बाबा दीप सिंह जी का जन्म 27 जनवरी 1682 को गांव पहुविंड ज़िला- अमृतसर में हुआ था. बाबा दीप सिंह जी के पिता का नाम भक्तु जी और माता का नाम जीउनी था. बाबा दीप सिंहजी जब किशोर थे, तब वे 1699 में वैशाखी वाले दिन अपने माता पिता के साथ गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज के दर्शन हेतु आनन्दपुर साहिब आये थे.
जब 1709 में गुरु गोविन्द सिंह के हुक्म से बाबा बंदा सिंह बहादुर नांदेड से पंजाब आये तो बाबा दीप सिंह उनके साथ हो गये.बंदा सिंह बहादुर के साथ मिलकर उन्होंने सरहंद पर हमला किया और चप्पड़ चिडी की जंग में बजीर खान को उसके खानदान और सेना के साथ मौत के घाट उतार दिया. बन्दा सिंह बहादुर ने प्रथम ख़ालसा राज की नीव रखी.
युद्ध में बाबा दीप सिंह अपनी 15 किलो वजनी तलवार के साथ दुश्मन पर टूट पड़े. अचानक मुगल कमांडर जमाल शाह, बाबा जी के सामने आ गया. दोनों के बीच काफी समय तक युद्ध हुआ. आखिर में दोनों ने पूरी ताकत से अपनी-अपनी तलवार घुमाई, दोनों की तलबार एक दुसरे की गर्दन पर लगी, जिससे दोनों के सिर धड़ से अलग हो गए.
इस अवसर पर बाबा दीप सिंह ने भी अमृत छका और और अपने माता-पिता से आज्ञा लेकर गुरु महाराज जी के चरणों में रहने लगे. बाबा दीप सिंह जी ने यहीं रह कर शिक्षा प्राप्त की और शस्त्र चलाना सीखे. श्री गुरु गोबिन्द सिंह बाबा दीप सिंह संधू जी से गुरु ग्रन्थ साहिब में गुरबाणी भी लिखबाई थी,क्योंकि वे लिखते बहुत अच्छा थे.
बाबा दीप सिंहजी 8 साल तक गुरु सहिबान की सेवा में लगे रहे. 1704 में फिर माता -पिता की आज्ञा से वे अपने घर वापिस चले गए. वहां उनका विवाह कर दिया गया. कुछ समय बाद उनको सूचना मिली कि - गुरु गोविन्द सिंह को मुगलों से युद्ध करते समय आनन्दपुर साहिब छोड़न पड़ा है और उनके पुत्र तथा माता भी परलोक गमन कर गए हैं.
तब वे भी अपने घर एवं अपनी पत्नी से विदा लेकर गुरु गोविन्द सिंह जी की तलाश में निकल पड़े. तलबंडी के पास दमदमा साहब में उनकी मुलाकाट गुरु गोविन्द सिंह जी से हुई. गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा कर बाबा दीप सिंह जी को सौंप दिया और उन्हें उसकी रखवाली की जिम्मेदारी दी और नांदेड के लिए चले गए.
बाबा दीप सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब में लिखी सभी वानियों व शिक्षाओं को पुन: अपने हाथों से लिखा और गुरु ग्रंथ साहिब की 5 प्रतिलिपियां बनाईं. गुरु ग्रन्थ साहब की इन प्रतिलिपियों में एक को श्री अकाल तख्त साहिब, एक श्री तख्त पटना साहिब, श्री तख्त हजूर साहिब और श्री तख्त आनन्दपुर साहिब भिजवा दिया.
इसके अलावा बाबा दीप सिंह जी ने एक प्रतिलिपी अरबी भाषा में भी बनाई, जिसे उन्होंने मध्य पूर्व में भेजा. बाबा दीप सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब में अंकित एक बाणी में भी एक बदलाव किया था. दरअसल गुरु ग्रंथ साहिब की एक बाणी को लेकर बाबा दीप सिंह जी ने भाई मनी जी से कहा कि गुरु बाणी की एक लाइन कुछ यूं लिखी है कि-
“मित्र प्यारे नू, हाल फकीरा दा कैहना”. उनका विचार था कि इस बाणी की शुरुआत सही नहीं है, क्योंकि गुरुजी फकीर नहीं थे. इसलिए उन्होंने इसमें बदलाव करके इस लाइन को कुछ यूं बनाया. “मित्र प्यारे नू, हाल मुरीदां दा कैहना” . गुरु गोविन्द सिंह जी के पंजाब में न रहने पर बाबा दीप सिंह ने सिक्खों को एकजुट रखा और नेतृत्व दिया.

उन्होने सिक्खों को एकजुट रखने में अपना पूरा जीवन लगा दिया. परन्तु इसके बाबजूद 1716 में सिक्ख समुदाय दो भागों में बंट गया. एक समुदाय था बंदही खालसा, जो कि बंदा सिंह बहादुर को गुरु गोबिंद सिंह जी का आखिरी सिख मानते थे और दूसरे थे टट खालसा, जो कि गुरु जी द्वारा रचित ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानते थे.
इन दोनों समुदायों में श्री हरिमंदिर साहिब पर हक जमाने को लेकर भी झगड़े होने लगे थे. बाबा दीप सिंह जी ने दोनों के बीच के झगड़े को समाप्त करने का अनोखा तरीका निकाला. उन्होंने दो पर्चियों पर एक एक नाम लिखकर सरोवर में फेंक दीं. जी पर्ची पर टट खालसा लिखा था वह तैरती रही और जिस पर बंदही खालसा लिखा था वह दूसरी डूब गई.
तब बाबा दीप सिंह के फैसले को मानते हुए बंदही खालसा समुदाय मानते हुए हरमंदिर साहिब को छोड़ दिया. लेकिन कुछ वन्दहियों ने इसे पक्षपात पूर्ण फैसला माना. सन् 1746 में पँजाब के राज्यपाल यहिया खान ने सिक्खों का सर्वनाश करने का अभियान (छोटा घल्लूधारा) चलाया तो उस समय भी बाबा दीप सिंह जी सहायता के लिए पहुँचे.
1755 में अहेमद शाह अब्दाली ने भारत पर आक्रमण किया और जीतने के बाद भारत से बहुत दौलत लूटकर तथा हजारों लोगों को गुलाम बनाकर अपने साथ ले जा रहा था. तब बाबा दीप सिंह के आदेश पर सिक्खों ने जगह जगह अब्दाली की सेना पर हमला किया किया और गुलाम बनाकर ले जाए जा रहे हजारों स्त्रियों और पुरषों को आजाद कराया.
इस बात से गुस्साए अहेमद शाह अब्दाली ने 1757 में अपने सेनापति जहान खान को एक बड़ी फौज के साथ हरिमंदिर साहिब को तबाह करने के लिए भेजा. जहान खान ने अमृतसर पर हमला कर दिया. हम्रिंदर साहब की रक्षा करते हुए सौकड़ों सिक्ख मारे गए. दरबार साहब पर जहान खान का कब्ज़ा हो गया.
जहान खान ने दरवार साहब की मर्यादा को भंग किया और अपने सैनको को सरोवर को भी गन्दा करने का आदेश दिया. उस समय बाबा दीप सिह जी दमदमा साहब में थे. जब उन्हें इसके बारे में जानकारी मिली, तो उन्होंने 5000 सिक्खों को एकजुट करके अमृतसर पर हमला करके दरबार साहब को आजाद करने का संकल्प लिया..
इस युद्ध के समय उनकी उम्र 75 साल थी. अमृतसर सीमा पर पहुंचने पर बाबा दीप सिंह जी ने एक लकीर खिंची और सभी सिखों से आव्हान किया कि- इस सीमा को केवल वही सिख पार करें, जो पंथ की राह में शीश कुर्बान करने के लिए तैयार हैं. एक बार इस लकीर को पार करने वाला फिर बिना दरवार साहब को आजाद कराये बापस नहीं जाएगा.
जब लाहौर में जहान खान को इसका पता चला तो उसने घबराकर इस युद्ध को 'इस्लाम खतरे में है" का नारा दिया और इस्लाम पर खतरे के नाम पर जहादिया को आमन्त्रित कर लिया, और हैदरी झण्डा लेकर गाज़ी बनकर अमृतसर की ओर चल पड़े . इस प्रकार उनकी सँख्या सरकारी सैनिकों को मिलाकर बीस हजार हो गई.

बाबा जी का शीश अलग होता देख एक सिख सैनिक दयाल सिंह ने चिल्ला कर बाबा जी को आवाज दी और उन्हें उनकी शपथ के बारे में याद दिलाया. कहा जाता है कि - इसके बाद बाबा दीप सिंह जी का धड़ खड़ा हो गया. उन्होंने एक हाथ में अपना सिर उठाया और दुसरे हाथ से तलवार चलाते हुए श्री हरिमंदिर साहिब की ओर चलने लगे.
बाबा जी को ऐसा करते देख जहां सिखों में जोश भर गया, वहीं दुश्मन डर के मारे भागने लगे. अंतत: बाबा दीप सिंह जी श्री हरिमंदिर साहिब पहुंच गए और अपना सिर परिक्रमा में चढ़ा कर प्राण त्याग दिए. जहाँ उन्होंने अपना शीश रखा और प्राण त्यागे, उस स्थान को शहीद पुंगा कहा जाता है. स्वर्णमंदिर जाने वाले भक्त उस स्थान पर माथा टेकते हैं
बाबा दीप सिंह संधू जी की शहादत
11 नबंम्वर 1757 में हुई थी.
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