Sunday, 25 February 2018

स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर

1857 की क्रान्ति की असफलता के बाद अधिकाँश भारतीय निराश होकर बैठ गए थे. वे यह मान चुके थे कि अंग्रेजों को पराजित करना असंभव है. तब पचास साल बाद महान स्वतंत्रता सेनानी "स्वतंत्र्यवीर सावरकर" ने देश को इस भ्रम से निकालने और देश को पुनः एक और बड़ी क्रान्ति के लिए खडा करने का कार्य किया, स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर ने अपना सारा जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया था.
बहुत से लोग यह समझते हैं कि - देश में आजादी के आन्दोलन की शुरुआत कांग्रेस और गांधीजी ने की थी. जबकि 1885 में जन्मी कांग्रेस का अपने जन्म के तीन दशक बाद तक, इसमें कोई विशेष योगदान नही था. गांधी जी तो भारत में आये ही 1915 में थे. कांग्रेस के संस्थापक महासचिव एक अंग्रेज "ए ओ ह्यूम" थे, यह मात्र एक कुलीन वर्ग की संस्था थी. आजादी की लड़ाई में कांग्रेस बहुत बाद में शामिल हुई थी.
वीर सावरकर द्व्रारा "अभिनव भारत" की स्थापना, पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली, "1857 - प्रथम स्वातंत्र समर" ग्रन्थ लिखना, नाशिक षड्यंत्र, कालापानी की सजा आदि जैसी बड़ी घटनाओं के होने के समय तक तो गांधीजी का भारत में आगमन तक नही हुआ था. "सावरकर" ने 1904 में "अभिनव भारत" नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की थी, जिसने देशविदेश में क्रान्ति की लहर पैदा करदी थी.
1905 में उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई (गांधीजी से बहुत पहले) . सावरकर ने अंग्रेजों द्वारा प्रचारित ग़दर से सम्बंधित घटनाओं का अध्ययन कर उनका भारतीय सोंच के साथ बिश्लेषण किया और "गदर" को "भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम" सिद्ध किया. 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई थी, जिसने विदेशों में रह रहे भारतीय भी माहौल बनाया.
उन्होंने "1857- प्रथम स्वातंत्र समर" नाम का ग्रन्थ लिखकर देशवाशियों में क्रान्ति की ज्वाला को भड़का दिया था. सभी क्रांतिकारी उसका धर्मग्रन्थ जैसा सम्मान करते थे. इसके लिए अंग्रेजों ने उन्हें कालापानी जेल भेज दिया, कालापानी जेल में उनपर खूंखार कैदियों की तरह अमानवीय अत्याचार किये जाते थे. 4- जुलाई,1911 से लेकर 21 मई, 1921 तक दस साल पोर्ट ब्लेयर की "कालापानी" जेल में रहकर अमानवीय यातनाएं झेलीं.
देश को आजादी दिलाने में उनके ग्रन्थ का बहुत बड़ा योगदान था. इस ग्रन्थ को चोरी छुपे छपवाना और प्रचारित करना उस युग में महान क्रांतिकारी कार्य माना जाता था. सावरकर के ग्रन्थ से नाराज अंग्रेज उन्हें बड़ी सजा देना चाहते थे, लेकिन किताब लिखना इतना बड़ा गुनाह नहीं था कि उन्हें उम्रकैद/फांसी दी जा सके, इसलिए उन्हें "नासिक" के कलेक्टर "जैकसन" की हत्या के षडयंत्र का आरोप लगाकर कालापानी की सजा दी गई थी,
आजाद भारत में कांग्रेस सरकार ने भी उनका महत्व कम करने की सदैव कोशिश की. उन की याचिका को, कांग्रेसी उनका माफीनामा बताकर देश को गुमराह करते रहते हैं, जबकि वह याचिका भी खारिज कर दी गई थी, और सावरकर को उसके 10 साल तक कालापानी तथा 3 साल तक रत्नागिरी जेल में रखा गया था. जेल से रिहाई के बाद भी उनपर खुफिया पुलिस की नजर रहती थी, पहले अंग्रेज सरकार फिर नेहरु सरकार द्वारा.
अंग्रेजी सरकार लम्बे समय तक केस चलाने के बाबजूद उन्हें "नासिक षड्यंत्र" में गुनाहगार साबित नही कर सकी और रिहा करना पडा. लेकिन कालापानी से रिहा होने के बाद भी तीन साल रत्नागिरी जेल में रखा गया. महान क्रांतिकारी "सरदार भगत सिंह" भी "वीर सावरकर से रत्नागिरी जेल में मिले थे. वीर सावरकर ने ही भगत सिंह को 'चन्द्र शेखर आजाद" के गुट में शामिल होने की सलाह दी थी.
सावरकर प्रारम्भ में पूरी तरह से धर्म निरपेक्ष थे. उन्होंने अपने ग्रन्थ में 1857 की लड़ाई में शामिल होने वाले सभी मुस्लिम वीरो को भी बहुत सम्मान दिया था. अंग्रेजी इतिहास में गलत बताये गए बहादुर शाह जफ़र, वाजिद अली शाह, बेगम हजरत महल, आदि को उन्होंने महान क्रान्तिकारी लिखा था. लेकिन 1921-24 में मालावार, कोहाट, मुल्तान, में हुए दंगे में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार ने उनकी सोंच को हिन्दू हितैषी बना दिया था.
सावरकर अखंड भारत के पक्षधर थे लेकिन उनका यह भी मानना था कि - अंग्रेजों को भगाने और मुसलमानों को अलग मुस्लिमराष्ट्र ( पाकिस्तान) दिए जाने के बाद, शेष भारत को हिन्दुराष्ट्र घोषित किया जाना चाहिए. सावरकर का कहना था कि - राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या नेताओं के सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं.
प्रथम स्वाधीनता संग्राम के वीरों सम्मान दिलाने वाले सावरकर को, आजाद भारत में खुद वह सम्मान नही मिला जिसके वे हक़दार थे. गांधीजी की ह्त्या के बाद 5 फ़रवरी 1948 को उन्हें भी प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के तहत गिरफ्तार कर लिया गया था, जिसमे वे निर्दोष साबित हुए. 4 अप्रैल 1950 को पाकिस्तानी प्रधान मंत्री "लियाक़त अली ख़ान' के दिल्ली आगमन पर भी उन्हें बेलगाम जेल में बंद कर दिया था.
10 नवम्बर 1957 को नई दिल्ली में आयोजित हुए, "1857" के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के "शाताब्दी समारोह" में वे मुख्य वक्ता रहे. 8 - अक्टूबर 1959 को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी०.लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया. 26 फ़रवरी 1966 को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः 10 बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को प्रस्थान किया.
राष्ट्र के महानायक को हम उनकी पुण्यतिथि पर एकबार फिर कोटि कोटि नमन करते हैं

"चंद्रमुखी" की "चांदनी". अब "चाँद के टुकड़े" में नहीं, तारों में दिखेगी










"चंद्रमुखी" की "चांदनी". अब "चाँद के टुकड़े" में नहीं, तारों में दिखाई देगी 
किसी के हाथ न आयेगी यह लड़की क्योंकि हवा में विलीन हो गई "हवा हवाई'
बालीबुड की "सल्तनत" पर बरसों राज करने वाली "रूप की रानी" नहीं रही
इस खबर को सुनकर एक "लम्हे" को तो विशवास भी नहीं हुआ.
शायद ही कोई ऐसा "हिम्मतवाला" या "जांबाज" उनका फैन होगा,
जिसे यह दुखभरी खबर सुनकर "सदमा" न लगा हो
बाल "कलाकार" के रूप में "जूली" फिल्म से फिल्मो से शुरुआत की
उनके "सोलहवा सावन" पार करते, ही फिल्मो को एक "नगीना" मिल गया.
"चाँद के टुकड़े" ने खूबसूरती की, ऐसी "चांदनी" बिखेर दी कि.
"इंसान जाग उठे" और "फ़रिश्ते" भी दीवाने हो गए.
उस पर उनका अथक "कर्म" तो "सोने पर सुहागा" ही था
जिसके दम पर उन्होंने, बेहतरीन फिल्मो का "तोहफा" दिया
इस "अक्लमन्द" हीरोइन ने, अपनी "हिम्मत और मेहनत" के बल पर
ऐसा "हल्ला बोल" दिया कि- फिल्मो में "इन्कलाब" सा आ गया.
"खुदा गवाह" है कि पहले कभी हीरोइन को इतना "लाडला" नहीं माना गया.
इस "शेरनी" के आगे बड़े बड़े "मि.इण्डिया" भी, "मिस्टर बेचारा" दिखाई देते थे.
तभी अचानक "नया कदम" उठाते हुए, वे शादी कर "सुहागन" बन गई
और फिल्मो को छोड़कर यह "चन्द्रमुखी" अपने "घरसंसार" में रम गई
अब उन्होंने अपनी "औलाद" के लिये, "माम" का फर्ज निभाना ही
अपने जीवन का "मकसद" बना लिया और फिल्मो को छोड़ दिया.
उनकी अचानक हुई मौत पर इतनी चर्चा को देखकर, कुछ "पत्थर के इंसान"
ऐसे चिढ रहे हैं जैसे वो फिल्मो में अभिनय करके "गैर कानूनी" काम करती थी
मैंने सोंच लिया है कि- ऐसे "गुमराह" लोगों को भी, "जबाब हम देंगे"
देखते हैं किसकी "मजाल" है जो इस पोस्ट पर आकर कोई उनके खिलाफ बोले
मुझे तो विस्वास ही नहीं हुआ कि - वो इतनी जल्दी "आख़िरी रास्ते" पर चली जायेंगी
मुझे "इंग्लिश विंग्लिस" तो आती नहीं, इसलिए हिंदी में ही ये "नजराना" पेश कर रहा हूँ.

Sunday, 11 February 2018

राजीव गांधी और कम्प्यूटर क्रान्ति

हमने कई कांग्रेसी मित्रों को अक्सर यह कहते सुना है कि- भारत में कम्प्यूटर राजीव गांधी की बजह से आया. अगर राजीव गांधी नहीं होते तो भारत में कम्प्यूटर नहीं आ सकता था. क्या कोई कांग्रेसी मित्र, चरणबद्ध तरीके से विस्तार से यह बता सकता है कि - राजीव गांधी ने भारत में कम्प्यूटर का कैसे विकास और विस्तार किया ?
क्या कोई बताना चाहेगा या फिर अपने पूर्वजों के रास्ते पर चलते रहेंगे ? जैसे आपके बाप दादा यह गाते रहे कि - गांधीजी ने "बिना खड्ग बिना ढाल के देश को आजाद करा दिया था" लेकिन जब उनसे पूंछते कि - कैसे कराया तो बगले झाँकने लगते थे. नेहरु को महान बताते थे लेकिन जब आजाद / बोस का जिक्र करते तो वे खामोश हो जाते.
इंदिरा की तारीफ में कसीदे पढ़ते कि- इदिरा ने बंगलादेश बनाया. लेकिन इस पर चुप हो जाते हैं कि- 3 दिसंबर 1971 तक इंदिरा पूर्वी पापिस्तान में कार्यवाही के खिलाफ थी और पापिस्तान के भारत पर हवाई हमले (आप्रेसन चंगेज खान) के बाद जनरल मानेकशा ने कहा था कि- सैन्य कार्यवाही की घोषणा कीजिए वर्ना तख्ता पलट देंगे.
राजीव गांधी की कम्प्यूटर क्रान्ति के बारे में कुछ बताएँगे या यह भी "बिना खड्ग बिना ढाल" वाले गीत की तरह ही चलता रहेगा. बैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूं देश में कम्प्यूटर के किसी भी क्षेत्र में ( साफ्टवेयर हार्डवेयर) में किसी सरकारी कम्पनी का कोई विशेष योगदान नहीं रहा. इसमें सभी काम ज्यादातर निजी कम्पनियों ने किये हैं
टाटा ग्रुप ने "टाटा कन्सलटेनसी सर्विस" की स्थापना 1968 में और नरेंद्र पाटनी ने "पाटनी कम्प्यूटर सर्विस" की स्थापना 1972 में की थी जिसने 1978 में उत्पादन शुरू कर दिया था. प्रेमजी ने "विप्रो" की स्थापना 1980 में और नारायण मूर्ति ने "इनफ़ोसिस" की स्थापना 1981 में की थी, जबकि राजीव गांधी 1984 में प्रधानमंत्री बने थे.
राजीव गांधी अपनी माँ इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारत के प्रधानमंत्री बने थे. सहानुभुति के कारण भारी बहुमत मिल जाने के बाबजूद वे अपने कार्यकाल में कुछ ख़ास नहीं कर पाए. वे केवल अपने कुछ चाटुकारों के बीच घिरे रहते थे जिसके कारण पार्टी के अन्दर भी उनके खिलाफ बगावत हो और कई बड़े कांग्रेसी नेता पार्टी को छोड़ गए.
कांग्रेस को छोड़कर उन पूर्व कांग्रेसी नेताओं ने, राजीव गांधी के खिलाफ घोटालों के आरोप लगाए जिससे देश में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बन गया और अगला आम चुनाव् कांग्रेस बुरी तरह से हार गई और उसके बाद से आजतक अकेले अपने दम पर सत्ता में नहीं आ सकी. इस प्रकार राजीव् के समय में कांग्रेस के पतन की शुरुआत हुई.
राजीव का कार्यकाल सिक्खों के कत्लेआम, भोपाल गैस काण्ड, शाहबानो केस, बोफोर्स घोटाला, रामजन्म भूमि का ताला खोलो आन्दोलन, आदि के लिए जाना जाता है. फिर भी यदि कोई कांग्रेसी मित्र, राजीव की कम्प्यूटर क्रान्ति के बारे में कुछ जानता है और देश को बताना चाहता है तो हम उसका स्वागत करते हैं.

गोवा के स्वतंत्रता दिवस (19 दिसंबर) पर हार्दिक शुभकामनाये

गोवा भारत के दक्षिण / पश्चिम क्षेत्र में स्थित छोटा सा राज्य है. सम्पूर्ण भारत के लोग इसे पर्यटन के स्वर्ग के रूप में मानते हैं. लेकिन देश के बहुत सारे लोगों को शायद यह मालूम नहीं है कि - अंग्रेजी शासन से भारत की आजादी के 14 साल के बाद गोवा पुर्तगाली शासन से आजाद हुआ और भारत का अभिन्न अंग बना.
गोवा का प्रथम वर्णन रामायण काल में मिलता है. सरस्वति नदी के सूख जाने पर उन लोगों को बसाने के लिए भगवान् परशुराम में कोंकण क्षेत्र को बसाया था. कोंकण का दक्षिणी क्षेत्र गोपपुरी कहलाता था. इस क्षेत्र के ब्राह्मण आज भी सारस्वत ब्राह्मण कहलाते हैं. यहां मौर्य, शुंग, चालुक्य, शाक्य, कदम्ब वंशो का शासन रहा.
सन 1483-84 में गोवा मुस्लिम शासक युशुफ आदिल खान के अधिकार में आ गया. लगभग 27 वर्ष के मुस्लिम शासन रहने के बाद सन 1510 में पुर्तगाली "अलफांसो द अल्बुबर्क" ने यहाँ आक्रमण कर अधिकार कर लिया. तब से यहाँ पुर्तगालियों का कब्ज़ा हो गया. गोवा के सामरिक महत्व को देखते हुए पुर्तगाल ने यहाँ बहुत धन खर्च किया.
1809 - 1815 के बीच नेपोलियन ने पुर्तगाल पर कब्ज़ा कर लिया और एंग्लो पुर्तगाली गठबंधन के बाद गोवा स्वतः ही अंग्रेजी अधिकार क्षेत्र में आ गया.1815 से 1947 तक गोवा में अंग्रेजो का शासन रहा. 1947 में भारत से अपना नाजायज कब्जा छोड़ते समय अंग्रेजों ने "गोवा, दमन, द्वीव, दादरा और नगर हवेली" को पुर्तगाल को सौंप दिया.
जब भारत से ब्रिटिश शासन को उठाने की बात चल रही थी तब ही अंग्रेजों ने "गोवा, दमन, द्वीव, दादरा और नगर हवेली" को पुर्तगाल को सौंपने की बात शुरू कर दी थी. 18 जून 1946 को डा. राम मनोहर लोहिया ने इन सबको भी साथ ही आजाद करने की मांग की, लेकिन गांधी और नेहरु ने इस पर रहस्यमयी खामोशी बनाय रखी.
भारत में ब्रिटिश शासन ख़त्म हो जाने के बाद पुर्तगाल ने "गोवा, दमन, द्वीव, दादरा और नगर हवेली" का जमकर शोषण करना प्रारम्भ कर दिया था. क्षेत्र में छोटे होने तथा गुजरात के बीच में होने के कारण दादरा और नगर हवेली में सबसे पहले राष्ट्रवाद का उदय होना सुरु हुआ तथा पुर्तगाली शासन से आजादी की मांग उठानी शुरू की.
1953 में गोवा सरकार के एक बैंक कर्मचारी अप्पासाहेब कर्मलकर ने नेशनल लिबरेशन मूवमेंट संगठन (NLMO) शुरू की. उन्होंने नेहरु से इस कार्य के लिए मदद मांगी मगर नेहरु ने इसमें कोई रूचि नहीं ली. तब उन्होंने इसके लिए "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ" से मदद मांगी. संघ का शीर्ष नेतृत्व इसके लिए तैयार हो गया.
20 जुलाई 1954 को पुणे से सैकड़ो संघ कार्यकर्त्ताओं का पहला जत्था वापी को निकला. संघ के स्वयंसेवको ने आज़ाद गोमान्तक दल के साथ मिलकर 2 अगस्त 1954 को दादरा और नगर हवेली को आजाद करा लिया. स्वतंत्र होने के बावजूद, दादरा-नगर हवेली को पुर्तगाली संपत्ति के रूप में माना जाता रहा.
दादरा / नगर हवेली के आजाद होने के बाद गोवा, दमन और द्वीव में भी आजादी की मांग उठने लगी. 15 अगस्त 1955 में गोवा को पुर्तगाल शासन से मुक्त करने के लिये 3000 सत्याग्रहियों ने आन्दोलन शुरू किया जिस पर पुर्तगाली सरकार ने गोली चलवा दी जिसमे लगभग 30 अहिंसक प्रदर्शनकारी मारे गए.
इसके बाद वहां जगह जगह प्रदर्शन होने लगे. गोवा की जनता भारत सरकार से मदद मांग रही थी लेकिन अमेरिका के भय से भारत सरकार सैन्य कार्यवाही करने से डर रही थी. इस बीच महाराष्ट्र और गुजरात के राष्ट्रवादी हिन्दुओं का वहां काफी प्रभाव हो चूका था. देश की जनता का सरकार पर लगातार दवाव बढ़ता जा रहा था.
नेहरु सरकार गोवा में किसी भी हस्तक्षेप के खिलाफ थी. वहां की हिन्दू जनता पर अत्याचार हो रहे थे. उनको जबरन गौमांस खाने को बाध्य किया जा रहा था. घर में तुलसी का पौधा होना भी गिरफ्तार करने के लिए पर्याप्त कारण माना जाता था. भारत की जनता और सेना भी गोवा को सैन्य कार्यवाही कर आजाद कराना चाहती थी.
दादरा / नगर हवेली को पुर्तगालियों से आजाद कराने के कारण, गोवा / दमन / द्वीव के हिन्दूओ ने भी "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ" से मदद मांगी. संघ के स्वयंसेवकों ने उनकी मदद का आश्वासन दिया. महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक के स्वयंसेवको ने गोवा का प्रवास करना प्रारम्भ कर दिया. देखते ही देखते वहां अनेकों स्थान पर शाखा लगने लगी.
पुर्तगाली सरकार ने संघ की शाखा पर प्रतिबन्ध लगा दिया और संघ से जुड़े गोवा वाशियों को गिरफ्तार कर जेल में डालना शुरू कर दिया. भारत सरकार ने भी इसके लिए संघ को मना किया. इसी बीच 24 नवम्बर 1961 को पुर्तगाली सेनाओं ने एक भारतीय नौसैनिक जहाज पर हमला कर दिया. अब भारत के पास हमले की बजह भी थी
भारत ने गोवा को पुर्तगालियों से मुक्त करने के लिए आपरेशन विजय शुरू किया जिसकी जिम्मेदारी सेना की दक्षिणी कमान को सौंपी गई. भारतीय सेना ने चारो ओर से, जल थल एवं वायु सेना की उस समय की आधुनिकतम तैयारियों के साथ, दिसम्बर 17-18 की रात में ऑपरेशन विजय के अंतर्गत सैनिक कार्यवाही शुरू कर दी.
युद्ध में थल सेना की कमान मेजर जनरल के.पी. कैंथ को दी गयी. 40 घंटे की लड़ाई के बाद गोवा की पुर्तगाली सेना ने, भारतीय सेना के सामने हथियार डाल दिए. 2 सिख लाइट इन्फैंट्री ने 19 दिसम्बर 1961 की सुबह पणजी के सचिवालय भवन पर तिरंगा फहरा दिया. भारतीय सेना गोवा पर 450 साल से चले आ रहे पुर्तगाली शासन का अंत कर दिया.
दूसरी तरफ गुजरात के संघ के स्वयंसेवक भारी संख्या में तिरंगा लेकर ने दमन और द्वीव में घुस गए. वहां की जनता ने भी उनका स्वागत किया. पुर्तगाली अधिकारियों ने बिना बिरोध के समर्पण कर दिया.और इस प्रकार गोवा के साथ साथ दमन, दीव, दादरा और नगर हवेली का भी आधिकारिक तौर पर भारत में विलय हो गया.

"दादरा नगर हवेली" का स्वाधीनता आन्दोलन और आरएसएस

"दादरा और नगर हवेली" के स्वाधीनता दिवस (2 अगस्त 1954) पर हार्दिक शुभकामनाये और दादरा नगर हवेली को पुर्तगालियों से आजाद कराकर भारत में शामिल करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवको को हार्दिक अभिनंदन. बहुत से लोगों को पता नहीं है कि - दादरा, नगर हवेली, गोवा, दमन, द्वीव. की आजादी में संघ का हाथ है.
15 अगस्त 1947 को भारत के आजाद होने के बाद भी गोवा, दमन, द्वीव. दादरा, नगर हवेली, आदि आजाद नहीं हुए थे. अंग्रेजों ने इन्हें पुर्तगाल को सौंप दिया था. भारत की आजादी से पहले प्रख्यात समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया ने इनकी भी आजादी की मांग उठाई थी. लेकिन नेहरू ने उनकी इस मांग को कोई महत्त्व नहीं दिया.
18 जून 1946 को डा. राममनोहर लोहिया ने, गोवा, दमन, द्वीव. दादरा, नगर हवेली, आदि की आजादी की आवाज सबसे पहले उठाई थी मगर उनकी बातों पर न सरकार ने ध्यान दिया और न ही उन क्षेत्रों की जनता ने. देश की आजादी के बाद भी उन्होंने लोगों को जाग्रत करने के प्रयास किये मगर उनके प्रयासों को ख़ास सफलता नहीं मिली.
1953 में गोवा सरकार के एक बैंक कर्मचारी अप्पासाहेब कर्मलकर ने नेशनल लिबरेशन मूवमेंट संगठन (NLMO) शुरू की. उन्होंने नेहरु से इस कार्य के लिए मदद मांगी मगर नेहरु ने इसमें कोई रूचि नहीं ली. तब वे विश्वनाथ लावंडे, दत्तात्रेय देशपांडे, प्रभाकर सीनरी और श्री. गोले के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं से मिले.
ये लोग उस समय रा.स्व. संघ के महाराष्ट्र के सर्वोच्च अधिकारी श्री बाबाराव भिड़े व श्री विनायक राव आप्टे से मिले और उनके सम्मुख सशस्त्र क्रांति की योजना रखी. सर्वश्री शिवशाहीर बाबा साहब पुरन्दरे, संगीतकार सुधीर फड़के, खेलकूद प्रसारक राजाभाऊ वाकणकर, शब्दकोश रचयिता विश्वनाथ नरवणे, आदि ने सहमति जताई.
अंतिम निर्णय श्री गुरु जी को लेना था. सुधीर फडके और नाना काजरेकर (जो मुक्ति के पश्चात्‌ दादरा नगर हवेली के पुलिस अधिकारी बने) ने गुरु जी को तैयार करने का जिम्मा लिया. सारी योजना को समझने के बाद गुरु जी ने अभियान चलाने की अनुमति दे दी. लेकिन इसके लिए पुख्ता रणनीति बनाने पर जोर दिया.
पहले क्षेत्र के लोगों को आजादी के लिए तैयार करके फिर हमले की योजना बनाई गई थ. पुणे महानगर पालिका के सदस्य "श्रीकृष्ण भिड़े" और "बाबा साहब पुरन्दरे" को जुझारू स्वयं सेवको चूनने और नासिक स्थित "भोंसले मिलिट्री स्कूल" के एक प्रशिक्षक "मेजर प्रभाकर कुलकर्णी" को उन्हें ट्रेनिंग देने की जिम्मेदारी दी गई.
इतने बड़े अभियान को सफल करने हेतु आर्थिक सहायता की जरूरत थी. यह जिम्मेदारी सुधीर फडके ने ली. उन्होंने स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर को अभियान जानकारी देते हुए पुणे के हीराबाग मैदान में "लता मंगेशकर-रजनी' का कार्यक्रम आयोजित किया. इसके अलाबा अनेकों व्यापारियों ने इस कार्य के लिए स्वेच्छा से धन दिया.
बाबा साहब पुरन्दरे, विश्वनाथ नरवणे, नाना काजरेकर आदि को सैन्य अभियान का नेतृत्व करना था. हथियरों को जमा करने की जिम्मेदारी श्री राजाभाऊ वाकणकर पर थी. "सुधीर फडके" ने संगीत कार्यक्रमों के बहाने दादरा / नगर हवेली में प्रवास कर वहां की जनता को जाग्रत करने और माहौल बनाने का काम भी किया.
संघ के कार्यकर्त्ताओं ने उस क्षेत्र के दौरे करने शुरू कर दिए. इस प्रकार युद्धस्थल की छोटी-छोटी जानकारी, स्थानीय समर्थन, शस्त्र सामग्री एवं पैसा, इकट्ठा होने के पश्चात्‌ श्री बाबाराव भिड़े ने पुणे के तरुणों को प्रतिज्ञा दिलाई. माहौल बनाने के बाद 20 जुलाई 1954 को पुणे से कार्यकर्त्ताओं का पहला जत्था वापी को निकला.
आज़ाद गोमान्तक दल के सदस्य तथा अन्य आजादी के चाहवान लोग भी उनके साथ मिल गए. 22 जुलाई को दादरा पुलिस स्टेशन पर हमला बोला और पुलिस उप-निरीक्षक अनिसेतो रोसारियो का बध करके वहां तिरंगा फहरा दिया. दादरा को मुक्त घोषित कर "जयंतीभाई" देसाईं को दादरा पंचायत का मुखिया बना दिया गया.
28 जुलाई 1954 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और आज़ाद गोमान्तक दल के स्वयंसेवक ने नारोली के पुलिस चौकी पर हमला बोला और पुर्तगाली अफसरों को आत्मसमर्पण करने पर मजबूर कर दिया और नारोली को आजाद किया. अगले दिन, 28 जुलाई को स्वतंत्र नारोली की ग्राम पंचायत की स्थापना हुई.
तब तक गुजरात और महाराष्ट्र के हजारों स्वयंसेवक दादरा और नगर हवेली में पहुँच चुके थे. स्थानीय जनता का भी उनको बहुत सहयोग मिल रहा था. 2 अगस्त 1954 को सभी पुर्तगाली अधिकारियों ने सरेंडर कर दिया और राष्ट्रवादियों से सिलवासा के सरकारी कार्यालयों पर तिरंगा लगाया और अप्पासाहेब कर्मलकर को प्रथम प्रशासक चुन लिया.
अप्पासाहेब कर्मलकर ने दादरा / नगर हवेली को आजाद घोषित कर भारत में विलय की घोषणा कर दी, लेकिन भारत सरकार ने फिर भी उनसे दूरी बना कर रखी. स्वतंत्र होने के बावजूद, दादरा-नगर हवेली को पुर्तगाली संपत्ति के रूप में माना जाता रहा. सात साल तक दादरा / नगर हवेली का शासन ऐसे ही चलता रहा.
1961 में जब गोवा /दमन /द्वीव भी आजाद हो गया तब उसके साथ दादरा / नगर हवेली को भी केंद्रशासित राज्य का दर्जा मिला. दादरा / नगर हवेली की आजादी तथा गोवा / दमन / द्वीव की आजादी और भारत में विलय के लिए सबसे पहले आवाज उठाने वाले लोहिया और इस काम को अंजाम पर पहुंचाने वाले आरएसएस को हार्दिक अभिनन्दन.

Sunday, 4 February 2018

चित्तौड़गढ़ : भाग-7 ( रणथम्भौर और हठी हम्मीर )

इस गाथा का चित्तौड़ से कोई सम्बन्ध नहीं है लेकिन जिस कालखंड की चर्चा पिछली पोस्ट्स में हुई है उसके हिसाब से यह गाथा बताना भी महत्त्वपूर्ण है. श्रंखला की कंटीन्यूटी बनी रहे इसलिए इसको शीर्षक "चित्तौड़गढ़ : भाग-7" दे रहा हूँ. हम्मीर देव चौहान, पृथ्वीराज चौहान के वंशज थे. उन्होने रणथंभोर पर 1282 से 1301 तक राज किया था.
वे रणथम्भौर के सबसे महान शासकों में से एक माने जाते हैं. हम्मीर देव के पिता का नाम जैत्रसिंह चौहान एवं माता का नाम हीरा देवी था. वे इतिहास में ‘‘हठी हम्मीर" के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं. हम्मीर देव 1282 में रणथम्भौर के शासक बने. हम्मीर देव रणथम्भौर के चौहान वंश के सर्वाधिक प्रतापी, शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण शासक थे.
उन्होंने अपने बाहुबल से विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था. हम्मीर रासौ के अनुसार रणथम्भौर साम्राज्य उज्जैन से लेकर मथुरा तक एवं मालवा (गुजरात) से लेकर अर्बुदाचल तक हो गया था. हम्मीर देव के वारे में कहा जाता है कि- वो अगर कोई हठ (अर्थात - निश्चय) कर ले वो उसको पूरा किये बिना पीछे नहीं हटते थे.
उनके हठ (अर्थात - दृढ निश्चय) को लेकर अनेको महाकाव्य लिखे गए जिनमे जोधराज शारंगधर द्वारा रचित "हम्मीर रासो" और न्यायचन्द्र सूरी द्वारा रचित "हम्मीर महाकाव्य" अत्यंत प्रसिद्ध हैं. उनके हठ को लेकर "हम्मीर महाकाव्य" में लिखा है - "सिंह गमन तत्पुरूष वचन, कदली फले इक बार। त्रिया तेल हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार"॥
दिल्ली के सुलतान गुलाम बंश के अंतिम शासक "कय्यूम" की हत्या कर "जलालुद्दीन खिलजी" दिल्ली का सुलतान बन गया था. उसने सुलतान बनते ही 1291 में रणथम्भौर पर आक्रमण किया. हम्मीर देव ने उसे बहुत आसानी से हराकर खदेड़ दिया. जलालुद्दीन ने 1292 में दो बार फिर हमले किये लेकिन हम्मीर देव ने उसे दोनों बार मार भगाया.
उसके बाद जलालुद्दीन खिलजी की दोबारा कभी हिम्मत नहीं हुई रणथम्भौर पर हमला करने की. 1296 में जलालुद्दीन के भतीजे और दामाद "अलाउद्दीन खिलजी" ने, जलालुद्दीन की हत्या कर दी और खुद सुलतान बन गया.सुल्तान बनने के बाद उसने 1298 में गुजरात पर हमला किया, सोमनाथ को लूटा और रानी कमला देवी को उठा लाया.
वापसी में उसने अपने सेना नायक उल्गू खान को रणथम्भौर पर हमला करने का आदेश दिया. इस लड़ाई में भी हम्मीर देव ने खिलजी की सेना को मार भगाया और गुजरात की लूट का माल और हथियार भी छीन लिए. उस धन से हम्मीर देव ने गुजरात सोमनाथ मंदिर, उजजैन के महाकालेश्वर मंदिर और पुष्कर के ब्रह्मा मंदिर का पुनरुद्धार कराया.
इस घटना के बाद अलाउद्दीन खिलजी को रणथम्भौर और भी खटकने लगा. इसी बीच मंगोल से नवी मुसलमान बने, खिलजी के एक मंगोल रिश्तेदार "मुहम्मद शाह" के अवैद्ध सम्बन्ध खिलजी की एक रानी "चिमना" से हो गए थे. मालिक काफूर को इसका पता चल गया और उसने खिलजी को इसकी खबर करदी, इसपर खिलजी आग बबूला हो गया.
खिलजी के भय मुहम्मद शाह अपने साथियों के साथ हम्मीर देव के पास पहुँच गया और चालाकी से उनसे अपनी प्राणरक्षा का बचन ले लिया. अलाउद्दीन खिलजी ने विशाल सेना लेकर रणथम्भौर पर घेरा डाल दिया, लेकिन 9 महीने के घेरे के बाद भी वह हम्मीर देव को झुका नहीं पाया. इसी बीच हम्मीर देव के दो सेना नायक खिलजी से मिल गए.
रणमल और रतिपाल को खिलजी ने रणथम्भौर का राजा बनाने का बचन देकर अपने साथ मिला लिया था. रणमल और रतिपाल ने किले के कमजोर हिस्सों को बारूद से उडा दिया. तब हम्मीर देव ने "शाका" करने का निर्णय लिया. राजपूत केसरिया बाना पहन कर अंतिम युद्ध के लिए तैयार हो गए महिलाओं ने जौहर की तैयारी कर ली.
11जुलाई 1301 को किले के फाटक खोलकर खिलजी की सेना पर टूट पड़े. रणथम्भौर की सेना संख्या में कम थी लेकिन उनके हौसले बुलंद थे. उन्होंने खिलजी की सेना को गाजर मूली की तरह काटना शुरू कर दिया और देखते ही देखते खिलजी की सेना अपने हथियार, तम्बू, झंडे, आदि अपना सब सामान छोड़कर भाग खड़ी हुई.
हम्मीर देव के सैनिको ने वो सारा सामान उठा लिया और किले की तरफ वापस चल पड़े. उन्होंने खिलजी की सेना के झंडे भी उठा लिए थे. बस यहीं उनसे गलती हो गई. खिलजी के झंडों को देखकर किले की महिलाओं को लगा कि- उनके लोग मारे गए हैं और खिलजी की सेना किले पर कब्ज़ा करने आ रही है और वे जौहर की अग्नि में कूद गईं.
जब हम्मीर देव किले में पहुंचे तो महिलाओं को जौहर की अग्नि में जलता देखकर उनको बहुत दुःख हुआ. मन की शांति के लिए शिव मंदिर में गए और प्राश्चित स्वरूप अपना सर काटकर भगवान् शिव के चरणों में चढ़ा दिया. अलाउद्दीन को जब इस घटना का पता चला तो वह वापस लौट आया और उसने दुर्ग पर कब्जा कर लिया.
रणमल और रतिपाल ने रणथम्भौर का राजा बनाने को कहा तो खिलजी ने दोनों का सर कलम करने का आदेश देते हुए कहा कि - जो अपनों का नहीं हुआ वो हमारा क्या होगा. 1563 ई. में बूँदी के एक सरदार सामन्त सिंह हाड़ा ने बेदला और कोठारिया के चौहानों की सहायता से मुस्लिमों से यह क़िला वापस छीन लिया था.

चित्तौड़गढ़ : भाग-6 ( महाराणा हम्मीर सिंह द्वारा चित्तौड़ पर पुनः अधिकार )

नीच, ऐय्यास, समलैंगिक, लुटेरे, खिलजी वंश के अंत की कहानी के बद हम वापस "चित्तौडगढ़" पर आते हैं. जैसा कि पिछली पोस्ट्स में आप पढ़ चुके हैं कि-1303 में चित्तौड़ पर अलाउद्दीन खिलजी का कब्ज़ा हो गया था और और उसने अपने बेटे खिज्र खान को चित्तौड़ का राजा बनाकर, चित्तौडगढ़ का नाम "खिजराबाद" रख दिया.
खिज्रखान ने, खिजराबाद (चित्तौड़गढ़) को अपनी स्थानीय राजधानी बनाकर राजस्थान पर बेतहाशा जुल्म किये. खिलजी के सैनिक आम जनता के धन और स्त्रियों पर अपना हक़ मानते थे. इस जुल्म के खिलाफ अनेकों राजपूतों / किसानो / मजदूरों ने खिलजी से लगातार टक्कर ली मगर छोटी सफलताओं के आलावा ज्यादा कुछ नहीं हुआ.
1320 में खिलजी वंश का अंत हो गया था और दिल्ली की सत्ता में उथल पुथल चल रही थी. चित्तौड़गढ़ पर खिलजियों के चापलूस राजपूत मालदेव का कब्जा था. ऐसे में राजपूत पुनः मेवाड़ को आजाद कराने के लिए सक्रिय होने लगे. लोगों ने अपने आपको स्वतंत्र मान लिया और जगह जगह खिलजी के सैनिको पर हमला होने लगा.
खिलजी के सैनिको ( जिनमे मुसलमान और राजपूत दोनों शामिल थे) का खुलेआम निकलना मुश्किल हो चूका था. केवल राजपूत ही नहीं बल्कि किसान, मजदूर, व्यापारी सभी बागी हो गए थे और खिलजी के सैनिको और अधिकारियों से गिन गिन कर जुल्म का बदला ले रहे थे. ऐसे में एक कुशल नेत्रत्व की आवश्यकता थी जिसको सभी स्वीकार करे.
खिजराबाद (चित्तौड़गढ़) के एक मुस्लिम सैनिक को, एक गाँव के कुछ लोगों ने बहुत मारा, वो जाकर अपने कुछ साथियों और अधिकारी को ले आया. मुस्लिम सैन्य अधकारी ने गाँव वालों से सिपाही को पीटने वाले का नाम बताने को कहा. नाम नहीं बताने पर उनको पीटा. फिर उसने गुस्से में गाँव की स्त्रियों को सबके सामने नग्न करने का आदेश दिया.
तभी अचानक क्रांतिकारी युवाओं का एक दल वहां पहुँच गया, जिसका नेत्रत्व एक 12 बर्षीय बालक कर रहा था. उन्होंने सैनिको पर हमला कर दिया. भयानक लड़ाई शुरू हो गई. उन क्रान्तिकारी युवाओं ने सभी सैनिको को मारकर, गाँव वालों को आजाद करा दिया. सभी लोग उस बालक और उसके साथियों की जय जयकार करने लगे.
उस बालक का नाम था हम्मीर सिंह. उसके दादा चित्तौड़गढ़ के रक्षक हुआ करते थे. 1303 में हम्मीर के दादा ने राणा रतन सेन के साथ "शाका" तथा दादी ने रानी पद्मावती के साथ "जौहर" किया था. हम्मीर सिंह के पिता का नाम अरी सिंह और माता का नाम उर्मिला था. शाका और जौहर के समय "अरी सिंह" अपने नाना के यहाँ गाँव में थे.
वे चित्तौड़गढ़ से कुछ देर एक गाँव में रहते थे और चित्तौड़ को आजाद कराने का सपना देखते थे. अरी सिंह गाँव के बच्चों को इकठ्ठा करके, उनको खेलकूद कराते और उनको चित्तौड़ के वीरों / वीरांगनाओं की महानता की कहानिया सुनाते थे और कहते थे कि - हमें केवल चित्तौड़ और मेवाड़ को ही नहीं बल्कि पूरे हिन्दुस्थान को आजाद कराना है.
अरी सिंह की पत्नी "उर्मिला" भी आस-पास की बच्चियों को लेकर, इसी तरह शाखा लगाती और उनको खेलकूद के साथ साथ लड़ना सिखाती. उनको महारानी पद्मावती के जौहर के बारे में बताती और साथ ही कहतीं कि - अगर कोई तुमको परेशान करे तो तुम में उसकी जान लेने की ताकत की भी होनी चाहिए और अपनी जान देने का साहस भी.
(डा. हेडगेवार जी ने आरएसएस की शाखा में यही तरीका अपनाया है) इस प्रकार अरी सिंह ने अनेकों देशभक्त और बहादुर युवाओं की टोलियां तैयार कर दीं. वे लोग जगह जगह खिलजी के अत्याचारी सैनिको को टक्कर देने लगे. अरी सिंह का बेटा हम्मीर भी, बचपन से बहादुरी का प्रदर्शन करने लगा और उम्र में अपने से बड़े साथियों का नेत्रत्व करने लगा.
उक्त घटना के बाद जब मेबाड़ के लोगों को "हम्मीर सिंह" और "अरी सिंह" के बारे में पता चला तो, उन्होंने अरी सिंह से उनका नेतृत्व करने को कहा. लेकिन अरी सिंह ने कहा - आप मेरी जगह "हम्मीर सिंह" को अपना नेता बनाये. तब राजपूतों ने 12 बर्षीय हम्मीर सिंह को अपना नेता मान लिया और उनके नेतृत्व में संगठित होने लगे.
मेवाड़ के लोग खिलजियों और मालदेव के अत्याचार से इतना ज्यादा परेशान थे कि - क्रांतिकारियों को उनको अपने साथ लेने में कोई दिक्कत नहीं हुई. संगठित होने के बाद 1326 में राजपूतों ने खिजराबाद (चितौडगढ़) पर बहुत बड़ा हमला किया. चित्तौड़गढ़ की सेना के राजपूत सैनिक भी बागी होकर हम्मीर की सेना के साथ आ गए.
क्रांतिकारियों ने मालदेव तथा खिलजी की सेना को बड़ी आसानी से मार गिराया गया और हम्मीर सिंह को चित्तौड़गढ़ का राजा घोषित किया. मेवाड़ की अन्य रियासतों के राजाओं ने हम्मीर सिंह को "महाराणा" की उपाधि से सुशोभित किया और संकल्प लिया कि- हम अपनी स्वतंत्रता को कायम रखते हुए चित्तौड़गढ़ को अपना प्रमुख मानेगे.
इस प्रकार 23 साल की गुलामी से चित्तौड़गढ़ आजाद हो गया. किसी भी बाहरी शत्रु के आक्रमण के समय समस्त मेबाड़ चित्तौड़गढ़ का निर्देश ही मानता था. इस प्रकार 7 वीं सदी से 1557 तक चित्तौड़ मेवाड़ का नेतृत्व करता रहा. लेकिन वामपंथी इतिहासकार सदियों की जीत का जिक्र करने के बजाय 23 साल की गुलामी का जिक्र ही ज्यादा करते हैं.
मुझे लगता हैं कि - इस श्रंखला से चितौड़गढ़ और खिलजी को लेकर काफी सवालों का जबाब मिल गया होगा. इस कालखंड में खिलजी को हराने वाले दो और राजाओं एक जालोर के कान्हा देव और दुसरे रणथम्भौर के "हम्मीर सिंह चौहान" ( हठी हमीर) पर भी लेख लिखूंगा, उनकी गाथा के बिना मेवाड़ का इतिहास अधुरा माना जाएगा.

चित्तौड़गढ़ : भाग-5 ( खिलजी वंश का अंत )

सुलतान बनने के बाद, अलाउद्दीन ने 1297 में विशाल सेना लेकर गुजरात पर बड़ा हमला किया. अलाउद्दीन ने अपने इस हमले में गुजरात को लूटा, औरतों को उठाया, सोमनाथ के मंदिर सहित हजारों मंदिरों को ध्वस्त किया. गुजरात के राजा कर्णसिंह बाघेल को युद्ध में पराजय का सामना करना पड़ा और वो युद्ध के मैदान से वापस महल तक नहीं जा सके.
खिलजी ने गुजरात में चारों तरफ सेना को इस तरह फैला दिया कि- राजा कर्णसिंह किसी भी प्रकार से अपने परिवार तक न पहुँच सके. तब राजा कर्णसिंह ने खिलजी के पुराने शत्रु देवगिरि के राजा रामचन्द्र देव के यहाँ शरण ली. उनकी रानी कमला देवी अपनी बच्ची देवल देवी को साथ लेकर कई दिन तक छुपती रही, मगर खिलजी ने उनको ढूंढ निकाला.
गुजरात की हजारों महिलाओं के साथ खिलजी उनको भी बंदी बनाकर ले गया. वहां उसने रानी कमलादेवी को निकाह के लिए मजबूर किया और उनका धर्मपरिवर्तन कराकर "मल्लिका जहाँ" नाम रख दिया. इन्ही कमला देवी उर्फ़ मल्लिका जहाँ ने 1303 में "राणा रत्नसेन" को खिलजी की कैद से निकलने में मदद की थी.
1303 में चित्तौड़ पर कब्ज़ा परन्तु पद्मावती को पाने में असफल रहने के बाद खिलजी, अपने बेटे खिज्रखान को चित्तौड़ में छोड़कर खुद, मालिक काफूर के साथ दिल्ली आ गया. हरम में सैकड़ों स्त्रीयां होने के बाबजूद, वह मालिक काफूर के साथ ही समलैंगिक सम्बन्ध रखता था. खिज्रखान ने चित्तौडगढ़ का नाम "खिजराबाद" रख दिया.
खिलजी ने भारत के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया. उसने जिस राज्य को भी जीता, वहां लोगों को लूटा, औरतों को उठाया और मंदिरों का विध्वंस किया. वह लूट के माल का बड़ा हिस्सा अपनी सेना पर खर्च करता था, जिससे वह और बड़े इलाके को जीत सके. उसने दक्षिण में काफी दूर तक अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया था.
खिलजी ने हरिद्वार और अयोध्या को भी विधवंस करने का प्रयास किया परन्तु नागा योद्धाओं ने हरिद्वार से और नाथ योद्धाओं ने अवध से, खिलजी की सेना को भागने पर मजबूर कर दिया. कुम्भ मेले में नागाओं को सबसे पहले स्नान का अधिकार देने की परम्परा तथा पूर्वांचल में नाथों को खिचडी खिलाकर सम्मान देने की परम्परा तभी शुरू हुई.
1314 के बाद अलाउद्दीन अस्वस्थ रहने लगा.विकृत यौन संबंधों के कारण वह गुप्त रोग का शिकार हो गया था. 2 जनवरी 1316 में अलाउद्दीन की म्रत्यु हो गई. मालिक काफूर ने खिलजी के एक 6 बर्षीय पुत्र "उमर" को सुलतान बना दिया और खिलजी की पहली पत्नी "मेहरुन्निशा" से निकाह कर लिया, जिससे वह सत्ता पर काबिज हो सके.
सत्ता पर मालिक काफूर का कब्ज़ा होते देख, खिज्रखान चित्तौड़ को अपने मंत्री मालदेव के हवाले कर दिल्ली आ गया. लेकिन मालिक काफूर ने उसको अन्धा कर कैद में डाल दिया. इसके मात्र 35 दिन बाद ही अलाउद्दीन के एक अन्य बेटे कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने, मालिक काफूर की हत्या कर दी और खुद उमर खिलजी का संरक्षक बन गया.
कुछ ही दिन बाद उसने उमर को अँधा कर कैद में डाल दिया और खुद सुल्तान बन गया. कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी बहुत बहादुर था लेकिन यौन विकृति के मामले में अलाउद्दीन से भी आगे था. उसे नग्न अवस्था में नग्न औरतों और मर्दों के बीच रहना पसंद था. वह अक्सर औरतों के वेश में ही दरबार में भी चला जाता था.
उसने खिलाफत को भी महत्त्व देना बंद कर दिया और खुद को ही खलीफा घोषित कर दिया. इससे तमाम इमाम और अमीर आदि भी उससे नाराज रहने लगे. 15 अप्रैल 1320 ई.को उसके एक बजीर नासिरुद्दीन खुसरों ने उसकी हत्या कर दी और खुद सुलतान बन गया. इस प्रकार खिलजी वंश के मात्र 30 साल के शासन का अंत हो गया,

चित्तौड़गढ़ : भाग-4 (अलाउद्दीन खिलजी )

सन 1303 में चित्तौडगढ़ पर अलाउद्दीन खिलजी का कब्ज़ा हो गया. लेकिन इस जीत का बाद भी वह बहुत निराश हुआ. उसको वहां पर धन तो बहुत मिला लेकिन उसे इस बात का अफसोश रहा कि वह राजपूतों को अपने आगे झुका नहीं सका. वह कुछ ही दिन चित्तौड़ में रुकने के बाद अपने बेटे खिज्र खान को चित्तौड़ सौपकर खुद वापस दिल्ली चला गया.
चित्तौड़गढ़ और राजपूतों के इतिहास पर आगे बढ़ने से पहले, हमें खिलजियों के बारे में भी जान लेना चाहिए कि- यह खिलजी कौन थे और कुल कितने समय तक इनका शासन रहा था ? यह भी जानना जरुरी है कि- जिस अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ को जीता था वो कौन था, उसकी मौत कैसे हुई और उसकी मौत के बाद उसके राज्य का क्या हुआ ?
वामपंथी इतिहासकार राजपूतों के 800 साल के शासन का चन्द लाइनों में जिक्र करते हैं और अलाउद्दीन खिलजी की चित्तौड़ जीत का खूब बखान करते हैं. जबकि अलबरुनी और अमीर खुसरो के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ की लड़ाई को अपनी जीत नहीं बल्कि हार मानता था और अपने सामने चित्तौड़ का जिक्र भी पसंद नहीं करता था.
खिलजियों का इतिहास कोई बहुत बड़ा नहीं है. सारे खिलजियों ने कुल मिलाकर केवल 30 बर्ष (1290 से 1320) तक ही राज किया था. खिलजियों का राज केवल धोखेबाजी, आपस में एक दुसरे का क़त्ल करके सत्ता हाशिल करना, दूसरों के राज्यों पर हमला कर उन पर कब्ज़ा करना और उनकी स्त्रीयों को उठाकर अपने हरम लाना, उनका शौक था.
जवाहर लाल नेहरु की किताब "भारत :एक खोज" के अनुसार केवल अलाउद्दीन के हरम में ही 1600 पत्निया और उनकी 5000 बन्दिया थी. उसका शौक उनके साथ एयासी करना भी नहीं था बल्कि हिन्दुओं के मान सम्मान को कुचलना था. एयासी के लिए वो उन स्त्रीयों के सामने ही मालिक काफूर के साथ समलैंगिक सम्बन्ध बनाता था.
अब बात करते हैं खिलजी सल्तनत की. खिलजी वंश का पहला सुलतान था "जलालुद्दीन फ़िरोज़ खिलजी". वह गुलाम वंश के अंतिम शासक "कय्यूम" का सिपहसालार था. जलालुद्दीन, 1290 में कय्यूम की हत्या कर दिल्ली का सुलतान बन गया.था.सुलतान बन्ने के बाद उसने 1291 में रणथम्बौर पर हमला किया लेकिन उसमे बुरी तरह पराजित हुआ.
1292 में मंगोल आक्रमणकारी (जो हलाकू का पौत्र था) ने डेढ़लाख की खूंखार फ़ौज के साथ भारत पर हमला किया. जलालुद्दीन खिलजी के भतीजे अलाउद्दीन खिलजी ने बड़ी बहादुरी से मंगोलों के इस हमले को नाकाम कर दिया. अलाउद्दीन ने चंगेज खान के एक नाती "उलगु" को अपने साथ मिलाकर उसे मंगोलों के खिलाफ इस्तेमाल किया.
जलालुद्दीन ने अपनी एक बेटी की शादी "उलगु" के साथ कर दी. मंगोलों से गद्दारी कर "उलगु" अपने 400 साथियों के साथ भारत में रह गया और उसने इस्लाम कबूल कर लिया. जलालुद्दीन ने उन मंगोल से मुस्लमान बने उन मंगोनो को रहने के लिए दिल्ली के समीप 'मुगरलपुर' नाम की बस्ती बसाई. इन लोगों को "नवी मुसलमान" कहा जाता था.
अपने चाचा जलालुद्दीन की आज्ञा से अलाउद्दीन ने देवगिरी और भिलसा पर हमला किया और वहां भयानक मारकाट मचाकर अपार सम्पत्ति लूटकर लाया. इससे जलालुद्दीन अपने भतीजे से बहुत खुश हुआ.. अपने चाचा की सल्तनत का जायज वारिस बनने के लिए, उसने अपने चाचा जलालुद्दीन की बदसुरत बेटी मेरुन्निशा से विवाह किया.
22 अक्टूबर 1296 को अपने चाचा और ससुर से गले मिलते हुए, उसने धोखे से अपने चाचा जलालुद्दीन की हत्या कर दी और खुद दिल्ली का सुलतान बन गया. अपनी सत्ता को स्थाई बनाने के उद्देश्य से उसने अपने चचेरे भाइयों, भतीजों और भांजों की भी हत्या कर दी. वह अपने हर संभावित दुश्मन को ख़त्म करता चलता था.
अलाउद्दीन ख़िलजी ने 1299 ई. में गुजरात के सफल अभियान के बाद, धन के बंटवारे में हुए विवाद के बाद, नुसरत ख़ाँ के द्वारा ‘नवी मुसलमानों’ को मरवा दिया. अलाउद्दीन के भतीजे "अकत ख़ाँ" ने अपने मंगोल रिश्तेदारों के सहयोग से अलाउद्दीन पर प्राण घातक हमला किया, अलाउद्दीन ने उसको पकड़ लिया और उसकी भी हत्या कर दी.
तीसरा विद्रोह अलाउद्दीन की चचेरी बहन (जिसका विवाह चंगेज खान के मगोल नाती से हुआ था), के बेटों (मलिक उमर एवं मंगू ख़ाँ) की भी हत्या करने में अलाउद्दीन कामयाब रहा. चौथा विद्रोह जलालुद्दींन के पुराने बफादार दिल्ली के हाजी मौला द्वारा किया गया, जिसका दमन अलाउद्दींन के सेनापति "सरकार हमीदुद्दीन" ने कर दिया.
इस प्रकार जिन मंगोलों का दमन करने का जिक्र करके, इतिहासकारों द्वारा अलाउद्दीन खिलजी को बार बार महान बताने का प्रयास किया जाता है वो मंगोल भी कोई और नहीं बल्कि उसके बहनोई और भांजे ही थे. इसके आलावा वो मंगोल थे जो इस्लाम को कबुलकर "नवी मुसलमान" बन चुके थे.

चित्तौड़गढ़ : भाग-3 (चित्तौडगढ़ का पहला शाका और जौहर )

चितौडगढ़ पर राणा रतनसेन का राज था. चित्तौड़ के महाराज रत्नसिंह की महारानी पद्मिनी अत्यंत सुन्दर थी तथा उनकी सुन्दरता की ख्याति दूर दूर तक फैली हुई थी, अत्यंत रूपवती होने के साथ साथ वे अत्यंत बुद्धिमान साहसी और स्वाभिमानी थीं. राज्य के संचालन में वे अपने पति को पूर्ण सहयोग दिया करती थीं.
महारानी पद्मिनी के बारे सुनकर दिल्ली का तत्कालीन, अधर्मी सुलतान अल्लाउद्दीन खिलजी, महारानी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उस कामांध दुराचारी ने विशाल सेना के साथ चितौड़गढ़ के दुर्ग पर एक चढ़ाई कर दी. लेकिन कई महीने तक घेरा डालने के बाबजूद उसका कोई सैनिक किले के आस पास तक नहीं पहुँच सका.
तब अलाउद्दीन खिलजी ने अपना स्वाभाविक कमीनापन दिखाते हुए राणा रतनसिंह तक अपना सन्देश भिजवाया कि - “हम आपसे मित्रता करना चाहते है. हमने आपकी महारानी की सुन्दरता के बारे में बहुत सुना है इसीलिए यदि हमें सिर्फ एक बार अपनी महारानी का चेहरा दिखा दीजिये. फिर उसके बाद हम अपना घेरा उठाकर दिल्ली लौट जायेंगे.
सन्देश सुनकर रत्नसिंह आगबबुला हो उठे लेकिन रानी ने उनको समझाया कि -”मेरे कारण व्यर्थ ही चितौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है. तब राणा ने बीच का रास्ता निकालने का प्रस्ताव भेजा कि - रानी का चेहरा आईने में दिखाया जा सकता है. अल्लाउद्दीन भी समझ चुका था कि लड़कर जीतना मुश्किल है इसलिए तैयार हो गया.
चितौड़ के किले में अल्लाउद्दीन खिलजी का स्वागत रत्नसिंह ने किसी अतिथि की तरह किया.रानी पद्मिनी के महल की खिडकी के सामने वाली दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया और रानी को आईने के सामने बिठाया गया. महारानी का सौन्दर्य देख देखकर अल्लाउद्दीन चकित रह गया और एक कुटिल चाल चलने की तैयारी कर ली.
वह राणा से मित्रवत बातें करने लगा और कहने लगा कि- मैं कल दिल्ली चला जाउंगा और अब आप हमारे मित्र हैं, आपने हमारा बहुत शानदार स्वागत किया है आप भी हमारे यहाँ अतिथि बनकर आइये. राणा रत्नसिंह किले के बाहर निकल कर अगले दिन उसके शिविर में गए और वहां पर खिलजी की फ़ौज ने राणा को गिरफ्तार कर लिया.
खिलजी ने किले में सन्देश भेजा कि - अगर राणा को ज़िंदा वापस चाहते हो तो महारानी को मेरे हवाले कर दो. इस पर राजपूतों का खूनखौल उठा. मगर महारानी ने बुद्धिमानी से काम लिया. रानी ने सन्देश भेजा कि मैं अकेली नहीं आउंगी बल्कि मेरे साथ मेरी सात सौ दासियाँ भी आएँगी जो हर समय मेरी हर जरूरत का ध्यान रखती हैं.
इस पर वो कामांध अधर्मी और ज्यादा खुश हो गया. तब चित्तौड़ के एक सरदार "गोरा" के नेत्रत्व में एक काफिला तैयार हुआ. सात सौ पालकियां तैयार की गई उन सब मे स्त्री वेश में एक एक सिपाही और हथियार रखे. प्रत्येक पालकी को उठाने के लिए चार सैनिक कहार बन कर लग गए. रानी की पालकी में "बादल" रानी बनकर बैठा. .
जब सारी पालकियां अल्लाउदीन के शिविर के पास आकर रुकीं तो उनमे से राजपूत वीर अपनी तलवारों सहित निकल कर यवन सेना पर अचानक टूट पड़े . इस तरह हुए अचानक हमले से अल्लाउद्दीन की सेना हक्की बक्की रह गयी. पद्मिनी और गोरा-बादल ने राणा रत्नसिंह को अल्लाउद्दीन की कैद से मुक्त करा लिया लेकिन गोरा और बादल मारे गए.
इस हार से अल्लाउद्दीन बुरी तरह से बौखला गया. उसने दिल्ली की सारी सेना के साथ किले को पुनः घेर लिया. छ:माह से ज्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण किले में खाद्य सामग्री का अभाव हो गया. तब राणा रत्न सिंह , सहित सभी राजपूत सैनिकों ने शाका और रानी पद्मिनी सहित राजपूतानी वीरांगनाओं ने जौहर करने का निश्चय किया.
18 अप्रेल 1303 के दिन राजपूत केसरिया बाना पहन कर, अंतिम युद्ध के लिए तैयार हो गए और रानी पद्मिनी के नेतृत्व में 16000 राजपूत सतियों ने अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया. महाराणा रत्न सिंह के नेतृत्व में 30,000 राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे सिंहों की तरह उस दुराचारी खिलजी की सेना पर टूट पड़े.
उस युद्ध में सभी 30000 राजपूत सैनिक तथा एक लाख से ज्यादा मुस्लिम सैनिक मारे गए. युद्ध में जीत के बाद जब खिलजी ने चित्तौड़ के किले में प्रवेश किया, तो सतियों की चिताओं और राजपूतों के शवों के सिवा कुछ नहीं मिला. रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और महारानी पद्मिनी ने भारत के स्वाभिमान की रक्षा की खातिर आत्मदाह कर लिया.

इस के बाद चित्तौड़गढ़ के सुनसान किले पर अलाउद्दीन खिलजी का कब्ज़ा हो गया. कहा जाता है कि - अलाउद्दीन खिलजी को केवल राजपूतानियों की चिताओं की राख से ही, लगभग 20 मन सोना प्राप्त हुआ था. सोना लूटकर अलाउद्दीन खिलजी ने किले का अधिकार अपने बेटे "खिज्र खान" को सौंप दिया और खुद दिल्ली वापस चला गया.

चित्तौड़गढ़ : भाग-2 (चित्तौड़गढ़ किले का निर्माण)

चित्तौड़ का जिक्र महाभारत काल में मिलता है. ऐसा माना जाता है कि- महाभारत में वर्णित "मध्यमिका नगरी" ही चित्तौड़ है. ऐसा माना जाता है कि- पारसमणि की तालाश में भीम यहाँ पहुंचे थे. एक तांत्रिक ने उनको कहां कि तुम अगर यहां केवल एक रात्रि में किला बना दो तो मैं तुमको "पारस मणि" दिलाने में मदद करूँगा.
पांडव भाइयों ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति को लगाकर रातोंरात किले का निर्माण कर दिया, सिर्फ दक्षिण का कुछ हिस्सा बाक़ी रह गया था. तांत्रिक को लगा कि- अगर यह किला सुबह तक बन गया तो उनको पारसमणि न दिला पाने पर वह झूठा साबित हो जाएगा. इसलिए रात्रि के तीसरे प्रहर में ही वह मुर्गे का रूप रखकर बांग देने लगा.
उसकी बांग को सुनकर भीम को लगा कि - उनका काम पूरा नहीं हुआ है और सुबह हो गई है इसलिए उन्होंने काम रोक दिया. कुछ समय बाद जब भीम को यह पता चला कि तांत्रिक ने उनसे छल किया था तो उन्होंने एक स्थान पर गुस्से में बहुत जोर से लात मार दी. वहां से पानी निकलने लगा. उस स्थान को आज भी भीमलात ताल कहते हैं.
वर्तमान किला 7वीं सदी में राजा चित्रांगद द्वारा बनबाया गया था. चित्रांगद अपने आपको चंद्रगुप्त मौर्य का वंशज मानते थे. चित्रांगद के नाम पर ही इस गढ़ का नाम चित्रगढ़ पड़ा, जो बाद में चितौड़गढ़ हो गया. कुछ बर्षों के खिलजी और बहादुर शाह के कब्जे को छोड़ दिया जाए तो यह किला 834 साल तक यह मेवाड़ की राजधानी बना रहा.
800 साल से ज्यादा तक चित्तौड़ पर राजपूतों का अधिकार रहा और चित्तौड़ मेवाड़ की राजधानी बना रहा. बीच में कुछ समय के लिए इस्लामी हम्लाबर खिलजी और बहादुर शाह का कब्ज़ा अवश्य हुआ लेकिन जल्द ही राजपूतों ने उनको वहां से मार भगाया और चित्तौड़ से हरे झंडे को उतार कर वहां भगवा झंडा फहरा दिया.
8वी सदी में यह किला गुहेल वंश के बाप्पा रावल को दहेज़ के रूप में प्राप्त हुआ. तबसे लेकर 15वीं सदी तक गुहिलों / सिसोदियों की राजधानी बना रहा. 8 वी सदी से लेकर 1557 तक विबिन्न सिसोदिया राजाओं ने चित्तौडगढ़ से मेवाड़ का शासन चलाया. 1303 में चित्तौड़ पर किले पर अलाउद्दीन खिलजी का कब्जा हो गया था, जिसकी एक रोचक गाथा है.

चित्तौड़गढ़ : भाग-1 (भूमिका)

हमारे देश के सरकारी इतिहासकारों ने यह तो लिखा है कि- चित्तौड़ को तीन बार मुसलमानों द्वारा राजपूतों से जीता गया. बताया जाता है कि -1303 में अलाउद्दीन खिलजी ने राणा रतनसेन से जीता, 1535 में बहादुर शाह ने बिक्रमजीत सिंह को पराजित किया और 1557 में अकबर ने महाराणा उदयसिंह को पराजित किया था.
लेकिन यह नहीं बताया जाता है कि - जब एक बार मुस्लिम आक्रमणकारी ने जीत लिया तब कुछ साल बाद वहां दुसरे मुस्लिम आक्रमणकारी ने वहां किसी राजपूत राजा को कैसे हराया? उस समय अगर वहां पर फिर से राजपूतों का राज था तो जाहिर सी बात है कि - किसी राजपूत राजा ने उस मुस्लिम हमलावर को हराकर फिर से किला जीत लिया होगा.
अगर राजपूतों ने उन मुस्लमान हम्लावारो को हराकर वहां से खदेड़ा नहीं था तो उनका दोबारा वहां पर कब्ज़ा कैसे हो गया. दरअसल इन वामपंथी इतिहासकारों का उद्देश्य ही यही है कि - वे भारतीयों की हार और विदेशी हमलावरों की जीत का जिक्र करके, भारतीयों के मन में हीन भावना भरते रहें और भारतीयों अपने अतीत पर गर्व न करने दें.
यह हाल केवल चित्तौडगढ़ को लेकर ही नहीं है बल्कि सम्पूर्ण भारत के इतिहास को लेकर ही है. पूरे भारत पर मुघलों का कब्जा भी बताया जाता है और साथ ही समय समय पर भारतीय राजाओं से मुघलों के युद्ध का भी जिक्र होता है, अगर सारे भारत पर ही मुघलों का राज था तो जिन हिन्दू राजाओं से उनके युद्ध हुए वो क्या मंगल गृह पर रहा करते थे ?
मैं हमेशा ही ऐसी गाथाओं को सामने लाने का प्रयास करता रहा हूँ जिनसे भारत के महान लोगों की महानता का पता चलता है. अपनी अगली कुछ पोस्ट्स में मैं चित्तौड़गढ़ के इतिहास पर लिखने का प्रयास करूँगा. यह गढ़ कब और किसने बनाया. यहां किस हमलावर ने कब्ज़ा किया और किस भारतीय ने उसको हराकर फिर अपना कब्ज़ा वहाल किया.