Wednesday, 11 December 2019

अहेमदशाह अब्दाली और पानीपत की तीसरी लड़ाई ( भाग -1 )

Related imageऔरंगजेब की मौत के बाद मुघलिया सल्तनत कमजोर होने लगी और भारत की ज्यादातर रियासते आजाद हो गईं थी. सबसे ज्यादा ताकतवर होकर मराठा उभरे थे, पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में भारत के बड़े हिस्से पर मराठों का राज हो गया था. शिवाजी महाराज के द्वारा दिखाया गया हिन्दूराष्ट्र का सपना सच होता दिखने लगा था.
पेशवा बाजीराव प्रथम ने मराठा साम्राज्य को उत्तर पश्चिम तक पहुंचा दिया था. 1740 में बाजीराव प्रथम की म्रत्यु के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र बालाजी बाजीराव उर्फ नाना साहेब (प्रथम) पेशवा नियुक्त हुऐ. नाना साहेब की बुद्धिमत्ता और उनके चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ की बहादुरी ने हिन्दुस्थान की किस्मत बदलना शुरू कर दिया था.
इन दोनों ने मिलकर वर्तमान महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और मध्यप्रदेश के बड़े हिस्से पर भगवा फहरा दिया था. उसके बाद उन्होंने बंगाल पर कई हमले किये और मुघल साम्राज्य की नींव को ही हिलाकर रख दिया. अब नाना साहब ने अपना मुख्य उद्देश्य, दिल्ली से मुघलों को उखाड़कर, दिल्ली में हिन्दू राज्य स्थापित करना बना लिया था.
उन्होंने पेशावर में सुरक्षा चौकी बनाकर दत्ता जी सिंधिया को उसका संरक्षक नियुक्त कर दिया. इस तरह आक्रमणकारियों के भारत में आने का रास्ता ही बंद कर दिया था. इसी बीच 1747 में नादिर शाह की मौत के बाद अहेमद शाह अब्दाली अफगानिस्तान का शासक बना. वह अत्यंत जालिम और खूंखार इंसान इंसान था.
उसने भारत पर कई बार चढ़ाई की लेकिन उसे ख़ास ज्यादा सफलता नहीं मिली. 1756 में भारत के कुछ मुस्लिम नबाबो ने अहेमद शाह अब्दाली को भारत में आक्रमण करने के लिए आमंतरित किया तथा उसे विश्वास दिलाया कि सभी मुसलमान इसमें उसका साथ देंगे, जिससे अब्दाली की सहायता से हिन्दू राजाओं को आगे बढ़ने से रोका जाए.
नवम्बर, 1756 ई. में वह बड़े लश्कर के साथ हिन्दुस्तान आया. उसने सबसे पहले पेशावर में दत्ता जी सिंधिया को परास्त किया और दिल्ली की ओर बढ़ चला. 23 जनवरी, 1757 को वह दिल्ली पहुँचा. वह लगभग एक माह तक दिल्ली में रहा और उसने नादिरशाह द्वारा दिल्ली में किये गये किये गये कत्लेआम और लूटमार को एक बार फिर से दुहराया.
दिल्ली को लूटने और कत्लेआम करने के बाद वह धर्म नगरी मथुरा वृन्दावन का विध्वंस करने निकल पड़ा. अब्दाली ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि- "मथुरा हिन्दुओं का पवित्र स्थान है. उसे पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दो. जहाँ-कहीं पहुँचो, क़त्ले आम करो और लूटो. लूट में जिसको जो मिलेगा, वह उसी का होगा.
इसके अलावा काफिरों का सिर काट कर लाने पर सिपाही को प्रत्येक सिर के लिए पाँच रुपया इनाम सरकारी खजाने से भी दिया जायगा. अब्दाली के आदेश पर उसकी सेना मथुरा की तरफ चल दी. अब्दाली की सेना की पहली कड़ी मुठभेड़ जाटों के साथ बल्लभगढ़ में हुई. अब्दाली को इस अभियान में सबसे बड़ा प्रतिरोध यहीं झेलना पड़ा.
Image result for जवाहर सिंह सूरजमलजाट सरदार बालूसिंह और भरतपुर के महाराजा सूरजमल के ज्येष्ठ पुत्र जवाहर सिंह ने अब्दाली की विशाल सेना को रोकने की कोशिश की. उन्होंने बड़ी वीरता से युद्ध किया पर उन्हें शत्रु सेना से पराजित होना पड़ा. मथुरा से लगभग 8 मील पहले चौमुहाँ पर भी जाटों की छोटी सी सेना के साथ अब्दाली की लड़ाई हुई.
जाटों ने बहुत बहादुरी से युद्ध किया लेकिन दुश्मनों की संख्या अधिक होने के कारण उनकी हार हुई. मथुरा और वृन्दावन में अब्दाली की सेना ने भीषण नरसंहार किया. तीन दिन मथुरा में मार-काट और लूट-पाट करते रहे. मंदिरों को नष्ट किया और स्त्रियों की इज्जत लूटी. हजारों स्त्रियों ने इज्जत बचने के लिए कुओं और यमुना में कूदकर जान दे दी.
उसने यमुना नदी पार कर महावन को लूटा और फिर वह गोकुल की ओर गया परन्तु वहाँ पर सशस्त्र नागा साधुओं के एक बड़े दल ने यवन सेना का जम कर सामना किया. नागों के प्रतिरोध और सैनिको को हैजा हो जाने के कारण वह गोकुल को नहीं लूट सका. मथुरा के बाद उसने आगरा का भी यही हाल किया और दिल्ली वापस लौट आया.
उसने आलमगीर द्वितीय को दिल्ली का सम्राट, इमादुलमुल्क को 'वज़ीर', रुहेला सरदार नजीबुद्दौला को सम्राज्य का 'मीर बख़्शी' और अपना मुख्य एजेन्ट नियुक्त किया. इसके आलावा कश्मीर, लाहौर, सरहिन्द तथा मुल्तान को अपने अधिकार में ले लिया. अपने बेटे 'तिमिरशाह' को वहां का शासक नियुक्त कर स्वयं वापस अफगानिस्तान चला गया.
जब मराठों को इस कत्लेआम की खबर मिली तो मराठों ने अपनी ताकत को इकठ्ठा कर पेशवा रघुनाथराव के नेतृत्व में, मार्च 1758 में दिल्ली पर हमला किया. मराठों ने नजीबुद्दौला को दिल्ली से निकाल दिया तथा 'अदीना बेग' को पंजाब का गर्वनर नियुक्त कर दिया. नजीबुद्दौला के द्वारा बुलाये जाने पर 1760 में अब्दाली फिर भारत आया.
क्रमशः

Saturday, 7 December 2019

यदि सावरकर न होते तो 1857 की क्रान्ति इतिहास न बनती : अमित शाह

इतिहास लेखन के लिए उस काल में जन्म लेना जरूरी नहीं है जिस काल की घटना है. 1857 की क्रान्ति में लाखों भारतीयों ने भाग लिया और देश की खातिर अपना बलिदान दिया। जैसा की सभी जानते हैं आधिकारिक इतिहास शासकों की मर्जी के मुताबिक़ लिखा जाता है. 1857 के स्वाधीनता सेनानियों के साथ भी यही अन्याय हुआ.
अंगरेज इतिहासकारो और अंग्रेजों के चापलूस भारतीयों ने उस घटना को न तो स्वाधीनता संग्राम लिखा और न ही उन सेनानियों को स्वाधीनता सेनानी. उस घटना को राजद्रोह और ग़दर लिखा गया तथा स्वाधीनता सेनानियों को राजद्रोही.  देश की जनता को भी स्कूलों में यही पढ़ाया जाता था तथा स्वाधीनता सेनानियों को गंदी नजर से देखा जाता था.
उस अंग्रेजी इतिहास के अनुसार मेरठ के क्रांतिकारी सैनिक "गद्दार" थे, बहादुर शाह जफ़र अंग्रेजों के टुकड़ों पर पलने वाला कमजोर बूढ़ा शायर था, बेगम हजरत महल एक तवायफ थी, तात्या टोपे लुटेरे थे, नाना साहब, कुंवर सिंह, झांसी की रानी की रानी सत्ता के लालची थे, लखनऊ का नबाब एक विलासी और ऐय्यास नबाब था.
स्वाधीनता सेनानियों को शासकीय इतिहास में अंग्रेजों ने भले ही गद्दार साबित कर दिया था लेकिन लोक कथाओं और लोक गीतों के माध्यम से उनकी गाथाये लोग एक दूसरे को सुनाते रहे. स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने उन्ही लोक गाथाओ और शासकीय इतिहास का तुलनात्मक अध्यन करके 2007 में नए सिरे से अपना ग्रन्थ लिंखा "1857 -प्रथम स्वातंत्र्य समर".
इस ग्रन्थ को लिखने के लिए लोकगाथाओं का अध्यन किया और उनका सरकारी इतिहास से मिलान किया. उदाहरण के लिए - झांसी की रानी की कहानी शासकीय इतिहास में थी ही नहीं, उनके बारे में जानने के लिए ग्वालियर, दतिया, ओरछा का इतिहास खंगाला और उसका बुंदेलों / हरबोलों द्वारा गाये जाने वाले गीतों से मिलान किया.
इसी प्रकार लखनऊ, कानपुर, जगदीशपुर, मेरठ, दिल्ली, आदि में जुबानी बोली जाने वाली कहानियों का अध्यन किया और उसका भी सरकार इतिहास से मिलान किया. इस प्रकार उन्होंने जो निष्कर्ष निकाले उनके आधार पर उन्होंने अपना ग्रन्थ लिखा. इस ग्रन्थ को अंग्रेजों ने झूठ का पुलिंदा कहा और इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया.
लेकिन बहुत सारे क्रांतिकारियों ( लाला हरदयाल, मैडम कामा, श्याम कृष्णवर्मा, सरदार अजीत सिंह, राजा महेंद्र प्रताप, करतार सिंह शराभा, सुखदेव, हेमू कालानी, आदि ने ) समय समय पर इस ग्रन्थ को चोरी छुपे छपवाया और वितरित किया। यह भी कहा जा सकता है कि इस ग्रन्थ ने देश को दूसरे स्वाधीनता संग्राम के लिए तैयार किया.
अंग्रेज सावरकर से नाराज थे और कड़ी सजा देना चाहते थे, लेकिन किताब लिखना इतना बड़ा गुनाह नहीं था कि उन्हें फांसी या कालापानी की सजा दी जा सके. इसी बीच अभिनव भारत के क्रांतिकारियों ने नाशिक के कलक्टर "जैक्शन" की हत्या कर दी. अंग्रेजों ने इस काण्ड का मुख्य साजिश करता "सावरकर" को बनाकर कालापानी की सजा देदी
लेकिन दस साल कालापानी में कैद रखने के बाद भी इस अपराध को अंग्रेज कभी साबित नहीं कर पाए और अंततः रिहा करना पड़ा. लेकिन रिहाई के बाद भी तीन साल तक उन्हें एहतियात के तौर पर 3 साल रत्नागिरी जेल में रखा गया कि - सावरकर को रिहा करने से देश में दंगा हो सकता है और देश में अराजकता फ़ैल सकती है.

अंग्रेजों और उनके चापलूसों ने भले ही सावरकर के ग्रन्थ को झूठ का पुलिंदा कहा हो लेकिन भारतीयों ने इस ग्रन्थ को प्रामाणिक इतिहास माना. इस ग्रन्थ के आने के बाद अनेकों छोटे बड़े लेखकों, कवियों और इतिहासकारों ने इसे सन्दर्भ ग्रन्थ मानकर अपना लेखन किया. इस प्रकार अमित शाह का यह कहना (यदि स्वतंत्र्यवीर सावरकर न होते तो 1857 की क्रान्ति इतिहास न बनती) सौ फीसदी सही है.

Wednesday, 4 December 2019

फूलन के साथ जातीय अत्याचार हुआ था या फूलन ने जातीय अत्याचार किया था ?

Image may contain: 2 people, hat and closeupजब भी कहीं कोई बलात्कार की खबर आती है कुछ तथाकथित समझदार लोग डाकू फूलन का महिमा मण्डन करते हुए लिखने लगते हैं कि- फूलन ने बलात्कारी को मारकर न्याय किया। दुसरी तरफ ये बुद्धिजीवी खुद को गांधीवादी भी बताते है.
डाकू फूलन के अपराध पर पर्दा डालने के लिए झूठी कहानी गढ़ी गई है कि- उसने अपने साथ बलात्कार करने वालों को मारा था जबकि हकीकत यह है कि उसने बलात्कारी को नहीं बल्कि बलात्कारी की जाति वाले 20 निर्दोष लोगों की हत्या की थी.
खुद को कांग्रेस समर्थक बताने वाले ये लोग यह भी भूल जाते हैं कि- फूलन के आतंक के दौर में UP, MP और केंद्र, तीनो जगह कांग्रेस की सरकार थी और कांग्रेस सरकार ने ही फूलन के ऊपर 22 हत्या, 30 डकैती और 18 अपहरण के केस दर्ज किये थे.
आइये अब जरा यह भी जान लेते हैं कि- फूलन के साथ अत्याचार किस किस ने किया. सबसे पहले उसके सगे चाचा ने उसके पिता की जमीन हडप ली और उसने अपने चचेरे भाई का सर फोड़ दिया. जाहिर सी बात है कि- वो उसके अपने परिवार के लोग थे.
उसके पिता ने 10 साल की फूलन की शादी अपनी ही जाति के 40 साल के अधेड़ से कर दी. पति ने उसके साथ बलात्कार किया. कुछ समय बाद उसके पति ने उसे घर से निकाल दिया और दूसरी शादी कर ली अर्थात यहाँ भी अत्याचारी उसके अपने.लोग.
कुछ दिन मायके में रहने के बाद, उसके भाई ने भी उसे घर से निकाल दिया. यहाँ भी उस पर अत्याचार करने वाला उसका सगा भाई. फूलन ने घर छोड़ दिया और ऐसे लोगों के साथ उठने बैठने लगी, जिनके सम्बन्ध डाकूओं के गिरोह से थे.
Image result for फूलन देवीवह डाकुओं के गिरोह के साथ रहने लगी. हालांकि आजतक यह स्पस्ट नहीं हुआ कि- डाकू उसे जबरन उठा ले गए थे या वह अपनी मर्जी से उनके साथ गई थी. डाकुओं का सरदार "बाबू गुज्जर" उस पर आशक्त हो गया जबकि वह "विक्रम मल्लाह" को चाहती थी.
इस बात को लेकर विक्रम मल्लाह ने "बाबू गुज्जर" की हत्या कर दी और खुद सरदार बन बैठा. अब "फूलन", "विक्रम मल्लाह" के साथ रहने लगी. एक दिन फूलन अपने गैंग के साथ अपने पति के गांव गई. वहां उसे और उसकी बीवी दोनों को बहुत पीटा.
"बाबू गुज्जर" की हत्या से नाराज उसके डाकू दोस्त "श्रीराम ठाकुर" और "लाला ठाकुर" के गिरोह ने विक्रम मल्लाह और फूलन के गिरोह पर हमला कर दिया. दोनों गुटों में लड़ाई हुई. विक्रम मल्लाह को मार दिया गया. और वो फूलन को उठा ले गए.
श्रीराम ठाकुर और लाला ठाकुर के गैंग ने फूलन का सामूहिक बलात्कार किया. यह भी कोई जातीय हिंसा की घटना नहीं थी बल्कि "श्रीराम ठाकुर" और "लाला ठाकुर" के गिरोह ने अपने साथी "बाबू गुज्जर" की हत्या का बदला लिया था.
Image result for फूलन देवीअर्थात वह घटना जातीय हिंसा की नहीं बल्कि गैंगबार की थी. इसके बाद फूलन फिर से वापस बीहड़ में आ गई और विक्रम मल्लाह के गिरोह की सरदार बन गई. अब उसका गिरोह फूलन के नेत्रत्व में इलाके में लूटमार / हत्याए करने लगा.
1981 में फूलन बेहमई गांव पहुंची. उसे पता चला था कि- उसके साथ सामूहिक गैंग करने वालों में से 2 बलात्कारी उसी गाँव के थे. उसके गिरोह ने बेहमई गाँव पर हमला कर गाँव के ठाकुर जाति के 20 पुरुषों को लाइन में खडा करके गोलियों से भुन दिया.
अपने अपराध को छुपाने और जनता की सहानुभूति हाशिल करने के लिए फूलन ने यह प्रचारित किया कि- उसके साथ ठाकुरों ने बलात्कार किया था इसलिए उसने ठाकुरों को मारा. जबकि फूलन के साथ कोई जातीय अत्याचार नहीं हुआ था.
फूलन के साथ बचपन में जो कुछ भी गलत हुआ, उसके लिए जाति व्यवस्था नहीं बल्कि उसके चाचा, पिता, पति और भाई जिम्मेदार थे. जब डाकूओं के गिरोह में थी तो उसके दो प्रेमी आपस में लड़ें थे. जिनमे से एक प्रेमी डाकू ने दुसरे प्रेमी डाकू की हत्या कर दी.
जो प्रेमी मारा गया था उसके दोस्तों ने, अपने दोस्त का बदला लेने के लिए उसके दूसरे प्रेमी को मारा और उसके साथ गैंगरेप किया. वो बलात्कारी जाति के ठाकुर थे इसलिए फूलन ने ठाकुर जाति के 20 निर्दोष निर्दोष ठाकुरों की गोली मार कर हत्या कर दी.
फूलन की इस पूरी कहानी में फूलन जातीय हिन्सा की शिकार आखिर कब हुई ? जातीय हिंसा फूलन के साथ नहीं हुई बल्कि - जातीय हिंसा तो फूलन ने ठाकुरों के खिलाफ की थी. ऐसे में डाकू फूलन को महिमामंडित करना आखिर कहाँ से उचित है ?
फूलन ने खुद माना था कि -  20 निर्दोष थे बाद में अपने वकीलों की सलाह पर वह इस हत्याकांड से ही मुकर गई थी. 25 जुलाई 2001 को शेर सिंह राणा फूलन को गोली मार दी और कहा कि मैंने बेहमई हत्याकांड का बदला लिया है.

अक्सर कहा जाता है कि- फूलन ने अपने बलात्कारियों को सजा दी जबकि वास्तविकता यह है कि - फूलन ने अपने बलात्कारी श्रीराम ठाकुर और लाला ठाकुर को नहीं मारा था बल्कि 20 निर्दोष लोगों को मारा था. उनका दोष सिर्फ इतना था कि- वो ठाकुर जाति के थे और फूलन के बलात्कारी श्रीराम ठाकुर और लाला ठाकुर भी ठाकुर थे.


और हाँ फूलन ने जिन 20 लोगो की हत्या की थी उनमे दो दलित और एक मुस्लमान भी था.








मोतीराम मेहरा एवं उनके परिवार की क़ुरबानी

Image may contain: one or more peopleदस लाख मुग़ल सैनकों के साथ आनंदपुर साहब की 6 महीने से ज्यादा की घेराबंदी, हजारों मुघल सैनकों की मौत और अपार धनहानि के बाबजूद सरहंद का नबाब "बजीर खान" न तो गुरू गोविन्द सिंह को पकड़ सका और न ही मार सका था. इस हार ने उसे गुस्से से इतना पागल कर दिया था कि वो इंसानियत ही भूल गया.
गंगू की मुखबिरी से जब वो माता गूजरी और छोटे साहबजादों को गिरफ्तार करने में कामयाब हो गया तो उसने युद्ध में हार की हताशा का सारा गुस्सा उनपर और उनकी मदद करने वालों पर निकाला. पहले उसने उन बच्चो को मुसलमान बनाकर, गुरु तेगबहादुर और गुरु गोविन्द सिंह के अनुयायियों को नीचा दिखाने का प्रयास किया.
उसने उन बच्चों को धर्म बदलने पर वैभवपूर्ण जीवन और बड़े होने शहजादियों से विवाह का लालच दिया. जब वो नहीं माने तो उनको कडकडाती ठण्ड में माता गुजरी के साथ ठन्डे बुर्ज में कैद कर दिया और उनको कुछ भी खाने पीने को देने से मना कर दिया. जेल में कैदियों को भोजन देने वाले मोतीराम मेहरा से यह देखा न गया.
वो अपने घर से जेबर और पैसे लेकर आया और सिपाहियों को रिश्वत देकर, माता गुजरी और साहबजादों को चुपचाप गर्म दूध पिलाने जाने लगा. उसने तीन दिन तक ऐसा किया लेकिन तीसरे दिन बजीर खान को इसकी खबर लग गई. यह जानकार वह गुस्से से आग बबूला हो गया और उसने मोतीराम मेहरा के पूरे परिवार को गिरफ्तार कर लिया.
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बजीर खान ने मोतीराम मेहरा, उसकी बूढी माँ, उसकी पत्नी तथा उसके बच्चे को कोल्हू में पेरकर मारने का हुक्म दिया. मोतीराम मेहरा की आखों के सामने पहले उसके बच्चे को , फिर उनकी माँ को , फिर उसकी पत्नी को कोल्हू में परा गया और उसके बाद मोती राम मेहरा को भी कोल्हू में पेर कर शहीद कर दिया गया.
इस घटना को याद करके रोगटे खड़े हो जाते हैं. जब जब गुरु गोविन्द सिंह के पिता और उनके बच्चो की शहादत को याद किया जाएगा , तब तब मोतीराम मेहरा और उनके परिवार की कुर्बानी को भी याद किया जाएगा .

Thursday, 28 November 2019

विवाह के लिए जाति, गोत्र, अल्ल, कुंडली आदि का महत्त्व

भारत में जाति (खानदानी व्यवसाय), गोत्र (वंश परम्परा), अल्ल (मूल गाँव ) , कुण्डली (ज्योतिषीय गणना), इत्यादि को देखने के बाद बच्चों की शादी कराई जाती थी, शायद इसीलिए भारत में कभी तलाक जैसे प्रावधान की जरूरत नहीं पडी थी. इन बातों को एक दम से गलत कहकर खारिज करने के बजाय इनको पहले अच्छे से समझना होगा.
जैसा कि सभी जानते है कि - विभिन्न प्रकार के व्यवसाय करने वालों के अपने कार्य की आवश्यकता के हिसाब से अलग अलग दिनचर्या और स्वभाव बन जाते हैं. पुरोहित का कार्य करने वाले की दिनचर्या सैनिक के परिवार की दिनचर्या से अलग होगी. दूकान पर बैठने वाले की दिनचर्या खेत में काम करने वाले से अलग होगी.
ड्राइवर की दिनचर्या पशुपालनक की दिनचर्या से अलग होगी. विवाह के बाद लड़की जब अपनी ससुराल जाए तो उसे अपने मायके और ससुराल के रहन सहन में ज्यादा फर्क न लगे इसलिए कोशिश की जाती थी कि विवाह समान व्यवसाय वालों में किया जाए. जिससे लड़की मायके के जिस माहौल की आदी है ससुराल में भी वैसा ही माहौल मिले.
आज भी आप देखते होंगे कि - डॉक्टर की कोशिश होती है कि लड़की भी डॉक्टर हो, राजनतिक परिवार के लड़के की शादी भी ज्यादातर किसी नेता की बेटी से ही होती है. सैन्य अधिकारी अपने बच्चों की शादी के लिए सैन्य परिवार ही चुनना पसंद करते है. जिससे दम्पत्ति और समधी दोनों को एक दुसरे के रहन सहन से कोई दिक्कत न हो.
इसी प्रकार से गोत्र और अल्ल को देखने का मुख्य मकसद यह है कि - लड़के और लड़की की वंश परम्परा (डीएनए) क्या है. कहीं वे दोनों वंश परम्परा के हिसाब से भाई बहन तो नहीं है. अब जिनके यहाँ भाई बहन (कजन) की ही आपस में शादी करा दी जाती हो उनको उनको यह नहीं समझ आएगा कि - सगोत्र विवाह अनुचित क्यों है.
भारत में यह हमेशा ध्यान रखा जाता रहा है कि - किसी भी प्रकार से भाई बहन की शादी न होने पाए. जिस खानदान की लड़की अपने खानदान में आई है उस खानदान में अपनी लड़की न दी जाए. आधुनिक संविधान के अनुसार भी पिता के खानदान की 5 पीढ़ी और माता के खानदान की 3 पीढी से भाई बहन हो तो विवाह अनुचित कहा गया है.
भारत में ज्योतिषीय गणनाओं द्वारा भविष्य का कुछ कुछ अनुमान लगा लेने की मान्यता रही है, बहुत हद तक यह अक्सर सही भी बैठती हैं. अनेको दम्पत्तियों के जीवन को देखकर और उनकी गृह दशा के अनुसार आये परिणामो को देखकर, ऐसे ज्योतिषीय सिद्धांत बनाए गए जिनसे पता चलता है कि कैसा संयोग शुभ होगा और कैसा अशुभ.
इसी प्रकार क्षेत्रीय विविधिता का भी ध्यान रखा जाता था क्योंकि पहाड़ पर रहने वाले और समुद्र् के किनारे रहने वाला का खानपान और रहन सहन तथा रेगिस्तानी इलाके में रहने वाला का और नदी किनारे रहने वाले का खानपान और रहन सहन भी भी बिलकुल अलग अलग ही होगा. इसलिए कोशिश की जाती थी कि विवाह एक जैसे माहौल में हो.
इन सब चीजों को देखना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन अगर कहीं कोई लड़का / लड़की विपरीत परिस्तिथियों के बाबजूद, सब कुछ जानते हुए एक दुसरे के साथ एडजस्ट करने को तैयार हों तो उनका विवाह भी करा दिया जाता है. भारतीयों की इन अच्छाइयों को विधर्मियों और विदेशियों के शासन काल में बुराई कह कर प्रचारित किया गया था.
जहाँ दो जीते जागते स्वतंत्र सोंच वाले इंसानों (लड़का और लड़की) में विवाह करना हो वहां उनके सफल दाम्पत्य जीवन के लिए बहुत कुछ देखना होता है. लेकिन जहाँ लड़की को केवल बच्चे पैदा करने वाली मशीन समझा जाता हो या घर की चार दीवारी में बंद रहकर, घर का काम करने वाली गुलाम समझा जाता हो, वो कुछ भी कर सकते हैं.

Saturday, 23 November 2019

दादा वीर कुशाल सिंह दहिया का आत्मबलिदान

Image may contain: one or more people, people standing and textइस्लाम कबूल न करने पर जालिम औरंगजेब ने भाई सती दास, भाई मतीदास और भाई दयाला यातना देकर हत्या कर दी. 24 नबम्बर को औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर का भी शीश कटवा दिया और उनके पवित्र पार्थिव शरीर की बेअद्वी करने के लिए शरीर के चार टुकड़े कर के उसे दिल्ली के चारों बाहरी गेटों पर लटकाने का आदेश दे दिया.
लेकिन उसी समय अचानक आये अंधड़ का लाभ उठाकर एक स्थानीय व्यापारी लक्खीशाह गुरु जा धड और भाई जैता जी गुरु जी का शीश उठाकर ले जाने में कामयाब हो गए. लक्खीशाह ने गुरु जी के धड़ को अपने घर में रखकर अपने घर को आग लगा दी. इस प्रकार समझदारी और त्याग से गुरु जी के शरीर की बेअदवी होने से बचा लिया.
इधर भाई जैता जी ने गुरूजी का शीश उठा लिया और उसे कपडे में लपेटकर अपने कुछ साथियों के साथ आनंदपुर साहब को चल पड़े. औरँगेजेब ने उनके के पीछे अपनी सेना लगा दी और आदेश दिया कि किसी भी तरह से गुरु जी का शीश वापस दिल्ली लेकर आओ. भाई जैता जी किसी तरह बचते बचाते सोनीपत के पास बढ़खालसा गाँव में पहुंचे गए,
मुगल सेना भी उनके पीछे लगी हुई थी. वहां के स्थानीय निवाशियों को जब पता चला कि - गुरु जी ने बलिदान दे दिया है और उनका शीश लेकर उनके शिष्य उनके गाँव में आये हुए हैं तो सभी गाँव वालों ने उनका स्वागत किया और शीश के दर्शन किये. दादा कुशाल सिंह दहिया को जब पता चला तो वे भी वहां पहुंचे.और गुरु जी के शीश के दर्शन किये.
मुगलो की सेना भी गांव के पास पहुंच चुकी है. गांव के लोग इकट्ठा हुए और सोचने लगे कि क्या किया जाए ? .मुग़ल सैनिको की संख्या और उनके हथियारों को देखते हुए गाँव वालों द्वारा मुकाबला करना भी आसान नहीं था. सबको लग रहा था कि- मुगल सैनिक गुरु जी के शीश को आनन्दपुर साहिब तक नहीं पहुंचने देंगे. अब क्या किया जाए ?
तब "दादा कुशाल सिंह दहिया" ने आगे बढ़कर कहा कि - सैनिको से बचने का केवल एक ही रास्ता है कि - गुरुजी का शीश मुग़ल सैनिको को सौंप दिया जाए. इस पर एक बार तो सभी लोग गुस्से से "दादा" को देखने लगे. लेकिन दादा ने आगे कहा - आप लोग ध्यान से देखिये गुरु जी का शीश, मेंरे चेहरे से कितना मिलता जुलता है.
अगर आप लोग मेरा शीश काट कर, उसे गुरु तेगबहादुर जी का शीश कहकर, मुग़ल सैनिको को सौंप देंगे तो ये मुघल सैनिक शीश को लेकर वापस लौट जायेंगे. तब गुरु जी का शीश बड़े आराम से आनंदपुर साहब पहुँच जाएगा और उनका सम्मान के साथ अंतिम संस्कार हो जाएगा. उनकी इस बात पर चारों तरफ सन्नाटा फ़ैल गया .
सबलोग स्तब्ध रह गए कि - कैसे कोई अपना शीश काटकर दे सकता है ? पर वीर कुशाल सिंह फैसला कर चुके थे, उन्होंने सबको समझाया कि - गुरु तेग बहादुर कों हिन्द की चादर कहा जाता हैं, उनके सम्मान को बचाना हिन्द का सम्मान बचाना है. इसके अलावा कोई चारा नहीं है. फिर दादा कुशाल सिंह के आदेश पर उनके बेटे ने अपने पिता के सिर उतारकर गुरुजी के शिष्यो को दे दिया.
जब मुघल सैनिक गाँव में पहुंचे तो सिक्ख दोनों शीश को लेकर वहां से निकल गए. भाई जैता जी गुरु जी का शीश लेकर तेजी से आगे निकल गए औए जिनके पास दादा कुशाल सिंह दहिया का शीश था, वे जानबूझकर कुछ धीमे हो गए, मुग़ल सैनिको ने उनसे वह शीश छीन लिया और उसे गुरु तेग बहादुर जी का शीश समझकर दिल्ली लौट गए.
Image may contain: 6 people, including Gurcharan Singh Sidhu, people standingइस तरह धर्म की खातिर बलिदान देने की भारतीय परम्परा में एक और अनोखी गाथा जुड़ गई. जहाँ दादा वीर कुशाल सिंह दहिया ने अपना बलिदान दिया था उसे "गढ़ी दहिया" तथा "गढ़ी कुशाली" भी कहते हैं. सदियों से इतिहासकारों और सरकारों ने "दादा वीर कुशाल सिंह दहिया" तथा इस स्थान को कोई महत्त्व नहीं दिया.
हरियाणा की वर्तमान सरकार के मुख्यमंत्री श्री मनोहरलाल खट्टर जी ने अब उस स्थान पर एक म्यूजियम बनबाया है और वहां पर महाबलिदानी दादा कुशाल सिंह दहिया (कुशाली) की प्रतिमा को स्थापित किया है. यह स्थान सोनीपत जिले में बढ़खालसा नामक स्थान पर है. सभी धर्मप्रेमियों को वहां दर्शन के लिए जाना चाहिए.
गुरु तेगबहादुर की जय, वीर कुशाल सिंह दहिया की जय, भारत माता की जय

Tuesday, 19 November 2019

भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी

Image may contain: 8 people"इंदिरा प्रियदर्शनी" का जन्म जन्म 19 नवम्बर 1917 को राजनीतिक रूप से प्रभावशाली नेहरू परिवार में हुआ था. इनके पिता जवाहरलाल नेहरू और इनकी माता कमला नेहरू थीं. ब्रिटिश राज में जब अधिकांश भारतीय गरीबी का जीवन जी रहे थे, उनका परिवार बिना कोई व्यापार किये ही अत्यंत धनवान था और राजसी जीवन जी रहा था.
इन्दिरा ने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के पश्चात 1934–35 में , शान्तिनिकेतन में रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा निर्मित "विश्व-भारती विश्वविद्यालय" में प्रवेश लिया परन्तु वहां मन न लगने के कारण जल्द ही उन्होंने उसे छोड़ दिया। इसके पश्चात वे इंग्लैंड चली गईं और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में बैठीं, परन्तु यह उसमे वे विफल रहीं.
तब उन्होंने ब्रिस्टल के बैडमिंटन स्कूल में कुछ महीने बिताने के पश्चात, 1937 में परीक्षा में सफल होने के बाद, सोमरविल कॉलेज, ऑक्सफोर्ड में दाखिला लिया। इस समय के दौरान इनकी मुलाक़ात अक्सर फिरोज़ से होती थी, जिन्हे वे प्रयागराज (इलाहाबाद) से जानती थीं और जो लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में अध्ययन कर रहे थे.
Image may contain: 4 people, wedding and indoorउनके बीच प्रेम हो गया और वे एक दूसरे के साथ शादी करने को तैयार हो गए. जब नेहरू को उनके प्रेम के बारे में पता चला तो बहुत नाराज हुए. नेहरू फिरोज के साथ इंदिरा के विवाह को लेकर तैयार नहीं थे, इसका कारण उनका विधर्मी होना था या कोई और यह आजतक स्पष्ट नहीं है. फिरोज पारसी थे या मुस्लिम यह भी एक विवाद है.
कहा जाता है कि- इंदिरा और फिरोज ने इंगलैंड में ही विवाह कर लिया था इसलिए नेहरू जी को भी अंततः विवाह के लिए राजी होना पड़ा. तब गांधी जी ने फिरोज को अपना पुत्र घोषित कर गांधी सरनेम दिया और 16 मार्च 1942 को आनंद भवन, प्रयाग राज (तत्कालीन इलाहाबाद) में एक "आदि धर्म ब्रह्म-वैदिक समारोह" में इनका विवाह फिरोज़ से हुआ.
विवाह के बाद इंदिरा और फिरोज दोनों ने "गांधी" सरनेम को अपना लिया। अब वे इंदिरा प्रियदर्शनी से इंदिरा गांधी हो गई.20 अगस्त 1944 में उन्होंने राजीव गांधी और इसके दो साल बाद 14 दिसंबर 1946 को संजय गाँधी को जन्म दिया। देश आजाद होने के बाद उनके पिता जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री बने.
वे अपने पिता के कार्यकाल के दौरान गैरसरकारी तौर पर एक निजी सहायक के रूप में उनके सेवा में रहीं, इससे उनमे भी राजनैतिक समझ पैदा हुई. 1951 में हुए पहले आम चुनाव में उन्होंने अपने पिता और पति दोनों के चुनाव प्रचार का प्रबंधन किया, जिसमे दोनों ही विजयी हुए. परन्तु अब नेहरू और फिरोज के मनमुटाव भी उभरकर सामने आने लगे.
फिरोज अपनी ही सरकार के भ्रष्टाचार को उजागर करने लगे. जीप घोटाले और मूंदड़ा काण्ड को उजागर करने के कारण फिरोज गांधी की इमेज पार्टी के भीतर ही एक विपक्षी नेता की बन गई. इसका असर फिरोज और इंदिरा के दाम्पत्य जीवन पर भी पड़ा. यह मनमुटाव इतना बढ़ा कि वे दोनों अलग अलग रहने लगे.
Image may contain: Atul K Mehta, eyeglasses, sunglasses and closeup1959-60 के दौरान इंदिरा चुनाव लड़ीं और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं. वे केवल अपने पिता के कारण चुनी गई थी और लोग उन्हें गूंगी गुड़िया कहते थे. उनका कार्यकाल घटना विहीन रहा और वे अपनी कोई छाप छोड़ने में नाकाम रहीं. 8 सितम्बर, 1960 को जब इंदिरा अपने पिता के साथ विदेश दौरे पर गयीं थीं, फिरोज़ की मृत्यु हो गई.
अब इंदिरा गांधी भी अपना अधिक समय अपने पिता के साथ राजनीति को देने लगीं. 27 मई 1964 को नेहरू जी की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री जी प्रधनमंत्री बने. उन्होंने इंदिरा गांधी को राजयसभा में भेजा और अपने मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया. इसी बीच "हिंदी" को राष्ट्रभाषा बनाने के मुद्दे को लेकर दक्षिण भारत में दंगे हो गए.
उस समय बिना सरकार की मंजूरी के वे चेन्नई गई और अधिकारियों और स्थानीय नेताओं से मिली. शास्त्रीजी एवं वरिष्ठ मंत्रीगण उनके इस तरह के प्रयासों के कारण काफी शर्मिंदा थे परन्तु अब कांग्रेस में दो गुट बनने लगे. एक गुट सरकार के साथ था और दूसरा गुट पार्टी के अध्यक्ष के. कामराज के नेतृत्व में इंदिरा गांधी को प्रोमोट करने लगा.
अब कांग्रेस दो गुटों में विभाजित हो चुकी थी. श्रीमती गांधी के नेतृत्व वाले गुट को "इंडिकेट" कहा जाता था जो समाजवादी बिचारधारा वाला था और मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाले गट को "सिंडीकेट" कहा जाता था जो दक्षिणपंथी बिचारधारा वाला था. 1967 के चुनाव में भी कांग्रेस विजयी रही लेकिन पहले से लगभग 60 सीटें कम आईं.
1969 में देसाई के साथ अनेक मुददों पर असहमति के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस विभाजित हो गयी. लेकिन वे समाजवादियों एवं साम्यवादी दलों से समर्थन से अगले दो वर्षों तक शासन चलाती रहीं.1971 में भारत पापिस्तान का युद्ध हुआ जिसे भारतीय सेना ने बहुत ही काम संशाधन होने के बाबजूद बहुत बहादुरी से लड़ा और जीता।
इस युद्ध का निर्णय लेने में ढुलमुल रवैया अपनाने और युद्ध के बाद शिमला समझौते में बिना कुछ पापिस्तान से बिना कुछ लिए पापिस्तान को सब कुछ वापस कर देने के विवादास्पद फैसले के बाबजूद पार्टी उनकी छवि आयरन लेडी की बनाने में कामयाब रही. 1971 की लड़ाई को जीतने का सारा श्रेय सेना के बजाय इंदिरा गांधी को दे दिया गया
लेकिन 1971 के चुनाव में जीतने में धांधली के आरोप लगे और विपक्षी नेताओं ने उनके खिलाफ अदालत में केस कर दिए. 1975 में अदालत से इंदिरा गाँधी के खिलाफ फैसला आया. लेकिन इंदिरा गांधी ने अदालत के फैसले को मानने के बजाय देश में आपातकाल लगा दिया और सभी विपक्षी नेताओं को जेल में बंद कर प्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
आपातकाल में विपक्षी नेताओ पर बहुत जुल्म किये गए, प्रेस की स्व्तंबत्रता ख़त्म कर दी गई, जबरन नसबन्दियाँ की गई, अनेको हत्याएं हुई. इसके जबाब में विपक्ष भी एकजुट हुआ और 1977 में एक साथ मिलकर चुनाव लड़ा जिसमे कांग्रेस पार्टी की बहुत बुरी तरह हार हुई और इंदिरा गांधी तथा उनका पुत्र संजय गांधी भी अपनी सीटें बचाने में नाकाम रहे.
1977 में मोरारजी देसाई के नेत्रत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी. आजादी के बाद यह पहला दौर था जब यह विशेष परिवार सत्ता से बाहर था. तब जनता पार्टी में फूट डालने की नीयत से उन्होंने कुछ ऐसे काम किये जो कांग्रेस क बिरोधी पार्टी को नुकशान पहुँचाने वाले थे लेकिन साथ साथ देश को भी बहुत नुकशान होने वाला था.
पंजाब में जनसंघ और अकाली दल के गठबंधन को कमजोर करने के लिए उन्होंने कट्टर धार्मिक सिक्ख नेता भिंडरावाला को सपोर्ट दिया. भिंडरावाला अपने भाषण में ऐसी बाते कहता था जिनको काटना अकाली दल के लिए और झेलना जनसंघ के लिए मुश्किल होता था. लेकिन बाद यह यह नीति खुद इंदिरा गांधी जी के लिए भी घातक साबित हुई.
क्रमशः

Monday, 18 November 2019

जो जीता वो चन्द्रगुप्त

Image result for चन्द्रगुप्तजितना बड़ा अन्याय इतिहासकारों ने महान सम्राट "पौरस" के साथ किया है, उतना बड़ा अन्याय इतिहास में शायद ही किसी के साथ हुआ होगा. एक महान नीतिज्ञ, दूरदर्शी, शक्तिशाली, वीर और विजयी राजा को पराजित राजा बना दिया गया. वामपंथी इतिहासकार सिकन्दर को विश्व-विजेताबताते है लेकिन अगर यह मान भी लें कि- सिकन्दर ने पौरस को हरा दिया था, तो भी वो विश्व-विजेता कैसे बन गया ?

पौरस तो बस एक राज्य का राजा था. भारत में उस तरह के अनेको राज्य थे इसलिए पौरस पर सिकन्दर की विजय भारत की विजय तो नहीं कही जा सकती और भारत तो दूर चीन,जापान जैसे एशियाई देशों को भी तो जीतना बाँकी ही था, फिर वो विश्व-विजेता कहलाने का अधिकारी कैसे हो गया ? भारत में भी सिकंदर व्यास नदी से आगे नहीं बढ़ सका था और शर्मनाक तरीके से हारकर भागा था.

दरअसल सिकन्दर पूरे यूनान, ईरान, ईराक, बैक्ट्रिया आदि को जीतते हुए आ रहा था, इसलिए भारत में उसके पराजय और अपमान को यूनानी इतिहासकार सह नहीं सके, इसलिए झूठी कहानी बनाकर सिकंदर को विश्व विजेता बता दिया. उन्ही कहानियों के आधार पर भारत के राष्ट्र बिरोधी इतिहासकारों ने सिकंदर को महान और विश्व विजेता घोषित कर दिया और एक कहावत गढ़ दी-' "जो जीता वही सिकंदर"

दक्षिणी यूरोप, मध्य एशिया और उत्तरी अफ्रीका के ही कुछ राज्य सिकंदर जीत सका था. दक्षिण एशियाई राज्य, दक्षिणी अफ्रीकी राज्य, उत्तरी अमेरिका , दक्षिणी अमेरिका , आस्ट्रेलिया, यूरोप आदि के, सैकड़ों राज्यों में सिकंदर तो क्या सिकंदर का नाम तक नहीं पहुंचा था, फिर भी पता नहीं क्यों और किस आधार पर पश्चिमी इतिहासकारों को सिकंदर को विश्व विजेता घोषित कर दिया था.

रही बात सिकंदर की महानता की तो भी पोरस, सिकंदर से ज्यादा महान राजा था. सिकंदर की पत्नी ने पोरस को राखी बाँधकर भाई बनाते हुए सिकंदर के लिए जीवनदान माँगा था. युद्ध में सिकंदर का बध करने की स्थिति बन जाने के बाबजूद पोरस ने राखी की लाज रखते हुए सिकंदर को जीवनदान दिया था. किसी को बहन मानकर उसके पति को जीवनदान देने वाला महान हुआ या हत्यारा ?

जबकि सिकन्दर की सेना जहाँ भी गई, उसने महिलाओं का अपहरण किया, बच्चों को तलवार से काट दिया. समस्त नगरों को आग लगा दी ईरान की दो शाहजादियों को सिकन्दर ने बलपूर्वक अपनी रखैल बना लिया. उसके सेनापति जहाँ-कहीं भी गए, पुरुषो की हत्या कर महिलाओं को बल-पूर्वक उठा लाये. सिकंदर जैसे अत्याचारी हमलावर को महान राजा बताना "महान" शब्द का ही घोर अपमान है .

सिकंदर जैसा व्यक्ति जो लोगों की ह्त्या करके, दुनिया पर शासन करने का स्वप्न देख रहा था, उसे महान राजा कैसे कह सकते हैं ? जिसने अपने बाप (फिलिप) और सौतेले भाइयों की ह्त्या की हो, आलोचना करने के कारण अपने ही गुरु अरस्तु के भतीजे "कालस्थनीज" को मरवा दिया हो, पिता के विश्वासपात्र सहायक परमेनियन की धोखे से ह्त्या कर दी हो, उस सिकंदर को महान कैसे कहा जा सकता है ?

चन्द्रगुप्त की वीरता ने, सिकंदर को व्यास नदी से आगे बढ़ने ही नहीं दिया था. चाणक्य की रणनीति में उलझकर सिकंदर की सेना बागी हो गई थी. सिकंदर के सेनापति "सेल्यूकस" को पराजय के बाद अपनी जान बचाने के लिए, संधि करने के लिए अपनी बेटी "हेलेन" की शादी चन्द्रगुप्त से करनी पडी थी. भारत को जीतने में असफल होकर वापस लौटते समय निराशा और घावों के चलते उसकी म्रत्यु हो गई थी.


हम हिन्दुस्थानियों की बहुत बड़ी भूल है कि - हम अपने बच्चो को पश्चिमी इतिहासकारों का लिखा झूठा इतिहास पढ़ा रहे हैं. पोरस और चन्द्रगुप्त जैसे राजाओं को महान बताने के बजाये, सिकंदर जैसे अत्याचारी और भगौड़े को महान बता रहे हैं. इसलिए अब याद रहे कि - आप अपने बच्चों को यह नहीं सिखायेंगे कि - "जो जीता वही सिकंदर" बल्कि यह सिखायेंगे कि - " जो जीता वो चन्द्रगुप्त"

Friday, 15 November 2019

आधुनिक और सुविधा सम्पन्न ब्रद्धाश्रम आज की आवश्यकता

Image may contain: 2 people, people sitting, table and indoorपुराने समय में संयुक्त परिवार होते थे और उनमे भी सभी के कई कई बच्चे. घर में बच्चे से लेकर बूढ़े तक लगभग हर आयु वर्ग के लोग होते थे और उनके पास समय भी होता था इसलिए सभी का मन लगा रहता था. जब परिवार न्यूक्लियर होने लगे और बच्चों की संख्या कम होने लगी तो ब्रद्ध लोग अपना समय कहा बिताये, यह एक समस्या हो गई है.
आज बहुत से ऐसे लोग हैं जिनके के केवल एक या दो बच्चे है. माँ बाप ने उनको काबिल बनाया और वे बच्चे अपने जॉब के कारण घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर किसी अन्य राज्य में काम करते है या हजारों किलोमीटर दूर किसी अन्य देश में सेट हो गए हैं. न वो बच्चे वापस आ सकते हैं और न ही माँ बाप का इतनी दूर जाकर रहने पर मन लगता है.
जब वे अपने गाँव / कसबे / शहर में अकेले रहते हैं तो उन्हें अपने बच्चों की याद आती है और जब वे अपने बच्चों के पास चले जाते है तो उन्हें अपने गाँव / कसबे / शहर और अपने पुराने साथियों की याद सताने लगती है. इसके अलाबा बेटा बहु अगर दोनों जॉब करते हो तो उनके पास माँ बाप के पास बैठकर बातें करने का समय भी नहीं होता है.
Image may contain: plant and outdoorआने वाले समय में तो यह समस्या और बढ़ने वाली है. अब इससे निपटने के दो तरीके हैं या तो बच्चों को नालायक कहकर कोस लें और अकेले अपने मूल गाँव / कसबे / शहर में पड़े रहे या अपने मूल गाँव / कसबे / शहर को छोड़कर बच्चों के पास चले जाएँ और वहां अपने पुराने साथियों और उनकी बातों को याद करके रोते रहें. या फिट कुछ नया सोंचा जाए.
जो समस्या भविष्य में आती दिख रही है, तो क्यों न उसके लिए अपने आपको पहले से ही मानशिक रूप से तैयार किया जाए. मेरा अपना मानना है कि- जिस व्यक्ति की जहाँ जवानी गुजरी हो उसके बुढापे का अधिकतम हिस्सा वहीँ अपने साथियों के साथ ही गुजरना चाहिए. इसके लिए कोई अच्छा और सुविधा सम्पन्न व्यवस्था जवानी में ही कर लेनी चाहिए.
लुधियाना के दोराहा के पास मैंने एक ब्रद्धाश्रम देखा है.  लुधियाना के कुछ संपन्न लोगों ने दोराहा-सानेहवाल के बीच में, नीलो नहर के किनारे एक हरे भरे वातावरण वाला शानदार ब्रद्धाश्रम बनाया है. जो अनेकों प्रकार की सुविधाओं से संपन्न है. इसका सदस्य बन जाने के बाद बुजुर्ग जब चाहते हैं वहा रहते और जब मर्जी होती है अपने घर चले जाते है.
Image may contain: outdoorजब मर्जी होती है अपने बच्चों के पास चले जाते हैं और जब मर्जी होती है तो फिर आश्रम में वापस आ जाते हैं. आश्रम में बढ़िया भोजन और मनोरंजन के साधन हैं. बढ़िया प्राथमिक चिकित्सा का उत्तम प्रबंध हैं. वहां बुजुर्ग लोग अपने हमउम्र साथियों के साथ बहुत ही खुश रहते हैं. वे लोग कोई घर से निकाले हुए नहीं बल्कि अपनी मर्जी से वहां आये है.
आने वाले समय में हर शहर में ऐसे सीनियर सिटीजन होम्स बनाने होंगे. जिनको आर्थिक स्थिति के अनुसार स्टार, टू स्टार, थ्री स्टार, फोर स्टार, फाइव स्टार, आदि कैटेगिरी में बांटना होगा. बुजुर्ग वहां की फीस देकर अपने लिए सारी सुविधाएं प्राप्त कर सके. इस तरह उनका बुढापा भी अच्छे से कटेगा और बच्चे भी परेशान नहीं होंगे.
विकसित देशों में ब्रद्धाश्रम का यह कांसेप्ट काफी समय से चल रहा है. वहां उनमे रहने वाले बुजुर्ग अपने आपको ज्यादा स्वतंत्र और सुखी मानते हैं. समय समय पर वे वापस अपने घर या बच्चों के पास जाते रहते हैं और फिर वापस आश्रम में आ जाते हैं. इसको लेकर न बुजुर्ग परेशान होते हैं और न उनके बच्चे. सब मस्त रहते हैं.
वहां पर लोगों की रुचियों के अनुसार अलग अलग टाइप के ब्रद्धाश्रम हैं. लोग अपनी पसंद का ब्रद्धाश्रम चुनकर उसके सदस्य बन जाते हैं. कई लोग तो अपने रिटायरमेंट से 5 / 6 साल पहले से ही आश्रमों में जाना शुरू कर देते है, कभी कभी वहां स्टे भी करते हैं और अपने आपको मानशिक रूप से तैयार कर लेते हैं. जो अच्छा लगता है उसके सदस्य बन जाते है.
Image may contain: one or more people and people sittingकई लोग तो एक साथ दो / तीन आश्रमों की सदस्यता ले लेते हैं और बदल बदल कर उनमे रहते है. आने वाले समय में हमें भी इस कांसेप्ट को अपनाना होगा. खुशी से अपनाए तो ज्यादा अच्छा होगा. ब्रद्धाश्रम का मतलब बूढों को लावारिस छोड़ना नहीं है बल्कि बुजुर्गों का अपने जैसे लोगों के साथ ज्यादा समय गुजारना है.
मैं तो खुद भविष्य में ऐसे ब्रद्धाश्रम का सदस्य बनना चाहूँगा. मुझे अगर भगवान् ने इस योग्य बनाया और पर्याप्त पैसा दिया तो मैं अपने मूल टाउन (मझोला) में एक ब्रद्धाश्रम अवश्य बनना चाहूँगा. जहाँ कोई भी मझोला वाशी कभी भी कितने भी दिन के लिए रहने को जा सके. या जनके बच्चे नहीं है या दूर है वे स्थाई रूप से वहां रह सके.
ब्रद्धाश्रम कोई बुरी चीज नहीं है . घर में अकेले पड़े रहकर अवसाद में रहने के वजाय, अपने हम उम्र लोगों के साथ मस्ती करना ज्यादा बढ़िया है. ब्रद्धाश्रम का मतलब बूढों को लावारिस छोड़ना नहीं है. बल्कि आधुनिक ब्रद्धाश्रमो का में जाकर रहने का अर्थ है अपने जैसे लोगों के साथ हँसते खेलते अपनी जीवन संध्या को बिताना.

Tuesday, 12 November 2019

ले जनरल सगत सिंह

Image may contain: 1 person, textहमारे देश के वीर सैनिको ने अनेको बार अपनी बहादुरी और साहस का प्रदर्शन करते हुए, अपनी जान की बाजी लगाकर देश की रक्षा की है. लेकिन पता नहीं हमारे देश में ऐसे वीर सैनिकों की वीर गाथाओं को आम जनता तक पहुँचने नहीं दिया जाता है. कहीं इसका उद्देश्य यह तो नहीं कि नेताओं को डर हो कि- जनता सेना को उनसे ज्यादा महत्त्व देने लग जाए?
मोदी सरकार में मंत्री और पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल (सेवानिवृत्त) वी के सिंह जी ने एक किताब लिखी थी, "लीडरशिप इन द इंडियन आर्मी". उसमे भारतीय सैनिको की अनेकों शौर्य गाथां का जिक्र है. उसमें सिक्किम - तिब्बत (चीन) सीमा पर हुई 11 सितबर 1967 की एक घटना का जिक्र है मेरा ख़याल है इसको आम जनता को जानना चाहिए.
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि - भारत तिब्बत सीमा पर पहाडी इलाके में ऐसे बहुत सारे स्थान हैं जहाँ "सीमा" की स्थिति स्पष्ट नहीं है. दोनों ही देश उनपर अपना दावा करते हैं. सिक्किम में नाथुला दर्रे में ऐसे ही एक स्थान पर जहाँ भारत का कब्ज़ा है, चीनी सैनिको ने भारी संख्या में घुसपैठ कर दी और भारतीय सीमा में अपना बंकर बनाने लगे.
जब भारतीय सैनिक उनको रोकने आगे बढे तो चीनी सैनिको ने भारतीय सैनिकों को चेतावनी देते हुए कहा कि- पीछे हट जाओ अन्यथा 1962 की तरह कुचले जाओगे. चीन ने एक तरह से अल्टीमेटम दिया था कि - भारत नाथु-ला और जेलप-ला चौकियों को फौरन खाली कर दे. भारत पापिस्तान में तनाव का लाभ चीन उठाना चाहता था.
चीनियों की ताकत देखते हुए कोर मुख्यालय के प्रमुख जनरल "बेवूर" ने लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह राठौर को इस पर अमल करने का आदेश भी दे दिया. परन्तु ले.जनरल सगत सिंह राठौर ने अपने जनरल से कहा कि नाथु-ला ऊँचाई पर हैं, इसे खाली करने का मतलब यह है कि- चीन सिक्किम पर नजर रख सकता है.
जनरल "बेवूर" ने कहा वहां हमारे पास सैनिक और संसाधन चीन से बहुत कम है इसके अलावा जिस तरह से चीन की सरकार अपने सैनिको के पीछे खडी होती है, हमारे साथ वह स्थिति नहीं है. इस पर ले.जनरल सगत सिंह ने कहा कि - आपने पहले ही कहा था की नाथु-ला की जिम्मेदारी मेरी है, तो मैं जिम्मेदारी लेते हुए इसे खाली नही कर रहा हूँ .
लेकिन दुर्भाग्यवश उधर 27 माउंटेन डिवीजन ने "जेलप-ला" चौकी को खाली कर दिया, जिस पर फौरन चीन ने कब्जा कर लिया. बार बार की घुसपैठ को रोकने के लिए लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह ने वाहना लोहे की कँटीली बाड़ लगाने का फैसला किया. इस पर चीन भड़क गया और उसने अपने एक अंग्रेजी जान्ने वाले प्रतिनिधि को बात करने भेजा.
उस प्रतिनिधि से साथ बातचीत थोड़ी ही देर में धक्कामुक्की में बदल गई. एक भारतीय सैनिक के धक्के से उस प्रतिनिधि का संतुलन बिगड़ गया और वह गिर पड़ा और गिरने से उसका चश्मा टूट गया. उनकी बातचीत विफल हो गई. उसके बाद भारतीय सैनिकों ने फिर से बाड़ लगाना शुरू किया. इस बात सेे बौखलाए चीनियों ने फायरिंग शुरू कर दी.
जितने भी भारतीय सैनिक बाड़ लगाने के लिए खुले में खड़े थे वह अचानक इस हमले से सम्हल नही पाये और मारे गए. मारे गए सैनिकों की संख्या 67 थी. 67 भारतीय सैनिको लाश देख कर अपने उच्चाधिकारियों से तोप का इस्तेमाल करने की अनुमति मांगी. उस समय सीमांत मामलो में तोप के इस्तेमाल की इजाजत प्रधानमंत्री से लेना होती थी.
उस समय प्रधानमंत्री थीं इंदिरा गांधी. ऊपर से कोई अनुमति नही आने पर सगत सिंह राठौर ने अपनी सर्विस की परवाह न करते हुए तोप का इस्तेमाल करने का हुक्म दे दिया. भारतीय सैनिको ने अपनी तोप से सटीक निशाने लगाकर चीनियों को उडाना शुरू कर दिया. भरत की इस जबाबी कार्यवाही में चीन के लगभग चार सौ सैनिक मारे गए.
हमारे देश की तत्कालीन राजनीतिक मजबूती / कमजोरी को इस बात से समझा जा सकता है कि - इस जीत के लिए ले.जनरल सांगत सिंह को अवार्ड देने के बजाय उस पोस्ट से ही हटा दिया गया था. हमारे देश के सैनिको ने एक बार नहीं बल्कि अनेकों बार चीन को पराजित किया है लेकिन मीडिया उसकी कभी चर्चा नहीं करता है.
हमारे देश का मीडिया बार बार चीन के हाथो हुई 1962 की हार का जिक्र करके सैनिको का मनोवल तोड़ने का प्रयास करता रहता है. जबकि 1962 की उस लड़ाई में बिना पर्याप्त संसाधनों के ही भारतीय सेना ने कई मोर्चो पर चीन को शिकस्त दी थी. 11 सितबर 1967 की घटना को भी वामी मीडिया ने भारतीय सेना की गलती बताया था.
Image may contain: 7 people, including Ruldu Ram Sarpanchपूरी घटनाक्रम आपके सामने प्रस्तुत कर दिया गया है. अब यह आपकी मर्जी है . आप चाहे तो भारत के स्वाभिमान की रक्षा करने वाले ले. जनरल संगत सिह को सैल्यूट करें या वामपंथी मीडिया की तरह इस लड़ाई को संगत सिंह की गलती बताते हुए तत्कालीन सरकार द्वारा उनको मोर्चे से हटाने का समर्थन करें.
कोई भी निर्णय लेने से पहले "पुष्यमित्र शुंग" के उस कथन को अवश्य ध्यान में रखना कि - "जब राष्ट्र संकट में हो तो राष्ट्रभक्त किसी निमंत्रण पत्र की प्रतीक्षा नहीं करते" .
यहां एक बात यह भी बताते चलते हैं कि - 1971 के युद्ध में भी ले. जनरल सगत सिंह ने बड़ी भूमिका निभाई थी. पाकिस्तानी जनरल नियाजी द्वारा जगदीत सिंह अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण के प्रपत्र पर हस्ताक्षर करते हुए चित्र में इनके ठीक (बायें से दायें) 
नीलकान्त कृष्णन, हरि चन्द दीवान, ले जनरल सगत सिंह, तथा जनरल जैकब भी खड़े हैं.

Friday, 8 November 2019

नौशेरा के शेर : ब्रिगेडियर मुहम्मद उस्मान

Image may contain: 1 person, hat and textमोहम्मद उस्मान का जन्म 15 जुलाई, 1912 को आजमगढ़ जिले के बीबीपुर गाँव में हुआ था. वह भारतीय सैन्य अधिकारियों के उस शुरुआती बैच में शामिल थे, जिनका प्रशिक्षण ब्रिटेन में हुआ था. वे बचपन से ही बहुत साहसी थे. जब वे केवल 12 साल के थे तब अपनी जान पर खेलकर, अपने एक साथी को कुएं में डूबने से बचाया था.
ब्रिटेन से पढ़ कर आये मोहम्मद उस्मान को "बलूच रेजीमेंट" में नौकरी मिली थी. लेकिन भारत / पापिस्तान बंटबारे के समय बलूच रेजीमेंट पापिस्तान के हिस्से में जाने पर उन्होंने बलूच रेजीमेंट को छोड़कर "डोगरा रेजीमेंट" ज्वाइन कर लिया था. तब मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत अली खान ने खुद उनसे पापिस्तान में रहने का आग्रह किया था.
बंटबारे के बाद से ही भारत / पापिस्तान में अघोषित लड़ाई चल रही थी. उस्मान पैराशूट ब्रिगेड की कमान संभाल रहे थे. उनकी तैनाती "झनगड़" में थी और झनगड़ का पाक के लिए बहुत ही सामरिक महत्व था. लड़ाई के दौरान 25 दिसंबर, 1947 को पाकिस्तानी सेना ने झनगड़ पर अपना कब्जा कर लिया था.
लेफ्टिनेंट जनरल के.एम. करिअप्पा उस समय वेस्टर्न आर्मी कमांडर थे. उनके मार्गदर्शन में ब्रिगेडियर उस्मान ने मार्च 1948 में झनगढ़ पर पुनः कब्जा कर लिया. ब्रिगेडियर उस्मान के कुशल नेतृत्व के कारण, इस लड़ाई में भारत के केवल 36 सैनिक शहीद हुए जबकि पापिस्तान के 1000 से ज्यादा सैनिक मारे गए.
इस जीत के बाद लेफ्टिनेंट जनरल करिअप्पा ने उनको नौशेरा का शेर कहकर संबोधित किया था. पाकिस्तानी सेना झनगड़ के छिन जाने और अपने सैनिकों के मारे जाने से बहुत परेशान थी. उसने घोषणा कर दी कि - जो भी भारत के ब्रिगेडियर उस्मान का सिर कलम कर लायेगा, उसे 50 हजार रुपये दिये जायेंगे.
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पापिस्तान लगातार छुपछुप कर हमले कर रहा था. 3 जुलाई, 1948 की शाम को, उस्मान जैसे ही अपने टेंट से बाहर निकले कि उन पर 25 पाउंड का गोला पापी सेना ने दाग दिया. घायल होने के बाद उनके अंतिम शब्द थे - "हम तो जा रहे हैं, पर जमीन के एक भी टुकड़े पर दुश्मन का कब्जा न होने पाये". 4 जुलाई को उनका स्वर्ग्वाश हो गया.
पहले अघोषित भारत-पाक युद्ध (1947-48) में शहीद होने वाले, वे पहले उच्च सैन्य अधिकारी थे. उन्हें राजकीय सम्मान के साथ जामिया मिलिया इसलामिया क़ब्रगाह, दिल्ली में दफनाया गया. उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया. उन्होंने शादी नहीं की थी. वे अपने वेतन का एक हिस्सा गरीब बच्चों की पढ़ाई पर खर्च करते थे.

Thursday, 7 November 2019

श्री राम जन्मभूमि मंदिर आन्दोलन का इतिहास

No photo description available.मर्यादा पुरुषोत्तम राम के प्रताप और धर्म सम्मत राज चलाने के कारण उनकी प्रजा ने उन्हें अपना भगवान मान लिया था. उनके समय के संत कवि "वाल्मीकि" जी रामायण महाकाव्य लिखकर उनकी गाथा को अमर कर दिया था. उसके बाद तो भगवान् राम से जुड़ा हर स्थान भारत की जनता के लिए पूज्यनीय बन गया.
भगवान राम का जहाँ जन्म हुआ, जहाँ-जहाँ वे गए अथवा जिन-जिन स्थानों से भी उनका कोई सम्बन्ध रहा उन सभी स्थानों पर मंदिरों का निर्माण कर, भगवान् राम की प्राण प्रतिष्ठा कर पूजा होने लगी. उन मंदिरों का समय समय पर राजा लोग अथवा धनवान सेठ लोग इनका पुनरुद्धार, विस्तार एवं सौन्दर्यकरण करवाते रहे.
साक्षों के अनुसार "त्रेता युग" के प्राचीन "रामलला मंदिर" का जीर्णोद्धार सर्व प्रथम उज्जैन के सम्राट वीर विक्रमादित्य ने लगभग 2100 साल पहले किया था. जिसका समय समय पर अनेकों राजाओं ने पुनरुद्धार और सौन्दर्यकरण करवाया. इस कारण अयोध्या का वैभव इतना बढ़ गया था कि इसे स्वर्ग से भी सुन्दर कहा जाने लगा था.
इस्लामी आक्रमण कारियों ने भारतीय संस्क्रती और बुतपरस्ती को ख़त्म करने के लिए मंदिरों को तोडा. अयोध्या के राम मंदिर को तोड़ने का पहला प्रयास सैयद सालार मसूद गाजी ने किया उसने कन्नौज को विध्वंश करने के बाद अयोध्या पर हमला किया लेकिन बहराइच के "राजा सुहेलदेव पासी" ने उसे उसकी सारी सेना समेत मार गिराया था.
उत्तर पश्चिम भारत में बाबर का कब्जा हो जाने के बाद, बाबर के सेनापति मीरबाक़ी ने 1528 ईश्वी में अयोध्या पर हमला किया. इस्लामी आक्रमणकारियों से मंदिर को बचाने के लिए रामभक्तों ने 15 दिन तक लगातार संघर्ष किया . मंदिर पर कब्ज़ा न कर पाने पर, मंदिर को तोपों से उड़ा दिया गया. इस संघर्ष में लगभग 1,71,000 राम भक्त मारे गए.
मंदिर तो तोड़ने के बाद "मीरबाक़ी" ने वहां मस्जिद का ढांचा खड़ा कर दिया और हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए "बाबर" के एक गुलाम गिलमा "बाबरी" के नाम पर इसका नाम बाबरी मस्जिद रख दिया. 1528 से 1949 तक के कालखंड में श्रीरामजन्मभूमि स्थल पर मंदिर निर्माण हेतु 76 संघर्ष / युद्ध हुए हैं.
इस पवित्र स्थल हेतु महारानी राज कुंवर तथा अन्य कई विभूतियों ने भी संघर्ष किया. अंग्रेजो के समय में 1813 में पहली बार बाबरी ढाँचे पर राम मंदिर का आधिकारिक दावा किया था. उनका दावा है कि अयोध्या में राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाई गई थी. हिंदुओं के दावे के बाद से विवादित जमीन पर नमाज के साथ-साथ पूजा भी होने लगी. 
1853 में अवध के नवाब वाजिद अली शाह के समय पहली बार अयोध्या में साम्प्रदायिक हिंसा भड़की.  इसके बाद भी 1855 तक दोनों पक्ष एक ही स्थान पर पूजा और नमाज अदा करते रहे. 1855 के बाद मुस्लिमों को मस्जिद में प्रवेश की इजाजत मिली, लेकिन हिंदुओं को अंदर जाने की मनाही थी.
ऐसे में हिंदुओं ने मस्जिद के मुख्य गुम्बद से 150 फीट दूर बनाए राम चबूतरे पर पूजा शुरू की.1858 में 25 निहंग सिक्खों ने बाबरी ढांचे में प्रवेश कर राम नाम का अखंड हवन किया था और उनके खिलाफ FIR भी हुई थी. 1859 में ब्रिटिश सरकार ने विवादित जगह पर तार की बाड़ लगवा दी. 
1855 से 1885 तक फैजाबाद के अंग्रेज अफसरों के रिकॉर्ड में मुस्लिमों द्वारा विवादित जमीन पर हिंदुओं की गतिविधियां बढ़ने की कई शिकायतें मिली हैं. 1885 रघुवर दास ने पहली बार अदालत में लगाई. 1934 में अयोध्या में दंगे भड़के. बाबरी ढाँचे का कुछ हिस्सा तोड़ दिया गया. इसके बाद विवादित स्थल पर नमाज बंद हो गई.  
जादी के बाद कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए तत्कालीन सिटी मजिस्ट्रेट ने मंदिर के द्वार पर ताले लगा दिए, 1950 में हिंदू महासभा के वकील गोपाल विशारद ने फैजाबाद जिला अदालत में अर्जी दाखिल कर रामलला की मूर्ति की पूजा का अधिकार देने की मांग की. एक पुजारी को दिन में दो बार ढांचे के अंदर जाकर दैनिक पूजा और अन्य अनुष्ठान संपन्न करने की अनुमति दी.
1959 में निर्मोही अखाड़े ने विवादित स्थल पर मालिकाना हक जताया. इसके बाद 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड (सेंट्रल) ने मस्जिद व आसपास की जमीन पर अपना हक जताया. 1983 में मुजफ्फरनगर में संपन्न एक हिन्दू सम्मेलन में  वरिष्ठ कांग्रेसी नेता "श्री दाऊ दयाल खन्ना" ने मार्च, अयोध्या, मथुरा और काशी के स्थलों को फिर से अपने अधिकार में लेने हेतु हिन्दू समाज का प्रखर आह्वान किया.
उस समय देश के दो बार के अंतरिम प्रधानमंत्री श्री गुलजारी लाल नंदा भी मंच पर उपस्थित थे. उसके बाद विश्व हिन्दू परिषद् ने इसे अपना लक्ष्य बना लिया. अप्रैल1984 में विश्व हिन्दू परिषद् ने नई दिल्ली में आयोजित पहली धर्म संसद ने जन्मभूमि के द्वार से ताला खुलवाने हेतु जनजागरण यात्राएं करने का प्रस्ताव पारित किया.
विश्व हिन्दू परिषद् ने अक्तूबर, 1984 में जनजागरण हेतु सीतामढ़ी से दिल्ली तक राम-जानकी रथ यात्रा शुरू की. लेकिन श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के चलते एक साल के लिए यात्राएं रोकनी पड़ी थीं. अक्तूबर, 1985 में रथ यात्राएं पुन: प्रारंभ हुईं. इन रथ यात्राओं से हिन्दू समाज में प्रबल उत्साह जाग उठा.
उन्ही दिनों एक याचिका पर सुनबाई करते हुए फैजाबाद के जिला दंडाधिकारी ने 1- फरवरी, 1986 को श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के द्वार पर लगा ताला खोलने का आदेश दिया. उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे श्री वीर बहादुर सिंह और देश के प्रधानमंत्री थे श्री राजीव गांधी. राम भक्त मंदिर के गर्भगृह में जाकर पूजा करने लगे.
जनवरी-1989 में प्रयागराज में कुंभ मेले के पवित्र अवसर पर त्रिवेणी के किनारे विश्व हिन्दू परिषद् ने धर्म संसद का आयोजन किया और तय किया गया कि - देश के हर गांव में रामशिला पूजन कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा और उनको अयोध्या में मंदिर निर्माण के लिए भेजा जाएगा.
पहली रामशिला का पूजन श्री बद्रीनाथ धाम में किया गया. देश और विदेश से ऐसी 2,75,000 रामशिलाएं अक्तूबर, 1989 के अंत तक अयोध्या पहुंच गईं. इस कार्यक्रम में लगभग 6 करोड़ लोगों ने भाग लिया. 9 नवम्बर, 1989 को बिहार के वंचित वर्ग के एक बंधु श्री कामेश्वर चौपाल द्वारा शिलान्यास किया गया.
उस समय श्री नारायण दत्त तिवारी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और प्रधानमंत्री थे श्री राजीव गांधी. इसके बाद देश में राजनैतिक घटनाक्रम बदला और केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह और उ.प्र. में मुलायम सिंह की सरकार बन गई. 24 जून, 1990 को संतों ने 30 अक्तूबर 1990 से मंदिर निर्माण हेतु कारसेवा शुरू करने का आह्वान किया.
30 अक्तूबर 1990 को हजारों रामभक्तों ने मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा खड़ी की गईं सारी बाधाओं को पार कर अयोध्या में प्रवेश किया और विवादित ढांचे के ऊपर भगवा ध्वज फहरा दिया. इसके बाद मुख्यमंत्री मुलायम ने रामभक्तों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया जिसमे हजारों रामभक्त मारे गए.
जनश्रुतियों के अनुसार, श्री राम मंदिर को बचाने और उसके पुनर्निर्माण के लिए हुए युद्धों और आंदोलनों में, अब तक कुल 1 लाख 87 हजार 213 रामभक्त अपना बलिदान दे चुके हैं. उत्तर प्रदेश सीएम योगी आदित्यनाथ सरयू तट पर राम की पैड़ी पर दीपावली मनाई और इतनी ही संख्या में दिए जला कर बलिदानियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की.
से हर साल दीयों की संख्या दो गुनी तीन गुनी करते जा रहे हैं.

Sunday, 3 November 2019

प्रथम परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा

Image may contain: 1 person, smiling, closeup and textमेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी 1923 को कांगड़ा में हुआ था. इनके पिता मेजर अमरनाथ शर्मा भी सेना में डॉक्टर थे और आर्मी मेडिकल सर्विस के डायरेक्टर जनरल के पद से सेवामुक्त हुए थे. उनके मामा लैफ्टिनेंट किशनदत्त वासुदेव 4/19 हैदराबादी बटालियन में थे तथा 1942 में मलाया में जापानियों से लड़ते शहीद हुए थे.
मेजर सोमनाथ की शुरुआती स्कूली शिक्षा अलग-अलग जगह होती रही लेकिन बाद में उनकी पढ़ाई शेरवुड, नैनीताल में हुई. ।उसके बाद उन्होंने देहरादून के "प्रिन्स ऑफ़ वेल्स रॉयल मिलिट्री कॉलेज" में दाखिला लिया। बाद में उन्होंने रॉयल मिलिट्री कॉलेज, सैंडहर्स्ट में भी अध्ययन किया। उन्हें बचपन से ही खेल कूद तथा एथलेटिक्स में रुचि थी.
बचपन से ही वे भगवद गीता की शिक्षाओं से प्रभावित थे. उन्होंने अपना सैनिक जीवन 22 फरवरी, 1942 से शुरू किया. उन्होंने ब्रिटिश भारतीय सेना की उन्नीसवीं हैदराबाद रेजिमेन्ट की आठवीं बटालियन में (जो अब चौथी कुमायूं रेजिमेंट के नाम से जानी जाती है) में बतौर कमीशंड ऑफिसर के रूप में प्रवेश लिया.
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उन्हें मलाया के पास के रण में भेज दिया गया, पहले ही दौर में इन्होंने अपने पराक्रम के ऐसे तेवर दिखाए कि वे एक विशिष्ट सैनिक के रूप में पहचाने जाने लगे. उसके बाद उन्हें बर्मा (म्यांमार) में भेजा गया, उन्होंने वहां भी जापान से लड़ाई के समय अपनी बहादुरी और रणनीति का परिचय दिया.
देश आजाद होने के बाद पापिस्तान ने कश्मीर पर कब्ज़ा करने की नीयत से हमला कर दिया. उस समय वे श्री नगर में तैनात थे. 27 अक्टूबर को उन्होंने कश्मीर के स्थानीय निवाशियों को साथ लेकर श्री नगर हवाई अड्डे की बर्फ हटाकर हवाई जहाज़ों की सुरक्षित लैंडिंग कराई और श्री नगर हवाई अड्डे की रक्षा की.
3 नवम्बर 1947 की सुबह मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी को कश्मीर घाटी के "बड़गाम" मोर्चे पर जाने का हुकुम मिला. उस समय सोमनाथ के वाएं हाथ में चोट लगी हुई थी और उस पर प्लास्टर बंधा हुआ था. लेकिन वे फ़ौरन अपनी टुकड़ी को लेकर "बड़गाम" जा पहुँचे और उन्होंने दिन के 11 बजे तक उत्तरी दिशा में अपनी टुकड़ी तैनात कर दी.
तभी दुश्मन की क़रीब 500 सैनिको की बटालियन और कबायलियों ने उनकी टुकड़ी को तीन तरफ से घेरकर हमला किया और भारी गोला बारी से सोमनाथ के सैनिक हताहत होने लगे. दुश्मनों की संख्या बहुत ज्यादा थी लेकिनअपनी दक्षता का परिचय देते हुए सोमनाथ ने अपने सैनिकों के साथ गोलियां बरसाते हुए दुश्मन को बढ़ने से रोके रखा.
एक हाथ चोटिल होने के बाबजूद वे लगातार मुकाबला करते रहे. सैनिको की गन में मैगजीन भरकर देने के अलावा वे सैनिको का हौशला भी बढाते रहे और खुद भी गोलियां चलाते रहेे. देखते ही देखते दुश्मनों की लाशों के ढेर लग गए. उनके भी कई सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गये लेकिन उन्होंने फिर भी दुश्मनों को रोके रखा.
उन्होंने रेडियों पर उच्चाधिकारियों को अपना आख़िरी ऐतिहासिक सन्देश दिया - "दुश्मन हमसे केवल पचास गज की दूरी पर है. हमारी गिनती बहुत कम रह गई है। हम भयंकर गोली बारी का सामना कर रहे हैं फिर भी, मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा और अपनी आखिरी गोली और आखिरी सैनिक तक डटा रहूँगा".
Image may contain: 1 person, textतभी एक मोर्टार ठीक उनके पास आकर गिरा, जिसके विस्फोट से मेजर सोमनाथ शर्मा वीरगति को प्राप्त हो गए. युद्ध की समाप्ति के बाद श्रीनगर हवाई अड्डा बचाने और बडगाम की लड़ाई के लिए उन्हें मरणोपरांत सेना का सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र दिया गया. इस प्रकार यह सम्मान पाने वाले वे पहले भारतीय सैनिक बने.
यह भी एक संयोग है और उनके वीर परिवार का सम्मान है कि- परमवीर चक्र का डिजाइन भी श्री सोमनाथ शर्मा के भाई की पत्नी "सावित्री बाई खानोलकर" ने तैयार किया था. 1980 में जहाज़रानी मंत्रालय ने भारतीय नौवहन निगम ने अपने पन्द्रह तेल वाहक जहाज़ों के नाम परमवीर चक्र से सम्मानित महावीरों के सम्मान में उनके नाम पर रखे थे.
जब उन्होंने सेना ज्वाइन की और उन्हें मलाया भेजा गया था तब उन्होंने माता-पिता के नाम एक पत्र लिखा था. उस पत्र से ही उनकी सोंच का पता चलता है. उइन्होंने लिखा था :-
"मैं अपने सामने आए कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ. यहाँ मौत का क्षणिक डर ज़रूर है लेकिन जब मैं गीता में भगवान श्रीकृष्ण के वचन को याद करता हूँ तो वह डर मिट जाता है. भगवान श्री कृष्ण ने कहा था कि आत्मा अमर है, तो फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है कि शरीर है या नष्ट हो गया. पिताजी मैं आपको डरा नहीं रहा हूँ, लेकिन मैं अगर मर गया, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मैं एक बहादुर सिपाही की मौत मरूँगा. मरते समय मुझे प्राण देने का कोई दु:ख नहीं होगा. ईश्वर आप सब पर अपनी कृपा बनाए रखे".