे लिखी गई है लेकिन इसके बाबजूद यहाँ ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि - सभी व्यक्ति किसी एक बिचार, किताब या महापुरुष को मानने के लिए बाध्य हों.
भारत (प्राचीन आर्यावर्त) में हजारों बर्षों में, समय समय पर अनेकों विद्वान् और महापुरुष हुए है. जिन्होंने मानव जीवन का अध्यन कर समय समय पर अनेकों सिद्धांत दिए हैं, जिनसे समस्त जगत का कल्याण हो सके. उनके सिद्धांतों को लोगों ने माना भी और उस पर चलकर अच्छा जीवन भी जिया. समय बदल जाने पर कई बार वो सिद्धांत अप्रासंगिक हो गये और उनकी जगह किसी अन्य विद्वान् महापुरुष का सिद्धांत लोग मानने लगे.
भारत में शास्तार्थ की भी एक बहुत महत्वपूर्ण परम्परा रही है. विद्वान् शास्तार्थ कर अपने-अपने सिद्धांत को, तथ्य और तर्क द्वारा सही साबित करते थे और जो अपनी बात को प्रमाणित कर देता था उसकी बात को मान लिया जाता था. अप्रासंगिक हो गए सिद्धांत को देने वाले का भी अपमान नहीं किया जाता था बल्कि यह कहां जाता था कि- यह सिद्धांत पहले के समय के लिए उचित था परन्तु आज के समय में यह अप्रासंगिक हो चुकाहै.
भारत में यह प्रिक्रिया निरंतर चलती आ रही है. यहाँ आपको अनेको ऐसे सिद्धांत मिलेगे जिनमे परस्पर बिरोध तक मिलेगा, परन्तु दोनों को ही बराबर सम्मान भी मिलता रहा है. उदाहरण के लिए - हम मूर्ति पूजा का बिरोध करने वाले "दयानद सरस्वती" का भी सम्मान करते है और मूर्ति पूजा का समर्थन करने वाले "आध्य शंकराचार्य" का भी. हम युद्ध की बात करने वाले "श्रीकृष्ण" का भी सम्मान करते है और शान्ति की बात करने वाले "बुद्ध" का भी.
इस प्रकार भारत में कोई भी व्यक्ति चाहे वह मूर्तिपूजा करता हो या न करता हो, साकार ब्रह्म को मानता हो या निराकार ब्रह्म को, गृहस्त हो या सन्यासी हो, शाकाहारी हो या मांसाहारी हो, एक पत्नी व्रती हो या बहु विवाह करने वाला, अहिंसावादी हो या हिंसावादी, एक ईश्वर को मानने वाला हो या अनेकों देवताओं में विशवास करने वाला हो, मौन साधना करने वाला हो या कीर्तन करने वाला, आदि सभी सनातन धर्म का हिस्सा हो सकते हैं.
महापुरुषों या उनके सिद्धांतों का सम्मान करने में हमारे पूर्वाग्रह कभी आड़े नहीं आये. महापुरुष अपने अनुभव, शोध और शास्तार्थ द्वारा समय समय पर नए-नए सिद्धांत हजारों साल से देते आ रहे हैं, उनको मानने या न मानने को लेकर भी आम जनता पर कभी कोई बाध्यता नहीं रही. भारत में कभी भी किसी खोज को "पूर्ण ज्ञान" मानकर संतुष्ट नहीं हुआ गया बल्कि शोध, शास्तार्थ और अनुभव के माध्यम से ज्ञान की खोज निरंतर जारी है.
जबकि भारत के बाहर ऐसा नहीं है. वहां पर एक महापुरुष ने यदि कोई एक बात कह दी तो वह पत्थर की लकीर मान ली जाती है. चाहे उनकी वह बात आगे जाकर कितनी भी अप्रासंगिक क्यों न हो जाए, वो उसी पर अड़े रहते हैं. अपने वाले महापुरुष की बात को न मानने वाले की हत्या तक कर देते हैं. शास्तार्थ का तो उनके यहाँ कोई प्रावधान ही नहीं है, इस प्रकार वे लोग नई खोज और नए सिद्धांतों के लिए नए रास्ते, खुद ही बंद कर लेते हैं.
मेरा मानना यही है कि- ज्ञान का कोई अंत नहीं है. जो जितना ज्यादा ज्ञान प्राप्त करता जाएगा, उसके लिए ज्ञान प्राप्त करने के और नए-नए बिषय मिलते चले जायेंगे और जो अपने आपको पूर्णज्ञानी मानकर बैठ जाएगा उसके लिए नए ज्ञान की प्राप्ति का रास्ता ही बंद हो जाएगा. इसलिए बेहतर है कि - हम परस्पर बिरोधी सिद्धांतों को भी पूरा महत्त्व दें. किसी एक बात पर अड़े न रहें और दुसरे की बात सही होने पर दुसरे की बात को भी माने.
अपने आपको पूर्णज्ञानी या सर्वज्ञानी समझने के बजाय, ज्ञान की खोज का निरंतर प्रयास करते रहे. तभी हमारा खुद का और हमारे साथ साथ सम्पूर्ण जगत का कल्याण हो सकेगा. वरना अपने-अपने पूर्वाग्रहों को लेकर आपस में लड़ते रहेंगे. कभी दूसरों को नुकशान पहुंचाएंगे और कभी दूसरों के शिकार बनते रहेंगे. बहुत विशाल दुनिया है यह संभव ही नहीं है कि- हर जगह और हर समय एक ही सिद्धांत, हर किसी पर लागू किया जा सके.

Monday, 11 February 2019

प्रो. बलराज मधोक

बलराज मधोक जी का जन्म 25 फरवरी, 1920 में बाल्टिस्तान के स्कार्दू में हुआ था. उनके पिता जगन्नाथ मधोक जम्मू कश्मीर के लद्दाख़ में एक सरकारी अधिकारी थे. बलराज मधोक ने अपनी उच्चतर माध्यमिक शिक्षा श्रीनगर से और स्नातक स्तर की पढ़ाई लाहौर से की. बलराज मधोक 20 बर्ष की आयु में (1940 में) आरएसएस के स्वयंसेवक बनेे.

वे मात्र 24 वर्ष की आयु में डीएवी पोस्ट ग्रेड्यूट कालेज में इतिहास के विभागाध्यक्ष बने. उनकी योग्यता को देखते हुए उन्हें वाइसप्रिंसिपल भी बना दिया गया. उनका मानना था कि - गुलामी के दौर में भारत में धर्म की हानि हुई है और हिन्दू समाज बिखरा हुआ है. वे बिखरे हुए समाज को एकत्र कर भारत को महाशक्ति के रूप में स्थापित करना चाहते थे.

विभाजन के कारण पापिस्तानी हिस्से से जान बचाकर कश्मीर में आये शरणार्थी हिन्दुओं को आर्थिक व सामाजिक सहायता प्रदान की. आज़ादी के बाद जब पापिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण किया, उस समय बलराज मधोक डी.ए.वी. कॉलेज, श्रीनगर में उपप्रधानाचार्य थे. इस दौरान उन्होंने शरणार्थी रिलीफ कमेटी का गठन किया और

पूरे जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला और पाकिस्तान के षड्यंत्र पूरे उफान पर थे. लेकिन जवाहर लाल नेहरू, शेख अब्दुल्ला की मोहब्बत में गिरफ्तार थे. शेख अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर के डोगरा हिन्दू शासक "राजा हरिसिंह" को हटा कर घाटी में इस्लामी शासन की स्थापना करना चाहते थे. नेहरु भी जाने अनजाने में इसमें अब्दुल्ला का साथ दे रहे थे.

22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया, 25 अक्टूबर 1947 तक दोमेल, मुज़फ़्फ़राबाद, उड़ी, बारामुला और महूरा पर पाकिस्तान का कब्ज़ा हो गया. नेहरु का कहना था कि जबतक राजा हरिसिंह कश्मीर की सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं होंते तब तक कश्मीर को कोई सैन्य मदद नहीं दी जायेगी.

उस समय बलराज मधोक और संघ के गुरु गोलवरकर जी ने ही राजा हरिसिंह को 25 अक्टूबर 1947 को विलयपत्र पर हस्ताक्षर करने को राजी किया था. कश्मीर के भारत में विलय हो जाने के बाद राजासिंह को कश्मीर छोड़ना पड़ा. कश्मीर के मुस्लिम सैनिको ने बगावत कर दी और पापिस्तानी सेना तथा कबायलियों का साथ देने लगे.

संघ संस्कारों की वजह से मधोकजी के भीतर कश्मीर को पापिस्तान से बचाने की अदम्य इच्छा थी. पापिस्तानी सेना ने श्रीनगर हवाई अड्डे को क्षतिग्रस्त करने की कोशिश की थी. 26 अक्टूबर की सर्द रात में संघ ने हवाई पट्टी से बर्फ हटाने का संकल्प लिया. तो मधोक के आग्रह पर उनके कालेज के विद्यार्थी भी स्वयंसेवकों के साथ शामिल हुए थे.

27 अक्टूबर 1947 को भारतीय सेना हवाई जहाजों से श्रीनगर उतरी. सेना ने उड़ी, बारामुला व अन्य क्षेत्र वापस जीत लिए लेकिन नेहरू, माउंटवेटन, शेख अब्दुल्ला और जिन्ना के षड्यंत्रों के चलते नेहरू ने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी और कश्मीर का 40 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तान के हिस्से में ही रह गया.

लेकिन कश्मीर की रक्षा करने के लिए राष्ट्रवादियों को इनाम नहीं बल्कि सजा मिली. शेख़ अब्दुल्ला ने श्रीनगर की गद्दी पर बैठते ही सभी स्वयंसेवकों को गिरफ्तार करने का हुक्म दे दिया. अनेकों स्वयंसेवक मार दिए गए. प्रोफेसर बलराज मधोक और प. प्रेमचन्द डोगरा साहसिक रूप से श्रीनगर से निकल जम्मू पहुचे.

शेख अब्दुल्ला की देशद्रोही हरकतों का सामना करने के लिए उन्होंने 'जम्मू कश्मीर प्रजा परिषद' की स्थापना की. प्रजा परिषद् के सदस्यों ने उस समय कदम कदम पर सेना का साथ दिया. 1949 में उन्होंने संघ के "दत्तोपंत ठेंगडी" जी के साथ मिलकर "अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्" नामक छात्र संगठन की नींव रखी थी.

"अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्" आज दुनिया का सबसे बड़ा छात्र संगठन है. 1951 में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने "अखिल भारतीय जनसंघ" की स्थापना की तो बलराज मधोक भी उसके संस्थापक सदस्य बने. उन्होंने दिल्ली, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में भारतीय जनसंघ के विस्तार और प्रचार का काम किया.

1961 के लोकसभा चुनाव में बलराज मधोक "दक्षिण दिल्ली" सीट से विजय प्राप्त कर संसद में पहुंचे. 1966-67 में वे जनसंघ के अध्यक्ष बने. 1966 भारतीय जनसंघ ने 33 सीटें जीतीं और वह कांग्रेस का मजबूत विकल्प बनकर उभरी, लेकिन दुर्भाग्य से जनसंघ के बड़े नेताओं में आपस में मनमुटाव होने लगा.

पार्टी में एक गुट अटल / अडवानी का तथा दूसरा गुट बलराज मधोक का बन गया. 1973 में उनका आपस का विवाद इतना बढ़ गया कि - तत्कालीन अध्यक्ष लाल कृष्ण अडवानी ने "बाजराज मधोक" को पार्टी से निष्काषित कर दिया. हालांकि पार्टी के कई सीनियर / जूनियर नेता उनके साथ संपर्क में रहे.

इसी बीच 1975 में इंदिरा गांधी ने देश पर जबरन आपातकाल थोप दिया. तब बिना किसी बजह के "बलराज मधोक" को भी 18 महीने के लिए जेल में बंद कर दिया गया. 1977 में सभी गैर कांग्रेसी पार्टियों ने आपस में विलय करके एक नई पार्टी "जनता पार्टी" का गठन किया और इंदिरा गांधी / कांग्रेस को हराने में कामयाब हुए.

बलराज मधोक उस समय भी भारतीय जनसंघ का जनता पार्टी में विलय का बिरोध करते रहे. 1979 में उन्होंने अपनी भारतीय जनसंघ को जनता पार्टी से अलग घोषित कर दिया. उन्होंने अपनी पार्टी को आगे बढाने की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली. अधिकाँश जनसंघी नेता अटल / अडवानी के नेतृत्व वाली "भारतीय जनता पार्टी" से जुड़ गए.

उन्होंने "भारतीय जनसंघ" को "अखिल भारतीय जनसंघ" के नाम से पुर्नजीवित करने का प्रयास किया परन्तु अधिक आयु, बीमारी और आर्थिक तंगी के चलते असफल रहे. धीरे धीरे यह महान राष्ट्रवादी नेता गुमनामी की ओर चला गया. धीरे धीरे लोग उन्हें भूल गए और वे एकाकी जीवन जीने लगे.

2 मई 2016 को 96 साल की आयु में बलराज मधोक अनाम और खामोश मृत्यु को प्राप्त हुए. उनकी म्रत्यु के समय एक तरह से उनके द्वारा बनाई गई पार्टी के लोगों कि ही सरकार थी, मगर उनको वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे वास्तव में हकदार थे. बैसे इसमें कुछ गलती उनकी भी थी जो उन्होंने आपसी विवाद के चक्कर में पार्टी को छोड़ दिया था.

जब आरएसएस ने पापिस्तानियों से श्रीनगर की रक्षा की

15 अगस्त 1947 को अंग्रेजी शासन से देश आजाद होते ही देश दो भागों (पापिस्यान और हिन्दुस्थान) में बंट गया. आजादी की जंग से दूर रहने और जनसंख्या के अनुपात से ज्यादा जमीन मिल जाने के बाबजूद पापिस्तानियों की कश्मीर पर नीयत खराब थी. वे किसी भी तरह से कश्मीर को भी पापिस्तान में मिला लेना चाहते थे.
पापिस्तानी सेना ने कबायलियों के बेश में कश्मीर पर हमला कर दिया और कश्मीर में मारकाट, लूट और बलात्कार शुरू कर दी. उस समय तक कश्मीर का भारत में विलय नहीं हुआ था. कश्मीर के महाराज हरीसिंह ने नेहरु से मदद मांगी तो नेहरु ने साफ़ कह दिया कि - जब तक आप कश्मीर की सत्ता नहीं छोड़ते कोई मदद नहीं दी जायेगी.
नेहरु चाहते थे कि- महाराज हरीसिंह अपने समस्त अधिकार शेख अब्दुल्ला को सौंपकर कश्मीर छोड़ दें. पापिस्तानी हमले के बाद भी नेहरु को कोई चिंता नहीं थी उनका मानना था कि पापिस्तान अगर वहां कब्जा कर भी लेगा तो हम उसे बाद में खाली करा लेंगे लेकिन पहले महाराज हरीसिंह को कश्मीर से हटाया जाए.
कश्मीर के हालात दिन व दिन खराब होते जा रहे थे. कबायलियों और पापिस्तानी सैनिक मारकाट और बलात्कार कर रहे थे. तब कश्मीर की जनता की बदहाली का हवाला देकर गुरु गोल्बलकर और बलराज मधोक ने महाराज हरीसिंह को नेहरु की बात मान लेने पर राजी किया और "26 अक्टूबर सन् 1947" को उन्होंने विलयपत्र पर हस्ताक्षर कर दिए.
विलय पत्र पर हस्ताक्षर होते ही सरदार पटेल ने सेना को कश्मीर की रक्षा के लिए भेजने की इजाजत दे दी और कश्मीर में हवाई मदद भेजने का आदेश दे दिया. लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी. पापिस्तानी सेना और कबायली श्रीनगर के नजदीक पहुँच चुके थे. और वो श्रीनगर हवाई अड्डे पर कब्जा करना चाहते थे.
पापिस्तानी शत्रु बहुत तेजी से श्रीनगर की तरफ बढ़ रहे थे. श्रीनगर के सेना मुख्यालय से दिल्ली को सन्देश भेजा गया कि - "हमें मदद की जरूरत है". इस खबर के बाद दिल्ली के सेना मुख्यालय में भी हडकंप मच गया. हालात का पता चलते ही सरदार पटेल ने एयरफ़ोर्स को किसी भी तरह से श्रीनगर को सैन्य मदद भेजने का आदेश दिया.
दिल्ली सैन्य मुख्यालय ने श्रीनगर सैन्य मुख्यालय को सन्देश दिया - किसी भी तरह उनका मुकाबला करो और ध्यान रहे भले ही शहर पर शत्रु का कब्जा हो जाए, लेकिन किसी भी हाल में हवाई अड्डे पर शत्रु का कब्जा न होने पाए. दिल्ली ने श्रीनगर को कहा कि - हम बहुत जल्द आपके पास हवाई जहाजो द्वारा सैन्य मदद भेज रहे हैं.
श्रीनगर ने कहा - लेकिन हवाईपट्टी पर तो बर्फ जमी हुई है. इसपर दिल्ली ने कहा कि- कुछ भी करके रात में ही बर्फ हटाइये, कहीं से भी मजदूर लाइए, चाहे कितनी भी मजदूरी क्यों न देनी पड़े. श्रीनगर सेना कार्यालय ने कोशिश की कहीं से मजदूर मिल जाएँ मगर शाम का समय हो जाने और युद्ध के माहौल होने कारण मजदूर नहीं मिले.
तब एक सैन्य अधिकारी जो एक पुराने स्वयंसेवक भी थे उन्होंने कहा कि - हमें आरएसएस वालों से बात करनी चाहिए, वे लोग इस काम में हमारी मदद अवश्य करेंगे. श्रीनगर सेना प्रमुख ने इसे भी आजमाकर देख लेने को कहा, हालांकि उनको भी कोई उम्मीद नहीं थी. अधिकारी एक जीप लेकर रात्री 11 बजे संघ कार्यालय के सामने पहुंचे.
संघ कार्यालय में भी उस समय युद्ध के हालात पर, प्रमुख स्वंय सेवकों की बैठक चल रही थी. प्रेमनाथ डोगरा व अर्जुन जीं वही बैठे थें. सेनाधिकारी ने गंभीर स्थिति का संदेश दिया और पूंछा कि - आप बर्फ हटाने के लिए, कहीं से कुछ मजदूरों की व्यवस्था कर सकते हैं ? अर्जुन जी ने पूंछा- आपको कितने व्यक्ति चाहिए ?
सेनाधिकारी ने कहा कि- अगर लगभग डेढ़ सौ मजदूर मिल जाएँ, तो हम सुबह तक बर्फ हटा सकते हैं. सुबह दिल्ली से विमान आने हैं. इस पर अर्जुन जी ने कहा कि - आप गाड़ियों का इंतजाम कीजिए, हम 45 मिनट में आपको लगभग 600 आदमी देते हैं. इस पर वो सैन्यअधिकारी भी आश्चर्य में पड़ गया.
उसने फिर पूंछा - इतनी रात में 600 आदमी ? क्या यह संभव है ? प्रेमनाथ डोगरा जी ने कहां आप हैरान मत होईये, यहाँ से आदमियों को लेजाने के लिए गाड़ियों का इंतजाम कीजिए, ठीक 45 मिनट में आपको 600 आदमी तैयार मिलेंगे. वो सैन्य अधिकारी गाड़ियों का इनजाम करने छावनी वापस चला गया.
थोड़ी देर में संघ कार्यालय पर गाड़ियां पहुँच गई. जब गाड़ियां स्वयंसेवकों को लेकर हवाई अड्डे पर पहुंची तो सैन्य अधिकारी भी उनको देखकर आश्चर्यचकित रह गए. उनमे से कुछ स्वयंसेवकों को सैन्यअधिकारी भी जानते थे. सैन्य अधिकारी ने कहा- ये मजदूर नहीं हैं बल्कि इनमे से कुछ तो डाक्टर, वकील, व्यापारी और DAV कालेज के छात्र है.
तब अर्जुन जी ने कहा आप औजार दीजिये और कार्य का निरीक्षण कीजिए, बाकी किसी बात की कोई चिंता मत कीजिए. वे सभी लोग सैन्य अधिकारियों के निर्देशन में बरफ उठाने के काम में जुट गए. काम शुरू हो जाने और तसल्ली हो जाने के बाद, सैन्य अधिकारी ने दिल्ली को खबर कर दी कि - आप विमान भेज दीजिये.
तब दिल्ली ने भी आश्चर्य से पूंछ - क्या इतनी रात में मजदूर मिल गए. श्रीनगर ने बताया मजदूर तो नहीं मिले, लेकिन आरएसएस के 600 स्वयंसेवक मिल गए हैं, जो जीजान से काम में जुटे हैं. सुबह होने से पहले ही हवाई पट्टी पूरी तरह से साफ़ हो चुकी थी. उसके बाद स्वयंसेवक भी विमानों का इन्तजार करते हुए आराम करने लगे.
27 अक्टूबर की सुबह, सबसे पहले सिख रेजीमेन्ट के 329 सैनिक हवाई जहाज से श्रीनगर में उतरे और उन्होने भी बड़े प्रेम से स्वंयसेवको को गले से लगाया. थोड़ी ही देर में एक एक करके 8 विमान श्रीनगर में पहुँच गए. विमानों में रखे हथियारों और अन्य सामानों को भी स्वयंसेवकों ने उतारकर भण्डार कक्ष तक पहुंचाया.
शत्रु को टुकड़ी को यह उम्मीद ही नहीं थी कि - इस समय किसी बड़ी सेना से सामना होगा. उनको लगता था कि- वहां थोड़े से सैनिक होंगे जिनको मारकर हवाई अड्डे पर आसानी से कब्ज़ा कर लेंगे. लेकिन हमारे सैनिकों ने सभी पापिस्तानी और कबाइली हमलावर मार गिराए. हवाई अड्डा भी बच गया और श्रीनगर भी.
पढ़े लिखे डाक्टर्स, वकील, अध्याक, व्यापारी, आदि उस सर्द रात में मजदूरों की तरह बर्फ हटाने का काम कर रहे थे. एक सैन्यअधिकारी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि - सेना का तो बड़े से बड़ा अधिकारी जरूरत पड़ने पर छोटे से छोटा काम भी करता है, लेकिन कोई सिविलियन भी ऐसा कर सकता है, हम यह सोंच भी नहीं सकते.
उसके बाद हवाई पट्टी को चौड़ी करने का काम शुरू हुआ. तब तक सेना ने भी अपने सैनको और मजदूरों की व्यवस्था कर ली. उसके बाबजूद स्वयंसेवकों ने सेना को अपना भरपूर सहयोग दिया. उन स्वयंसेवकों की बजह से ही उस रात हवाई अड्डे और श्रीनगर को बचाया जा सका था. ऐसे देशभक्तों को कोटि कोटि नमन.
घटना के बाद "सरदार पटेल" ने "गुरु गोलवलकर" जी को पत्र लिखकर धन्यवाद भी दिया था. उन्होंने लिखा था कि - इस में कोई शक नहीं है कि संघ ने हिंदू समाज की बहुत सेवा की है. जिन क्षेत्रों में मदद की आवश्यक्ता थी उन जगहों पर आपके लोग पहुंचे और श्रेष्ठ काम किया है. मुझे लगता है इस सच को स्वीकारने में किसी को भी आपत्ति नहीं होगी"

भारतीय सेना ने अगले तीन चार दिन में पापिस्तान द्वारा कब्जा किये गए इलाके खाली करा लिए. लेकिन नेहरू, माउंटवेटन, शेख अब्दुल्ला और जिन्ना के षड्यंत्रों के चलते नेहरू ने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी और कश्मीर का 40 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तान के हिस्से में ही रह गया.

शेख अब्दुल्ला को जम्मू -कश्मीर का प्रधानमंत्री (उस समय कश्मीर के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री ही कहा जाता था) बना दिया गया, जिन आरएसएस के स्वयंसेवकों के कारण कश्मीर की रक्षा हुई थी, शेख अब्दुल्ला द्वारा उनको ही सबसे ज्यादा प्रताड़ित किया गया. जिस कार्य के लिए उन्हें ईनाम मिलना चाहिए था , उसकी उनको सजा मिली.

तीन माह बाद 30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या हो गई. झूठे शक (या नेहरु की साजिश) के आधार पर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. कश्मीर में शेख अब्दुल्ला सरकार द्वारा विभिन्न बेबुनियाद इल्जामो में स्वयंसेवकों को गिरफ्तार किया जाने लगा. अनेकों स्वयंसेवकों को मारकर खाइयों में फेंक दिया गया.

DAV पोस्ट ग्रेजुएट कालेज के उपप्रधानाचार्य बलराज मधोक, जिनके कहने पर कालेज के छात्रों ने सर्द रात में हवाई पट्टी से बर्फ हटाने का काम किया था, उन बलराज मधोक की भी हत्या की कोशिश की गई. तब किसी प्रकार से  बलराज मधोक और प्रेमनाथ डोगरा अपनी जान बचाकर "जम्मू" पहुँचने में कामयाब रहे.

नेहरु ने कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दे दिया था. उसका मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री कहलाता था, कश्मीर का अलग झंडा था, उनके ऊपर भारत का संविधान भी लागू नहीं होता था. तब एक और संघी, भारतीय जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आनोलन किया और नारा दिया "नहीं चलेंगे एक देश में - दो प्रधान - दो विधान - दो निशान"

इस आन्दोलन के कारण डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को गिरफ्तार कर लिया गया जहाँ हिरासत में उनकी रहस्यमयी म्रत्यु हो गई . अधिकाँश लोग मानते  है कि - उनकी मौत प्राकर्तिक नहीं बल्कि हत्या थी जिसके सूत्रधार शेख अब्दुल्ला और नेहरु थे.  अब आपको समझ आ चूका होगा कि - वास्तव में कश्मीर की समस्या नेहरु और शेख अब्दुल्ला की ही देन है. 

1947 से लेकर आजतक संघ के स्वयंसेवक अपना बलिदान देकर कश्मीर की रक्षा करते आये हैं.    सदा वत्सले मातृभूमे

Sunday, 10 February 2019

सरस्वति घाटी सभ्यता

 पश्चिमी इतिहासकारों ने सरस्वति घाटी सभ्यता को, सिन्धु घाटी सभ्यता का नाम क्यों और किस उद्देश्य से दिया यह तो वही बता सकते हैं लेकिन यह बात अब निर्विवाद रूप से साबित हो चुकी है कि - सरस्वति नदी रोपड़, पेहोवा, कालीबंगा, कच्छ की रण होते हुए अरब सागर में गिरती थी. वैदिक काल से ही सरस्वति नदी एक पवित्र नदी मानी गई है.
सरस्वति नदी का संगम कभी भी गंगा/ यमुना के साथ नहीं हुआ था. सरस्वति नदी के सूख जाने के बाद, सरस्वति घाटी के लोग भी गंगा यमुना की घाटी में पलायन कर गए. शायद सरस्वति घाटी में रहने वालों की मानसिक संतुष्टि के लिए यह मान्यता प्रचलित की गई, आप लोग निराश न हों, आपकी सरस्वति नदी भी अंडरग्राउंड संगम में मिल गई है.
जिन स्थानों पर प्राचीन नगरों और सभ्यताओं के अवशेष मिले हैं, उन बिन्दुओं के बीच रेखा खींचने से जो मार्ग प्राप्त होता है उसे ही सरस्वति नदी माना जा सकता है. प्राचीन समय में जितनी भी सभ्यताएं फैली या जितने भी नगर बसे वे सभी नदी किनारे बसे थे क्योंकि एक बड़ी आबादी का पालन बिना जल की पर्याप्त मात्रा के होना असंभव है.
पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा खोजे गए बिन्दुओं और पौराणिक घटनाओं का अध्ययन करने से भी सरस्वति नदी के इसी मार्ग की पुष्टि होती है. महाभारत के युद्ध के लिए भी, बिशाल मैदान तथा पर्याप्त पानी के लिए सरस्वति नदी को देखकर ही कुरुक्षेत्र का मैदान युद्ध के लिए चुना था और युधिष्ठिर ने मृतकों का तर्पण भी पेहोवा में सरस्वति नदी में किया था.
सिंधु घाटी सभ्यता का काल जहां 3000 ईसा पूर्व से 1500 ईसा माना जाता है, वहीं पुरातात्विक साक्ष्यों की कार्बन तिथि निर्धारण द्वारा सरस्वती नदी सभ्यता का काल 7500 ईसा पूर्व तक निर्धारित हो चुकी है. "इतिहास" केवल एक विषय ही नहीं, बल्कि किसी राष्ट्र की पहचान भी होता है. इसलिए इसकी सत्यता को जानना आवश्यक है.
यह बात पुरातात्विक सर्वेक्षणों से प्रमाणित हो चुकी है कि - भारत में प्रथम सभ्यता का उदय सिंधु नदी घाटी में नहीं अपितु सरस्वती नदी घाटी में हुआ था. सरस्वती नदी के तट पर 200 से अधिक छोटे / बड़े नगर बसे थे. इस कारण इसे 'सिंधुघाटी की सभ्यता' कहने के स्थान पर 'सरस्वति नदी की सभ्यता' ही कहना चाहिए.
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आजकल कुछ शोधकर्त्ता "भागीरथ के गंगा अभियान" और "देव दानवों द्वारा समुद्र मंथन" जैसी पौराणिक कथाओं को आधार बनाकर भी गंगा यमुना सरस्वति नदियों पर शोध कर रहे हैं. आधुनिक खोज और पौराणिक कथाओं में सामनजस्य बिठाकर उनका तुलनात्मक अध्ययन कर नए तथ्य खोजे जा रहे हैं.
कुछ शोधकर्त्ताओ को ऐसा लगता है कि यमुना और सरस्वति प्राचीन नदियाँ थीं. यमुना यमुनोत्री से निकल कर दिल्ली, मथुरा, प्रयाग, पटना, ढाका होते हुए बंगाल की खाड़ी में गिरती थी, बंगलादेश के काफी इलाके में गंगा को आज भी जमुना कहा जाता है. सरस्वति शिवालिक की पहाड़ियों से निकलकर रोपड़, पेहोवा, कालीबंगा, कच्छ की रण, होते हुए अरब सागर में गिरती थी.
समय के साथ साथ दोनों नदियों में जल की कमी हो गई और इन नदियों के किनारे रहने वाले लोग पानी की कमी की बजह से मरने लगे. पानी की कमी को पूरा करने के उद्देश्य से भागीरथ के दादा "सगर"ने गंगा को हिमालय से लाकर यमुना में मिलाने का अभियान शुरू किया, जिसमे दो पीढ़ी बाद भागीरथ को सफलता मिली.
इसी घटना को वे समुद्र मंथन से भी जोड़ने का प्रयास करते हैं. उनके अनुसार यमुनानदी के किनारे रहने वालों को इस अभियान में जब अकेले सफलता नहीं मिली तो इसमें सरस्वति नदी के किनारे रहने वालों को भी शामिल किया गया. दोनों ने मिलकर अभियान को अंजाम दिया लेकिन जलधारा सरस्वति के बजाय यमुना की तरफ मोड़ दी गई.
इस घटना के बाद दोनों में युद्ध प्रारम्भ हो गया और शान्ति बनाए रखने के उद्देश्य से सरस्वति नदी के किनारे वालों को भी गंगा / यमुना की घाटी में रहने को स्थान दिया गया और यह मान लिया गया कि सरस्वति नदी भी अंडरग्राउन्ड प्रयाग में आकर संगम में मिल जाती है. उसके बाद सरस्वति घाटी के लोग भी गंगा/यमुना की घाटी में ही बस गए.
सरस्वति घाटी वालों के द्वारा अपने इलाके छोड़ देने के बाद वह इलाके इतिहास में दफ़न हो गए. कहानी और शोध में समानता होने के बाबजूद बहुत सारी ऐसी बातें हैं जो आपस में मेल नहीं खाती हैं, इसलिए इस सिद्धांत को अपनाया नहीं जा सकता. यह तथ्य सत्य प्रतीत होने के बाबजूद प्रामाणिक नहीं हैं, इसलिए अभी काफी रिसर्च की आवश्यकता है.
फिर भी कुछ शोधकर्ता मानते है कि - घटना ऐसे ही घटी होगी, लेकिन कवियों और कथाकारों ने उसमे अनेकों अतिश्योक्ति पूर्ण घटनाएं जोड़ दी होंगी. इस लेख में दिए गए तथ्यों को आधार बनाकर शोध में आप भी अपना योगदान देने का प्रयास कीजिए. इसके लिए पौराणिक कथाओं के अध्ययन से लेकर इन क्षेत्रों में भ्रमण और पुराने परिणामो की समीक्षा करें.
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यमुना और सरस्वति भारत की दो प्राचीन नदियां है और इनके किनारे ही सभ्यता विकसित हुई. यमुना और सरस्वति के बीच का क्षेत्र प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति का केंद्र बिंदु रहा है. यह क्षेत्र आज का हरियाणा है. कहा जाता है कि - जल प्रलय के बाद महाराजा मनु ने बचे हुए लोगों को लेकर फिर से इसी क्षेत्र में बसाया था.
जल प्रलय को लेकर आज के वैज्ञानिक भी यही मानते हैं कि - भयानक भूकंप के कारण हिमालय पर ग्लेशियर टूटे होंगे जिसके कारण सरस्वति, यमुना, घाघरा, आदि बड़ी नदियों में एक साथ भयानक बाढ़ आई होगी जिसमे उत्तराखंड / उत्तर प्रदेश में प्राचीन नदियों के किनारे बसे शहर डूब गए होंगे और बहुत ही जान माल की हानि हुई होगी.
उस समय महाराज मनु ने बचे हुए लोगों को यमुना पार कराकर हरियाणा के ऊँचे स्थानों पर रखा और दोबारा उनका जीवन पटरी पर लाये. ऐसा माना जाता है कि - मनु स्मृति की रचना भी उन्होंने कुरुक्षेत्र में की. कुरुक्षेत्र का अर्थ केवल कुरुक्षेत्र जिला या कुरुक्षेत्र विधानसभा क्षेत्र नहीं बल्कि वर्तमान कुरुक्षेत्र का 48 कोस (60km) लम्बा और 48 कोस चौड़ा पूरा क्षेत्र है.
भूकंप के बाद बाढ़ आई और बाढ़ के बाद नदिया सूख गई तब भागीरथ द्वारा हिमालय को काटकर गंगा को मैदान में लाया गया. जिसमे यमुना और सरस्वति के किनारे रहने वालों ने भी सहयोग दिया. परन्तु गंगा का जल सरस्वती में न आ सका और उसके बाद सरस्वति घाटी सभ्यता विलुप्त होती चली गई और गंगा - यमुना के मैदान हरे भरे हो गए.







Tuesday, 5 February 2019

महाराजा सूरजमल जाट


भरतपुर के महान राजा "सूरजमल" का जन्म 13 फरवरी 1707 को हुआ था. सूरजमल के पिता बदन सिंह जयपुर के राजा जयसिंह के सूबेदार थे. उस समय भरतपुर जयपुर राज्य का हिस्सा था. भरतपुर खूंखार मेवो का आतंक था, जिनका धर्म इस्लाम था. लूटपाट उनका मुख्य धंधा था. राजा जयसिंह ने बदन सिंह से भरतपुर को मेवों के आतंक से मुक्त कराने को कहा.
सूबेदार बदन सिंह ने अपने किशोर बेटे सूरजमल और अपने एक निकट सम्बन्धी ठाकुर सुलतान सिह को सेना की टुकड़ी के साथ भरतपुर भेजा. "सूरजमल" ने मेवो के आतंक को ख़त्म करने के लिए जिस बहादुरी और चतुराई का परिचय दिया और खुद आगे बढ़कर सैनिको का नेतृत्व किया उसकी बजह से वह सैनिको में बहुत लोकप्रिय हो गए.
भरतपुर को मेवो से मुक्त कराने के बाद जब वे जयपुर पहुंचे तो, महाराजा जयसिंह ने खुश होकर बदन सिंह को भरतपुर का राजा घोषित कर दिया. भरतपुर उस समय ऊंचा-नीचा, पहाडी, पथरीला और उजाड़ इलाका था. उसको बसाने का पूरा श्रेय बदन सिंह और उनके बेटे सूरजमल को जाता है. बदन सिंह ने 1733 एक किले का निर्माण शुरू कर दिया.
इसी बीच राजा बदन सिंह की आँखों की रौशनी बहुत कमजोर हो गई, तब राजा बदन सिंह ने अपने योग्य बेटे सूरजमल को भरतपुर का राजा घोषित कर दिया. राजा सूरजमल वीर और बुद्धिमान के साथ पितृभक्त थे. वे अपना हर निर्णय अपने पिता की सलाह से लेते थे. सूरजमल इ नेतृत्व में भरतपुर शीघ्र ही समर्थ और शक्तिशाली राज्य बन गया.
महाराजा जयसिंह के साथ साथ जयपुर की जनता भी बदनसिंह और सूरजमल को बहुत स्नेह और सम्मान देती थी. औरंगजेब की म्रत्यु के बाद कमजोर हुए मुघलों से भारत को आजाद कराने के लिए महाराजा सवाई जयसिंह भी प्रयत्नरत थे. उन्होंने मुघलो से टक्कर लेने वाले मराठों और राजस्थान ने अन्य राजाओं को भी एकजुट करने का काम किया.
1743 में माराजा सवाई जयसिंह की म्रत्यु हो गई. उनके दो पुत्र थे ईश्वरी सिंह और माधोसिंह. ज्यादातर राजपूत रियासतों ने भी माधोसिंह को राजा बनाने का समर्थन किया, लेकिन बदन सिंह ने ईश्वरी सिंह का समर्थन किया और सूरजमल से ईश्वरी सिंह का साथ देने को कहा. सूरजमल अपनी बहादुरी के दम पर ईश्वरी सिंह को जयपुर का राजा बनवा दिया.
ईश्वरी सिंह के राजा बनने से जितना नाम ईश्वरी सिंह को मिला उससे कहीं ज्यादा नाम सूरजमल का हुआ, क्योंकि सूरजमल ने बड़े बड़े धुरंधरों का बिरोधकर ईश्वरी सिहं को राजा बनाया था. इस घटना के बाद महाराजा सूरजमल का डंका पूरे भारत देश में बजने लगा. देश के अन्य राजा भी राजा सूरजमल को पूरा महत्त्व देने लगे.
अब राजा सूरजमल ने अपने राज्य भरतपुर का विस्तार करने का निर्णय लिया. औरंगजेब की म्रत्यु के बाद जब मुघल कमजोर पड़ गए थे तब उन्होंने इसका लाभ उठाकर धौलपुर, आगरा, मैनपुरी, अलीगढ़, हाथरस, इटावा, मेरठ, रोहतक, मेवात, रेवाड़ी, गुडगांव और मथुरा को मुघलों के चंगुल से से आजाद करा लिया था.
अफगानिस्तान के सुल्तानअब्दाली ने भारत पर कई आक्रमण किये और हर आक्रमण में केवल महाराजा सूरजमल ने ही उसका प्रतिरोध किया.1757 में अब्दाली के सबसे घातक हमले के समय महाराजा सूरजमल के अलावा कोई भी राजा अब्दाली का सामना करने नहीं आया. अब्दाली के उस आक्रमण में दिल्ली, मथुरा, आगरा में बहुत कत्लेआम हुआ.
कई लड़ाइयों के बाद महाराजा सूरजमल ने दिल्ली के नजदीक फिरोजशाह कोटला तक अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ा लिया था. उन दिनों दक्षिण में मराठों का प्रभाव बढ़ता जा रहा था. मराठों ने भी भारत के बहुत बढे भूभाग को मुघलों से आजाद करा लिया था. मराठों का भी नजर दिल्ली पर थी. क्योंकि दिल्ली का राजा ही भारत का राजा माना जाता था.
महाराजा सूरजमल को खबर लग चुकी थी कि-अहमद शाह अब्दाली भारत पर एक और भीषण हमले की तैयारी कर रहा है तब उन्होंने सोंचा कि - यदि राजपूत, मराठा और जाट अगर एक साथ मिलकर उसका सामना करें तो न केवल अब्दाली को हराया जा सकता है बल्कि सम्पूर्ण भारत को भी मुग़लों से आजाद कराया जा सकता है,
दो शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्यों मराठों और जाटों में संधि होने से यह लगा कि- अब बहुत जल्द हिन्दुस्थान मुस्लिम आक्रांताओं से आजाद हो जाएगा परन्तु भारत के दुर्भाग्य ने यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा। मराठों और जाटो में संधि हो जाने के बाबजूद महाराजा सूरजमल और मराठा सरदार सदाशिव भाऊ में सम्बन्ध बहुत अच्छे नही हो सके.
सदाशिव भाऊ बहुत ही महान योद्धा और रणनीतिकार थे लेकिन इन अच्छाइयों के बाबजूद उनमे अहंकार, तुनकमिजाजी और अति-आत्मविशवास जैसी बुराइयां भी थी. उनको यह अति-आत्मविशवास था कि अब्दाली को तो हरा ही लेंगे और इसके लिए उनको किसी की जरूरत नहीं और वे इस बात को बार बार जताते भी रहते थे
उम्र और अनुभव में अधिक होने के बाबजूद सदाशिव भाउ, महाराजा सूरजमल की सलाहों को नजर अंदाज करते थे. उनके बीच कडवाहट कई बार सामने आई. 1760 में मथुरा में घूमते हुए "नवी मस्जिद" को देखकर "भाऊ" ने "सूरजमल" पर तीखा कटाक्ष किया था - मथुरा इतने दिन से आपके कब्जे में है, फिर आप इस को नहीं हटा सके.
दिल्ली पर संयुक्त हिन्दू सेना कब्जा हो जाने के बाद भाऊ ने लाल किले के दीवाने-खास की चांदी की छत को गिरवाने का हुक्म दिया। इस पर भी सूरजमल ने भाऊ से कहा कि - इस समय हमारा लक्ष्य केवल अब्दाली को हराना होना चाहिए। लखनऊ और बिजनौर के नवाव इस्लाम के नाम पर भारत के मुसलमानो को अब्दाली का साथ देने को कह रहे हैं.
जिन बातों से स्थानीय मुसलमानो की भावनाये जुडी हैं हमें फिलहाल उन चीजों से दूर रहना चाहिए। आप मुझ से पांच लाख रुपये ले लो, पर इसे मत तोड़ो, पर भाऊ नहीं माने और छत को तुडवा दिया. इसी प्रकार महाराजा सूरजमल चाहते थे कि युद्ध को कम से कम दो माह तक टाला जाये। उनका मानना था सर्दी मराठाओं को ज्यादा दिक्कत होगी।
एक बार सूरजमल अब्दाली की ताकत और सैन्य क्षमता के बारे में बता रहे थे तो भाऊ को ऐसा लगा कि- सूरजमल अब्दाली की विशाल सेना से डर रहे हैं और पीछे हट रहे हैं तो भाऊ ने सूरजमल से कह दिया कि- मैं इतनी दूर दक्षिण से आपकी ताकत के भरोसे पर यहां नहीं आया हूं. अगर तुम लड़ना नहीं चाहते तो मत लड़ो लेकिन हम अब्दाली को रोकेंगे.
कहा जाता है कि- राजा सूरजमल को भाऊ की यह बात बहुत बुरी लगी और उन्होंने मराठा सेना का साथ देने से इनकार कर दिया. उनका यह मनमुटाब भारत के लिए खतरनाक साबित हुआ. जहाँ भारत की मुश्लिम रियासते इस्लाम के नाम पर अब्दाली का साथ दे रहीं थी वाही हिन्दू राजा आपसी मनमुटाव के चककर में अलग अलग हो गए.
राजा सूरजमल के हट जाने से उत्तर भारत के कई अन्य राजा भी संयुक्त हिन्दू सेना से दूर हो गए. यहाँ के हालात, मौसम, रास्तों से परिचित न होने के कारण 14 जनवरी 1761 को पानीपत में मराठा सेना की कारारी हार हुई. राजा सूरजमल ने भले ही पानीपत के मैदान में अब्दाली का मुकाबला नहीं किया था लेकिन वे दिल से मराठाओ के साथ थे.
मराठों की हार से उनको भी बहुत दुःख था. इसलिए उन्होंने हारी हुई मराठा सेना के घायल और बदहाल सैनिको को अपने यहाँ भोजन और शरण दी. उनको धन देकर अपने घर जाने में भी उन्होंने काफी मदद की. यही बजह थी कि भाउ और सूरजमल के बीच हुए मनमुटाव के बाबजूद, बाद में भी मराठा और जाट एक दूसरे का हर तरह से साथ देते रहे.
इधर पानीपत की जीत के बाद अहमद शाह अब्दाली, मुहम्मदशाह की पुत्री के साथ स्वयं का तथा आलमगीर द्वितीय की पुत्री के साथ अपने पुत्र का विवाह करके और रोहिल्ला नबाब नजीब खान को भारत में अपना सर्वोच्च प्रतिनिधि नियुक्त करके वह कन्धार लौट गया”. अब्दाली के जाने के बाद फिर सूरजमल ने दिल्ली को जीतने का अभियान प्रारम्भ किया.
सूरजमल ने एक बार फिर दिल्ली के आसपास तक का क्षेत्र मुघलों से आजाद करा लिया. गाजियाबाद पर आक्रमण के समय वे 25 दिसम्बर 1763 की सुबह को हिंडन नदी के तट पर टहल रहे थे तभी झाड़ियों में छुपे नजीबुद्दौला के आदमियों ने धोखे से उनकी हत्या कर दी. अपनी वीरता और साहस के लिए वे सदैव याद किये जाते रहेंगे.
महान राजा सूरजमल का सारा जीवन हिन्दुस्थान को आजाद कराने के लिए समर्पित रहा. महाराजा सूरजमल की धोखे से की गई हत्या की बात सुनकर मराठों को भी बहुत आघात पहुंचा। मराठों ने गंगापार बिजनौर जाकर नवाब नजीबुद्दौला का सर काटकर यह साबित किया कि- पानीपत में जो हुआ वह दुर्भाग्यपूर्ण था लेकिन मराठा आज भी जाटों के साथ हैं.

Monday, 4 February 2019

कायमखानी और कायमखान

मैं बर्षों से "कायमखानी" जाति के कुछ मुस्लिम्स को फेसबुक पर देख रहा हूँ कि - वे लोग "कायमखानियों" की वीरता का खूब बखान करते रहते है और बताते हैं कि सेना में उनकी अलग से "कायमखानी रेजीमेंट" है. "कायमखानियों" की वीरता का गुणगान करते समय यह लोग अन्य सभी जातियों के लोगों का निरादर तक करने लग जाते हैं.
मेरा हमेशा यह मानना है कि- कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के कारण महान नहीं होता है, केवल किसी की व्यक्तिगत उपलब्धि ही उनको महान बनाती है. सेना में हर जाति और क्षेत्र के लोग है और उन्होंने जो कुछ भी किया है वो अपने देश के लिए किया है और यही उनकी ड्यूटी भी थी जिसके लिए देश के नागरिक उनको धन और सम्मान देते है.
"कायमखानियों" की वीरता का बखान सुनने के बाद मैंने इसकी वास्तविकता जानने का प्रयास किया. तो पता चला कि - भारतीय सेना में "कायमखानी रेजीमेंट" नाम की कोई रेजीमेंट है ही नहीं. कायमखानी तो क्या किसी भी मुस्लिम नाम की कोई रेजीमेंट नहीं है. फिर सोंचा कि शायद इन लोगों ने अन्य रेजीमेंट में रहते हुए कोई बड़ा काम किया हो.
सेना में असाधारण बहादुरी दिखाने वाले सैनिको को उनकी वीरता के हिसाब से परमवीर चक्र, महावीर चक्र, वीर चक्र, अशोक चक्र, कीर्ति चक्र, शौर्य चक्र, आदि प्रदान किये जाते हैं. उनकी लिस्ट खंगालने पर भी मुझे केवल एक कायमखानी "अय्यूब खान" का नाम मिला जिनको युद्ध में बहादुरी के लिए तीसरी श्रेणी का अवार्ड "वीर चक्र" मिला है.
तो आखिर ये लोग किस आधार पर कायमखानियों की वीरता का बखान करते रहते हैं.  इनका यह भी कहना है कि - कायमखानी जाति एक लड़ाका कौम है. तो अपने गाँव में अन्य जातियों के ऊपर दबंगई दिखाना कोई वीरता नहीं होती है बल्कि उसे गुंडागर्दी कहते हैं. मार्शल या लड़ाका कौम तो उनको कहते हैं जो देश के लिए लड़ते हैं.
मैंने कायमखानियों के स्वयंभू प्रवक्ताओ से भी पूंछा कि - स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले तथा आजादी के बाद भारत पर आक्रमण करने वाले, दुश्मन देशों से युद्ध में असाधारण वीरता दिखाने वाले कुछ कायमखानियो के बारे में बताने की कृपा करें तो यह लोग, बताने के बजाय अभद्र भाषा बोलकर बिषय बदलने लगते हैं.
कायमखानियो का और ज्यादा पता लगाने की कोशिश की तो भी मुझे भारत के इतिहास में किसी भी ऐसे कायमखानी का कोई पता नहीं चल सका जिसने पिछले सैकड़ों साल में, देश के लिए कोई उल्लेखनीय योगदान दिया हो. यह स्वयंभू प्रवक्ता भी किसी कायमखानी वीर के बारे में कुछ नहीं बता पाए.
 मैंने पता लगाने की कोशिश की कि आखिर यह कायमखानी कौन हैं. तो पता चला कि - यह लोग भी भारतीय मूल के ही चौहान जाति के लोग हैं, जिन्होंने तुगलक के आक्रमण के समय, आक्रमणकारियों का मुकाबला करने के बजाय, उन आक्रमणकारियों का साथ दिया था तथा अपने धर्म को छोड़कर इस्लाम को अपना लिया था. 
यह लोग हिन्दू क्षत्रीय थे मगर मुसलमान बन गए. ददरेवा गाँव (चुरू) के राजा मोटाराव चौहान का बेटा था करम चन्द चौहान, जिसने धर्म छोड़ कर इस्लाम को अपना लिया था और अपना नाम रख लिया था कायमखान.  एक बात समझ नहीं आती उसके बच्चे खुद को कायम खानी कहते थे ठीक था, लेकिन रियासत का हर बच्चा कायमखानी कहलाने लगा. 
 खुद को मार्शल कहने के बाबजूद, कभी भी इन कायमकहानियों  ने अत्याचारी मुघलो या अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ  आवाज नहीं उठाई. कायमखान की सेना कायमखानी सेना कहलाती थी. अंग्रेजों ने जरूर इनको मार्शल कहकर इनका खूब फायेदा उठाया और इनका भारतीय क्रांतिकारियों के खिलाफ भरपूर  इस्तेमाल किया. 
कायमखानी अपने आपको चाहे कुछ भी बताएं लेकिन उनकी सारी ताकत हमेशा अपने हिन्दुस्थानी भाइयों के खिलाफ ही इस्तेमाल हुई, न कि विदेशी हमलावरों के खिलाफ. अंग्रेजो के राज में भी कायमखानी लोग अंग्रेजों की सेना में थे और अपने अंग्रेज मालिकों के आदेश पर क्रांतिकारियों पर गोली चलाया करते थे .

Sunday, 3 February 2019

वीर ताना जी और सिंहगढ़ विजय

 सिंहगढ़ (शेर का किला) एक प्राचीन किला है. हालांकि इस किले का वास्तविक नाम "कोंढाणा" है. यह किला महारष्ट्र के पुणे शहर 30 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है. ये किला राजगढ़, पुरन्दार और तोरणा रेंज में स्थित है. यूँ तो यह किला सदियों से अनेकों युद्धों का साक्षी रहा है परन्तु 4 फरवरी 1670 का युद्ध बहुत ही यादगार युद्ध माना जाता है.
वीरमाता जीजाबाई और समर्थ गुरु रामदास के कुशल मार्गदर्शन में शिवाजी महाराज का महाराष्ट्र में प्रभाव् बढ़ता जा रहा था. वीरमाता जीजाबाई का "कोंढाणा" दुर्ग से भावनात्मक लगाव था. एक दिन उन्होंने शिवाजी से कहा मुझे "कोंढाणा दुर्ग" चाहिए. शिवाजी ने माता के चरण छूकर कहा - आपकी आज्ञा का अवश्य पालन होगा.
शिवाजी जानते थे इस दुर्ग को जीतना आसान काम नहीं है. उन्होंने अपने बचपन के साथी "वीर तानाजी को सन्देश भेजा. परन्तु तभी शिवाजी को याद आया कि- कुछ ही दिन में उनकी बेटी की शादी होने को है और वे उसकी तैयारियों में व्यस्त होंगे, तो उनको बहुत ग्लानी महसूस हुई और उन्होंने तानाजी को मना करने के लिए दूसरा संदेशवाहक भेजा.
सन्देश मिलते ही तानाजी और उनके भाई शिवाजी महाराज से मिलने को चल पड़े. तब तक दूसरा सन्देशवाहक भी उनके पास पहुँच गया और उसने कहा- महाराज ने कहा है कि- आप शादी की तैयारी करें, अभी न आये. तब तानाजी ने कहा - मैं अवश्य जाऊँगा. अगर शिवाजी महाराज ने याद किया है तो अवश्य ही कोई महत्वपूर्ण कार्य होगा.
तानाजी और सूर्याजी फौरन शिवाजी महाराज के पास पहुंचे. शिवाजी ने बताया कि- माता की इच्छा है कि- "कोंढाणा" के दुर्ग पर भगवा लहराना चाहिए. तब तानाजी ने कहा कि- मैं बचन देता हूँ कि - कल सुबह "कोंढाणा" पर भगवा लहरा रहा होगा. तानाजी और उनके भाई सूर्याजी ने 1000 सैनिको की फ़ौज ली और किले के पीछे पहुँच गए.
उनको पता था कि- किले में लगभग 5000 मुस्लिम सैनिक मौजूद है लेकिन किले के पीछे बिलकुल सीधी चट्टान है थी अतः उस तरफ विशेष पहरा नहीं रहता, क्योंकि उस पर चढ़ना असंभव है. तानाजी के पास एक पालतू गोह (एक तरह की बड़ी सी छिपकली) थी जिसका नाम था "यशवंती". उन्होंने उस प्रशिक्षित गोह को एक रस्सी पकड़ाकर, उसे ऊपर बांधकर जाने को कहा.
"यशवंती" गोह वह रस्सी मुह में दबाकर सीधी दीवार पर चढ़ गई और ऊपर जाकर मजबूत बुर्जी को फेरा देकर नीचे आ गई. इस प्रकार "यशवंती" गोह ने कई रस्से ऊपर पहुंचा दिए. उन रस्शों के सहारे कुछ सैनिक बड़ी खामोशी के साथ किले पर चढ़ गए और उन्होंने कई सारे और रस्से मजबूत स्थानों पर बांधकर नीचे लटका दिए.
उन रस्सों की सहायता से तानाजी लगभग 300 सैनिको के साथ किले के ऊपर पहुँच गए और सूर्याजी ने 700 सैनिको के साथ किले के बाहर मोर्चा सम्हाल लिया. भीषण युद्ध प्रारम्भ हो गया. 1000 मराठा योद्धाओं ने मुघल सैनिको को मारकर, किला जीत लिया. वीर तानाजी बुरी तरह घायल हो गए थे परन्तु स्वर्ग को सिधारने से पहले खुद भगवा फहराया.
शिवाजी को इसकी खबर मिली, तो वे अपनी माता जीजाबाई के पास पहुंचे. उनको मुह लटकाए देखकर जीजाबाई ने पूंछा - गढ़ का क्या हुआ ? शिवाजी ने उनको जबाब दिया - "गढ़ आला. पण सिंहा गेला” अर्थात- किला तो जीत लिया मगर शेर (ताना जी) नहीं रहे. तबसे "कोंढाणा" का किला "सिंहगढ़" के नाम से विख्यात हो गया.
इस किले के भीतर "वीर तानाजी" और शिवाजी महाराज के एक पुत्र "राजाराम जी" की समाधि बनी हुई है. किले में काली माँ और हनुमान जी की भव्य मूर्ति है जिनको इस किले का रक्षक माना जाता है. यह किला "खादकवासला : राष्ट्रिय सुरक्षा अकैडमी" का ट्रेनिंग स्थल भी है. इस किले में मांस मदिरा पूरी तरह से बर्जित है.
कहा जता है कि- अंग्रेजों ने हिन्दुओं की मान्यताओं को नकारते हुए किले में शराब की भट्ठी बनाई थी और गौ हत्या भी की. परन्तु अचानक कुछ ऐसी घटनाएं / दुर्घटनाए हुई कि- अंग्रेजो ने भी किले में मांस / मदिरा पर प्रतिबन्ध लगा दिया और शराब भट्ठी को बंद कर दिया. शराब की उस भट्ठी के अवशेष आज भी किले में मौजूद हैं.