पुराने समय में संयुक्त परिवार होते थे और उनमे भी सभी के कई कई बच्चे. घर में बच्चे से लेकर बूढ़े तक लगभग हर आयु वर्ग के लोग होते थे और उनके पास समय भी होता था इसलिए सभी का मन लगा रहता था. जब परिवार न्यूक्लियर होने लगे और बच्चों की संख्या कम होने लगी तो ब्रद्ध लोग अपना समय कहा बिताये, यह एक समस्या हो गई है.
आज बहुत से ऐसे लोग हैं जिनके के केवल एक या दो बच्चे है. माँ बाप ने उनको काबिल बनाया और वे बच्चे अपने जॉब के कारण घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर किसी अन्य राज्य में काम करते है या हजारों किलोमीटर दूर किसी अन्य देश में सेट हो गए हैं. न वो बच्चे वापस आ सकते हैं और न ही माँ बाप का इतनी दूर जाकर रहने पर मन लगता है.
जब वे अपने गाँव / कसबे / शहर में अकेले रहते हैं तो उन्हें अपने बच्चों की याद आती है और जब वे अपने बच्चों के पास चले जाते है तो उन्हें अपने गाँव / कसबे / शहर और अपने पुराने साथियों की याद सताने लगती है. इसके अलाबा बेटा बहु अगर दोनों जॉब करते हो तो उनके पास माँ बाप के पास बैठकर बातें करने का समय भी नहीं होता है.
आने वाले समय में तो यह समस्या और बढ़ने वाली है. अब इससे निपटने के दो तरीके हैं या तो बच्चों को नालायक कहकर कोस लें और अकेले अपने मूल गाँव / कसबे / शहर में पड़े रहे या अपने मूल गाँव / कसबे / शहर को छोड़कर बच्चों के पास चले जाएँ और वहां अपने पुराने साथियों और उनकी बातों को याद करके रोते रहें. या फिट कुछ नया सोंचा जाए.
जो समस्या भविष्य में आती दिख रही है, तो क्यों न उसके लिए अपने आपको पहले से ही मानशिक रूप से तैयार किया जाए. मेरा अपना मानना है कि- जिस व्यक्ति की जहाँ जवानी गुजरी हो उसके बुढापे का अधिकतम हिस्सा वहीँ अपने साथियों के साथ ही गुजरना चाहिए. इसके लिए कोई अच्छा और सुविधा सम्पन्न व्यवस्था जवानी में ही कर लेनी चाहिए.
लुधियाना के दोराहा के पास मैंने एक ब्रद्धाश्रम देखा है. लुधियाना के कुछ संपन्न लोगों ने दोराहा-सानेहवाल के बीच में, नीलो नहर के किनारे एक हरे भरे वातावरण वाला शानदार ब्रद्धाश्रम बनाया है. जो अनेकों प्रकार की सुविधाओं से संपन्न है. इसका सदस्य बन जाने के बाद बुजुर्ग जब चाहते हैं वहा रहते और जब मर्जी होती है अपने घर चले जाते है.
जब मर्जी होती है अपने बच्चों के पास चले जाते हैं और जब मर्जी होती है तो फिर आश्रम में वापस आ जाते हैं. आश्रम में बढ़िया भोजन और मनोरंजन के साधन हैं. बढ़िया प्राथमिक चिकित्सा का उत्तम प्रबंध हैं. वहां बुजुर्ग लोग अपने हमउम्र साथियों के साथ बहुत ही खुश रहते हैं. वे लोग कोई घर से निकाले हुए नहीं बल्कि अपनी मर्जी से वहां आये है.
आने वाले समय में हर शहर में ऐसे सीनियर सिटीजन होम्स बनाने होंगे. जिनको आर्थिक स्थिति के अनुसार स्टार, टू स्टार, थ्री स्टार, फोर स्टार, फाइव स्टार, आदि कैटेगिरी में बांटना होगा. बुजुर्ग वहां की फीस देकर अपने लिए सारी सुविधाएं प्राप्त कर सके. इस तरह उनका बुढापा भी अच्छे से कटेगा और बच्चे भी परेशान नहीं होंगे.
विकसित देशों में ब्रद्धाश्रम का यह कांसेप्ट काफी समय से चल रहा है. वहां उनमे रहने वाले बुजुर्ग अपने आपको ज्यादा स्वतंत्र और सुखी मानते हैं. समय समय पर वे वापस अपने घर या बच्चों के पास जाते रहते हैं और फिर वापस आश्रम में आ जाते हैं. इसको लेकर न बुजुर्ग परेशान होते हैं और न उनके बच्चे. सब मस्त रहते हैं.
वहां पर लोगों की रुचियों के अनुसार अलग अलग टाइप के ब्रद्धाश्रम हैं. लोग अपनी पसंद का ब्रद्धाश्रम चुनकर उसके सदस्य बन जाते हैं. कई लोग तो अपने रिटायरमेंट से 5 / 6 साल पहले से ही आश्रमों में जाना शुरू कर देते है, कभी कभी वहां स्टे भी करते हैं और अपने आपको मानशिक रूप से तैयार कर लेते हैं. जो अच्छा लगता है उसके सदस्य बन जाते है.
कई लोग तो एक साथ दो / तीन आश्रमों की सदस्यता ले लेते हैं और बदल बदल कर उनमे रहते है. आने वाले समय में हमें भी इस कांसेप्ट को अपनाना होगा. खुशी से अपनाए तो ज्यादा अच्छा होगा. ब्रद्धाश्रम का मतलब बूढों को लावारिस छोड़ना नहीं है बल्कि बुजुर्गों का अपने जैसे लोगों के साथ ज्यादा समय गुजारना है.
मैं तो खुद भविष्य में ऐसे ब्रद्धाश्रम का सदस्य बनना चाहूँगा. मुझे अगर भगवान् ने इस योग्य बनाया और पर्याप्त पैसा दिया तो मैं अपने मूल टाउन (मझोला) में एक ब्रद्धाश्रम अवश्य बनना चाहूँगा. जहाँ कोई भी मझोला वाशी कभी भी कितने भी दिन के लिए रहने को जा सके. या जनके बच्चे नहीं है या दूर है वे स्थाई रूप से वहां रह सके.
ब्रद्धाश्रम कोई बुरी चीज नहीं है . घर में अकेले पड़े रहकर अवसाद में रहने के वजाय, अपने हम उम्र लोगों के साथ मस्ती करना ज्यादा बढ़िया है. ब्रद्धाश्रम का मतलब बूढों को लावारिस छोड़ना नहीं है. बल्कि आधुनिक ब्रद्धाश्रमो का में जाकर रहने का अर्थ है अपने जैसे लोगों के साथ हँसते खेलते अपनी जीवन संध्या को बिताना.
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