Sunday, 4 February 2018

चित्तौड़गढ़ : भाग-3 (चित्तौडगढ़ का पहला शाका और जौहर )

चितौडगढ़ पर राणा रतनसेन का राज था. चित्तौड़ के महाराज रत्नसिंह की महारानी पद्मिनी अत्यंत सुन्दर थी तथा उनकी सुन्दरता की ख्याति दूर दूर तक फैली हुई थी, अत्यंत रूपवती होने के साथ साथ वे अत्यंत बुद्धिमान साहसी और स्वाभिमानी थीं. राज्य के संचालन में वे अपने पति को पूर्ण सहयोग दिया करती थीं.
महारानी पद्मिनी के बारे सुनकर दिल्ली का तत्कालीन, अधर्मी सुलतान अल्लाउद्दीन खिलजी, महारानी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उस कामांध दुराचारी ने विशाल सेना के साथ चितौड़गढ़ के दुर्ग पर एक चढ़ाई कर दी. लेकिन कई महीने तक घेरा डालने के बाबजूद उसका कोई सैनिक किले के आस पास तक नहीं पहुँच सका.
तब अलाउद्दीन खिलजी ने अपना स्वाभाविक कमीनापन दिखाते हुए राणा रतनसिंह तक अपना सन्देश भिजवाया कि - “हम आपसे मित्रता करना चाहते है. हमने आपकी महारानी की सुन्दरता के बारे में बहुत सुना है इसीलिए यदि हमें सिर्फ एक बार अपनी महारानी का चेहरा दिखा दीजिये. फिर उसके बाद हम अपना घेरा उठाकर दिल्ली लौट जायेंगे.
सन्देश सुनकर रत्नसिंह आगबबुला हो उठे लेकिन रानी ने उनको समझाया कि -”मेरे कारण व्यर्थ ही चितौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है. तब राणा ने बीच का रास्ता निकालने का प्रस्ताव भेजा कि - रानी का चेहरा आईने में दिखाया जा सकता है. अल्लाउद्दीन भी समझ चुका था कि लड़कर जीतना मुश्किल है इसलिए तैयार हो गया.
चितौड़ के किले में अल्लाउद्दीन खिलजी का स्वागत रत्नसिंह ने किसी अतिथि की तरह किया.रानी पद्मिनी के महल की खिडकी के सामने वाली दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया और रानी को आईने के सामने बिठाया गया. महारानी का सौन्दर्य देख देखकर अल्लाउद्दीन चकित रह गया और एक कुटिल चाल चलने की तैयारी कर ली.
वह राणा से मित्रवत बातें करने लगा और कहने लगा कि- मैं कल दिल्ली चला जाउंगा और अब आप हमारे मित्र हैं, आपने हमारा बहुत शानदार स्वागत किया है आप भी हमारे यहाँ अतिथि बनकर आइये. राणा रत्नसिंह किले के बाहर निकल कर अगले दिन उसके शिविर में गए और वहां पर खिलजी की फ़ौज ने राणा को गिरफ्तार कर लिया.
खिलजी ने किले में सन्देश भेजा कि - अगर राणा को ज़िंदा वापस चाहते हो तो महारानी को मेरे हवाले कर दो. इस पर राजपूतों का खूनखौल उठा. मगर महारानी ने बुद्धिमानी से काम लिया. रानी ने सन्देश भेजा कि मैं अकेली नहीं आउंगी बल्कि मेरे साथ मेरी सात सौ दासियाँ भी आएँगी जो हर समय मेरी हर जरूरत का ध्यान रखती हैं.
इस पर वो कामांध अधर्मी और ज्यादा खुश हो गया. तब चित्तौड़ के एक सरदार "गोरा" के नेत्रत्व में एक काफिला तैयार हुआ. सात सौ पालकियां तैयार की गई उन सब मे स्त्री वेश में एक एक सिपाही और हथियार रखे. प्रत्येक पालकी को उठाने के लिए चार सैनिक कहार बन कर लग गए. रानी की पालकी में "बादल" रानी बनकर बैठा. .
जब सारी पालकियां अल्लाउदीन के शिविर के पास आकर रुकीं तो उनमे से राजपूत वीर अपनी तलवारों सहित निकल कर यवन सेना पर अचानक टूट पड़े . इस तरह हुए अचानक हमले से अल्लाउद्दीन की सेना हक्की बक्की रह गयी. पद्मिनी और गोरा-बादल ने राणा रत्नसिंह को अल्लाउद्दीन की कैद से मुक्त करा लिया लेकिन गोरा और बादल मारे गए.
इस हार से अल्लाउद्दीन बुरी तरह से बौखला गया. उसने दिल्ली की सारी सेना के साथ किले को पुनः घेर लिया. छ:माह से ज्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण किले में खाद्य सामग्री का अभाव हो गया. तब राणा रत्न सिंह , सहित सभी राजपूत सैनिकों ने शाका और रानी पद्मिनी सहित राजपूतानी वीरांगनाओं ने जौहर करने का निश्चय किया.
18 अप्रेल 1303 के दिन राजपूत केसरिया बाना पहन कर, अंतिम युद्ध के लिए तैयार हो गए और रानी पद्मिनी के नेतृत्व में 16000 राजपूत सतियों ने अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया. महाराणा रत्न सिंह के नेतृत्व में 30,000 राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे सिंहों की तरह उस दुराचारी खिलजी की सेना पर टूट पड़े.
उस युद्ध में सभी 30000 राजपूत सैनिक तथा एक लाख से ज्यादा मुस्लिम सैनिक मारे गए. युद्ध में जीत के बाद जब खिलजी ने चित्तौड़ के किले में प्रवेश किया, तो सतियों की चिताओं और राजपूतों के शवों के सिवा कुछ नहीं मिला. रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और महारानी पद्मिनी ने भारत के स्वाभिमान की रक्षा की खातिर आत्मदाह कर लिया.

इस के बाद चित्तौड़गढ़ के सुनसान किले पर अलाउद्दीन खिलजी का कब्ज़ा हो गया. कहा जाता है कि - अलाउद्दीन खिलजी को केवल राजपूतानियों की चिताओं की राख से ही, लगभग 20 मन सोना प्राप्त हुआ था. सोना लूटकर अलाउद्दीन खिलजी ने किले का अधिकार अपने बेटे "खिज्र खान" को सौंप दिया और खुद दिल्ली वापस चला गया.

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