Thursday, 31 January 2019

वीर हकीकत राय

बसंत पंचमी का उत्सव धर्म के लिए बलिदान देने वाले वीर हकीकत राय की धर्मनिष्ठा के लिए भी याद किया जाता है. वीर हकीकत राय के साथ उनकी पत्नी लक्ष्मी देवी ने भी आत्मदाह किया था. साथ ही यह घटना इस बात का भी अहेसास कराती है कि - मुसलमान किस तरह से बच्चों के मामूली झगडे को धार्मिक रंग दे देते हैं.
 धर्मवीर "हकीकत राय" का जन्म सन 1719 में कार्तिक महीने के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को स्यालकोट (आज के पापिस्तान) में हुआ था. उनके पिता लाला भागमल खत्री एक धनवान व्यापारी थे. जब वे 13 साल के थे तो उस समय की बाल विवाह परम्परा के aनुसार बटाला के श्री किशन सिंह की पुत्री लक्ष्मी देवी से कर दिया गया था.
हकीकत बचपन से ही बहुत कुशाग्र बुद्धि थे. उनके दादा, माँ तथा एक पंडित जी उन्हें धर्म ग्रंथो और गणित की शिक्षा देते थे. उन दिनों व्यापार के लिए फारसी जानना भी आवश्यक था इसलिए उनके पिता ने हकीकत लाहौर के एक मदरसे में फारसी सीखने भेजा. अपनी कुशाग्र बुद्ध से वहां के मौलवी भी बहुत प्रभावित हुए.
लेकिन हकीकत को ज्यादा महत्त्व मिलने से अन्य मुस्लिम छात्र उनसे ईर्ष्या करने लगे 1734 की वसंतपंचमी का दिन थी. सभी बच्चे मदरसे में थे. अचानक कोई काम आ जाने से मौलवी को कहीं जाना पड़ गया. मौलवी के जाने के बाद बच्चों में विवाद हो गया. मुस्लिम बच्चे हकीकत के सामने माता दुर्गा और माता सरस्वति को गाली देने लगे.
इस पर हकीकत ने कहा मेरे लिए तो फातिमा और आयशा भी दुर्गा और सरस्वति के समान हैं. इस पर उन मुस्लिम बच्चों ने मामले को दुसरी तरफ मोड़ दिया. मौलवी के आने के बाद उन मुस्लिम बच्चों ने मौलवी से कहा कि - हकीकत इस्लाम का अपमान कर रहा है और फातिमा / आयशा को गाली दे रहा है.
मौलबी उन बच्चों को लेकर काजी के पास गया. काजी उनको लेकर लाहौर के नवाव सफ़ेद खान के पास गया. काजी ने इस्लाम का अपमान करने के अपराध में हकीकत राय को म्रत्युदण्ड की सजा सुनाई. लेकिन साथ ही यह भी कहा कि अगर हकीकत राय इस्लाम कबूल कर मुसलमान बन जाए तो उसे क्षमा कर दिया जाएगा.
परन्तु हकीकत राय ने धर्म छोड़ने से इनकार कर दिया. तब सफ़ेद खान ने यह भी प्रस्ताव रखा कि - अगर वह मुसलमान बनता है तो उसे जीवनदान भी मिलेगा और वह अपनी इकलोती बेटी "दुस्तर" से निकाह भी करवा देगा. हकीकत की माँ कोरा ने अपने पुत्र हकीकत से मौत से बचने के लिए मुसलमान बन जाने को कहा.
लेकिन 14 वर्ष के बालक वीर हकीकत राय का उत्तर था कि- क्या मुसलमान बन जाने से मुझे कभी भी मौत नहीं आएगी ? उनके इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नही था. तब काजी ने लाहौर से 4 किलोमीटर दूर "खोजे शाह के कोट" में वसंत पंचमी के मेले में ले जाकर हकीकत का सर काट कर प्राण दण्ड देने का आदेश दिया.
मौलवियों को पूरा विश्वास था कि- मेले में अपनी मौत सामने देखकर हकीकत अवश्य ही इस्लाम कबूल कर लेगा. लेकिन हकीकत अपने धर्म पर अटल रहा और मौलवियों से ही सवाल करता रहा कि - कितना कमजोर है तुम्हारा धर्म जो ऐसे खतरे में आ जाता है. इस पर मौलवी और भी ज्यादा नाराज हो गए.
सफ़ेदखान ने फिर कहा कि - हम नहीं चाहते कि तुम्हारी जान जाए. अगर तुम इस्लाम कबुल कर लो तो तुम्हारी जान बच जायेगी. इसके अलाबा हम अपनी बेटी का निकाह तुम्हारे साथ कर देंगे जिससे आने वाले समय में तुम भी नबाब बन सकते हो. लेकिन इस पर हकीकत ने कटाक्ष किया कि - बेटी का सौदा करके धर्म परिवर्तन कराते हो ?
तब काजी ने जल्लाद को तुरंत हकीकत का सर काटने का हुक्म दिया. आदेश पाकर जल्लाद ने हकीकत का सर काटकर "शहीद" कर दिया. उसी दिन लाहौर में रावी के तट पर हकीकत का अंतिम संस्कार कर दिया गया. हकीकत के इस बलिदान की खबर जब उनकी ससुराल बटाला में पहुंची तो वहां भी कोहराम मच गया.
लेकिन हकीकत की पत्नी लक्ष्मी देवी शांत बनी रही. उन्होंने पति के वियोग में आत्मदाह कर प्राण त्यागने का निश्चय कर लिया. उन्होंने स्वयं अपने हाथों से अपनी चिता तैयार की और अपने पति का ध्यान कर उस चिता में कूद गई. इस प्रकार हकीकत और उनकी पत्नी लक्ष्मी धर्म की खातिर बलिदान हो गए.
कालांतर में जब "महाराजा रंजीत सिंह" का राज हुआ तो उन्होंने लाहौर में रावी के तट पर "वीर हकीकत राय" की समाधि का निर्माण कराया साथ ही बटाला में भी "देवी लक्ष्मी" की समाधि बनबाई. प्रत्येक बसंत पंचमी पर उन धर्मवीरों की याद में मेला लगाया जाने लगा. बंटबारे के बाद हकीकत राय की समाधि पापिस्तान में रह गई.
लक्ष्मी देवी की समाधि पर आज भी बसंत पंचमी पर प्रतिवर्ष भारी मेला लगता है और धर्मवीर युगल का स्मरण किया जाता है. वर्ष 1782 में अग्गर सिंह (अग्र सिंह) नाम के एक कवि ने बालक हकीकत राय की शहादत पर एक पंजाबी लोकगीत लिखा. महाराजा रणजीत सिंह के मन में बालक हकीकत राय के लिए विशेष श्रद्धा थी.
बीसवीं सदी के पहले दशक (1905-10) में, कुछ बंगाली लेखकों ने निबन्ध के माध्यम से हकीकत राय की शहादत की कथा को लोकप्रिय बनाया. आर्य समाज, ने हकीकत राय के हिन्दू धर्म के प्रति गहरी निष्ठां को प्रदर्शित करने वाला एक नाटक 'धर्मवीर' में प्रस्तुत किया. इस कथा की मुद्रित प्रतियां नि:शुल्क वितरित की गयीं.

Wednesday, 30 January 2019

मुसलमानों ने कितने अंग्रेज मारे ?

मुसलमानों ने देश के बंटबारे के समय लाखों हिन्दुओं / सिक्खों की हत्या की और मुस्लिम बहुल वाले क्षेत्रों से उनको अपना सबकुछ छोड़कर भागने पर मजबूर किया था. इससे साबित होता है कि - किसी की जान लेना तो उनके लिए बड़ा आसान सा काम था.
अगर वो चाहते तो बड़े आराम से अंग्रेजों को भी मार भगा सकते थे लेकिन अंग्रेजों से लड़ने के बजाये अंग्रेजों की नौकरी करते रहे. आजादी की लड़ाई में मुसलमानों द्वारा किसी अंग्रेज के बध का कोई जिक्र नहीं मिलता है. सारी की सारी क्रान्ति ही हिन्दुओं / सिक्खों ने की.
इससे पहले भी तुर्की के खलीफा के समर्थन में चलाये गए धार्मिक आन्दोलन "खिलाफत" के असफल हो जाने के बाद भी, मुसलमानों ने अंग्रेजों के खिलाफ कुछ नहीं किया बल्कि मालाबार, मुल्तान, कोहाट, आदि हिन्दुओं / सिक्खों की ही हत्याए की किसी अंग्रेज की नहीं.
अगर आजादी की लड़ाई के 90 साल के इतिहास की बात करें तो केवल 1857 वाली लड़ाई में ही मुसलमान शामिल हुए थे वह भी इसलिए कि - तब उनको लगा था कि - क्रान्ति से अगर अंग्रेज भाग गए तो उनको भी अपनी रियासतें वापस मिल जायेगी.
1857 की लड़ाई के समय में भी आगा खान जैसों ने इसे हिन्दुओं और शियाओं का संघर्ष कहकर शुन्नियों को इससे दूर रहने का आग्रह किया था. प्रथम स्वाधीनता संग्राम की असफलता (1858) के बाद तो आजादी की लड़ाई में भाग लेना ही बंद कर दिया था.
1858 से लेकर 1947 तक की आजादी की लड़ाई की कहानी में, बहुत गिने चुने नाम ही दिखाई देते हैं. उनके द्वारा भी किसी अंग्रेज के बध का कोई जिक्र नहीं मिलता है.

इंदिरा गांधी ने पापिस्तान के नहीं बल्कि दो बार कांग्रेस के दो टुकड़े किये थे.

इंदिरा गांधी ने पापिस्तान के नहीं बल्कि कांग्रेस के दो टुकड़े किये थे. लाल बहादुर शास्त्री जी की हत्या के बाद कांग्रेस के नेता मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे लेकिन नेहरु के बफादारों ने इंदिरा गांधी को आगे कर दिया. उसके बाद इंदिरा गांधी ने 1969 में कांग्रेस के सीनियर नेताओं को खुड्डे लाइन लगाकर कांग्रेस को दो फाड़ कर दिया था.
इंदिरा गाँधी गुट ने कांग्रेस (आर) बनाया था और कांग्रेस के सीनियर नेता मोरारजी देसाई और कामराज आदि ने कांग्रेस (ओ). पहले कांग्रेस का चुनाव चिन्ह था "बैलों की जोड़ी". कांग्रेस को तोड़ने के बाद इंदिरा ने कांग्रेस (आर) के लिए "गाय और बछड़ा" चुनाव चिन्ह लिया और कामराज गुट को चुनाव चिन्ह मिला था "चरखा"
इलेक्शन सिम्बल के तौर पर मिला और 1977 के चुनावों में जब इंदिरा की बुरी तरह से हार हुई थी, तो एक बार फिर इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को दोफाड़ किया और प्रभावशाली नेताओं को दरकिनार कर एक नई पार्टी बनाई थी जिसको नाम दिया था कांग्रेस (आई). अर्थात कांग्रेस (इंदिरा). और पार्टी का नया चुनाव चिन्ह बनाया था, "हाथ का पंजा"
अब बात करते हैं पापिस्तान के दो टुकड़े करने की. तो भारत पापिस्तान का युद्ध हुआ था 4 दिसंबर 1971 से 16 दिसंबर 1971 तक. और बंगलादेश पापिस्तान से अलग हुआ था 26 मार्च 1971 को. इसके अलाबा भरत - पापिस्तान के उस युद्ध को भी सेना ने बहुत ही सीमित संशाधनो के साथ लड़ा था और अपनी बहादुरी के दम पर जीता था.
3 दिसम्बर को पापिस्तान द्वारा भारत पर किये गए हवाई हमले (आपरेशन चंगेज खान) के बाद भी इंदिरा गांधी युद्ध का निर्णय नहीं ले पा रही थी. तब जनरल मानेकशा ने कहा था कि- आप घोषणा करती हैं या फिर मैं खुद युद्ध की घोषणा करू ? उस युद्ध की घोषणा के बाद युद्ध की सारी कमान जनरल मानेकशा के हाथ में थी.
जनरल मानेकशा ने तो नेताओं के द्वारा, युद्ध को लेकर कोई बयान तक देने पर रोक लगा दी थी. उस 14 दिन के भीषण युद्ध में भारतीय सेना ने बहुत सीमित संसाधनों के साथ पापिस्तान को शिकस्त दी थी. इंदिरा गांधी या उनकी सरकार का काम था सेना को अधिक से अधिक आधुनिक हथियार उपलब्ध कराना जिसमे वह नाकाम रही थी.
भारतीय सेना ने अपनी बहादुरी और कुर्बानियों के द्वारा पापिस्तान पर जो जीत हाशिल की थी, इंदिरा गांधी ने तो उस जीत को ही "शिमला समझौते" के द्वारा हार में बदल दिया था. युद्ध के बाद जब सेना बैरकों में वापस लौट गई तब कांग्रेसियों ने इंदिरा का ऐसे गुणगान शुरू कर दिया जैसे युध्ह इंदिरा गांधी ने खुद लड़ा हो.

Saturday, 26 January 2019

बाबा दीप सिंह

 बाबा दीप सिंह जी का जन्म 27 जनवरी 1682 को गांव पहुविंड ज़िला- अमृतसर में हुआ था. बाबा दीप सिंह जी के पिता का नाम भक्तु जी और माता का नाम जीउनी था. बाबा दीप सिंहजी जब किशोर थे, तब वे 1699 में वैशाखी वाले दिन अपने माता पिता के साथ गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज के दर्शन हेतु आनन्दपुर साहिब आये थे.
इस अवसर पर बाबा दीप सिंह ने भी अमृत छका और और अपने माता-पिता से आज्ञा लेकर गुरु महाराज जी के चरणों में रहने लगे. बाबा दीप सिंह जी ने यहीं रह कर शिक्षा प्राप्त की और शस्त्र चलाना सीखे. श्री गुरु गोबिन्द सिंह बाबा दीप सिंह संधू जी से गुरु ग्रन्थ साहिब में गुरबाणी भी लिखबाई थी,क्योंकि वे लिखते बहुत अच्छा थे.
बाबा दीप सिंहजी 8 साल तक गुरु सहिबान की सेवा में लगे रहे. 1704 में फिर माता -पिता की आज्ञा से वे अपने घर वापिस चले गए. वहां उनका विवाह कर दिया गया. कुछ समय बाद उनको सूचना मिली कि - गुरु गोविन्द सिंह को मुगलों से युद्ध करते समय आनन्दपुर साहिब छोड़न पड़ा है और उनके पुत्र तथा माता भी परलोक गमन कर गए हैं.
तब वे भी अपने घर एवं अपनी पत्नी से विदा लेकर गुरु गोविन्द सिंह जी की तलाश में निकल पड़े. तलबंडी के पास दमदमा साहब में उनकी मुलाकाट गुरु गोविन्द सिंह जी से हुई. गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा कर बाबा दीप सिंह जी को सौंप दिया और उन्हें उसकी रखवाली की जिम्मेदारी दी और नांदेड के लिए चले गए.
बाबा दीप सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब में लिखी सभी वानियों व शिक्षाओं को पुन: अपने हाथों से लिखा और गुरु ग्रंथ साहिब की 5 प्रतिलिपियां बनाईं. गुरु ग्रन्थ साहब की इन प्रतिलिपियों में एक को श्री अकाल तख्त साहिब, एक श्री तख्त पटना साहिब, श्री तख्त हजूर साहिब और श्री तख्त आनन्दपुर साहिब भिजवा दिया.
इसके अलावा बाबा दीप सिंह जी ने एक प्रतिलिपी अरबी भाषा में भी बनाई, जिसे उन्होंने मध्य पूर्व में भेजा. बाबा दीप सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब में अंकित एक बाणी में भी एक बदलाव किया था. दरअसल गुरु ग्रंथ साहिब की एक बाणी को लेकर बाबा दीप सिंह जी ने भाई मनी जी से कहा कि गुरु बाणी की एक लाइन कुछ यूं लिखी है कि-
“मित्र प्यारे नू, हाल फकीरा दा कैहना”. उनका विचार था कि इस बाणी की शुरुआत सही नहीं है, क्योंकि गुरुजी फकीर नहीं थे. इसलिए उन्होंने इसमें बदलाव करके इस लाइन को कुछ यूं बनाया. “मित्र प्यारे नू, हाल मुरीदां दा कैहना” . गुरु गोविन्द सिंह जी के पंजाब में न रहने पर बाबा दीप सिंह ने सिक्खों को एकजुट रखा और नेतृत्व दिया.
जब 1709 में गुरु गोविन्द सिंह के हुक्म से बाबा बंदा सिंह बहादुर नांदेड से पंजाब आये तो बाबा दीप सिंह उनके साथ हो गये.बंदा सिंह बहादुर के साथ मिलकर उन्होंने सरहंद पर हमला किया और चप्पड़ चिडी की जंग में बजीर खान को उसके खानदान और सेना के साथ मौत के घाट उतार दिया. बन्दा सिंह बहादुर ने प्रथम ख़ालसा राज की नीव रखी.
उन्होने सिक्खों को एकजुट रखने में अपना पूरा जीवन लगा दिया. परन्तु इसके बाबजूद 1716 में सिक्ख समुदाय दो भागों में बंट गया. एक समुदाय था बंदही खालसा, जो कि बंदा सिंह बहादुर को गुरु गोबिंद सिंह जी का आखिरी सिख मानते थे और दूसरे थे टट खालसा, जो कि गुरु जी द्वारा रचित ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानते थे.
इन दोनों समुदायों में श्री हरिमंदिर साहिब पर हक जमाने को लेकर भी झगड़े होने लगे थे. बाबा दीप सिंह जी ने दोनों के बीच के झगड़े को समाप्त करने का अनोखा तरीका निकाला. उन्होंने दो पर्चियों पर एक एक नाम लिखकर सरोवर में फेंक दीं. जी पर्ची पर टट खालसा लिखा था वह तैरती रही और जिस पर बंदही खालसा लिखा था वह दूसरी डूब गई.
तब बाबा दीप सिंह के फैसले को मानते हुए बंदही खालसा समुदाय मानते हुए हरमंदिर साहिब को छोड़ दिया. लेकिन कुछ वन्दहियों ने इसे पक्षपात पूर्ण फैसला माना. सन् 1746 में पँजाब के राज्यपाल यहिया खान ने सिक्खों का सर्वनाश करने का अभियान (छोटा घल्लूधारा) चलाया तो उस समय भी बाबा दीप सिंह जी सहायता के लिए पहुँचे.
1755 में अहेमद शाह अब्दाली ने भारत पर आक्रमण किया और जीतने के बाद भारत से बहुत दौलत लूटकर तथा हजारों लोगों को गुलाम बनाकर अपने साथ ले जा रहा था. तब बाबा दीप सिंह के आदेश पर सिक्खों ने जगह जगह अब्दाली की सेना पर हमला किया किया और गुलाम बनाकर ले जाए जा रहे हजारों स्त्रियों और पुरषों को आजाद कराया.
इस बात से गुस्साए अहेमद शाह अब्दाली ने 1757 में अपने सेनापति जहान खान को एक बड़ी फौज के साथ हरिमंदिर साहिब को तबाह करने के लिए भेजा. जहान खान ने अमृतसर पर हमला कर दिया. हम्रिंदर साहब की रक्षा करते हुए सौकड़ों सिक्ख मारे गए. दरबार साहब पर जहान खान का कब्ज़ा हो गया.
जहान खान ने दरवार साहब की मर्यादा को भंग किया और अपने सैनको को सरोवर को भी गन्दा करने का आदेश दिया. उस समय बाबा दीप सिह जी दमदमा साहब में थे. जब उन्हें इसके बारे में जानकारी मिली, तो उन्होंने 5000 सिक्खों को एकजुट करके अमृतसर पर हमला करके दरबार साहब को आजाद करने का संकल्प लिया..
इस युद्ध के समय उनकी उम्र 75 साल थी. अमृतसर सीमा पर पहुंचने पर बाबा दीप सिंह जी ने एक लकीर खिंची और सभी सिखों से आव्हान किया कि- इस सीमा को केवल वही सिख पार करें, जो पंथ की राह में शीश कुर्बान करने के लिए तैयार हैं. एक बार इस लकीर को पार करने वाला फिर बिना दरवार साहब को आजाद कराये बापस नहीं जाएगा.
जब लाहौर में जहान खान को इसका पता चला तो उसने घबराकर इस युद्ध को 'इस्लाम खतरे में है" का नारा दिया और इस्लाम पर खतरे के नाम पर जहादिया को आमन्त्रित कर लिया, और हैदरी झण्डा लेकर गाज़ी बनकर अमृतसर की ओर चल पड़े . इस प्रकार उनकी सँख्या सरकारी सैनिकों को मिलाकर बीस हजार हो गई.
युद्ध में बाबा दीप सिंह अपनी 15 किलो वजनी तलवार के साथ दुश्मन पर टूट पड़े. अचानक मुगल कमांडर जमाल शाह, बाबा जी के सामने आ गया. दोनों के बीच काफी समय तक युद्ध हुआ. आखिर में दोनों ने पूरी ताकत से अपनी-अपनी तलवार घुमाई, दोनों की तलबार एक दुसरे की गर्दन पर लगी, जिससे दोनों के सिर धड़ से अलग हो गए.
बाबा जी का शीश अलग होता देख एक सिख सैनिक दयाल सिंह ने चिल्ला कर बाबा जी को आवाज दी और उन्हें उनकी शपथ के बारे में याद दिलाया. कहा जाता है कि - इसके बाद बाबा दीप सिंह जी का धड़ खड़ा हो गया. उन्होंने एक हाथ में अपना सिर उठाया और दुसरे हाथ से तलवार चलाते हुए श्री हरिमंदिर साहिब की ओर चलने लगे.
बाबा जी को ऐसा करते देख जहां सिखों में जोश भर गया, वहीं दुश्मन डर के मारे भागने लगे. अंतत: बाबा दीप सिंह जी श्री हरिमंदिर साहिब पहुंच गए और अपना सिर परिक्रमा में चढ़ा कर प्राण त्याग दिए. जहाँ उन्होंने अपना शीश रखा और प्राण त्यागे, उस स्थान को शहीद पुंगा कहा जाता है. स्वर्णमंदिर जाने वाले भक्त उस स्थान पर माथा टेकते हैं
बाबा दीप सिंह संधू जी की शहादत
11 नबंम्वर  1757 में हुई थी.

Friday, 25 January 2019

नानाजी देशमुख

 नानाजी देशमुख के नाम से प्रशिद्ध महान सामाजिक कार्यकर्ता का वास्तविक नाम "चंडिकादास अमृतराव देशमुख" था. उनके सबसे बड़े राजनैतिक बिरोधी "चन्द्रभान गुप्ता" जिन्हें नानाजी के कारण कई बार चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था, नानाजी का दिल से सम्मान करते थे और उन्हें प्यार से नाना फड़नवीस कहा करते थे.
धीरे धीरे वे नाना जी के नाम से ही मशहूर हो गए. डॉ॰ राम मनोहर लोहिया, आचार्य बिनोवा भावे और चौधरी चरण सिंह से उनके बहुत अच्छे सम्बन्ध थे. उनका जन्म 11 अक्टूबर सन 1916 को महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के एक छोटे से गांव कडोली में हुआ था। इनके पिता का नाम अमृतराव देशमुख तथा माता का नाम राजबाई था.
जब वे छोटे थे तब ही उनके माता पिता का देहांत हो गया था. उनका बचपन अभाव एवं गरीबी में अपने मामा के यहाँ बीता. उनके पास स्कूल की फीस देने और पुस्तकें खरीदने तक के लिये पैसे नहीं थे किन्तु उनके अन्दर शिक्षा और ज्ञानप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा थी. तब उन्होंने पढने के साथ साथ सब्जी बेचने का भी काम किया.
जब वे 9वीं कक्षा में थे, उसी समय उनकी मुलाकात संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार जी से हुई. डा. साहब इस बालक के कार्यों से बहुत प्रभावित हुए. मैट्रिक की पढ़ाई पूरी होने पर डा. हेडगेवार ने नानाजी को आगे की पढ़ाई करने के लिए पिलानी जाने का परामर्श दिया. उन्होंने पिलानी के बिरला इंस्टीट्यूट से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की.
उन्नीस सौ तीस के दशक में वे आरएसएस में शामिल हो गये. उनका जन्म भले ही महाराष्ट्र में हुआ, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान और उत्तर प्रदेश रहा. उनकी निष्ठां और मेहनत को देखकर सरसंघचालक श्री गुरू जी ने पहले उन्हें प्रचारक के रूप में गोरखपुर भेजा. संघ के पास दैनिक खर्च के लिए भी पैसे नहीं होते थे.
नानाजी को धर्मशालाओं में ठहरना पड़ता था. बाद में बाबा राघवदास ने उन्हें अपने आश्रम में इस शर्त पर ठहरने दिया कि वे उनके लिये खाना बनाया करेंगे. उनकी तीन साल की कड़ी मेहनत रंग लायी और गोरखपुर के आसपास संघ की ढाई सौ शाखायें खुल गयीं. उन्होंने पहले सरस्वती शिशु मन्दिर की स्थापना गोरखपुर में की.
उनके कार्यों को देखते हुए उन्हें उत्तरप्रदेश के प्रान्त प्रचारक का दायित्व दिया गया. 1947 में आर.एस.एस. ने राष्ट्रधर्म और पाञ्चजन्य नामक दो साप्ताहिक और स्वदेश (हिन्दी दैनिक) निकालने का फैसला किया. अटल बिहारी वाजपेयी को सम्पादन, दीन दयाल उपाध्याय को मार्गदर्शन और नानाजी को प्रबन्ध निदेशक की जिम्मेदारी सौंपी गयी.
इसी बीच गांधी की हत्या में शक का बहाना बनाकर, कांग्रेस सरकार ने संघ के प्रति दुर्भावना के कारण, आरएसएस पर परिबंध लगा दिया गया. परन्तु अपनी लाख कोशिशों के बाद भी नेहरु सरकार गांधी हत्याकांड में संघ की संलिप्तता साबित नहीं कर सकी और सरकार को मजुबूर होकर संघ पर लगाया गया प्रतिबन्ध वापस लेना पड़ा.
तब संघ ने एक राजनैतिक शाखा के रूप में "भारतीय जनसंघ" नाम के संगठन की स्थापना की. नानाजी को उत्तरप्रदेश में भारतीय जन संघ के महासचिव का दायित्व दिया गया. दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि, अटल बिहारी वाजपेयी के वक्तृत्व और नानाजी की संगठन शक्ति के द्वारा यह उत्तर प्रदेश में बड़ी राजनीतक ताकत बन कर उभरा.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की अचानक हुई हत्या नानाजी के लिये बहुत बड़ी क्षति थी. उन्होंने नई दिल्ली में उनके नाम पर दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की, जिसके अन्तर्गत कृषि, कुटीर उद्योग, ग्रामीण स्वास्थ्य और ग्रामीण शिक्षा पर विशेष बल दिया. उनका उदेश्य था-"हर हाथ को काम और हर खेत को पानी"
1975 में इंदिरा की तानाशाही के खिलाफ सारे विपक्ष को एकजुट करने में उन्होंने बहुत महुत्व्पूर्ण भूमिका निभाई. जब पटना में जय प्रकाश नारायण पर पुलिस ने लाठिय बरसाईं तो वे उनके बीच में आ गये और खुद लाठियां झेलकर उन्होंने जेपी को वहां से सुरक्षित निकाला. इस संघर्ष में उनके हाथ में भी फ्रैक्चर हो गया था.
1977 में वे बलरामपुर से सांसद चुने गए. मोरारजी देसाई ने उनसे मंत्रीपद लेने का आग्रह किया लेकिन उन्होंने संगठन के लिए कार्य करने की बात कहकर मंत्रीपद लेने से विनम्रतापूर्वक मना कर दिया. 1989 में वे चित्रकूट आये. यहा भगवान श्रीराम की कर्मभूमि चित्रकूट की दुर्दशा को ठीक करने के लिए वहीँ बसने का फैसला किया
नानाजी ने चित्रकूट को अपने सामाजिक कार्यों का केन्द्र बनाया. उन्होंने सबसे गरीब व्यक्ति की सेवा शुरू की. वे अक्सर कहा करते थे कि -राम ने अपने वनवास के चौदह में से बारह वर्ष यहीं गरीबों की सेवा में बिताये थे और उन्हें राजा राम से वनवासी राम अधिक प्रिय लगते हैं. इसलिए वे अपना बचा हुआ जीवन चित्रकूट में ही बितायेंगे.
उन्होंने चित्रकूट में देश के प्रथम ग्रामीण विश्व विद्यालय की स्थापना की. उन्होंने देखा कि - ज्यादातर ग्रामीण आपसी झगड़ों और कोर्ट कचहरी के चक्कर में बर्बाद होते हैं. उन्होंने ग्राम समितियों को बनाया जहाँ आपसी झगड़ों को आपस में सुलझाने पर बल दिया. उनके प्रयास से आसपास के 80 गाँव मुक़दमे वाजी से पूर्ण मुक्त हो गए.
पूर्व राष्ट्रध्यक्ष अब्दुल कलाम उनके पास "चित्रकूट" में गए. वहां की इस झगड़ा सुलझाने की व्यवस्था को देखकर उन्होंने कहा था -चित्रकूट के आसपास अस्सी गाँव मुकदमें बाजी से मुक्त है. इसके अलावा इन गाँवों के लोगों ने सर्वसम्मति से यह फैसला किया है कि किसी भी विवाद का हल करने के लिये वे अदालत नहीं जायेंगे.
मैंने नानाजी देशमुख और उनके साथियों से मुलाकात की. दीन दयाल शोध संस्थान ग्रामीण विकास के प्रारूप को लागू करने वाला अनुपम संस्थान है. यह प्रारूप भारत के लिये सर्वथा उपयुक्त है. विकास कार्यों से अलग दीनदयाल उपाध्याय संस्थान विवाद-मुक्त समाज की स्थापना में भी मदद करता है. मैं समझता हूँ कि
कलाम के मुताबिक, विकास के इस अनुपम प्रारूप को सामाजिक संगठनों, न्यायिक संगठनों और सरकार के माध्यम से देश के विभिन्न भागों में फैलाया जा सकता है। शोषितों और दलितों के उत्थान के लिये समर्पित नानाजी की प्रशंसा करते हुए कलाम ने कहा कि नानाजी चित्रकूट में जो कर रहे हैं उसे देखकर अन्य लोगों की भी आँखें खुलनी चाहिये.
27 फ़रवरी 2010 को चित्रकूट में ही नानाजी देशमुख का देहांत हो गया. उन्होंने अपनी म्रत्यु से बहुत पहले ही घोषणा की थी कि -उनके शरीर का अंतिम संस्कार न किया जाए बल्कि डाक्टरी के छात्रों को शोध के लिए दिया जाए. उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उनका शव अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली को सौंप दिया गया.

Monday, 21 January 2019

महान क्रांतिकारी नृत्यान्गना अजीजन बाई

कानपुर की मशहूर खूबसूरत तबायफ (नर्तकी) अजीजन बाई ने सन 1857 के प्रथम स्वाधीनता में हिस्सा लेकर अपने देश के लिए अपनी जान की कुर्बानी दी थी और अपने दामन पर लगे बदनाम पेशे (तबायफ) के दाग को अपनी शहादत के खून से धो डाला था. 1857 के स्वाधीनता संग्राम में दिए गए योगदान ने उन्हें अमर बना दिया.
 अजीजन बाई ने देश की खातिर अपना बलिदान देकर यह साबित कर दिया कि - श्रेष्ठ लोगों को हालात चाहे कहीं भी पहुंचा दे, वो अपनी श्रेष्ठता कायम रखते है. अजीजन बाई का वास्तविक नाम "अंजुला" था. उसका जन्म 22 जनवरी 1824 को मध्यप्रदेश में मालवा क्षेत्र के राजगढ़ में एक धर्मनिष्ठ क्षत्रीय परिवार में हुआ था.
उसके पिता का नाम शमशेर सिंह था और वे एक बड़े जमीदार थे. एक बार वह अंजुला अपनी सहेलियों के साथ मेले से आ रही है, तभी कुछ अंग्रेज सैनिको ने उन लड़कियों का अपहरण कर लिया. और उन सबको एक गाड़ी में बिठाकर ले गए. शमशेर सिंह को जब इसका पता चला तो उन्होंने लड़कियों को छुडाने का बहुत प्रयास किया.
उन्होने अंग्रेज उच्चाधिकारियों से फ़रियाद की. लेकिन इससे बच्चियों को छोड़ने के बजाये अंग्रेजों ने शिकायत करने के अपराध में उनकी जमीदारी ही छीन ली. बच्चियों के गम में दुखी होकर उनका प्राणांत हो गया. इधर रास्ते में मौक़ा मिलने पर किसी तरह अंजुला और उसकी एक सहेली हरि देवी उनकी कैद से निकलने में कामयाब हो गई.
बचने का कोई उपाय न दिखने पर अपनी इज्जत बचाने के लिए दोनों ने यमुना नदी में छलांग लगा दी. हरि देवी की म्रत्यु हो गई लेकिन अंजुला को एक मुसलमान पहलवान ने बचा लिया. लेकिन वह भी कोई अच्छा आदमी नहीं था. उसने अंजुला को कानपुर लेजाकर, "अम्मीजान" के नाम ने कुख्यात तवायफ के पास 500 रूपय में बेंच दिया.
अम्मीजान ने अंजुला का धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बना दिया और नाम रख दिया "अजीजन बाई" . इस प्रकार एक संस्कारी हिन्दू परिवार की लड़की मुसलमान बन गई और तवायफ जैसे गंदे पेशे में आ गई. मजबूर अजीजन ने पुरे मनोयोग से नाचना गाना सीखा. मशहूर तबायफ "उमराव जान" से भी उन्होंने नृत्य सीखा था.
अजीजन बाई केवल अपनी कला (नृत्य और गायन) बेचती थी, अपना शरीर नहीं. कहा जाता है कि - वह तात्या टोपे से बहुत प्रभावित थी और उनके किस्से सुनकर मन ही मन उनसे प्रेम करने लगी थी. जब 10 मई 1857 को मेरठ में बगावत हुई तो उस की गूंज सारे भारत में सुनाई दी. कानपूर भी क्रान्ति के लिए तैयार हो गया.
अजीजन बाई ने आस पास के चकलो की लगभग 400 तवायफों को एकजुट किया और इसको नाम दिया "मस्तानी टोली", तवायफें अंग्रेजो की छावनी में भी नृत्य प्रदर्शन के लिए जाती थी. वे वहां से जानकारी हाशिलकर क्रांतिकारियों को पहुंचाने लगीं. इसी बीच अंग्रेजों ने बिठुर में अंग्रेजों ने बहुत सारी औरतों और बच्चों को मार दिया.
इसका बदला लेने के लिए क्रान्तिकारियो ने (जिसमे अजीजन की मस्तानी टोली भी थी) 15 जुलाई 1857 को बीबीघर (कानपुर) में बहुत सारे अंग्रेज औरतों / बच्चों को मार कर कुएं में फेंक दिया. तब अंग्रेजों तवायफों के मोहल्ले को घेर लिया और कई तवायफो को गिरफ्तार कर लिया लेकिन अजीजन किसी तरह से निकल भागने में कामयाब रही.
अजीजन नाना साहब पेशवा के वकील अजीमुल्ला खा के पास पहुंची. अजीमुल्ला ने उन्हें नाना साहब और तात्या टोपे से मिलबाया. जब नाना साहब को पता चला कि- अजीजन कुलीन घर कि है और मजबूरी में नर्तकी बनी है तो उन्होंने उसे अपनी बहन बना लिया. उसे एक तलवार भेंट की और उससे अपने हाथ में बंधवा ली.
अजीजन फिर से "अंजुला" बन गई.मस्तानी टोली की 25 सदस्याओं (पूर्व तवायफों) को घुड़सवारी और बन्दुक चलाने का प्रशिक्षण दिया गया. अब 'अंजुला" की मस्तानी टोली क्रांतिकारियों के साथ कंधे से कंधा मिलकर अंग्रेजों का मुकाबला करने लगी. महाराजपुर की लड़ाई में "अंजुला" ने तात्या टोपे की जान बचाई और वहां से निकलने में मदद की.
बिठुर की हार के बाद जब सारे क्रांतिकारी भूमिगत हो गए तो "अंजुला" भी पुरुष वेश में जंगल में छुप गई. जब वह एक कुएं से पानी पी रही थी तभी 6 अंग्रेज सैनिक वहां आ गए. उस समय उसके बाल खुले हुए थे वो सैनिक उसे पहेचान गए. खुनी संघर्ष में अंजुला ने उन सभी को मार गिराया लेकिन उसके कंधे में भी गोली लग गई थी.
तभी वहां कई सारे अंग्रेज सैनिक आ गए और अंजुला को पकड़कर जनरल हैवलाक के सामने ले गए. जनरल हैवलाक ने उससे कहा कि - अगर तुम अपने किये की क्षमा मांग लो और अपने साथियों को पता बता दो तो तुम्हे माफ़ के दिया जाएगा साथ ही ईनाम भी दिया जाएगा. वरना तुमको तोप के आगे बांधकर उड़ा दिया जाएगा.
इस पर अंजुला ने हुंकार भरकर कहा कि - भारतवाशियों पर अमानवीय जुल्म करने के लिय तुम्हे माफी मांगनी चाहिए. एक नर्तकी से ऐसा जवाब सुनकर अंग्रेज अफसर तिलमिला गए और उसे मौत के घाट उतारने का आदेश दे दिया गया. देखते ही देखते अंग्रेज सैनिकों ने उसके शरीर को गोलियों से छलनी कर दिया.
महान क्रांतिकारी "विनायक दामोदर सावरकर" ने अपने ग्रन्थ "1857-प्रथम स्वातंत्र्य समर" में अजीजन उर्फ़ अंजुला की तारीफ करते हुए लिखा है, ‘अजीजन एक नर्तकी थी परंतु सिपाहियों से उसको बेहद स्नेह था. अजीजन का प्यार धन के लिए नहीं बिकता था. अजीजन के सुंदर मुख की मुस्कुराहट भरी चितवन युद्धरत सिपाहियों को प्रेरणा से भर देती थी. उनके मुख पर भृकुटी का तनाव युद्ध से भागकर आए हुए कायर सिपाहियों को पुन: रणक्षेत्र की ओर भेज देता था.’

Wednesday, 9 January 2019

बरीन्द्र कुमार घोष

बरीन्द्र कुमार घोष का जन्म 5 जनवरी 1880 को हुआ था. उनके पिता कृष्णनाधन घोष एक प्रतिष्ठित चिकित्सक थे और उनकी माता "स्वर्णलता देवी" प्रसिद्ध समाज सुधारक व विद्वान् राजनारायण बसु की पुत्री थीं. महान अध्यात्मवादी "अरविन्द घोष" उनके बड़े भाई तथा भूपेन्द्र नाथ दत्त (स्वामी विवेकाननद के छोटे भाई) उनके मित्र थे.
बरीन्द्र घोष की स्कूली शिक्षा देवगढ में हुई. उन्होंने बरोड़ा में मिलिट्री ट्रेनिंग भी ली. बड़े भाई श्री अरविन्द घोष के बिचारों से प्रभावित होकर उनका झुकाव क्रांतिकारी आन्दोलन की तरफ हो गया.1902 में बारीन्द्र कलकत्ता वापस आये और यहा उनकी मित्रता "यतीन्द्रनाथ मुखर्जी" (बाघा जतिन) के साथ हो गई.
अंग्रेजों के भारतीयों पर जुल्म देखकर उन्होंने निर्णय लिया कि अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए युवाओं का एक संगठन बनाना होगा. उन्होंने 1903 में "अनुशीलन समिति" नाम के संगठन की स्थापना की. प्रमथ नाथ मित्र इसके अध्यक्ष, चितरंजन दास व अरविन्द घोष इसके उपाध्यक्ष और सुरेन्द्रनाथ ठाकुर इसके कोषाध्यक्ष थे.
इसकी कार्यकारिणी की एकमात्र महिला सदस्य सिस्टर निवेदिता थीं. इसका प्रारूप प्रारम्भ में केवल एक व्यायामशाला की तरह था. यहाँ लोग कसरत करते और विभिन्न बिषयों पर चर्चा करते थे. सदस्यों को लाठी, तलवार और बन्दूक चलने ली ट्रेनिंग दी जाती थी, हालाँकि बंदूकें आसानी से उपलब्ध नहीं होती थीं.
वरींद्र घोष ने 1905 में "भवानी मंदिर " नामक पहली किताब लिखी. इसमें क्रांतिकारियों को सन्देश दिया गया था कि वह स्वाधीनता पाने तक संन्यासी का जीवन बिताएं. 1906 में उन्होंने भूपेन्द्र नाथ दत्त के साथ मिलकर बांगला भाषा में "युगांतर" नमक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित करना शुरू किया. क्रांति के प्रचार में इस पत्र का सर्वाधिक योगदान रहा.
वरींद्र घोष की दूसरी पुस्तक " वर्तमान रणनीति " अक्टूबर-1907 में आई. यह किताब बंगाल के क्रांतिकारियों की पाठ्य पुस्तक बन गयी, इसमें कहा गया था की भारत की आजादी के लिए फ़ोजी शिक्षा और युद्ध जरूरी है. वारेंद्र घोष और बाघा जतिन ने पूरे बंगाल से अनेक युवा क्रांतिकारियों को खड़ा करने में निर्णायक भूमिका अदा की.
क्रांतिकारियों ने कलकत्ता के मनिक्तुल्ला में "मनिक्तुल्ला समूह " बनाया. यह उनका एक गुप्त स्थान था जहाँ वे बम बनाते और हथियार इकठ्ठा करते थे. समूह ने क्रांतिकारियों को कड़ी सजा देने वाले मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को मारने का निर्णय लिया. जिसकी जिम्मेदारी दल के युवा सदस्यों खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को दी गई.
30 अप्रैल 1908 को खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने किंग्स्फोर्ड की हत्या का प्रयास किया जिसके फलस्वरूप पुलिस ने बहुत तेजी से क्रांतिकारियों की धर-पकड़ शुरू कर दी. दुर्भाग्य से 2 -मई-1908 को बरीन्द्र घोष को भी उनके कई साथियों सहित गिरफ्तार कर लिया गया. उन पर "अलीपुर बम केस" चलाया गया.
उनको इस बम काण्ड का मुख्य साजिशकर्ता मानकर पहले म्रत्युदंड की सजा दे दी गयी परन्तु बाद में उसे आजीवन कारावास कर दिया गया. उन्हें अंदमान की भयावह सेल्युलर जेल में भेज दिया गया जहाँ वह 1920 तक बन्दी रहे. 1920 में विश्व युद्ध की समाप्ति पर कैदियों को आम रिहाई दी गई, तब उनको कालापानी जेल से रिहा किया गया.
बाल गंगाधर तिलक और स्वातंत्र्य वीर सावरकर उनसे बहुत ज्यादा प्रभावित थे. खुदीराम बोस और बरीन्द्र कूमार घोष के समर्थन में लिखने के कारण 'बाल गंगाधर तिलक" को म्यामार की जेल में भेज दिया गया था. जब स्वातंत्र्य वीर सावरकर को कालापानी की सजा हुई थी तो उन्होंने कहा था अब मुझे अपने गुरु के सानिध्य में रहने को मिलेगा.
कालापानी से रिहा होने के बाद बरीन्द्र घोष कोलकाता आ गए और पत्रकारिता प्रारंभ कर दी, किन्तु जल्द ही उन्होंने पत्रकारिता छोड़ दी और कलकत्ता में आश्रम बना लिया. 1923 में वह पांडिचेरी चले गए जहाँ उनके बड़े भाई श्री अरविन्द ने प्रसिद्ध "श्री औरोविंद आश्रम " बनाया था; श्री अरविन्द ने उन्हें आध्यात्म के प्रति प्रेरित किया था.
1929 में बरीन्द्र घोष दोबारा कलकत्ता आये और पत्रकारिता शुरू कर दी. 1933 में उन्होंने "द डान ऑफ इण्डिया (The Dawn of India) नामक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्र शुरू किया. वह "द स्टेट्समैन से जुड़े रहे और 1950 में वह बांगला दैनिक "दैनिक बसुमती" के संपादक हो गए। 18 अप्रैल 1959 को इस महान सेनानी का देहांत हो गया.
आजादी के बाद वास्तविक क्रांतिकारियों के साथ क्या हुआ और अंग्रेजों के चापलूसों ने कैसे सत्ता की मलाई खाई यह तो सबको पता ही है.

नैनो तकनीक, दुनिया को भारत की देन

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक, नोबल पुरस्कार विजेता "राबर्ट कर्ल जूनियर" का कहना है कि - आज जिस "नैनो "तकनीक को दुनिया की श्रेष्ठतम तकनीक कहकर प्रचारित किया जा रहा है, उसका प्रयोग भारत में हजारों साल पहले शुरु हो चुका था. हालांकि खुद भारतीयों को अपनी इस महान खोज के बारे में मालूम नहीं था.
राबर्ट कर्ल का कहना है कि- भारत के लोगों ने अनजाने में ही, दो हजार साल पहले नैनोटेक्नोलाजी का प्रयोग कर खुद को ज्यादा आधुनिक साबित कर दिया है. टीपू सुल्तान की तलवार और अजंता की गुफाओं में की गई चित्रकारी में, जिस दमिश्क फलक [ब्लेड] का इस्तेमाल इस बात के प्रमाण हैं कि- दोनों में नैनोटेक्नोलाजी का प्रयोग हुआ है.
उन्होंने बताया कि- बेहतरीन हथियार बनाने तथा पत्थरों की कटाई के लिए ब्लेड बनाने के लिए, लोहे के टुकड़े को लाल कर के पीटा जाता था फिर उसको मोड़कर दोबारा गर्म किया जाता था. उसको फिर दोहरा करके हथौड़े से पीटा जाता था. इस प्रकार उस तलबार मे लोहे की हजारों नैनो परत बन जाती थी. टीपू की तलवार भी इसी तकनीक से बनी थी.
आयुर्वेदिक औषधियां बनाने के लिए, भारतीय वैध्य सदियों से 'धातुओं की भष्म" बनाते आये हैं, यह चिकित्सा विज्ञान में "नैनो" तकनीक के उपयोग, का उत्कृष्ट उदाहरण है. इसके अलाबा, भारतीय दर्शन शास्त्र में जिस तरह से "आत्मा" और "परमात्मा" का बिश्लेषण किया गया हैं, वह तो नैनो तकनीक से भी बहुत आगे कि चीज है.
दैनिक जीवन में दूध को पीने से पहले, भारतीय एक गिलास में दूध लेते हैं और एक खाली गिलास लेते हैं. उस दूध को बार बार एक से दुसरे गिलास में पलटते है. इससे यह दूध बहुत ज्यादा गुणकारी हो जाता है. इससे दूध के अन्दर अनेकों ऐसे नैनो तत्व सक्रीय हो जाते थे, जिसे चिकत्सा विज्ञान के अनुसार नैनो मेडिकल तकनीक कहा जा सकता है.
उल्लेखनीय है कि - अमेरिकी वैज्ञानिक कर्ल को 1996 में रिचर्ड स्माइली और हैराल्ड क्रोटो के साथ संयुक्त रूप से रसायन शास्त्र का पुरस्कार दिया गया था. वे पिछले अनेकों बर्षों से भारतीय प्राचीन ग्रंथो का गहन अध्यन कर रहे हैं और सन 2011-12 में विशाखापत्तनम में आयोजित विज्ञान / वेदान्त कांग्रेस में चर्चा में भाग लेने के लिए भारत भी आये थे.

डा. हरगोविन्द खुराना

बायो टेक्नोलाजी के जनक, नोबल पुरष्कार विजेता, महान चिकित्सा वैज्ञानिक
पद्म भूषण डा. हरगोविन्द खुराना के जन्मदिवस (9 जनवरी ) पर सादर नमन 
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डा. हरगोविन्द खुराना एक भारतीय-अमेरिकी वैज्ञानिक थे, उनका मुख्य बिषय आण्विक जीव विज्ञान (मॉलीक्यूलर बॉयोलॉजी) था. उन्हें सन 1968 में प्रोटीन संश्लेषण में न्यूक्लिटाइड की भूमिका का प्रदर्शन करने के लिए चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया. यह पुरुष्कार उन्हें दो अन्य वैज्ञानिकों के साथ दिया गया था.
 डा. हरगोविंद खुराना का जन्म अविभाजित भारत में. 9 जनवरी 1922 को मुल्तान जिले के रायपुर कसबे में हुआ था. इनके पिता पटवारी थे. 12 बर्ष की आयु में उनके पिता का निधन हो गया. उन्होंने मुल्तान के डी. ए. वी. हाई स्कूल में अध्यन किया. प्रतिभावान विद्यार्थी होने के कारण उनको सदैव विधालयों से छात्रवृत्ति मिलती रही.
उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से सन् 1943 में बी. एस-सी. (आनर्स) तथा सन् 1945 में एम. एस-सी. (ऑनर्स) उच्च अंकों के साथ की. इसकी बजह से उनको सरकार से इंग्लैंड जाकर शोध करने के लिए छात्रव्रत्ति मिली. इंग्लैण्ड के लिवरपूल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर ए. रॉबर्टसन् के अधीन अनुसंधान कर इन्होंने डाक्टरैट की उपाधि प्राप्त की.
इसके उपरान्त इन्हें एक बार फिर भारत सरकार से शोधवृत्ति मिलीं, जिसके बाद वे जूरिख (स्विट्सरलैंड) के फेडरल इंस्टिटयूट ऑव टेक्नॉलोजी में प्रोफेसर वी. प्रेलॉग के साथ शोध करने लगे. देश आजाद होने के बाद वे नबम्बर 1947 में भारत आ गए. उनको लगता था कि- आधुनिक वैज्ञानिक सोंच से ही भारत को आगे बढ़ाया जा सकता है.
लेकिन दो साल तक भारत में कोशिश के बाद जब अपनी शिक्षा के अनुकूल कोई काम न मिला. उन्होंने नेहरु से मिलकर, नेहरु को चिकित्सा के क्षेत्र में शोध करने के लिए एक विश्व स्तरीय संस्थान बनाने का प्रस्ताव दिया. परन्तु नेहरु सरकार ने उसमे कोई रूचि नहीं ली. तब उनका आजादी का उत्साह ठंडा हो गया और वे 1949 वापस इंग्लैण्ड चले गए
सन 1950 से 1952 तक कैंब्रिज के प्रख्यात विश्वविद्यालयों में पढ़ने और पढ़ाने दोनों का कार्य किया. 1952 में उन्हें वैंकोवर (कैनाडा) की कोलम्बिया विश्‍विद्यालय (Columbia University) से बुलावा आया जिसके उपरान्त वे वहाँ चले गये और जैव रसायन विभाग के अध्‍यक्ष बना दिए गये. यहां उन्‍होंने आनुवाँशिकी के क्षेत्र में शोध कार्य प्रारंभ किया
उनके शोधपत्र अन्‍तर्राष्‍ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं और शोध जर्नलों में प्रकाशित होने लगे. इसके फलस्वरूप वे काफी चर्चित हो गये और उन्‍हें अनेक सम्मान और पुरस्‍कार भी प्राप्‍त हुए. सन 1960 में उन्हें ‘प्रोफेसर इंस्टीट्युट ऑफ पब्लिक सर्विस’ कनाडा में स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया और उन्हें ‘मर्क एवार्ड’ से भी सम्मानित किया गया.
1960 में डॉ खुराना अमेरिका के विस्कान्सिन विश्वविद्यालय के इंस्टिट्यूट ऑव एन्ज़ाइम रिसर्च में प्रोफेसर पद पर नियुक्त हुए. सन 1966 में उन्होंने अमरीकी नागरिकता ग्रहण कर ली. सन 1970 में डॉ खुराना मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एम.आई.टी.) में रसायन और जीव विज्ञान के अल्फ्रेड स्लोअन प्रोफेसर नियुक्त हुए.
तब से लेकर सन 2007 वे इस संस्थान से जुड़े रहे और बहुत ख्याति अर्जित की. 1960 के दशक में खुराना ने नीरबर्ग की इस खोज की पुष्टि की कि डी.एन.ए. अणु के घुमावदार ‘सोपान’ पर चार विभिन्न प्रकार के न्यूक्लिओटाइड्स के विन्यास का तरीका नई कोशिका की रासायनिक संरचना और कार्य को निर्धारित करता है.
डी.एन.ए. के एक तंतु पर इच्छित अमीनोअम्ल उत्पादित करने के लिए न्यूक्लिओटाइड्स के 64 संभावित संयोजन पढ़े गए हैं, जो प्रोटीन के निर्माण के खंड हैं. खुराना ने इस बारे में आगे जानकारी दी कि न्यूक्लिओटाइड्स का कौन सा क्रमिक संयोजन किस विशेष अमीनो अम्ल को बनाता है.
उन्होंने इस बात की भी पुष्टि की कि न्यूक्लिओटाइड्स कूट कोशिका को हमेशा तीन के समूह में प्रेषित किया जाता है, जिन्हें प्रकूट (कोडोन) कहा जाता है. उन्होंने यह भी पता लगाया कि कुछ प्रकूट कोशिका को प्रोटीन का निर्माण शुरू या बंद करने के लिए प्रेरित करते हैं. उनका दल खमीर जीन की पहली कृत्रिम प्रतिलिपि संश्लेषित करने में सफल रहा.
डॉ खुराना ने जीन इंजीनियरिंग (बायो टेक्नोलॉजी) विषय की बुनियाद रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. जेनेटिक कोड की भाषा समझने और उसकी प्रोटीन संश्लेषण में भूमिका प्रतिपादित करने के लिए सन 1968 में डॉ खुराना को चिकित्सा विज्ञान का नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया.
डॉ हरगोविंद खुराना नोबेल पुरस्कार पाने वाले भारतीय मूल के तीसरे व्यक्ति थे. यह पुरस्कार उन्हें दो और अमेरिकी वैज्ञानिकों डॉ. राबर्ट होले और डॉ. मार्शल निरेनबर्ग के साथ सम्मिलित रूप से प्रदान किया गया था. इन तीनों ने डी.एन.ए. अणु की संरचना को स्पष्ट किया था और यह भी बताया था कि डी.एन.ए. प्रोटीन्स का संश्लेषण किस प्रकार करता है.
नोबेल पुरस्कार के बाद अमेरिका ने उन्हें ‘नेशनल एकेडमी ऑफ़ साइंस’ की सदस्यता प्रदान की (यह सम्मान केवल विशिष्ट अमेरिका वैज्ञानिकों को ही दिया जाता है). डॉक्टर खुराना ने अमेरिका में अध्ययन, अध्यापन और अनुसंधान कार्य जारी रखा और देश-विदेश के तमान छात्रों ने उनके सानिध्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की.
चिकित्सा के क्षेत्र डॉ खुराना के कार्यों को सम्मान देने के लिए विस्कोसिंन मेडिसन यूनिवर्सिटी, भारत सरकार और इंडो-यूएस सांइस एंड टेक्नोलॉजी फोरम ने संयुक्त रूप से सन 2007 में खुराना प्रोग्राम प्रारंभ किया. डा. हरगोविंद खुराना को उनके शोध और कार्यों के लिए अनेकों पुरस्कार और सम्मान दिए गए। इन सब में नोबेल पुरस्कार सर्वोपरि है.
डॉ. खुराना ने सन 1952 में स्विस मूल की एस्थर एलिजाबेथ सिब्लर से विवाह किया था. खुराना दंपत्ति की तीन संताने हुईं – जूलिया एलिज़ाबेथ (1953), एमिली एन्न (1954) और डेव रॉय (1958). उनकी पत्नी ने ताउम्र डॉ खुराना का उनके शोध और अध्यापन के कार्यों पूरा सहयोग किया. सन 2001 में एस्थर एलिजाबेथ सिब्लर की मृत्यु हो गयी.
अनेकों विदेशी पुरुष्कारों के अलावा सन 1969 में भारत सरकार ने डॉ. खुराना को पद्म भूषण से अलंकृत किया. पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ ने डी.एस-सी. की मानद उपाधि दी. 09 नवम्‍बर 2011 को इस महान वैज्ञानिक ने अमेरिका के मैसाचूसिट्स में अन्तिम सांस ली। उनके पीछे परिवार में पुत्री जूलिया और पुत्र डेव हैं.
डा. खुराना ने भले ही अमेरिका की नागरिकता ले ली थी, लेकिन भारत भूमि से उनका बड़ा लगाव था. उनका कहना था कि - कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि हाशिल करने के बाद भारत में पुरुष्कार पाना बहुत आसान है लेकिन उस उपलब्धि को हाशिल करने के लिए संसाधन मिलना बहुत मुश्किल है, यह स्थिति बदलनी चाहिए, तभी प्रतिभा पलायन रुकेगा

गैलीलियो गैलिली



 गैलीलियो गैलिली का जन्म 15 फ़रवरी 1564 को आधुनिक इटली के पीसा नामक शहर में एक संगीतज्ञ परिवार में हुआ था. इनके पिता विन्सौन्जो गैलिली उस समय के जाने माने संगीत विशेषज्ञ थे। वे "ल्यूट" नामक वाद्य यंत्र बजाते थे, यही ल्यूट नामक यंत्र बाद में गिटार और बैन्जो के रूप में विकसित हुआ.
अपने घर के पास में ही में उन्होंने अपनी स्कूल की पढाई की और जब वे 19 के हुए तब उन्होंने शहर की मुख्य यूनिवर्सिटी में मेडिसिन की पढाई के लिए दाखिला किया. परन्तु जैसे जैसे पढाई शुरू हुई वैसे वैसे मेडिसिन में उनकी रूचि कम होने लगी और जब यक़ीनन उन्हें लगा कि यह पढाई मेरी समझ के परे है तो उन्होंने मेडिसिन की पढाई छोड़ दी.
उसके बाद उन्होंने बिषय बदलकर फिलोसोफी और गणित की पढाई करना शुरू किया. परन्तु समय बाद घर की परिस्थिति ख़राब हो गई जिस वजह से गैलिली को मजबूरन साल 1585 में अपनी पढाई छोड़नी पड़ी. पढ़ाई छोड़ने के बाद वे एक शिक्षक बन गए. शिक्षण से पैसे कमाने के साथ साथ उन्होंने फिर से गणित की जो पढाई शुरू की.
पढ़ाई ख़त्म होते ही गैलिली को शहर की मुख्य यूनिवर्सिटी में गणित के प्रोफेसर की नोकरी मिल गई और तीन साल तक उन्होंने वही पर नोकरी की. साल 1592 में गैलिली पाडुआ यूनिवर्सिटी में चले गए और फिर साल 1610 तक वही पर रहे. जहा पर शायद उनका नया जीवन शुरू हो चूका था क्योकि वहा पर उन्होंने बहुत सारे प्रयोग किये थे.
गैलिलियो न सिर्फ चीजो को देखते थे बल्कि उन चीजो को बारीकी से अध्यन भी करते थे. वे बचपन में भी अपने पिता द्वारा बजाये जाने वाले वाध्ययंत्र को ध्यान से देखते थे. तारों और डोरी को कसने ढीला करने से आवाज बदल जाने पर वे सोंचते कि - हर एक चीज का दुसरी चीज से कोई न कोई रिश्ता जरुर होता है.
प्रक्रति में कहीं कुछ घटता है तो उसके साथ ही कहीं कुछ बढ़ता है. इस बात से प्रेरित होकर उन्होंने लिखा था कि “ईश्वर की भाषा गणित है”. उसके बाद उन्होंने कुछ प्रयोग किये जिसमे उन्होंने पाया कि प्रकृति के नियम एक दूसरे जुड़े हुए है,जैसे किसी एक के बढने और घटने के बीच गणित के समीकरणों जैसे ही संबंध होते है.
इस महान गणितज्ञ और वैज्ञानिक ने ही प्रकाश की गति को नापने का साहस किया. इसके लिये गैलीलियो और उनका एक सहायक अंधेरी रात में कई मील दूर स्थित दो पहाड़ की चोटियों पर जा बैठेजहां से गैलीलियो ने लालटेन जलाकर रखी, अपने सहायक का संकेत पाने के बाद उन्हें लालटेन और उसके खटके के माध्यम से प्रकाश का संकेत देना था.
दूसरी पहाड़ी पर स्थित उनके सहायक को लालटेन का प्रकाश देखकर अपने पास रखी दूसरी लालटेन का खटका हटाकर पुनः संकेत करना था. इस प्रकार पहली बार किसी ने प्रकाश की गति का आकलन किया. हालांकि इसका कोई अभीष्ट परिणाम नहीं आया लेकिन इससे उनकी प्रयोग शीलता को समझा जा सकता है
गैलिली ने एक बड़ी मीनार पर चढ़कर वहा से अलग अलग आकर के पत्थरो नीचे फेका. इससे उन्होंने यह जाना कि- पत्थरो के आकर अलग अलग होने के बाबजूद सभी पत्थरो के नीचे पहुँचने का समय एकसमान था. उन्होंने दूसरी जगह पर भी यही प्रयोग किया और परिणाम वही मिला, एक समान समय.
उसके बाद गैलिली ने दुनिया को "जड़त्व का सिद्धांत दिया. जो नियम कई सालो बाद न्यूटन के गति के सिद्धांतों का पहला सिद्धांत बना.कालान्तर में प्रकाश की गति और उर्जा के संबंधों की जटिल गुल्थी को सुलझाने वाले महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने इसी कारण उन्हें ‘आधुनिक विज्ञान का पिता ‘ के नाम से संबोधित किया.
गैलीलियो ने एक शक्तिशाली दूरबीन का आविष्कार किया जिसकी सहायता से चंद्रमा की सतह के गड्ढे तक देखे जा सकते थे. अब गैलिलियो का अधिकांस समय खगोलीय पिंडों को देखने और उनकी गति का अध्यन करने में बीतने लगा. उन्होंने दुनिया भर की नई पुरानी खगोलीय जानकारी को भी इकठ्ठा किया जिसमे भारतीय पंचांग प्रमुख था.
उन्होंने तब उपलब्ध सभी खगोलीय जाकारियों और मान्यताओं का तुलनात्मक अध्यन भी किया. उस समय तक सभी की यह मान्यता थी कि प्रथ्वी ब्रह्माण्ड के केंद्र में है और सूरज, चाँद, गृह, उपग्रह, तारे, आदि सभी प्रथ्वी की परिक्रमा करते हैं. केवल एक खगोलशास्त्री "कॉपरनिकस" ने कहा था कि पृथ्वी समेत सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते है.
गैलीलियों ने कापरनिक्स के कथन के अनुसार अपनी दूरबीन से पुनः खगोलिए पिंडो का अध्यन किया. तब उनको भी कापरनिक्स का कथन ही सही लगा कि- प्रथ्वे सहित सभी गृह उपग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं. जब गैलीलियो ने यह सिद्वांत सार्वजनिक किया तो चर्च ने इसे अपनी अवज्ञा माना और इसके कारावास की सजा सुनायी गयी.
वर्ष 1633 में 69 वर्षीय वृद्व गैलीलियो को चर्च की ओर से यह आदेश दिया गया कि वे सार्वजनिक तौर पर माफी मांगते हुये यह कहें कि धार्मिक मान्यताओं के विरूद्व दिये गये उनके सिद्वांत उनके जीवन की सबसे बडी भूल थी जिसके लिये वे शर्मिंदा हैं. मजबूरी में उन्होने ऐसा ही किया भी परन्तु इसके बाद भी उन्हें कारावास में डाल दिया गया.
उनका स्वास्थ्य लगातार बिगडता रहा और इसी के चलते कारावास की सजा गृह-कैद अर्थात अपने ही घर में कैद में रहने की सजा में बदल दिया गया. अपने जीवन का आखिरी दिन भी उन्होंने इसी कैद में ही बिताया. गैलीलियो धर्म बिरोधी नहीं थे लेकिन वे पुरानी धार्मिक मान्यताओं को विवेकशीलता और प्रयोग के माध्यम से सिद्व करना चाहते थे.
इसाई धर्म की सर्वाेच्च संस्था "वेटिकन सिटी" ने 1992 में यह स्वीकार किया किया कि- गैलीलियो के मामले में निर्णय लेने में उनसे गलती हुयी थी. इस प्रकार एक महान खगोल विज्ञानी, गणितज्ञ, भौतिकविद एवं दार्शनिक गैलीलियो के संबंध में 1633 में जारी आदेश को रद्द कर अपनी ऐतिहासिक भूल को साढे तीन सौ सालों के बाद स्वीकार किया.
1609 में दूरबीन के निर्माण और खगोलीय पिंडों के प्रेक्षण की घटना के चार सौ सालों के बाद, उस घटना की 400वीं जयंती के रूप में वर्ष 2009 को अंतर्राष्ट्रीय खगोलिकी वर्ष के रूप में मनाया गया. ऐसा करके इस महान वैज्ञानिक को श्रद्वांजलि तथा उनके साथ किये गए अन्याय का प्राश्चित्य माना गया.

Friday, 4 January 2019

संविधान सभा और उसके सदस्य

1 मद्रास
2 बॉम्बे
3 पश्चिम बंगाल
4 संयुक्त प्रांत
5 पूर्वी पंजाब
6 बिहार
7 मध्य प्रांत और बरार
8 असम
9 उड़ीसा
10 दिल्ली
11 अजमेर-मारवाड़
12 कूर्ग
13 मैसूर
14 जम्मू एवं कश्मीर
15 त्रावणकोर-कोचीन
16 मध्य भारत
17 सौराष्ट्र
18 राजस्थान
19 पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ
20 बॉम्बे राज्य
21 उड़ीसा
22 मध्य प्रांत
23 संयुक्त राज्य
24 मद्रास राज्य
25 विंध्य प्रदेश
26 कूचबिहार
27 त्रिपुरा और मणिपुर
28 भोपाल
29 कच्छ
30 हिमाचल प्रदेश
हैदराबाद ने इस चुनाव का बहिष्कार किया था.
भारतीय संविधान सभा के सदस्य
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मद्रास
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ओ वी अलगेशन, अम्मुकुट्टी स्वामीनाथन, एम ए अयंगार, मोटूरि सत्यनारायण, दक्षयनी वेलायुधन, जी दुर्गाबाई, काला वेंकटराव, एन गोपालस्वामी अय्यंगर, डी. गोविंदा दास, जेरोम डिसूजा, पी. कक्कन, टी एम कलियन्नन गाउंडर, लालकृष्ण कामराज, वी. सी. केशव राव, टी. टी. कृष्णमाचारी, अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर, एल कृष्णास्वामी भारती, पी. कुन्हिरामन, मोसलिकान्ति तिरुमाला राव, वी. मैं मुनिस्वामी पिल्लै, एम. ए मुथैया चेट्टियार, वी. नादिमुत्तु पिल्लै, एस नागप्पा, पी. एल नरसिम्हा राजू, पट्टाभि सीतारमैया, सी. पेरुमलस्वामी रेड्डी, टी. प्रकाशम, एस एच. गप्पी, श्वेताचलपति रामकृष्ण रंगा रोवा, आर लालकृष्ण शन्मुखम चेट्टि, टी. ए रामलिंगम चेट्टियार, रामनाथ गोयनका, ओ पी. रामास्वामी रेड्डियार, एन जी रंगा, नीलम संजीव रेड्डी, श्री शेख गालिब साहिब, लालकृष्ण संथानम, बी शिव राव, कल्लूर सुब्बा राव, यू श्रीनिवास मल्लय्या, पी. सुब्बारायन, चिदम्बरम् सुब्रह्मण्यम्, वी सुब्रमण्यम, एम. सी. वीरवाहु, पी. एम. वेलायुधपाणि, ए क मेनन, टी. जे एम विल्सन, मोहम्मद इस्माइल साहिब, लालकृष्ण टी. एम. अहमद इब्राहिम, महबूब अली बेग साहिब बहादुर, बी पोकर साहिब बहादुर
बॉम्बे
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बालचंद्र महेश्वर गुप्ते, हंसा मेहता, हरि विनायक पातस्कर, डा0 भीमराव अम्बेडकर, यूसुफ एल्बन डिसूजा, कन्हैयालाल नानाभाई देसाई, केशवराव जेधे, खंडूभाई कसनजी देसाई, बाल गंगाधर खेर, मीनू मसानी, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, नरहर विष्णु गाडगिल, एस निजलिंगप्पा, एस लालकृष्ण पाटिल, रामचंद्र मनोहर नलावडे़, आर आर दिवाकर, शंकरराव देव, गणेश वासुदेव मावलंकर, वल्लभ भाई पटेल, अब्दुल कादर मोहम्मद शेख, आफताब अहमद खान
पश्चिम बंगाल
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मनमोहन दास, अरुण चन्द्र गुहा, लक्ष्मी कांता मैत्रा, मिहिर लाल चट्टोपाध्याय, काफ़ी चन्द्र सामंत, सुरेश चंद्र मजूमदार, उपेंद्रनाथ बर्मन, प्रभुदयाल हिमतसिंगका, बसंत कुमार दास, रेणुका रे, एच. सी. मुखर्जी, सुरेंद्र मोहन घोष, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, अरी बहादुर गुरुंग, आर ई. पटेल, लालकृष्ण सी. नियोगी, रघीब अहसान, सोमनाथ लाहिड़ी, जासिमुद्दीन अहमद, नज़ीरुद्दीन अहमद, अब्दुल हमीद, अब्दुल हलीम गज़नवी
संयुक्त प्रांत (आगरा -अवध) उत्तर प्रदेश
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अजीत प्रसाद जैन, अलगू राय शास्त्री, बालकृष्ण शर्मा, बंशी धर मिश्रा, भगवान दीन, दामोदर स्वरूप सेठ, दयाल दास भगत, धरम प्रकाश, ए धरम दास, रघुनाथ विनायक धुलेकर, फिरोज गांधी, गोपाल नारायण, कृष्ण चंद्र शर्मा, गोविंद बल्लभ पंत, गोविंद मालवीय, हरियाणा गोविंद पंत, हरिहर नाथ शास्त्री, हृदय नाथ कुन्ज़रू, जसपत राय कपूर, जगन्नाथ बख्श सिंह, जवाहरलाल नेहरू, जोगेन्द्र सिंह, जुगल किशोर, ज्वाला प्रसाद श्रीवास्तव, बी वी. केसकर, कमला चौधरी, कमलापति तिवारी, आचार्य कृपलानी, महावीर त्यागी, खुरशेद लाल, मसूर्या दीन, मोहन लाल सक्सेना, पदमपत सिंघानिया, फूल सिंह, परागी लाल, पूर्णिमा बनर्जी, पुरुषोत्तम दास टंडन, हीरा वल्लभ त्रिपाठी, राम चंद्र गुप्ता, शिब्बन लाल सक्सेना, सतीश चंद्रा, जॉन मथाई, सुचेता कृपलानी, सुंदर लाल, वेंकटेश नारायण तिवारी, मोहनलाल गौतम, विश्वम्भर दयाल त्रिपाठी, विष्णु शरण दुबलिश, बेगम ऐज़ाज़ रसूल, हैदर हुसैन, हसरत मोहानी, अबुल कलाम आजाद, मोहम्मद इस्माइल खान, रफी अहमद किदवई, मो. हफिजुर रहमान
पूर्वी पंजाब
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बख्शी टेक चन्द,पंडित श्रीराम शर्मा, जयरामदास दौलतराम, ठाकुरदास भार्गव, बिक्रमलाल सोंधी, यशवंत राय, रणवीर सिंह, अचिंत राम, नंद लाल, सरदार बलदेव सिंह, ज्ञानी गुरमुख सिंह मुसाफिर, सरदार हुकम सिंह, सरदार भूपिंदर सिंह मान, सरदार रतन सिंह लौहगढ़
बिहार
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अमिय कुमार घोष, अनुग्रह नारायण सिन्हा, बनारसी प्रसाद झुनझुनवाला, भागवत प्रसाद, Boniface लाकड़ा, ब्रजेश्वर प्रसाद, चंडिका राम, लालकृष्ण टी. शाह, देवेंद्र नाथ सामंत, डुबकी नारायण सिन्हा, गुप्तनाथ सिंह, यदुबंश सहाय, जगत नारायण लाल, जगजीवन राम, जयपाल सिंह, दरभंगा के कामेश्वर सिंह, कमलेश्वरी प्रसाद यादव, महेश प्रसाद सिन्हा, कृष्ण वल्लभ सहाय, रघुनंदन प्रसाद, राजेन्द्र प्रसाद, रामेश्वर प्रसाद सिन्हा, रामनारायण सिंह, सच्चिदानन्द सिन्हा, शारंगधर सिन्हा, सत्यनारायण सिन्हा, विनोदानन्द झा, पी. लालकृष्ण सेन, श्रीकृष्ण सिंह, श्री नारायण महता, श्यामनन्दन सहाय, हुसैन इमाम, सैयद जफर इमाम, लतिफुर रहमान, मोहम्मद ताहिर, तजमुल हुसैन, चौधरी आबिद हुसैन, हरगोविन्द मिश्र
मध्य प्रांत और बरार
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गुरु अगमदास, रघु वीर, राजकुमारी अमृत कौर, भगवन्तराव मंडलोई, बृजलाल नंदलाल बियानी, ठाकुर छेदीलाल, सेठ गोविंद दास, हरिसिंह गौर, हरि विष्णु कामथ, हेमचन्द्र जगोबाजी खांडेकर, घनश्याम सिंह गुप्ता, लक्ष्मण श्रवण भाटकर, पंजाबराव शामराव देशमुख, रविशंकर शुक्ल, आर लालकृष्ण सिधवा, शंकर त्र्यंबक धर्माधिकारी, फ्रैंक एंथोनी, काजी सैयद करीमुद्दीन, गणपतराव दानी
असम
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निबरन चंद्र लश्कर, धरणीधर बसु मतरी, गोपीनाथ बोरदोलोई, जे जे.एम. निकोल्स-राय, कुलधर चालिहा, रोहिणी कुमार चौधरी, मुहम्मद सादुल्लाS, अब्दुर रऊफ
उड़ीसा
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बी दास, बिश्वनाथ दास, कृष्ण चन्द्र गजपति नारायण देव Parlakimedi की, हरेकृष्ण महताब, लक्ष्मीनारायण साहू, लोकनाथ मिश्रा, नंदकिशोर दास, राजकृष्ण बोस, शांतनु कुमार दास, युधिष्ठिर मिश्रा
दिल्ली
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देशबंधु गुप्ता
अजमेर-मारवाड़
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मुकुट बिहारी लाल भार्गव
कूर्ग
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सी. एम. पूनाचाएम
मैसूर
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के.सी. रेड्डी, टी. सिद्धलिंगैया, एच. आर गुरुव रेड्डी, एस वी. कृष्णमूर्ति राव, लालकृष्ण हनुमन्तैया, एच. सिद्धवीरप्पा, टी. चेन्निया
जम्मू एवं कश्मीर
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शेख मुहम्मद अब्दुल्ला, मोतीराम बैगरा, मिर्जा मोहम्मद अफजल बेग, मौलाना मोहम्मद सईद मसूदीM
त्रावणकोर-कोचीन
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पात्तों ए तानु पिल्लै, आर शंकर, पी. टी. चाको, पानमपिल्ली गोविन्द मेनन, एनी मस्करीन, पी एस नटराज पिल्लै, के ए मोहम्मद
मध्य भारत
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विनायक सीताराम सरवटे, बृजराज नारायण, गोपीकृष्ण विजयवर्गीय, राम सहाय, कुसुम कांत जैन, राधवल्लभ विजयवर्गीय, सीताराम एस जापू
सौराष्ट्र
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बलवंत राय गोपालजी मेहता, जैसुखलाल हाथी, अमृतलाल विथाल्दास ठक्कर, चिमनलाल चकूभाई शाह, शामलदास लक्ष्मीदास गांधी
राजस्थान
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वी. टी. कृष्णमाचारी, हीरालाल शास्त्री, खेतड़ी के सरदार सिंह, जसवंत सिंह, राज बहादुर, माणिक्य लाल वर्मा, गोकुल लाल असावा, रामचंद्र उपाध्याय, बलवंत सिन्हा मेहता, दलेल सिंह, जय नारायण व्यास ((अजमेर-मेरवाडा से मुकुट बिहारीलाल भार्गव ))
पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ
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महाराजा रणजीत सिंह, सचेत सिंह, भगवन्त राय
बॉम्बे राज्य
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विनायकराव बालशंकर वैद्य, बी एन मुनवली, गोकुलभाई भट्ट, जीवराज नारायण मेहता, गोपालदास ए देसाई, प्राणलाल ठाकुरलाल मुंशी, बी एच. खरडेकर, रतनप्पा भरमप्पा कुम्भार
उड़ीसा
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लाल मोहन पति, एन माधव राव, राज कुंवर, शारंगधर दास, युधिष्ठिर मिश्र
मध्य प्रांत
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आर एल मालवीय, किशोरीमोहन त्रिपाठी, रामप्रसाद पोटाइ((बेगम एजाज रसुल))
संयुक्त राज्य
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बशीर हुसैन जैदी, कृष्ण सिंह
मद्रास राज्य
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वी. रमैय्या, रामकृष्ण रंगा राव
विंध्य प्रदेश
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अवधेश प्रताप सिंह, शम्भू नाथ शुक्ल, राम सहाय तिवारी, मन्नूलालजी द्विवेदी
कूचबिहार
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हिम्मत सिंह लालकृष्ण माहेश्वरी
त्रिपुरा और मणिपुर
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गिरिजा शंकर गुहा
भोपाल
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लाल सिंह
कच्छ
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भवानी अर्जुन खिमजी
हिमाचल प्रदेश
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यशवंत सिंह परमार

भारत का संविधान किसी एक व्यक्ति की लिखी हुई किताब नहीं है

भारत का संविधान किसी एक व्यक्ति की लिखी हुई कोई किताब नहीं है. बल्कि इसके लिए एक संविधान सभा बनाई गई थी जिसमे पुरे भारत से प्रतिनिधियों को चुना गया था. द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति तक यह स्पष्ट हो चूका था कि अब अंग्रेजों को भारत से जाना ही होगा और अंग्रेजों को भारत आजाद करना ही होगा.
जुलाई 1945 में ब्रिटेन में एक नयी सरकार बनी. इस नयी सरकार ने भारत सम्बन्धी अपनी नई नीति की घोषणा की. भारत के लिए एक संविधान निर्माण करने वाली समिति बनाने का निर्णय लिया. इसके लिए ब्रिटिश कैबिनेट के तीन मंत्री भारत भेजे गए. मंत्रियों के इस दल को कैबिनेट मिशन के नाम से जाना जाता है.
जिस तरह से आजकल लोकसभा के चुनाव होते है उसी तरह पूरे देश में संविधान सभा के लिए चुनाव कराये गए. पूरे भारत को तीस सूबों (राज्यों) में बांटकर, प्रत्येक राज्य से सदस्यों का चुनाव किया गया. चुनाव के बाद चुने गए सदस्यों को लेकर 6 दिसंबर 1946 को संविधान सभा का गठन किया किया गया.
यह 30 सूबे कौन कौन से थे और इनमे चुने गए सदस्यों के नाम क्या थे उनकी लिस्ट अगर यहाँ दी तो सारी पोस्ट उसी से भर जायेगी इसलिए उसको अलग से पोस्ट बनाकर उसका लिंक यहाँ पोस्ट कर दूंगा, सारे देश से कुल कुल 399 सदस्य चुने गए. इस संविधान सभा का सबसे पहले सच्चिदानन्द सिंहां को अस्थाई अध्यक्ष नियुक्त किया गया.
संविधान सभा की कार्यवाही 13 दिसंबर, 1946 ई. को जवाहर लाल नेहरू द्वारा पेश किए गए उद्देश्य प्रस्‍ताव के साथ प्रारम्भ हुई. 22 जनवरी, 1947 ई. को संविधान निर्माण हेतु अनेक समितियां नियुक्त कीं. इनमे प्रमुख थी- वार्ता समिति, संघ संविधान समिति, प्रांतीय संविधान समिति, संघ शक्ति समिति, प्रारूप समिति.
फिर सदस्यों द्वारा डा. राजेन्द्र प्रसाद को अध्यक्ष, हरेन्द्र कुमार मुखर्जी और वी टी कृष्णमचारी को उपाध्यक्ष और डा. भीमराव आम्बेडकर को प्रारूप समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. 15 अगस्त 1947 को देश आजाद होने के बाद यह संविधान सभा संप्रभुता सम्पन्न हो गई और इन्ही सदस्यों को सांसद मान लिया गया था.
प्रारूप समिति में भी 7 सदस्य थे. डॉ. भीमराव अम्बेडकर (अध्यक्ष), एन. गोपाल स्वामी आयंगर, अल्लादी कृष्णा स्वामी अय्यर, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी , सैय्यद मोहम्मद सादुल्ला , एन. माधव राव , . डी. पी. खेतान (1948 ई. में इनकी मृत्यु के बाद टी. टी. कृष्माचारी को सदस्य बनाया गया).
संविधान सभा ने 9 दिसंबर 1947 से अपना कार्य प्रारम्भ किया. इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी.संविधान सभा में संविधान का प्रथम वाचन 4 नवंबर से 9 नवंबर, 1948 ई. तक चला. संविधान पर दूसरा वाचन 15 नवंबर 1948 ई० को प्रारम्भ हुआ, जो 17 अक्टूबर, 1949 ई० तक चला.
संविधान सभा में संविधान का तीसरा वाचन 14 नवंबर, 1949 ई० को प्रारम्भ हुआ जो 26 नवंबर 1949 ई० तक चला और संविधान सभा द्वारा संविधान को पारित कर दिया गया. 26 जनवरी 1949 को संविधान की एक प्रति औपचारिक रूप से डा. आंबेडकर द्वारा डा. राजेन्द्र प्रसाद जी के हाथों में सौंप दी गई .
उसके बाद भी संविधान सभा की कई उच्च स्तरीय बैठकें हुई. संविधान सभा की अंतिम बैठक 24 जनवरी, 1950 ई० को हुई और उसी दिन संविधान सभा के द्वारा डॉ. राजेंद्र प्रसाद को भारत का प्रथम राष्ट्रअध्यक्ष चुना गया. 26 जनवरी 1950 को डा. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा संविधान को लागू करने की घोषणा कर दी गई थी.
इस प्रकार किसी एक व्यक्ति को संविधान का निर्माता कहना अन्य सभी के साथ अन्याय है.

Tuesday, 1 January 2019

बेला और कल्याणी *

"बेला" पृथ्वीराज चौहान की चचेरी बहन  थी और "कल्याणी" जयचंद की पौत्री. जैसा कि हम सभी जानते ही है कि - अजमेर के राजा प्रथ्वीराज चौहान और कन्नौज के राजा जयचन्द आपस में रिश्तेदार (मौसेरे भाई) थे. उनके नाना दिल्ली के राजा अनंगपाल ने दिल्ली का राज प्रथ्वीराज को सौंप दिया था इस बजह से जयचंद प्रथ्वीराज से ईर्ष्या करता था.

इसके अलावा जयचन्द की पत्नी की भतीजी संयोगिता (जिसे जयचन्द अपनी बेटी की तरह स्नेह करता था) का प्रथ्वीराज से प्रेम हो जाने और प्रथ्वीराज द्वारा संयोगिता का हरण कर ले जाने के कारण यह ईर्ष्या दुश्मनी में बदल गई थी. इन कारणों से जयचन्द किसी भी तरह से प्रथ्वीराज चौहान को समाप्त करना चाहता था.
उन दिनों में अफगान लुटेरा मोहम्मद शहाबुद्दीन गौरी ने भारत पर आक्रमण किया था जिसमे प्रथ्वीराज चौहान की सेना के साथ सभी भारतीय हिन्दू राजाओं ने साथ दिया था. इस लड़ाई में मोहम्मद गौरी को बंदी बना लिया गया था तब वह कुरआन की कसम खाकर माफी मांग कर अपनी जान बचाकर वापस गया था.
गौरी का एक आदमी (मोइनुद्दीन चिश्ती) जो तंत्र मन्त्र में माहिर था वह अजमेर में रह कर संत की तरह एक मंदिर के बाहर बैठकर जासूसी का काम करेने लगा. जब उसको प्रथ्वीराज और जयचंद की दुश्मनी का पता चला तो उसने जयचन्द को समझाया कि - अगर तुम गौरी का साथ दो तो तुमको दिल्ली की सत्ता मिल सकती है.
जयचन्द उसकी बातों में आ गया क्योंकि तब तक जितने भी इस्लामी हम्लाबर भारत में आये थे वे केवल लूटमार करके वापस चले गए थे कोई भी भारत में राज करने के लिए नहीं रुका था. गौरी के फिर भारत पर हमले के समय जयचन्द ने न केवल गौरी का साथ दिया बल्कि अपने मित्र राजाओं को भी प्रथ्वीराज का साथ देने से रोका.
उस लड़ाई में प्रथ्वीराज की हार हुई और गौरी प्रथ्वीराज को बंदी बनाकर अपने साथ अफगानिस्तान ले गया. जयचंद को लगता था कि उसे अब दिल्ली का राजा बनाया जाएगा उस जयचंद के मोहम्मद गौरी से जीत का ईनाम मांगने पर उसकी यह कहकर गरदन काट दी गई कि - जो अपनों का नहीं हुआ वह हमारा क्या होगा.
जिस संयोगिता के हरण को जयचन्द ने अपनी इज्ज़त का प्रश्न बनाया था उस संयोगिता को चिश्ती के कहने पर पूर्ण नग्न करके सैनिको के सामने फेंक दिया गया था. गौरी ने भारत की सत्ता अपने गुलाम कुतुबुद्दीन और बख्तियार खिलजी को सौंप दी और प्रथ्वीराज को बंदी बनाकर अफगानिस्तान ले गया. साथ में भरत की हजारों महिलाओं को भी ले गया.
उन स्त्रीयों में प्रथ्वीराज की चचेरी बहन  "बेला" और जयचन्द की पौत्री "कल्याणी" भी थी. मोहम्मद गौरी ने अपनी जीत के तोहफे के रूप में बेला और कल्याणी को गजनी के सर्वोच्च काजी निजामुल्क को देने का ऐलान कर दिया. इस घटना पर बने एक नाटक में बोले गए गौरी और काजी निजामुल्क के संवाद को भी यहाँ लिखना प्रासंगिक समझता हूँ.
गौरी ने काजी निजामुल्क से कहा - ‘‘काजी साहब! मैं हिन्दुस्तान से सत्तर करोड़ दिरहम मूल्य के सोने के सिक्के, पचास लाख चार सौ मन सोना और चांदी, इसके अतिरिक्त मूल्यवान आभूषणों, मोतियों, हीरा, पन्ना, जरीदार वस्त्रा और ढाके की मल-मल की लूट-खसोट कर भारत से गजनी की सेवा में लाया हूं’’
इस पर गौरी की तारीफ करते हुए काजी ने पूछा - ‘‘बहुत अच्छा! लेकिन वहां के लोगों को कुछ दीन-ईमान का पाठ पढ़ाया कि नहीं?’’
गौरी ने कहा - ‘‘बहुत से लोग इस्लाम में दीक्षित हो गए हैं’’ कुतुबुद्दीन, बख्तियार और चिश्ती वहीँ है और वे बुतपरस्ती को ख़त्म करने और इस्लाम का प्रचार करने में लगे हुए हैं
‘‘और वहां से लाये गए दासों और दासियों का क्या किया?’’
दासों को गुलाम बनाकर गजनी लाया गया है. अब तो गजनी में बंदियों की सार्वजनिक बिक्री की जा रही है. रौननाहर, इराक, खुरासान आदि देशों के व्यापारी गजनी से गुलामों को खरीदकर ले जा रहे हैं. एक-एक गुलाम दो-दो या तीन-तीन दिरहम में बिक रहा है.’’
‘‘हिन्दुस्तान के मंदिरों का क्या किया?’’
‘‘मंदिरों को लूटकर 17000 हजार सोने और चांदी की मूर्तियां लायी गयी हैं, दो हजार से अधिक कीमती पत्थरों की मूर्तियां और शिवलिंग भी लाए गये हैं और बहुत से पूजा स्थलों को नेप्था और आग से जलाकर जमीदोज कर दिया गया है।’’
‘‘वाह! अल्हा मेहरबान तो गौरी पहलवान’’ फिर मंद-मंद मुस्कान के साथ बड़बड़ाए, ‘‘गौरे और काले, धनी और निर्धन गुलाम बनने के प्रसंग में सभी भारतीय एक हो गये हैं जो भारत में प्रतिष्ठित समझे जाते थे, आज वे गजनी में मामूली दुकानदारों के गुलाम बने हुए हैं’’ फिर थोड़ा रुककर कहा, ‘‘लेकिन हमारे लिए कोई खास तोहफा लाए हो या नहीं?’’
‘‘लाया हूं ना काजी साहब!’’
‘‘क्या?’’
‘‘जन्नत की हूरों से भी सुंदर जयचंद की पौत्री कल्याणी और पृथ्वीराज चौहान की पुत्री बेला’’
‘‘तो फिर देर किस बात की है।’’
‘‘बस आपके इशारे भर की’’
और काजी की इजाजत पाते ही शाहबुद्दीन गौरी ने कल्याणी और बेला को काजी के हरम में पहुंचा दिया. कल्याणी और बेला की अद्भुत सुंदरता को देखकर काजी अचम्भे में आ गया, उसे लगा कि स्वर्ग से अप्सराएं आ गयी हैं. उसने दोनों राजकुमारियों (बेला और कल्याणी) से इस्लाम कबूलने और उससे निकाह करने का प्रस्ताव रखा.
बेला और कल्याणी भी समझ चुकी थी कि - अब बचना असंभव है इसलिए उन्होंने एक खतरनाक चाल चली. बेला ने काजी से कहा -‘‘काजी साहब! आपकी बेगमें बनना तो हमारी खुशकिस्मती होगी, लेकिन हमारी दो शर्तें हैं’’
‘‘कहो..कहो.. क्या शर्तें हैं तुम्हारी! तुम जैसी हूरों के लिए तो मैं कोई भी शर्त मानने के लिए तैयार हूं।
‘‘पहली शर्त से तो यह है कि शादी होने तक हमें अपवित्र न किया जाए और दुसरी शर्त है कि - हमारी परम्परा के अनुसार दूल्हा और दुल्हन का जोड़ा हमारी पसंद का और भारत से मंगबाया जाए. इस पर काजी ने खुश होकर कहा - ‘‘मुझे तुम्हारी दोनों शर्तें मंजूर हैं’’
फिर बेला और कल्याणी ने एक पत्र लिखा जिसको प्रथ्वीराज के साथ बंदी बनाकर लाये गए कवि चंदबरदाई  को देकर भारत से कपडे मंगवाने के लिए भेजा गया. कवि चंदबरदाई पत्र में लिखे शब्दों के भाव को समझ गए और विशेष प्रकार के कपडे लेकर वापस आ गए. काजी के साथ उनके निकाह का दिन निश्चित हो गया. रहमत झील के किनारे बनाये गए नए महल में विवाह की तैयारी शुरू हुई कवि चंदबरदाई  द्वारा लाये गये कपड़े पहनकर काजी साहब विवाह मंडप में आए.
कल्याणी, बेला और काजी ने भी भारत से आये हुए कपड़े पहन रखे थे. शादी को देखने के लिए बाहर जनता की भीड़ इकट्ठी हो गयी थी. तभी बेला ने काजी साहब से कहा-‘‘हमारे होने वाले सरताज! हम कलमा और निकाह पढ़ने से पहले जनता को झरोखे से दर्शन देना चाहती हैं, क्योंकि विवाह से पहले जनता को दर्शन देने की हमारे यहां प्रथा है
और फिर गजनी वालों को भी तो पता चले कि आप बुढ़ापे में जन्नत की सबसे सुंदर हूरों से शादी रचा रहे हैं. शादी के बाद तो हमें जीवनभर बुरका पहनना ही है, तब हमारी सुंदरता का होना न के बराबर ही होगा. नकाब में छिपी हुई सुंदरता भला तब किस काम की।’’
‘‘हां..हां..क्यों नहीं’’ काजी ने उत्तर दिया और कल्याणी और बेला के साथ राजमहल के कंगूरे पर गया, लेकिन वहां पहुंचते-पहुंचते ही काजी साहब के दाहिने कंधे से आग की लपटें निकलने लगी, क्योंकि क्योंकि कविचंद ने बेला और कल्याणी का रहस्यमयी पत्र समझकर बड़े तीक्ष्ण विष में सने हुए कपड़े भेजे थे.
काजी साहब विष की ज्वाला से पागलों की तरह इधर-उधर भागने लगा, तब बेला ने उससे कहा-‘‘तुमने ही गौरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए उकसाया था ना, हमने तुझे मारने का षड्यंत्र रचकर अपने देश को लूटने का बदला ले लिया है. हम हिन्दू कुमारियां हैं समझे, किसमें इतना साहस है जो जीते जी हमारे शरीर को हाथ भी लगा दे’’
कल्याणी ने कहा, ‘‘नालायक! बहुत मजहबी बनते हो, अपने धर्म को शांतिप्रिय धर्म बताते हो और करते हो क्या? जेहाद का ढोल पीटने के नाम पर लोगों को लूटते हो और शांति से रहने वाले लोगों पर जुल्म ढाहते हो, थू! धिक्कार है तुम पर.’’
इतना कहकर दोनों राजकुमारियों ने महल की छत के किनारे खड़ी होकर एक-दूसरी की छाती में विष बुझी कटार जोर से भोंक दी और उनके प्राणहीन देह उस उंची छत से नीचे लुढ़क गये. पागलों की तरह इधर-उधर भागता हुआ काजी भी तड़प-तड़प कर मर गया.
भारत की इन दोनों बहादुर बेटियों ने विदेशी धरती पराधीन रहते हुए भी बलिदान की जिस गाथा का निर्माण किया, वह सराहने योग्य है आज सारा भारत इन बेटियों के बलिदान को श्रद्धा के साथ याद करता है. यह कहानी स्कूली इतिहास की किताबों में नहीं मिलेगी लेकिन यह बहुत मशहूर लोककथा है जिसपर मेलों में अक्सर नाटक किया जाता है.
भारत माता की जय , वंदे मातरम्