
मेजर सोमनाथ की शुरुआती स्कूली शिक्षा अलग-अलग जगह होती रही लेकिन बाद में उनकी पढ़ाई शेरवुड, नैनीताल में हुई. ।उसके बाद उन्होंने देहरादून के "प्रिन्स ऑफ़ वेल्स रॉयल मिलिट्री कॉलेज" में दाखिला लिया। बाद में उन्होंने रॉयल मिलिट्री कॉलेज, सैंडहर्स्ट में भी अध्ययन किया। उन्हें बचपन से ही खेल कूद तथा एथलेटिक्स में रुचि थी.
बचपन से ही वे भगवद गीता की शिक्षाओं से प्रभावित थे. उन्होंने अपना सैनिक जीवन 22 फरवरी, 1942 से शुरू किया. उन्होंने ब्रिटिश भारतीय सेना की उन्नीसवीं हैदराबाद रेजिमेन्ट की आठवीं बटालियन में (जो अब चौथी कुमायूं रेजिमेंट के नाम से जानी जाती है) में बतौर कमीशंड ऑफिसर के रूप में प्रवेश लिया.
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उन्हें मलाया के पास के रण में भेज दिया गया, पहले ही दौर में इन्होंने अपने पराक्रम के ऐसे तेवर दिखाए कि वे एक विशिष्ट सैनिक के रूप में पहचाने जाने लगे. उसके बाद उन्हें बर्मा (म्यांमार) में भेजा गया, उन्होंने वहां भी जापान से लड़ाई के समय अपनी बहादुरी और रणनीति का परिचय दिया.
देश आजाद होने के बाद पापिस्तान ने कश्मीर पर कब्ज़ा करने की नीयत से हमला कर दिया. उस समय वे श्री नगर में तैनात थे. 27 अक्टूबर को उन्होंने कश्मीर के स्थानीय निवाशियों को साथ लेकर श्री नगर हवाई अड्डे की बर्फ हटाकर हवाई जहाज़ों की सुरक्षित लैंडिंग कराई और श्री नगर हवाई अड्डे की रक्षा की.
3 नवम्बर 1947 की सुबह मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी को कश्मीर घाटी के "बड़गाम" मोर्चे पर जाने का हुकुम मिला. उस समय सोमनाथ के वाएं हाथ में चोट लगी हुई थी और उस पर प्लास्टर बंधा हुआ था. लेकिन वे फ़ौरन अपनी टुकड़ी को लेकर "बड़गाम" जा पहुँचे और उन्होंने दिन के 11 बजे तक उत्तरी दिशा में अपनी टुकड़ी तैनात कर दी.
तभी दुश्मन की क़रीब 500 सैनिको की बटालियन और कबायलियों ने उनकी टुकड़ी को तीन तरफ से घेरकर हमला किया और भारी गोला बारी से सोमनाथ के सैनिक हताहत होने लगे. दुश्मनों की संख्या बहुत ज्यादा थी लेकिनअपनी दक्षता का परिचय देते हुए सोमनाथ ने अपने सैनिकों के साथ गोलियां बरसाते हुए दुश्मन को बढ़ने से रोके रखा.
एक हाथ चोटिल होने के बाबजूद वे लगातार मुकाबला करते रहे. सैनिको की गन में मैगजीन भरकर देने के अलावा वे सैनिको का हौशला भी बढाते रहे और खुद भी गोलियां चलाते रहेे. देखते ही देखते दुश्मनों की लाशों के ढेर लग गए. उनके भी कई सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गये लेकिन उन्होंने फिर भी दुश्मनों को रोके रखा.
उन्होंने रेडियों पर उच्चाधिकारियों को अपना आख़िरी ऐतिहासिक सन्देश दिया - "दुश्मन हमसे केवल पचास गज की दूरी पर है. हमारी गिनती बहुत कम रह गई है। हम भयंकर गोली बारी का सामना कर रहे हैं फिर भी, मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा और अपनी आखिरी गोली और आखिरी सैनिक तक डटा रहूँगा".

यह भी एक संयोग है और उनके वीर परिवार का सम्मान है कि- परमवीर चक्र का डिजाइन भी श्री सोमनाथ शर्मा के भाई की पत्नी "सावित्री बाई खानोलकर" ने तैयार किया था. 1980 में जहाज़रानी मंत्रालय ने भारतीय नौवहन निगम ने अपने पन्द्रह तेल वाहक जहाज़ों के नाम परमवीर चक्र से सम्मानित महावीरों के सम्मान में उनके नाम पर रखे थे.
जब उन्होंने सेना ज्वाइन की और उन्हें मलाया भेजा गया था तब उन्होंने माता-पिता के नाम एक पत्र लिखा था. उस पत्र से ही उनकी सोंच का पता चलता है. उइन्होंने लिखा था :-
"मैं अपने सामने आए कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ. यहाँ मौत का क्षणिक डर ज़रूर है लेकिन जब मैं गीता में भगवान श्रीकृष्ण के वचन को याद करता हूँ तो वह डर मिट जाता है. भगवान श्री कृष्ण ने कहा था कि आत्मा अमर है, तो फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है कि शरीर है या नष्ट हो गया. पिताजी मैं आपको डरा नहीं रहा हूँ, लेकिन मैं अगर मर गया, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मैं एक बहादुर सिपाही की मौत मरूँगा. मरते समय मुझे प्राण देने का कोई दु:ख नहीं होगा. ईश्वर आप सब पर अपनी कृपा बनाए रखे".
No comments:
Post a Comment