इतिहास लेखन के लिए उस काल में जन्म लेना जरूरी नहीं है जिस काल की घटना है. 1857 की क्रान्ति में लाखों भारतीयों ने भाग लिया और देश की खातिर अपना बलिदान दिया। जैसा की सभी जानते हैं आधिकारिक इतिहास शासकों की मर्जी के मुताबिक़ लिखा जाता है. 1857 के स्वाधीनता सेनानियों के साथ भी यही अन्याय हुआ.
अंगरेज इतिहासकारो और अंग्रेजों के चापलूस भारतीयों ने उस घटना को न तो स्वाधीनता संग्राम लिखा और न ही उन सेनानियों को स्वाधीनता सेनानी. उस घटना को राजद्रोह और ग़दर लिखा गया तथा स्वाधीनता सेनानियों को राजद्रोही. देश की जनता को भी स्कूलों में यही पढ़ाया जाता था तथा स्वाधीनता सेनानियों को गंदी नजर से देखा जाता था.
उस अंग्रेजी इतिहास के अनुसार मेरठ के क्रांतिकारी सैनिक "गद्दार" थे, बहादुर शाह जफ़र अंग्रेजों के टुकड़ों पर पलने वाला कमजोर बूढ़ा शायर था, बेगम हजरत महल एक तवायफ थी, तात्या टोपे लुटेरे थे, नाना साहब, कुंवर सिंह, झांसी की रानी की रानी सत्ता के लालची थे, लखनऊ का नबाब एक विलासी और ऐय्यास नबाब था.
स्वाधीनता सेनानियों को शासकीय इतिहास में अंग्रेजों ने भले ही गद्दार साबित कर दिया था लेकिन लोक कथाओं और लोक गीतों के माध्यम से उनकी गाथाये लोग एक दूसरे को सुनाते रहे. स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने उन्ही लोक गाथाओ और शासकीय इतिहास का तुलनात्मक अध्यन करके 2007 में नए सिरे से अपना ग्रन्थ लिंखा "1857 -प्रथम स्वातंत्र्य समर".
इस ग्रन्थ को लिखने के लिए लोकगाथाओं का अध्यन किया और उनका सरकारी इतिहास से मिलान किया. उदाहरण के लिए - झांसी की रानी की कहानी शासकीय इतिहास में थी ही नहीं, उनके बारे में जानने के लिए ग्वालियर, दतिया, ओरछा का इतिहास खंगाला और उसका बुंदेलों / हरबोलों द्वारा गाये जाने वाले गीतों से मिलान किया.
इसी प्रकार लखनऊ, कानपुर, जगदीशपुर, मेरठ, दिल्ली, आदि में जुबानी बोली जाने वाली कहानियों का अध्यन किया और उसका भी सरकार इतिहास से मिलान किया. इस प्रकार उन्होंने जो निष्कर्ष निकाले उनके आधार पर उन्होंने अपना ग्रन्थ लिखा. इस ग्रन्थ को अंग्रेजों ने झूठ का पुलिंदा कहा और इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया.

अंग्रेज सावरकर से नाराज थे और कड़ी सजा देना चाहते थे, लेकिन किताब लिखना इतना बड़ा गुनाह नहीं था कि उन्हें फांसी या कालापानी की सजा दी जा सके. इसी बीच अभिनव भारत के क्रांतिकारियों ने नाशिक के कलक्टर "जैक्शन" की हत्या कर दी. अंग्रेजों ने इस काण्ड का मुख्य साजिश करता "सावरकर" को बनाकर कालापानी की सजा देदी
लेकिन दस साल कालापानी में कैद रखने के बाद भी इस अपराध को अंग्रेज कभी साबित नहीं कर पाए और अंततः रिहा करना पड़ा. लेकिन रिहाई के बाद भी तीन साल तक उन्हें एहतियात के तौर पर 3 साल रत्नागिरी जेल में रखा गया कि - सावरकर को रिहा करने से देश में दंगा हो सकता है और देश में अराजकता फ़ैल सकती है.
अंग्रेजों और उनके चापलूसों ने भले ही सावरकर के ग्रन्थ को झूठ का पुलिंदा कहा हो लेकिन भारतीयों ने इस ग्रन्थ को प्रामाणिक इतिहास माना. इस ग्रन्थ के आने के बाद अनेकों छोटे बड़े लेखकों, कवियों और इतिहासकारों ने इसे सन्दर्भ ग्रन्थ मानकर अपना लेखन किया. इस प्रकार अमित शाह का यह कहना (यदि स्वतंत्र्यवीर सावरकर न होते तो 1857 की क्रान्ति इतिहास न बनती) सौ फीसदी सही है.
अंग्रेजों और उनके चापलूसों ने भले ही सावरकर के ग्रन्थ को झूठ का पुलिंदा कहा हो लेकिन भारतीयों ने इस ग्रन्थ को प्रामाणिक इतिहास माना. इस ग्रन्थ के आने के बाद अनेकों छोटे बड़े लेखकों, कवियों और इतिहासकारों ने इसे सन्दर्भ ग्रन्थ मानकर अपना लेखन किया. इस प्रकार अमित शाह का यह कहना (यदि स्वतंत्र्यवीर सावरकर न होते तो 1857 की क्रान्ति इतिहास न बनती) सौ फीसदी सही है.
Not in 2007
ReplyDeleteIt was 1907