
ब्रिटेन से पढ़ कर आये मोहम्मद उस्मान को "बलूच रेजीमेंट" में नौकरी मिली थी. लेकिन भारत / पापिस्तान बंटबारे के समय बलूच रेजीमेंट पापिस्तान के हिस्से में जाने पर उन्होंने बलूच रेजीमेंट को छोड़कर "डोगरा रेजीमेंट" ज्वाइन कर लिया था. तब मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत अली खान ने खुद उनसे पापिस्तान में रहने का आग्रह किया था.
बंटबारे के बाद से ही भारत / पापिस्तान में अघोषित लड़ाई चल रही थी. उस्मान पैराशूट ब्रिगेड की कमान संभाल रहे थे. उनकी तैनाती "झनगड़" में थी और झनगड़ का पाक के लिए बहुत ही सामरिक महत्व था. लड़ाई के दौरान 25 दिसंबर, 1947 को पाकिस्तानी सेना ने झनगड़ पर अपना कब्जा कर लिया था.
लेफ्टिनेंट जनरल के.एम. करिअप्पा उस समय वेस्टर्न आर्मी कमांडर थे. उनके मार्गदर्शन में ब्रिगेडियर उस्मान ने मार्च 1948 में झनगढ़ पर पुनः कब्जा कर लिया. ब्रिगेडियर उस्मान के कुशल नेतृत्व के कारण, इस लड़ाई में भारत के केवल 36 सैनिक शहीद हुए जबकि पापिस्तान के 1000 से ज्यादा सैनिक मारे गए.
इस जीत के बाद लेफ्टिनेंट जनरल करिअप्पा ने उनको नौशेरा का शेर कहकर संबोधित किया था. पाकिस्तानी सेना झनगड़ के छिन जाने और अपने सैनिकों के मारे जाने से बहुत परेशान थी. उसने घोषणा कर दी कि - जो भी भारत के ब्रिगेडियर उस्मान का सिर कलम कर लायेगा, उसे 50 हजार रुपये दिये जायेंगे.
पापिस्तान लगातार छुपछुप कर हमले कर रहा था. 3 जुलाई, 1948 की शाम को, उस्मान जैसे ही अपने टेंट से बाहर निकले कि उन पर 25 पाउंड का गोला पापी सेना ने दाग दिया. घायल होने के बाद उनके अंतिम शब्द थे - "हम तो जा रहे हैं, पर जमीन के एक भी टुकड़े पर दुश्मन का कब्जा न होने पाये". 4 जुलाई को उनका स्वर्ग्वाश हो गया.
पहले अघोषित भारत-पाक युद्ध (1947-48) में शहीद होने वाले, वे पहले उच्च सैन्य अधिकारी थे. उन्हें राजकीय सम्मान के साथ जामिया मिलिया इसलामिया क़ब्रगाह, दिल्ली में दफनाया गया. उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया. उन्होंने शादी नहीं की थी. वे अपने वेतन का एक हिस्सा गरीब बच्चों की पढ़ाई पर खर्च करते थे.
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