Tuesday, 1 January 2019

प्रथ्वीराज चौहान

दिल्ली के राज-सिंहासन पर बैठने वाले, चौहान राजवंश के अंतिम शासक, पृथ्वीराज चौहान का जन्म वर्ष 25 अक्टूबर 1168 में, अजयमेरु (अजमेर) के राजा सोमेश्वर चौहान के यहाँ हुआ था. पृथ्वीराज चौहान बचपन से ही एक प्रतिभाशाली बालक थे, उन्हें आवाज के आधार पर निशाना लगाने (शब्दभेदी वाण चलाने में) की निपुणता प्राप्त थी.
वर्ष 1179 में एक युद्ध में पृथ्वीराज के पिता की मृत्यु हो गई थी, तब 13 वर्ष की उम्र में ही पृथ्वीराज चौहान को अजयमेरु (अजमेर) का राजा बनाया दिया गया. दिल्ली के शासक सम्राट अनंगपाल दिल्ली के महाराजा थे. वे प्रथ्वीराज के नाना थे. दिल्ली के शासक सम्राट अनंगपाल के कोई पुत्र नहीं था केवल दो बेटियां थीं - चन्द्रकान्ति और कीर्तिमालिनी.
उनकी बड़ी पुत्री चन्द्रकान्ति का विवाह कन्नौज के राजा विजयपाल से हुआ था और छोटी बेटी कीर्तिमालिनी का विवाह अजयमेरु (अजमेर) के राजा सोमेश्वर चौहान से हुआ था. चन्द्रकान्ति का बेटा था "जयचंद" और कीर्तिमालिनी का बेटा था "प्रथ्वीराज". अनंगपाल की बड़ी बेटी का बड़ा बेटा होने के कारण जयचंद खुद को दिल्ली का उत्त्राधिकारी मानता था.
जयचंद के साले की एक पुत्री थी "संयोगिता". एक युद्ध में जयचंद की जान बचाते हुए जयचंद के साले की मृत्यु हो गई थी. इसके कारण जयचन्द अपने साले की पुत्री को अपनी बेटी के समान मानता था. परिवार के सभी सदस्य चाहते थे कि संयोगिता का विवाह पृथ्वीराज के साथ हो जाए. इस कारण पृथ्वी और संयोगिता के मन में बचपन से ही प्रेम पनपने लगा था.
बृद्ध हो जाने पर सम्राट अनंगपाल ने प्रथ्वीराज को दिल्ली का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था. प्रथ्वीराज को दिल्ली का उत्तराधिकारी घोषित करने के कारण "जयचन्द" नाराज हो गया और प्रथ्वीराज से नफरत करने लगा, क्योंकि वह खुद को दिल्ली का उत्तराधिकारी मानता था. "जयचन्द" ने पृथ्वीराज के परिवार से अपने सभी सम्बन्ध समाप्त कर दिए.
प्रथ्वीराज और जयचंद के बीच के मनमुटाव को दूर करने के लिए, अनंगपाल ने संयोगिता और प्रथ्वीराज के विवाह का प्रस्ताव रखा. इस प्रस्ताव को जयचंद ने अस्वीकार कर दिया परन्तु प्रथ्वीराज और संयोगिता आपस में प्रेम करने लगे थे. जयचन्द ने "संयोगिता" का स्वयंवर रखा जिसमे सभी राजाओं को निमंत्र्ण दिया गया लेकिन प्रथ्वीराज को नहीं बुलाया,
उसने प्रथ्वीराज का अपमान करने के उद्देश्य से प्रथ्वीराज का पुतला बनाकर द्वारपाल की तरह खडा कर दिया. स्वयंवर के समय संयोगिता ने प्रथ्वीराज चौहान के पुतले गले में जयमाला डालकर अपनी मंशा जगजाहिर कर दी, उसी समय प्रथ्वीराज भी वहां पहुँच गए और उन्होंने संयोगिता को अपने घोड़े पर बिठा लिया और संयोगिता को लेकर निकल गए.
इस घटना के बाद जयचन्द प्रथ्वीराज से और भी ज्यादा नफरत करने लगा. अजयमेरु (अजमेर) के साथ दिल्ली का राजा बन जाने के बाद प्रथ्वीराज चौहान ने अपने राज के विस्तार के लिए कई युद्ध लड़े. गुजरात, मालवा, बुंदेलखंड, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब भी उनके राज के अंग बन गए. प्रथ्वीराज चौहान की कीर्ति चारो और फ़ैल गई. वे राजगढ़ (अजमेर) के बजाय दिल्ली के "लालकोट" से अपने राज का संचालन करने लगे.
उन्ही दिनों वर्ष 1191 में अफगान हमलावर मोहम्मद शहाबुद्दीन गोरी ने भारत पर आक्रमण कर दिया था. प्रथ्वीराज की सेना ने तराइन (वर्तमान तरावडी ) के मैदान में उसका मुकाबला किया और गौरी को पीठ दिखाकर भागने पर मजबूर कर दिया. प्रथ्वीराज ने गौरी को बंदी बना लिया था लेकिन वह माफी मांग कर वापस लौट गया.
कहा जाता है कि इस लड़ाई में नागा साधुओं ने प्रथ्वीराज की सेना के पहुँचने से पहले ही गौरी की सेना से युद्ध शुरू कर दिया था. गौरी से युद्ध में नागा साधुओं के योगदान को देखते हुए ही "प्रथ्वीराज" ने ही कुम्भ मेले में राजा से भी पहले नागा साधुओं को शाही स्नान का अधिकार दिया था और तब से लेकर आजतक यह परम्परा चली आ रही है.
कहा जाता है कि उसके बाद मोहम्मद शहाबुद्दीन गोरी ने 17 बार आक्रमण किया और हरबार उसे पीठ दिखाकर भागने पर मजबूर होना पड़ा. लेकिन इस बात का प्रामणिक विवरण कहीं नहीं है. इर्तिहास में केवल दो हमलो का जिक्र है जिसमे पहले हमले में प्रथ्वीराज चौहान की जीत हुई थी और दुसरे हमले में मोहम्मद शहाबुद्दीन गोरी की.
पहले युद्ध की हार में गौरी और उसकी सेना वापस चली गई परन्तु उसका एक सैनिक जो थोडा बहुत जादू टोना जानता था यही रह गया . वह अजयमेरु के एक विशाल मंदिर के बाहर बैठ गया और तंत्र, मन्त्र, जादू, टोने से लोगों को प्रभावित करने लगा. कुछ ही समय में वहां की भोली जनता उसको सच्चा संत मानने लगी.
उसने यहाँ के लोगो की मानशिकता का अध्यन किया. जब उसे जयचंद की प्रथ्वीराज के प्रति नफरत का पता चला तो उसने जयचंद को समझाया कि - तुम अगर अन्य छोटे राजाओं को इस बात के लिए राजी कर लो कि वे प्रथ्वीराज का साथ न दें और गौरी की मदद करें तो मैं तुम्हारे दुश्मन प्रथ्वीराज को तुम्हारे आगे झुकने को मजबूर कर दूंगा.

साथ ही उस तथाकथित संत को पता चल गया कि - भारत के लोग गाय को बहुत सम्मान देते हैं. इसके आधार पर योजना बनाकर उसने गौरी से उसके अनुसार भारत पर आक्रमण करने को कहा. इस आक्रमण मे गौरी ने गायों को अपनी सेना के आगे दौड़ाया और धनुष वाण से हमला किया, तीर कही गायों को न लग जाए इसलिए हिन्दुओं ने बाण नहीं चलाये.
जयचन्द और उसके मित्र राजाओं ने भी इस लड़ाई में प्रथ्वीराज का साथ नहीं दिया. जयचन्द को लगता था कि - प्रथ्वीराज को हारने के बाद गौरी दिल्ली का राज उसको सौंप देगा. इसके कारण तराइन (तरावडी) की इस दुसरी लड़ाई में प्रथ्वीराज की सेना गौरी की सेना से हार गई. प्रथ्वीराज चौहान को बंदी बना लिया गया.
गौरी ने अपने गुलाम "कुतुबुद्दीन" को पश्चिम भारत की तथा दुसरे सेनापति बख्तियार खिलजी ( जिसने नालंदा विश्व विद्यालय को जलाया था) को सौंप दी और प्रथ्वीराज एवं उसके मित्र चंदबरदाई को अपने साथ कैदी बनाकर अफगानिस्तान ले गया. कुतुबुद्दीन ने अजमेर, दिल्ली, थानेसर, कुरुक्षेत्र, पेहोवा में अनेकों मंदिरों को नष्ट किया.
इस प्रकार दिल्ली में चौहान वंश के शासन का अंत हो गया. मोहम्मद गौरी ने जयचन्द का भी यह कहकर बध कर दिया कि जो अपनो का नहीं हुआ वह हमारा क्या होगा. मुहम्मद गौरी भारत को लूटकर, मन्दिरों को विध्वंस कर बहुत सारे भारतीय स्त्री पुरुषों को गुलाम बनाकर अपने साथ ले गया. इन स्त्रियों में प्रथ्वीराज की बेटी बेला और जयचन्द की पौत्री कल्याणी भी थी.
बेला और कल्याणी को गौरी ने अपने उस्ताद काजी "निजामुल्क" को सौंप दिया. बेला और कल्याणी ने काजी का किस तरह से बध किया इसकी एक अलग रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानी है.जिसे अगली किसी पोस्ट में आप के लिए प्रस्तुत करूँगा. यहाँ हम चर्चा कर रहे हैं प्रथ्वीराज और गौरी की. काजी निजामुल्क के बध के बाद गौरी ने चंदबरदाई को भी प्रथ्वीराज के साथ कैद कर दिया.
शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी ने प्रथ्वीराज को अपने बड़े भाई सुल्तान गियासुद्दीन गौरी के सामने प्रस्तुत किया और नजरें झुकाने के लिए कहा. पृथ्वीराज द्वारा नजरें न झुकाने के कारण सुल्तान गियासुद्दीन गौरी ने प्रथ्वीराज की आँखों में सलाख घुसेड़कर अँधा करने का हुक्म दे दिया. उसके बाद उनको रोज दरबार में लाया जाता और उनका उपहास किया जाता. 
अब प्रथ्वीराज और चंदबरदाई अच्छी तरह से समझ चुके थे कि - अब उनका वहां से बच निकलना बहुत मुश्किल है. ये सोंच कर उन्होंने एक खतरनाक फैसला किया. सुल्तान गियासुद्दीन गौरी  के दरवार में लाये जाने पर चन्दबरदाई ने गौरी से कहा कि - हमारे महाराज प्रथ्वीराज में वह क्षमता है कि - बिने देखे केवल आवाज सुनकर भी निशाना भेद सकते हैं. 
इस पर गौरी ने कहा कि - अगर ऐसा हुआ तो हम तुम दोनों को छोड़ देंगे लेकिन ऐसा नहीं कर पाए तो दोनों को प्राणदंड दिया जाएगा. अपनी मुक्ति का मोह या फांसी का डर तो उनको था नहींम, लेकिन वे तो कुछ और ही सोंच रहे थे. अगले दिन गौरी ने अपनी रंगशाला मे उंचाई पर एक घंटा टांग दिया और उसके साथ एक रस्सी बाँध दी. 
गौरी ने कहा कि - रस्सी से घंटा बजाय जाएगा , प्रथ्वीराज को उस आवाज को सुनकर घंटे पर निशाना लगाना होगा. प्रथ्वीराज चौहान अपना धनुष बाण लेकर घंटे की दिशा तीर चलाने के लिए तैयार हो गए. इधर दुसरी तरफ सुल्तान गियासुद्दीन गौरी बैठ गया. शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी उस दिन किसी अन्य कार्य में व्यस्त होने के कारण दरवार में नहीं आया.  
चन्दबरदाई अपनी आँखों से देखकर गौरी की स्थिति का अंदाजा लगाने लगे, जैसे ही घंटा बजा सभी लोग प्रथ्वीराज और घंटे की तरफ देखने लगे. लेकिन तभी चन्दबरदाई बोल उठा- "चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है, मत चुके चौहान", जैसे ही प्रथ्वीराज ने इसे सुना वे पलट गए और घंटे के बजाय सुल्तान गियासुद्दीन गौरी को निशाना बनाकर तीर चला दिया. 
तीर बिलकुल सटीक निशाने पर लगा. मोहम्मद गौरी के प्राण पखेरू उड़ गए और वह बही गिर गया. उसके बाद उनको सिपाही पकड़ते इससे पहले ही प्रथ्वीराज और चंदबरदाई ने अपना अपना खंजर एक दुसरे को भोंक दिया. उनके शरीर को सिपाहियों ने उठाकर बाहर फेंक दिया. प्रथ्वी राज चौहान की वही म्रत्यु हो गई. 
परन्तु चंदबरदाई घायल अवश्य हुए लेकिन उनकी की मौत नहीं हुई. बाद में चंदबरदाई वहां से किसी तरह से निकलने में कामयाब हो गए. चन्दबरदाई ने प्रथ्वीराज चौहान की इस गाथा पर महाकाव्य "प्रथ्वीराज रासो" लिखा. प्रथ्वीराज चौहान को दफनाने के बाद वहां एक मजार जैसी बनाई गई है.  उस मजार को जूते और लात मारना वहां की एक बहुत अच्छी परम्परा मानी जाती है. 
मजार के ऊपर एक रस्सी लटकी है उसको पकड़कर झूलते हुए जाना और मजार को ठोकर मारना वहां का एक बहुत ही मनोरंजक खेल है. कुछ बर्ष पहले फूलन देवी का बढ़ करने वाले "शेर सिंह राणा" ने दावा किया था कि वह प्रथ्वीराज की समाधि से पवित्र मिट्टी लेकर आया है और उसे किसी पवित्र स्थान पर रखकर वहां प्रथ्वीराज चौहान का स्मारक बनबाना चाहता है. 
लेकिन बाद में उसका क्या हुआ कुछ पता नहीं  

  
  

1 comment:

  1. जयचन्द और पृथ्वीराज, सगे मौसेरे भाई थे. उनकी माताए सगी बहने थी.जयचंद कन्नौज का राजा था और पृथ्वीराज अजमेर का. जयचंद पृथ्वीराज से आयु में काफी बड़ा था इसलिए उसे लगता था कि - नाना का दिल्ली का राज भी उसे ही मिलेगा. वह स्वयं चाहता था कि - उसके साले की पुत्री (जिसे उसने अपनी बेटी की तरह पाला था) का विवाह, उसके मौसेरे भाई पृथ्वीराज से हो जाए.
    परन्तु जब उनके नाना अनंगपाल पाल ने दिल्ली का राज बड़ी बेटी "चन्द्रकान्ति" के बड़े पुत्र जयचंद के बजाय छोटी बेटी "कीर्तिमालिनी" के पुत्र पृथ्वीराज को दे दिया तो जयचंद इस बात से बहुत नाराज हुआ और प्रथ्वीराज से ईर्ष्या करने लगा था. नाना अनंगपाल पाल का सबसे बड़ा ध्योता होने के कारण वह स्वयं को अपने नाना के राज का स्वाभाविक उत्तरादिकारी मानता था.
    उसने बाद उसने पृथ्वी और संयोगिता का रिश्ता भी तोड़ दिया और संयोगिता के स्वयंवर की घोषणा कर दी, जिसमे उसने पृथ्वीराज को आमंत्रित नहीं किया. बल्कि स्वयंवर भवन में पृथ्वीराज के पुतले को द्वारपाल बनाकर खड़ा कर दिया. संयोगिता ने पृथ्वीराज को सन्देश भेजा कि - मैं तुम्हारे सिवा किसी से विवाह नहीं करुँगी, अगर तुम नही मिले तो अपनी जान दे दूंगी.
    सन्देश मिलते ही पृथ्वी राज वहां पहुँच गये और अपने पुतले के पीछे ही छुप गए. इधर जब संयोगिता वरमाला लेकर राजकुमारों के सामने से गुजरी तो उसने उन राजकुमारों में से किसी एक के गले में वरमाला डालने के बजाय, पृथ्वीराज के पुतले के गले में वरमाला डाल दी, इसको देखकर वहां हंगामा हो गया और तभी पृथ्वीराज ने सामने आकर संयोगिया को उठा लिया.
    जयचंद के सैनिको ने रोकने की कोशिश की लेकिन पृथ्वीराज और उनके साथ आये सैनिको ने उनकी ये कोशिश नाकाम कर दी. इस प्रकार पृथ्वीराज और संयोगिता का विवाह हो गया. इस घटना के बाद जयचंद की पृथ्वीराज से नफरत और ज्यादा बढ़ गई. इस कारण मोहम्मद गौरी के आक्रमण के समय जयचन्द ने पृथ्वीराज के खिलाफ मोहम्मद गौरी का साथ दिया

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