Wednesday, 9 January 2019

बरीन्द्र कुमार घोष

बरीन्द्र कुमार घोष का जन्म 5 जनवरी 1880 को हुआ था. उनके पिता कृष्णनाधन घोष एक प्रतिष्ठित चिकित्सक थे और उनकी माता "स्वर्णलता देवी" प्रसिद्ध समाज सुधारक व विद्वान् राजनारायण बसु की पुत्री थीं. महान अध्यात्मवादी "अरविन्द घोष" उनके बड़े भाई तथा भूपेन्द्र नाथ दत्त (स्वामी विवेकाननद के छोटे भाई) उनके मित्र थे.
बरीन्द्र घोष की स्कूली शिक्षा देवगढ में हुई. उन्होंने बरोड़ा में मिलिट्री ट्रेनिंग भी ली. बड़े भाई श्री अरविन्द घोष के बिचारों से प्रभावित होकर उनका झुकाव क्रांतिकारी आन्दोलन की तरफ हो गया.1902 में बारीन्द्र कलकत्ता वापस आये और यहा उनकी मित्रता "यतीन्द्रनाथ मुखर्जी" (बाघा जतिन) के साथ हो गई.
अंग्रेजों के भारतीयों पर जुल्म देखकर उन्होंने निर्णय लिया कि अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए युवाओं का एक संगठन बनाना होगा. उन्होंने 1903 में "अनुशीलन समिति" नाम के संगठन की स्थापना की. प्रमथ नाथ मित्र इसके अध्यक्ष, चितरंजन दास व अरविन्द घोष इसके उपाध्यक्ष और सुरेन्द्रनाथ ठाकुर इसके कोषाध्यक्ष थे.
इसकी कार्यकारिणी की एकमात्र महिला सदस्य सिस्टर निवेदिता थीं. इसका प्रारूप प्रारम्भ में केवल एक व्यायामशाला की तरह था. यहाँ लोग कसरत करते और विभिन्न बिषयों पर चर्चा करते थे. सदस्यों को लाठी, तलवार और बन्दूक चलने ली ट्रेनिंग दी जाती थी, हालाँकि बंदूकें आसानी से उपलब्ध नहीं होती थीं.
वरींद्र घोष ने 1905 में "भवानी मंदिर " नामक पहली किताब लिखी. इसमें क्रांतिकारियों को सन्देश दिया गया था कि वह स्वाधीनता पाने तक संन्यासी का जीवन बिताएं. 1906 में उन्होंने भूपेन्द्र नाथ दत्त के साथ मिलकर बांगला भाषा में "युगांतर" नमक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित करना शुरू किया. क्रांति के प्रचार में इस पत्र का सर्वाधिक योगदान रहा.
वरींद्र घोष की दूसरी पुस्तक " वर्तमान रणनीति " अक्टूबर-1907 में आई. यह किताब बंगाल के क्रांतिकारियों की पाठ्य पुस्तक बन गयी, इसमें कहा गया था की भारत की आजादी के लिए फ़ोजी शिक्षा और युद्ध जरूरी है. वारेंद्र घोष और बाघा जतिन ने पूरे बंगाल से अनेक युवा क्रांतिकारियों को खड़ा करने में निर्णायक भूमिका अदा की.
क्रांतिकारियों ने कलकत्ता के मनिक्तुल्ला में "मनिक्तुल्ला समूह " बनाया. यह उनका एक गुप्त स्थान था जहाँ वे बम बनाते और हथियार इकठ्ठा करते थे. समूह ने क्रांतिकारियों को कड़ी सजा देने वाले मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को मारने का निर्णय लिया. जिसकी जिम्मेदारी दल के युवा सदस्यों खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को दी गई.
30 अप्रैल 1908 को खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने किंग्स्फोर्ड की हत्या का प्रयास किया जिसके फलस्वरूप पुलिस ने बहुत तेजी से क्रांतिकारियों की धर-पकड़ शुरू कर दी. दुर्भाग्य से 2 -मई-1908 को बरीन्द्र घोष को भी उनके कई साथियों सहित गिरफ्तार कर लिया गया. उन पर "अलीपुर बम केस" चलाया गया.
उनको इस बम काण्ड का मुख्य साजिशकर्ता मानकर पहले म्रत्युदंड की सजा दे दी गयी परन्तु बाद में उसे आजीवन कारावास कर दिया गया. उन्हें अंदमान की भयावह सेल्युलर जेल में भेज दिया गया जहाँ वह 1920 तक बन्दी रहे. 1920 में विश्व युद्ध की समाप्ति पर कैदियों को आम रिहाई दी गई, तब उनको कालापानी जेल से रिहा किया गया.
बाल गंगाधर तिलक और स्वातंत्र्य वीर सावरकर उनसे बहुत ज्यादा प्रभावित थे. खुदीराम बोस और बरीन्द्र कूमार घोष के समर्थन में लिखने के कारण 'बाल गंगाधर तिलक" को म्यामार की जेल में भेज दिया गया था. जब स्वातंत्र्य वीर सावरकर को कालापानी की सजा हुई थी तो उन्होंने कहा था अब मुझे अपने गुरु के सानिध्य में रहने को मिलेगा.
कालापानी से रिहा होने के बाद बरीन्द्र घोष कोलकाता आ गए और पत्रकारिता प्रारंभ कर दी, किन्तु जल्द ही उन्होंने पत्रकारिता छोड़ दी और कलकत्ता में आश्रम बना लिया. 1923 में वह पांडिचेरी चले गए जहाँ उनके बड़े भाई श्री अरविन्द ने प्रसिद्ध "श्री औरोविंद आश्रम " बनाया था; श्री अरविन्द ने उन्हें आध्यात्म के प्रति प्रेरित किया था.
1929 में बरीन्द्र घोष दोबारा कलकत्ता आये और पत्रकारिता शुरू कर दी. 1933 में उन्होंने "द डान ऑफ इण्डिया (The Dawn of India) नामक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्र शुरू किया. वह "द स्टेट्समैन से जुड़े रहे और 1950 में वह बांगला दैनिक "दैनिक बसुमती" के संपादक हो गए। 18 अप्रैल 1959 को इस महान सेनानी का देहांत हो गया.
आजादी के बाद वास्तविक क्रांतिकारियों के साथ क्या हुआ और अंग्रेजों के चापलूसों ने कैसे सत्ता की मलाई खाई यह तो सबको पता ही है.

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