Friday, 25 January 2019

नानाजी देशमुख

 नानाजी देशमुख के नाम से प्रशिद्ध महान सामाजिक कार्यकर्ता का वास्तविक नाम "चंडिकादास अमृतराव देशमुख" था. उनके सबसे बड़े राजनैतिक बिरोधी "चन्द्रभान गुप्ता" जिन्हें नानाजी के कारण कई बार चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था, नानाजी का दिल से सम्मान करते थे और उन्हें प्यार से नाना फड़नवीस कहा करते थे.
धीरे धीरे वे नाना जी के नाम से ही मशहूर हो गए. डॉ॰ राम मनोहर लोहिया, आचार्य बिनोवा भावे और चौधरी चरण सिंह से उनके बहुत अच्छे सम्बन्ध थे. उनका जन्म 11 अक्टूबर सन 1916 को महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के एक छोटे से गांव कडोली में हुआ था। इनके पिता का नाम अमृतराव देशमुख तथा माता का नाम राजबाई था.
जब वे छोटे थे तब ही उनके माता पिता का देहांत हो गया था. उनका बचपन अभाव एवं गरीबी में अपने मामा के यहाँ बीता. उनके पास स्कूल की फीस देने और पुस्तकें खरीदने तक के लिये पैसे नहीं थे किन्तु उनके अन्दर शिक्षा और ज्ञानप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा थी. तब उन्होंने पढने के साथ साथ सब्जी बेचने का भी काम किया.
जब वे 9वीं कक्षा में थे, उसी समय उनकी मुलाकात संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार जी से हुई. डा. साहब इस बालक के कार्यों से बहुत प्रभावित हुए. मैट्रिक की पढ़ाई पूरी होने पर डा. हेडगेवार ने नानाजी को आगे की पढ़ाई करने के लिए पिलानी जाने का परामर्श दिया. उन्होंने पिलानी के बिरला इंस्टीट्यूट से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की.
उन्नीस सौ तीस के दशक में वे आरएसएस में शामिल हो गये. उनका जन्म भले ही महाराष्ट्र में हुआ, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान और उत्तर प्रदेश रहा. उनकी निष्ठां और मेहनत को देखकर सरसंघचालक श्री गुरू जी ने पहले उन्हें प्रचारक के रूप में गोरखपुर भेजा. संघ के पास दैनिक खर्च के लिए भी पैसे नहीं होते थे.
नानाजी को धर्मशालाओं में ठहरना पड़ता था. बाद में बाबा राघवदास ने उन्हें अपने आश्रम में इस शर्त पर ठहरने दिया कि वे उनके लिये खाना बनाया करेंगे. उनकी तीन साल की कड़ी मेहनत रंग लायी और गोरखपुर के आसपास संघ की ढाई सौ शाखायें खुल गयीं. उन्होंने पहले सरस्वती शिशु मन्दिर की स्थापना गोरखपुर में की.
उनके कार्यों को देखते हुए उन्हें उत्तरप्रदेश के प्रान्त प्रचारक का दायित्व दिया गया. 1947 में आर.एस.एस. ने राष्ट्रधर्म और पाञ्चजन्य नामक दो साप्ताहिक और स्वदेश (हिन्दी दैनिक) निकालने का फैसला किया. अटल बिहारी वाजपेयी को सम्पादन, दीन दयाल उपाध्याय को मार्गदर्शन और नानाजी को प्रबन्ध निदेशक की जिम्मेदारी सौंपी गयी.
इसी बीच गांधी की हत्या में शक का बहाना बनाकर, कांग्रेस सरकार ने संघ के प्रति दुर्भावना के कारण, आरएसएस पर परिबंध लगा दिया गया. परन्तु अपनी लाख कोशिशों के बाद भी नेहरु सरकार गांधी हत्याकांड में संघ की संलिप्तता साबित नहीं कर सकी और सरकार को मजुबूर होकर संघ पर लगाया गया प्रतिबन्ध वापस लेना पड़ा.
तब संघ ने एक राजनैतिक शाखा के रूप में "भारतीय जनसंघ" नाम के संगठन की स्थापना की. नानाजी को उत्तरप्रदेश में भारतीय जन संघ के महासचिव का दायित्व दिया गया. दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि, अटल बिहारी वाजपेयी के वक्तृत्व और नानाजी की संगठन शक्ति के द्वारा यह उत्तर प्रदेश में बड़ी राजनीतक ताकत बन कर उभरा.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की अचानक हुई हत्या नानाजी के लिये बहुत बड़ी क्षति थी. उन्होंने नई दिल्ली में उनके नाम पर दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की, जिसके अन्तर्गत कृषि, कुटीर उद्योग, ग्रामीण स्वास्थ्य और ग्रामीण शिक्षा पर विशेष बल दिया. उनका उदेश्य था-"हर हाथ को काम और हर खेत को पानी"
1975 में इंदिरा की तानाशाही के खिलाफ सारे विपक्ष को एकजुट करने में उन्होंने बहुत महुत्व्पूर्ण भूमिका निभाई. जब पटना में जय प्रकाश नारायण पर पुलिस ने लाठिय बरसाईं तो वे उनके बीच में आ गये और खुद लाठियां झेलकर उन्होंने जेपी को वहां से सुरक्षित निकाला. इस संघर्ष में उनके हाथ में भी फ्रैक्चर हो गया था.
1977 में वे बलरामपुर से सांसद चुने गए. मोरारजी देसाई ने उनसे मंत्रीपद लेने का आग्रह किया लेकिन उन्होंने संगठन के लिए कार्य करने की बात कहकर मंत्रीपद लेने से विनम्रतापूर्वक मना कर दिया. 1989 में वे चित्रकूट आये. यहा भगवान श्रीराम की कर्मभूमि चित्रकूट की दुर्दशा को ठीक करने के लिए वहीँ बसने का फैसला किया
नानाजी ने चित्रकूट को अपने सामाजिक कार्यों का केन्द्र बनाया. उन्होंने सबसे गरीब व्यक्ति की सेवा शुरू की. वे अक्सर कहा करते थे कि -राम ने अपने वनवास के चौदह में से बारह वर्ष यहीं गरीबों की सेवा में बिताये थे और उन्हें राजा राम से वनवासी राम अधिक प्रिय लगते हैं. इसलिए वे अपना बचा हुआ जीवन चित्रकूट में ही बितायेंगे.
उन्होंने चित्रकूट में देश के प्रथम ग्रामीण विश्व विद्यालय की स्थापना की. उन्होंने देखा कि - ज्यादातर ग्रामीण आपसी झगड़ों और कोर्ट कचहरी के चक्कर में बर्बाद होते हैं. उन्होंने ग्राम समितियों को बनाया जहाँ आपसी झगड़ों को आपस में सुलझाने पर बल दिया. उनके प्रयास से आसपास के 80 गाँव मुक़दमे वाजी से पूर्ण मुक्त हो गए.
पूर्व राष्ट्रध्यक्ष अब्दुल कलाम उनके पास "चित्रकूट" में गए. वहां की इस झगड़ा सुलझाने की व्यवस्था को देखकर उन्होंने कहा था -चित्रकूट के आसपास अस्सी गाँव मुकदमें बाजी से मुक्त है. इसके अलावा इन गाँवों के लोगों ने सर्वसम्मति से यह फैसला किया है कि किसी भी विवाद का हल करने के लिये वे अदालत नहीं जायेंगे.
मैंने नानाजी देशमुख और उनके साथियों से मुलाकात की. दीन दयाल शोध संस्थान ग्रामीण विकास के प्रारूप को लागू करने वाला अनुपम संस्थान है. यह प्रारूप भारत के लिये सर्वथा उपयुक्त है. विकास कार्यों से अलग दीनदयाल उपाध्याय संस्थान विवाद-मुक्त समाज की स्थापना में भी मदद करता है. मैं समझता हूँ कि
कलाम के मुताबिक, विकास के इस अनुपम प्रारूप को सामाजिक संगठनों, न्यायिक संगठनों और सरकार के माध्यम से देश के विभिन्न भागों में फैलाया जा सकता है। शोषितों और दलितों के उत्थान के लिये समर्पित नानाजी की प्रशंसा करते हुए कलाम ने कहा कि नानाजी चित्रकूट में जो कर रहे हैं उसे देखकर अन्य लोगों की भी आँखें खुलनी चाहिये.
27 फ़रवरी 2010 को चित्रकूट में ही नानाजी देशमुख का देहांत हो गया. उन्होंने अपनी म्रत्यु से बहुत पहले ही घोषणा की थी कि -उनके शरीर का अंतिम संस्कार न किया जाए बल्कि डाक्टरी के छात्रों को शोध के लिए दिया जाए. उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उनका शव अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली को सौंप दिया गया.

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