Saturday, 7 October 2017

खजुराहो

खजुराहो भारत के मध्य प्रदेश प्रान्त में स्थित एक प्रमुख शहर है जो अपने प्राचीन एवं कलात्मक भवनों के लिये विश्वविख्यात है. खजुराहो का इतिहास लगभग एक हजार साल पुराना है. यह शहर चन्देल साम्राज्‍य की प्रथम राजधानी था. खजुराहो के मंदिरों का निर्माण 950 ईसवीं से 1050 ईसवीं के बीच चन्देल राजाओं द्वारा किया गया था.

खजुराहो में यूं तो अनेकों ऐसे प्राचीन भवन और मंदिर हैं जिनको वास्तुकला का असाधारण नमूना कहा जा सकता है, लेकिन खजुराहों की प्रसिद्धि की मुख्य बजह वह भवन हैं जिनमे संभोग की विभिन्न मुद्राओं को कलात्मक रूप से उभारा गया है. दुनिया भर के पर्यटक, "प्रेम" के इस अप्रतिम सौंदर्य के प्रतीक को देखने के लिए, निरंतर आते रहते है.

भारत और भारतीय संस्क्रति के दुश्मन, इन भवनों और उनमे बनाई गई मूर्तियों को लेकर, अक्सर भारतीय संस्क्रति का अपमान भी करते रहते हैं जबकि सारा विश्व इन्हें दुनिया को भारत की अनमोल देन मानता है. खजुराहो के भवनों में जो दिखाया गया है वह भी जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसको आमतौर पर खुले आम प्रदर्शन नहीं होता है.

तब इन भवनों को बनाने का आखिर क्या उद्देश्य रहा होगा ? हमें गर्व है कि भारत में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को जान्ने और समझने की निरंतर प्रिक्रिया चलती रहती आई है. हमारी संस्क्रति में "काम" को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है. इसको सबसे बड़े "पुरुषार्थ" में भी गिना जाता है और इसे जीवन की सबसे बड़ी "बुराई" भी माना जाता है.

हमारे पूर्वजों ने जीवन के प्रत्येक अंग का गहन अध्यन किया है. जीवन का विस्त्रत अध्यन करने के बाद उन मनीषियों ने प्रत्येक मनुष्य के लिए चार पुरुषार्थ ( धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष ) बताये हैं. "काम" के महत्त्व को समझते हुए इसे जीवन का एक महत्वपूर्ण पुरुषार्थ कहा गया है. क्योंकि काम के द्वारा ही स्रष्टि, आगे से आगे चलती है.

इसी प्रकार जिन चार बुराइयों ( काम, क्रोध, लोभ और मोह) को सबसे ज्यादा विनाशकारी बताया गया है उन चार महा बुराइयों मे भी "काम" को रखा गया है. अर्थात "काम" जब तक सृजन के लिए है तब तो वह एक पुरुषार्थ है और अगर यही "काम" अनियंत्रित होकर कामंधता में बदल जाए तो महाविनाशकारी भी हो जाता है.

खजुराहो के भवनों में इसी "कामकला" को सिखाया गया है. सभी बड़े भवनों को आमतौर पर मदिर भले ही कह दिया जाता हो लेकिन यह भवन वास्तव में कोई उपासना स्थल नहीं है और न ही यहाँ कोई पूजा पाठ करने जाता है. यह एक तरह से प्राचीन काल के "हनीमून प्वाइंट" जहां लोग "क्वालिटी टाइम" बिताने और कुछ सीखने आते थे.

इन भवनों के साथ मंदिर शब्द जोड़कर, वो असभ्य और बर्बर जातियां, भारतीय संस्क्रति का सबसे ज्यादा मजाक उडाती हैं जिनके यहाँ कामान्धता धर्म का हिस्सा है. जिनके यहाँ औरत को इंसान तक नहीं समझा जाता है. लड़ाई में शत्रु को हराने के बाद शत्रु के परिवार की स्त्रियों को सताना, जहां जीत की निशानी समझा जाता है.

खजुराहो के यह भवन दुनिया भर के लोगों को "कामज्ञान" देने और "छुट्टी मनाने" के लिए जाने के स्थल हैं न की कोई उपासना स्थल. यह मनोरंजन के स्थल है तीर्थस्थल नहीं है. इनका अपना बहुत बड़ा महत्त्व है. पति पत्नी को एक साथ एक बार यहाँ अवश्य जाना चाहिए और मनोरजन के साथ प्राचीन "काम ज्ञान" को समझना चाहिए.

इसका महत्त्व वो लोग नहीं समझ सकते जिनके यहाँ लोग सत्ता के लिए अपनी 9 साल की बेटी को 54 साल आदमी को सौंप देते हैं, इस बर्बर समुदाय के लोग भले ही खजुराहो के भवनों को लेकर भारतीय संस्क्रति का मजाक उड़ाते हो लेकिन यह हकीकत है कि - इंटरनेट पर अश्लील चित्र और फिल्मे देखने में भी यही लोग सबसे आगे हैं.

Monday, 18 September 2017

एक था "पर्शिया"

एक देश था पर्शिया. वहां के लोग बहुत ही शांतिप्रिय थे, वे लोग संत "जरथुस्त्र" के अनुयाई थे. जरथुस्त्र का समय 1500 ई.पू. का माना जाता है. यह लोग अग्नि की पूजा करते थे. यह लोग केवल व्यापार में लगे रहते थे, इनका लड़ाई झगडे से कोई वास्ता नहीं था. लगभग सारी दुनिया में इनका व्यापार फैला हुआ था.
हम लोग जिस "पारस" पत्थर की कहानिया पढ़ते सुनते आये हैं कि - पारस के छूने से मिट्टी भी सोना बन जाती है, वो दरअसल पारसियों की व्यापार नीति ही है. पारसी जिस चीज का भी व्यापार करते उसमे तरक्की करते हैं. समुद्री और जमीनी रास्तों से इन्होने अपने व्यापार को लगभग सारी दुनिया में पहुंचा दिया था.
दुनिया के सबसे संपन्न लोगों में इनकी गिनती होती थी. लगभग 2200 साल तक परसिया ने बहुत तरक्की की. इसी बीच एक 7वीं शताव्दी में अरब में एक नहीं बिचारधारा का जन्म हुआ, जिसका नाम था इस्लाम. इसके कुछ अनुयायी भी पर्शिया में भी आये. पारसी बहुत खुश थे कि - उनको बहुत सस्ते मजदूर मिल रहे हैं.
पारसियों ने उनका दिल खोलकर स्वागत किया. उनको अपने यहाँ अच्छे से रखा. धीरे धीरे उनकी संख्या बढ़ने लगी, पारसियों ने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया. धीरे धीरे वहां लड़ाई झगडे शुरू हो गए. लेकिन अमीर पारसी सोंचते थे कि- जमीन और धन तो हमारा ही है ये लोग तो हमारे सस्ते नौकर हैं इनसे हमको क्या खतरा.
पारसियों के पास धन तो बहुत था लेकिन सेना नहीं थी, शान्तिप्रिय व्यापारी होने के कारण वो इसकी जरूरत ही महेसूस नहीं करते थे. कुछ बर्षों में वहां मुस्लिम्स की संख्या बहुत ज्यादा बढ़ गई. इसी बीच अरबों और तुर्कों ने पर्शिया पर बर्बर हमले करने शुरू कर दिये. पारसियों का बड़े पैमाने पर कत्लेआम हुआ और उनकी सम्पत्ति छीन ली गई.
ज्यादातर पारसियों ने अपनी जान बचाने के लिए धर्मपरिवर्तन कर लिया लेकिन कुछ पारसी अपनी जान बचाने के लिए भारत जाने में कामयाब रहे. भारत ने उनको शरण, सुरक्षा और व्यापार का मौक़ा दिया. उन पारसियों ने भी अपने व्यापार कौशल का भारत में भी इस्तेमाल किया और भारत की तरक्की में अपना भरपूर योगदान दिया.
पर्शिया अब पारसियों का देश नहीं रहा. वह एक इस्लामी देश "ईरान" बन चूका था. पारसी धर्म के प्रतीक वहां सदियों तक विधमान रहे. 1979 में "अयातुल्ला खोमैनी" ने इस्लामिक रेवलूशन के नाम पर, जोरोऐस्ट्रेनियन पूजास्थलों के प्रतीकों में आग लगा दी और मूर्तियों को तोड़कर उनकी जगह अयातुल्ला खोमैनी की तस्वीरें लगा दी.
अरब के मुसलमान आज भी अपने आपको सच्चा मुसलमान तथा पर्शिया के मुसलमानों को हुए शिया मुसलमान मानते हैं. इन्ही मतभेद के कारण सऊदी अरब (सुन्नी) और ईरान (शिया) के बीच टकराव हर काल में ही होता रहा है. अरब के लोग अन्य मुल्कों के गैर सुन्नी लोगों को मुसलमान तक नहीं मानते हैं.
वे शियाओं को तो इस्लाम से खारिज तक ही कर देते हैं. कुछ बर्ष पहले सऊदी किंग द्वारा स्थापित इस्लामिक ऑर्गेनाइजेशन के चीफ और सऊदी अरब के सबसे बड़े धर्मगुरु मुफ्ती अब्दुल अजीज अल-शेख ने घोषणा कर दी थी कि - ईरानी लोग मुस्लिम नहीं हैं. क्योंकि वे मेजाय (पारसी) के बच्चे हैं इसलिए इनकी सुन्नियों से पुरानी दुश्मनी है.

"शिया" शब्द भी संभवता "पर्शिया" से ही आया है. अरब के सुन्नी मुसलमान , ईरान के शिया मुसलमानों को दोयम दर्जे का मुसलमान मानते हैं. पापिस्तान, बंगालदेश, भारत, आदि  के मुसलमानो को तो अपनी बराबरी का समझते ही नहीं. ये लोग चाहे कितने भी संपन्न क्यों न हो जाएँ, अरब में सुन्नी अरबी की लड़की से शादी नहीं कर सकते. 
हमें भी दूसरों की गलती से सबक लेना चाहिए.

Saturday, 2 September 2017

धर्म और जीवन

मनुष्य ने प्रारम्भ से ही प्रकति को समझने का प्रयास कर दिया था. जहाँ अन्य जीव जंतुओं का उद्देश केवल भोजन और संतान ब्रद्धि था, वहीँ मनुष्य प्रक्रति के रहस्यों को समझने का प्रयास जारी रखा. जीवन की उत्पति कैसे होती है और म्रत्यु के बाद क्या होता है इस रहस्य को समझने के लिए अनेकों सिद्धांत प्रतिपादित किये.
भगवान् ने मनुष्य को बनाया है या मनुष्य ने भगवान् को बनाया है यह भी एक पुराना विवाद है. आस्तिक लोगों का मानना है कि - स्वर्ग अथवा सातवें आसमान पर बैठे, भगवान् / अल्ला ने स्रष्टि की रचना की और स्वयं अवतार लेकर अथवा अपने मैसेंजर भेजकर मनुष्य को जीवन जीने का ज्ञान दिया,
जबकि नास्तिक लोगों का मानना है कि - मनुष्य ने एक सुपरपावर भगवान की कल्पना की है और जो बात उसे समझ न आये वो उसे भगवान पर छोड़कर निश्चिन्त हो जाता है. जब तक जिस घटना का रहस्य समझ न आये उसे ईश्वर या देवता मान लेते हैं जब विज्ञान उसका रहस्य खोज लेता है तब उसे विज्ञान मान लेते हैं.
जब तक यह नहीं पता था कि - बारिस कैसे होती है तब तक के लिए बर्षा के लिए "इंद्र" की कल्पना कर ली गई, आज जब बर्षाचक्र समझ आ गया तो चर्चा इंद्र के बजाय मानसून की होती है. सुस्र्ज और चंद्रमा जब तक रहस्य थे तब उनको देवता मान लिया गया, जब उनकी गति समझ आ गई विज्ञान का हिस्सा बन गए.
आस्तिकों में भी भगवान् की तरह तरह की परिकल्पनाए हैं. किसी का मानना है कि - कोई साकार ब्रह्म है जो स्वर्ग में बैठकर धरती की गतिबिधियों का नियंत्रण करता है और स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाने पर, खुद धरती पर अवतार लेता है और मानवीय रूप में जन्म लेकर मर्यादाओं को पुनर्स्थापित करता है
तो किसी का मानना है कि ईशवर निराकार है और वो अपने किसी विशेष दूत के द्वारा धरती पर सन्देश भेजकर व्यवस्था को बनाता है. यहाँ तक कोई विवाद नहीं है सभी अपने अपने तरीके से जीवन के रहस्य को समझने का प्रयास कर रहे हैं. विवाद तब शुरू होता है जब लोग अपने बिचार दूसरों पर थोपना शुरू करते हैं.
सूरज, चाँद, धरती, पहाड़, नदी, बर्षा, भूकंप, आदि जैसी जिन चीजों का रहस्य विज्ञान खोज चुका है उस पर तो विवाद का कोई कारण रह ही नहीं जाता है, चाहे आपके प्राचीन ग्रंथों में उसपर कुछ भी क्यों न लिखा हो. जीवन और म्रत्यु का रहस्य जब तक न समझ आये तब तक उसे जैसे चाहे माने लेकिन नये ज्ञान का रास्ता बंद न करें.
जीवन और म्रत्यु को लेकर यूं तो बहुत सारी अवधारणाएं है लेकिन दो सिद्धांत सवाधिक प्रचलित हैं. एक सनातन धर्म की पुनर्जन्म की अवधारणा और दुसरी इस्लाम की कयामत वाली अवधारणा. चाहे पुनर्जन्म की अवधारणा हो या कयामत की अवधारणा दोनों का उद्देश्य मनुष्य को अच्छे कर्म के लिए प्रेरित करना है.
जहाँ पुनर्जन्म की अवधारणा में यह बताया जाता है कि इस जन्म में जैसी कर्म करोगे अगले जन्म में उसके वैसे ही फल मिलेंगे. वहीँ कयामत की अवधारणा यह कहती है जैसे कर्म करोगे उसका बैसा ही फल क़यामत वाले दिन मिलेगा. कुल मिलाकर दोनों ही अवधारणाओं का उद्देश्य मनुष्य को अच्छे काम करने की प्रेरणा देना है.
इसलिए जिस मान्यता को मानना है मानिए लेकिन दूसरों पर अपनी मान्यता जबरन थोपने की कोशिश न करें. अपनी अपनी मान्यता पर चलते हुए विज्ञान द्वारा इसका रहस्य खुलने का इन्तजार कीजिए. अगर पुनर्जन्म होता है तो न मानने के बाबजूद मुस्लमान का भी होगा और अगर नहीं होता है तो हिन्दू का भी नहीं होगा.
अगर क़यामत वाली अवधारणा सही है तो हिन्दू को भी उससे गुजरना होगा, चाहे वो इसे मानता हो या न मानता हो. हो सकता है विज्ञान इन सब प्रचलित मान्यताओं से अलग कोई नया और सर्वमान्य सिद्धांत ही खोज निकाले. इसलिए बिना विवाद किये विज्ञान के निष्कर्ष का इन्तजार कीजिए.

Friday, 1 September 2017

बेसलान स्कूल होस्टेज क्राइसेस

जेहादी आतंक से भारत सदियों से परिचित है, क्योंकि भारत इसे सदियों से झेलता आया है. यहाँ गजनी, गौरी, खिलजी, बाबर, अकबर, औरंगजेब, टीपू, नादिर, अब्दाली, दाऊद, कसाब, आदि के अनगिनत जुल्मो के किस्सों से भारत का इतिहास रक्त रंजित है. भारत जब भी दुनिया को अपने ऊपर हुए जुल्म के बारे में बताता था तो अमेरिका, रूस, जैसे शक्तिशाली और तथाकथित मानवाधिकारवादी(?) देश, भारत को ही संयम की सीख देने लगते थे.

जब पिछले दशकों में, शेष विश्व भी इस जेहादी आतंक की चपेट में आया, तब दुनिया को इस आतंक की भयावहता का अहेसास हुआ है. जब खुद उनपर जेहादी हमले हुए तब उन्हें भारत का दर्द समझ आया. यूँ तो दुनिया में एक से बढ़कर एक भयंकर जेहादी हमले हुए हुए हैं जिनमे लाखों लोग मर चुके हैं, लेकिन रूस के "बेसलान" के एक स्कूल में जिस तरह का हमला हुआ था, उसके बारे में सुनकर तो पत्थरदिल इंसान की भी रूह काँप जाती है.
रूस के एक शहर "बेसलान" में, बच्चो के एक स्कूल पर हुआ यह "जेहादी हमला", दुनिया का सब से बड़ा. क्रूर और दिल दहलाने वाला नरसंहार था. मासूम बच्चो के साथ किये गया यह "सेक्शुअल नरसंहार" इतना शर्मनाक और दर्दनाक था. कि - पूरी दुनिया सन्न रह गयी थी. इस घटना के बाद रूस से अपने यहाँ मुस्लिमो पर कई प्रतिबन्ध लगा दिए थे, लेकिन भारत में सरकार ने जनता तक इस घटना की पूरी जानकारी नहीं पहुँचने दी.
बच्चों के स्कूल पर हुआ यह "जेहादी" हमला "बेसलान स्कूल क्राइसेस" के नाम से कुख्यात है. 1 सितम्बर 2004 को "बेसलान" के एक स्कुल में, कुछ इस्लामी आतंकवादी अचानक घुस गए और घुसते ही पुरुषों का मार दिया, ताकि किसी तरह के प्रतिरोध की संभावना ना रहे. ये जेहादी आतंकी, आतंकवाद से भी ज़्यादा दरिंदगी दिखना चाहते थे. स्कूल में 3 से 8 साल तक बच्चे थे. वो जेहादी उन सभी बच्चों को स्कूल के जिम हॉल में ले गये.
इसके बाद बच्चों की चीखती आवाज़ें, इनके ज़ुल्म के आगे दब कर रह गयी. बारी बारी से 3 से 8 साल की एक एक बच्ची के साथ, कई कई आतंकवादियों ने बलात्कार किया. इन हैवानों ने न सिर्फ बलात्कार किया बल्कि बच्चों के गुप्तांगों में अपने बंदूक और अन्य वस्तुओं को घुसेड़ा और दूसरे सारे बंधक बच्चों को ये सब देखने को मजबूर किया गया. जितना बच्चों से खून निकलता, ये हैवान उतनी ही ज़ोर जोर से कहकहे लगाते थे.
हथियार के गुप्तांगों में डालने के वजह से, हथियार भी खून से सन गये थे. इस सब से भी उन जालिमो का जी नहीं भरा तो उन छोटे-छोटे बच्चों को बुरी तरह पीटा भी. बहुत सारी बच्चियां ब्लीडिंग और दर्द की वजह से उसी समय मर गयी. जेहादियों ने मासूम बच्चों को खूब लहू लुहान किया और खूब ठहाके लगाए . जैसे-जैसे समय बीता उनके ज़ुल्म और बढ़ते गये. बच्चों के पानी मांगने पर पानी की जगह, अपना पेशाब पीने पर मजबूर किया.
आतंकवादियों ने बच्चों के सामने पानी के बर्तन को रख दिया और कहा जो इसको पीने आएगा उसको मैं गोली मार दूँगा. इसके बाद बच्चों को मे अपनी मौत का ख़ौफ़ समा गया . बच्चे डर कर चिल्ला भी नही पा रहे थे क्योकि ऐसा करने पर उनको मारा पीटा जाता. अब तक स्कूल के बाहर भीड़ लग चुकी थी. आतंकी अंदर से खड़े हो कर नगरवासियों पर कॉमेंट करते हुए अंडे फेंकते और हँसते थे. बच्चों के उपर इनकी क्रूरता लगातार जारी रही.
रात को जेहादियों ने इन्ही मजबूर मासूम बच्चों से कहा कि - वो नंगे, खून से सने और मरे हुए, बलात्कार के शिकार बच्चों की लाशों को, घसीटकर पीछे फेंक कर आयें. इस बीच रशियन सैनिकों ने स्कूल को घेर लिया और पहले उनसे समझौते की कोशिशें की जिससे बच्चों को बचाया जा सके. आतंकियों ने साफ कर दिया था कि - अगर गैस का इस्तेमाल हुआ या बिजली काटी गयी तो वो तुरंत बच्चों को मार देंगे.
इस बीच रूस की सब से अच्छी फोर्स "Alpha and Vympel" आ चुकी थी. रूसी विशेष बलों ने विभिन्न तकनीकों का उपयोग करते हुए स्कूल पर हमला कर दिया . इस हमले में टैंक, बंदूक, बम, राकेट्स , सभी इस्तेमाल किये गए. स्पेशल फोर्स के कमांडोज ने अपनी जान पर खेल कर हमला किया लेकिन उस अभागे दिन सिर्फ़ रक्तपात के सिवा कुछ भी हासिल नही हो पाया. 334 लोग मारे गये, जिस मे से 186 छोटे-छोटे मासूम बच्चे थे.
247 बच्चे जो गंभीर रूप से घायल थे, उनको इलाज के लिए मास्को भेजा गया. सुरक्षा बल के सैनिक भी मारे गये थे. बच्चों की लाशें और उनकी दुर्दशा को देख कर उनके माँ बाप के चीख पुकार और रोने की आवाज़ से पूरा इलाक़ा दहल उठा. जो बच्चे स्कूल से निकल रहे थे सब खून से सने हुए थे. लाशों के ढेर लगे थे. ऐसा घिनौना काम केवल शैतान ही कर सकते हैं. भारत के इतिहास में भी ऐसी क्रूरता की कहानिया शैतानों से ही जुडी हुई है.
गुरु गोविन्द सिंह के बच्चों को ज़िंदा दीवार में चुनवाना, मोतीराम मेहरा के बच्चों को कोल्हू में पेरना, बन्दा बहादुर के बेटे को बाप की आँखों के सामने काटकर, बेटे का दिल निकाल कर बाप के मुह में जबरन ठूंसना, इस्लाम कबूल न करने वाले माँ-बाप के बच्चों को काटकर उनके अंगों की माला बनाकर माँ-बाप के गले में डालना, माँ की गोद से बच्चे को छीनकर बच्चे को उछालकर बल्लम की नोक पर लेना तो, भारत ने भी देखा है.
मैंने उस वीभत्स घटना को साधारण शब्दों में लिखा है , और ज्यादा वीभत्स चित्र यहाँ नही डाले हैं. आप को एक बार गूगल पर जाकर "beslan school hostage crisis" लिखकर सर्च करना चाहिए. सर्च करते ही आपको उस घटना का विवरण और चित्र सामने आ जायेंगे.  उस घटना का विवरण और चित्र देखकर समझ आजाएगा कि ये जेहादी आतंकी की नीचता की किस हद तक जा सकते हैं.

Sunday, 13 August 2017

शास्त्री जी के इस्तीफे का सच

जब भी कहीं कोई दुर्घटना होती है तो लोग "लाल बहादुर शास्त्री" जी का उदाहरण देकर, उस विभाग के मंत्री का इस्तीफा मंगना शुरू कर देते हैं. क्या लाल बहादुर शास्त्री जी ने जिम्मेदार लोगों पर कार्यवाही करने और पीड़ितों को न्याय दिलाने की अपनी जिम्मेदारी निभाने के बजाय, जिम्मेदारी से भागकर कोई महान काम क्या था ?
कितने लोग ऐसे हैं जिनको उस दुर्घटना के बारे में पता है ? क्या आप बता सकते हैं कि यह दुर्घटना कब और कहाँ हुई थी ? इस दुर्घटना में कितने लोग मारे गए थे और सरकारी आंकड़ों में यह संख्या कितनी है ? वास्तव में दुर्घटना के जिम्मेदार कितने लोगों को सजा मिली थी ? शास्त्री जी के इस्तीफे से पीड़ितों को क्या मिल गया था ?
एक बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि - यहाँ मैं शास्त्री जी की क्षमता पर सवाल नहीं उठा रहा बल्कि नैतिकता के आधार पर इस्तीफे की बात कर रहा हूँ.क्या शास्त्री जी ने इस हादसे से दुखी होकर संन्यास ले लिया था और सत्ता छोड़ दी थी ? कहीं ऐसा तो नही कि शास्त्री जी के इस्तीफे की आड़ में सारे मामले को ही दबा दिया गया था ?
वो चर्चित रेल दुर्घटना 27 नवंबर 1956 को तमिलनाडु के अरियालुर में हुई थी. स्थानीय अखबारों और प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार उस हादसे में 500 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी, हालांकि सरकारी आंकड़ों में यह संख्या 142 बताई जाती है. इस बात की कहीं कोई जानकारी नहीं मिलती है कि किसी अधिकारी को इसमें सजा मिली हो.
पीड़ितों का कहाँ इलाज हुआ और उनको कितना मुआवजा मिला, इस मामले में कहीं भी कोई जानकारी नहीं मिलती है, जबकि शास्त्री जी के इस्तीफे की चर्चा सर्वत्र मिलती है. शास्त्री जी ने भी मात्र रेलमंत्री पद से इस्तीफा दिया था कोई राजनीति से संन्यास नहीं लिया था. रेलमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद भी बिना बिभाग के मंत्री के रूप में कबिनेट में बने रहे.
उस समय दूसरा आम चुनाव नजदीक था. विपक्ष ने "जीप घोटाला", "POK पर पापिस्तान का कब्जा", "तिब्बत पर चीन का कब्ज़ा", " संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थाई सीट दावा न करने", पापिस्तान से भारत आये विस्थापितों का सही पुनर्वास न होने, आदि जैसे मुद्दों पर नेहरू सरकार को घेर रखा था. उसी समय यह दुर्घटना घट गई.
दुर्घटना की नैतिक जिम्मरदारी लेते हुए शास्त्री जी ने रेलमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया. आपदा को अवसर में बदलते हुए कांग्रेस ने बड़ी चालाकी से दुर्घटना के बजाय शास्त्री जी के इस्तीफे को महानता में बदल कर, उसे चुनावी मुद्दा बना दिया. लोग दुर्घटना पर सवाल उठाने के बजाय इस्तीफे की बात करने लगे और कांग्रेस पार्टी को 1957 के लोकसभा चुनाव में भारी विजय मिली.
नैतिकता के आधार पर रेलमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले शास्त्री जी कुछ ही माह बाद परिवहन मंत्री बन गए. उसके साथ वे संचार मंत्री भी बने तथा बाद में वाणिज्य और उद्द्योग मंत्री बने. 1961 में गोविन्द वल्लभ पंत के देहांत के पश्चात वह गृह मंत्री बने तथा 1964 में प्रधानमंत्री नेहरूजी की म्रत्यु के बाद शास्त्री जी प्रधान मंत्री बन गए.

Wednesday, 9 August 2017

अंग्रेजों भारत छोडो आन्दोलन

सन 1942 में  9-अगस्त के ही दिन महात्मा गांधी ने "अंग्रेजो भारत छोडो आन्दोलन" का ऐलान किया था. आन्दोलन के पहले दिन से ही गांधी जी एवं उनके कई निकटवर्ती सहयोगी जेल के नाम पर सरकारी सुरक्षा में, विबिन्न पैलेसों और डाक बंगलों में चले गए थे, और वे लोग आन्दोलन की समाप्ति के बाद ही बाहर आये थे.
यह आन्दोलन शुरू होते ही कांग्रेस के हाथ से निकल कर, देश की जनता का क्रांतिकारी आन्दोलन बन गया था, जिन पर गांधी या कांग्रेस का कोई नियंत्रण नहीं था, गांधीजी के द्वारा अहिंसक आन्दोलन का आव्हान किया गया था, लेकिन देश के जोशीले युवाओं ने खुलकर अंग्रेजों के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन किये.
क्रांतिकारियों ने देशभर में हजारों पुलिस स्टेशन, रेलवे स्टेशन, डाक घर, सरकारी कार्यालयों एवं अंग्रेजों इत्यादि पर खुलकर हमले किये और उनको बहुत नुकशान पहुंचाया. सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस जनआन्दोलन में 940 लोग मारे गये, 1630 लोग घायल हुए,18,000 डी० आई० आर० में नजरबन्द हुए तथा 60,229 गिरफ्तार हुए थे.
दरअसल उन दिनों दूसरा विश्वयुद्ध (1939 से 1944 तक) चल रहा था जिसमे भारत के क्रांतिकारी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज में शामिल होकर अंग्रेजों पर हमले कर रहे थे. जो भारतीय आजाद हिन्द फ़ौज में शामिल में शामिल नहीं थे वे भी उसका समर्थन कर रहे थे और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को अपना आदर्श मानतेे थे.
1939 से 1944 तक चले दूसरे विश्वयुद्ध में अंग्रेजो को बहुत क्षति उठानी पडी थी, दूसरी तरफ सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज ने भी अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था. आजाद हिन्द फ़ौज ने जर्मनी और जापान के सहयोग से अंग्रेजों पर हमले तेज कर दिए थे और अंडमान -निकोवार को आजाद भी करा लिया था.
उस समय "सुभाष चन्द्र बोस" भारत के युवाओं के महानायक बने हुए थे. देश की जनता मानने लगी थी कि - गांधीजी की अहिंसा से कुछ नहीं होगा. "बोस" के रास्ते पर चलकर ही आजादी मिल सकती है. सुभाष चन्द्र बोस के नारे "तुम मुझे खून दो, मै तुम्हे आजादी दूँगा" तथा "दिल्ली चलो" ने देश की जनता में जोश भर दिया था.
ऐसे में मौके की नजाकत को भाँपते हुए 8 अगस्त 1942 की रात में गांधी जी ने, बम्बई से "अँग्रेजों भारत छोड़ो" का नारा दिया और गिरफ्तारी के नाम पर सरकारी सुरक्षा में "आगा खान पैलेस" में चले गये. 9 अगस्त का दिन चुनने की एक ख़ास बजह थी. 1925 में 9 अगस्त को काकोरी ट्रेन काण्ड हुआ था.
भारत छोडो आन्दोलन का श्रेय भले ही गांधी जी को दिया जाता है लेकिन इसमें भाग लेने वाले अधिकांश क्रांतिकारियों ने सुभाष चन्द्र बोस की उग्र बिचारधारा से साथ जबरदस्त क्रान्ति की थी. उन लोगों का सिद्धांत अंहिसा के साथ सविनय निवेदन करना नहीं बल्कि अंग्रेजों से युद्ध कर उनको मार भगाना था.
गांधी जी जेल (आगा खान पैलेस) से अक्सर अहिसा का आव्हान करते थे मगर युवा उसे अनसुना कर देते थे. भारत छोड़ो आंदोलन सही मायने में एक जन आंदोलन था. इसको गांधीजी और कांग्रेस ने शुरू अवश्य किया था. लेकिन इसमें भाग लेने वाले आन्दोलनकारी सुभाष चन्द्र बोस के आदर्श पर चलते थे.
आजाद हिन्द फ़ौज बाहर से सैन्य हमने कर रही थी और देश के अन्दर क्रांतिकारी अंग्रेजों को भारी नुकशान पहुंचा रहे थे. किन्तु दुर्भाग्यवश युद्ध का पासा पलट गया. जर्मनी ने हार मान ली और जापान को भी घुटने टेकने पड़े. सुभाषचन्द्र बोस की मौत की खबर (?) के साथ ही आजाद हिन्द फ़ौज का अभियान और भारत छोडो आन्दोलन समाप्त हो गया.
दुसरे विश्वयुद्ध, आजाद हिन्द फ़ौज और भारत छोडो आन्दोलन ने अंग्रेजों को इतना कमजोर कर दिया था कि उनको यहाँ से भागना पडा. भारत और हां, इस आन्दोलन के दौरान मुस्लिम लीग और अधिकाँश मुश्लिम नेता, क्रान्ति / आन्दोलन से दूर रहकर, अलग पापिस्तान की मांग में लगे रहे.

Friday, 4 August 2017

पं. दीनदयाल उपाध्याय

एकात्म मानववाद के प्रणेता, भारतीय जन संघ के संस्थापक सदस्य एवं अध्यक्ष "पं. दीनदयाल उपाध्याय" 
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प. दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर1916 को मथुरा जिले के छोटे से गाँव नगला चन्द्रभान में हुआ था. इनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय तथा माता रामप्यारी थीं. उनकी तीन बर्ष की आयु में उनके पिता का तथा 7 बर्ष की आयु में माता का निधन हो गया. उसके बाद उनका पालन पोषण उनकी ननिहाल में हुआ.
प.दीनदयाल उपाध्याय 
उन्होंने अपने से छोटी कक्षाओं के विद्यार्थियों को ट्यूशन पढाते पढ़ाते, अपनी शिक्षा को जारी रखा. आगरा, पिलानी, कानपुर, प्रयाग से बी. एस.सी. तक शिक्षा प्राप्त की तथा सिविल सेवा की परीक्षा भी उत्तीर्ण की लेकिन उन्होंने अंग्रेज सरकार की नौकरी नहीं की. वे देशवाशियों को जाग्रत करने के उद्देश्य से संघ के पूर्णकालिक प्रचारक बन गए.
उनकी राजनैतिक सुझबूझ से संघ के सरसंघ चालक "श्री गुरुजी" भी बहुत प्रभावित थे. उन्होंने संघ की बिचारधारा का प्रसार करने के लिए, राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य और स्वदेश जैसी पत्र-पत्रिकाएँ प्रारम्भ की. उन्होंने सभी तरह की बिचार धाराओं का अध्ययन करने के बाद, भारतीय परिवेश के अनुकूल "एकात्म मानववाद" का सिद्धांत दिया.
दीनदयाल उपाध्याय की अवधारणा थी कि - "देश की आजादी के बाद भारत के विकास का आधार, अपनी भारतीय संस्कृति हो, न कि अंग्रेजों द्वारा छोड़ी गयी पाश्चात्य विचारधारा. उनका कहना था कि -“वसुधैव कुटुम्बकम” हमारी सभ्यता और परम्परा है. उनका मानना था कि - केवल "सांस्कृतिक राष्ट्रवाद" ही समस्त भारत को एक रख सकता है.
प. दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार - "भारत में रहनेवाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह "एक जन" हैं. उनकी जीवन प्रणाली ,कला , साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है. इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है . इस संस्कृतिमें निष्ठा रहे, तभी भारत एकात्म रहेगा और मानवमात्र में भेदभाव ख़त्म होगा.
प. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के सिद्धांत के बिरोध में वामपंथी और पूजीवादी दोनों तरह की विदेशी बिचार धाराओं के लोग थे क्योंकि उन विदेशियों को भय था कि - भारतीय सनातन पद्धति से निर्मित, "सांस्क्रतिक राष्ट्रवाद" के सामने साम्यवाद और पूंजीवाद दोनों धराशाई हो जायेंगे और उनकी राजनीति ख़त्म हो जायेगी.
उनकी क्षमताओं को देखते हुए डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1951 में भारतीय जन संघ की स्थापना करते समय उनको पार्टी का महासचिव नियुक्त किया. कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के लिए किये गए आन्दोलन में डा. मुखर्जी की जेल में संदेहास्पद परिस्थितियों में म्रत्यु के बाद उन्होंने संगठन को आगे बढाने की जिम्मेदारी को उन्होंने बखूबी निभाया.
उन्होंने 15 वर्षों तक महासचिव के रूप में जनसंघ की सेवा की. भारतीय जनसंघ के 14वें वार्षिक अधिवेशन में प. दीनदयाल उपाध्याय को दिसंबर 1967 में कालीकट में जनसंघ का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया. 19 दिसंबर 1967 को दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष चुना गया,लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था.
11 फ़रवरी, 1968 की सुबह मुग़ल सराय रेलवे स्टेशन पर एक ट्रेन में प. दीनदयाल का निष्प्राण शरीर पाया गया. इसका पता चलते ही सारा देश दु:ख में डूब गया. भारतीय जनसंघ के नेताओं के अलावा, भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई, आदि ने भी उनको श्रद्धांजलि अर्पित की.
प. दीनदयाल उपाध्याय द्वारा डा. श्यामाप्रसाद जी के साथ मिलकर, "भारतीय जनसंघ" के रूप में लगाया गया पौधा, आज "भारतीय जनता पार्टी" जैसा विशाल ब्रक्ष बन चुका है, जिसको दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतक दल कहलाने का सौभाग्य मिला हुआ है. "भारतीय जनता पार्टी" की सोंच में उनका "एकात्म मानववाद" और "सांस्क्रतिक राष्ट्रवाद" ही है.

Monday, 31 July 2017

शहीद उधम सिंह

अमर बलिदानी उधम सिंह के बलिदान दिवस (31 जुलाई 1940) पर सादर श्रद्धांजली 
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फांसी देने से पहले उधम सिंह से पूंछा गया कि - तुम्हारी आख़िरी इच्छा क्या है ? इस पर उधम सिंह ने कहा कि - मेरी आख़िरी इच्छा थी जलियाँवाला बाग़ काण्ड का बदला लेना और मेरी वह इच्छा पूरी हो चुकी है अब आप मुझे फांसी पर लटका सकते हैं. बलिदानी उधम सिंह पर चर्चा करने से पहले हमें जलियांवाला बाग़ काण्ड को समझना चाहिए.

जालियाँवाला बाग, भारत के पंजाब प्रान्त के अमृतसर में, स्वर्ण मन्दिर के निकट है. 13 अप्रैल 1919 को रोलेट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियाँवाला बाग में लोगों ने एक सभा रखी थी, पंजाब के तत्कालीन गवर्नर "माइकल ओडवायर" ने "जनरल डायर" को आदेश दिया कि- वह भारतीयों को सबक सिखा दे.
"माइकल ओडवायर" के आदेश पर "जनरल डायर" ने यह काण्ड किया था. "जनरल डायर" ने 90 सैनिकों को लेकर जलियाँवालाबाग को चारों ओर से घेर लिया और सभा में उपस्थित लोगों पर अंधाधुँध गोलीबारी करवा दी, जिसमें सैकड़ों भारतीय मारे गए. जान बचाने के लिए बहुत से लोगों ने पार्क में मौजूद एक कुएं में छलांग लगा दी थी.
आधिकारिक रूप से मरने वालों की संख्या 371 बताई गई जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोग मारे गए. जबकि अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से अधिक थी. अम्रतसर के लोग मानते हैं कि- उस दिन उस काण्ड में लगभग 3000 लोग मारे गए थे.
जलियाँबाला बाग़ की उस सभा में एक किशोर युवक "उधम सिंह", लोगों को पानी पिलाने का काम कर रहां था. ये सारी भयंकर ह्रदय विदारक घटना उधम सिंह की आँखों के सामने घटी थी. उधम सिंह ने इस हत्याकांड का बदला लेना अपने जीवन का एकमात्र उदेश्य बना लिया था. इसके लिए वह लन्दन गया और वहा जाकर इस काण्ड का बदला लिया.
उधमसिंह ने लन्दन जाकर, एक सभा के बीचो बीच, अपनी पिस्तौल से "माइकल ओडवायर" का बध करके इस हत्या काण्ड का बदला लिया. "माइकल ओडवायर" का बध करने के बाद उधमसिंह ने भागने के बजाये अपनी गिरफ्तारी देकर सारी दुनिया को जलियाँवाला बाग के बारे में बताया. ये घटना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है.
इस हत्याकांड के बाद रबिन्द्रनाथ टैगोर ने 'सर' की उपाधि लौटा दी थी. सरदार भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्र शेखर आजाद, सुभाष चन्द्र बोस, रामप्रसाद बिस्मिल, असफाक उल्ला खान, रोशन सिंह, आदि अनेकों क्रांतिकारियों के जीवन पर इस घटना का बहुत गहरा प्रभाव पडा था. देशभक्तों के लिए जलियाँवाला बाग़ एक पवित्र तीर्थ स्थल है.
जय हिन्द, वन्दे मातरम, भारत माता की जय

Friday, 23 June 2017

फिरोज गांधी : प्रसिद्ध परिवार का गुमनाम व्यक्ति



एक व्यक्ति जो खुद सांसद रहा हो, जिसका ससुर, पत्नी और एक बेटा देशा का प्रधान मंत्री रहा हो, जिसका दुसरा बेटा और एक बहू प्रधानमंत्री से भी ज्यादा ताकतवर रहे हों, जिसकी दुसरी बहु भी मंत्री रही हो और जिसके दो पोते भी सांसद हों, वो व्यक्ति इतना "गुमनाम" कैसे हो सकता है? क्या देश को उनके बारे में पता नहीं होना चाहिए ?
जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ "फिरोज गांधी" की , जिनका विवाह इंदिरा गांधी से हुआ था. फिरोज गांधी के बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिली है. लेकिन विबिन्न किताबो और वेवसाइट्स पर जो जानकारी उपलब्ध है उनमे से फिरोज गांधी पर जानकारी ढूँढ़ कर, उसको तर्क की कसौटी पर कस कर, संकलित करने का प्रयास कर रहा हूँ .
फिरोज गांधी का धर्म "पारसी" बताया जाता रहा है. उनके बारे में जानकारी निकालने पर पता चलता हैं कि - उनकी माँ (रत्तीमाई) पारसी थी और पिता ( जहांगीर खान) मुसलमान थे. उनकी माँ भी बाद में मुसलमान बन गई थीं. फिरोजगांधी का अंतिम संस्कार भी हिन्दू या पारसी की तरह नहीं, बल्कि मुस्लिम रीत रिवाज से हुआ था.
हैदराबाद से प्रकाशित होने वाले प्रतिष्ठित उर्दू अखबार "दैनिक मुंसिफ" ने इस तरह का दावा किया है. इस अखबार ने "नेहरू डायनेस्टी" के लेखक "के. एन.राव" के हवाले से दावा किया गया कि - इंदिरा और फिरोज ने लंदन में एक मस्जिद में जाकर निकाह कर लिया था और इंदिरा को मुसलमान धर्म स्वीकार करना पड़ा.
जब इस बात की सूचना नेहरु को मिली तो वे इंदिरा से नाराज हो गए, मगर महात्मा गांधी ने इन दोनों को भारत बुला कर वैदिक पद्धति से उनकी शादी करवा दी. फिरोज जहांगीर खान का नाम, कथित रूप से फिरोज गांधी घोषित कर दिया गया. एक लेखक "मोहम्मद यूनुस" ने अपनी पुस्तक में लिखा था कि संजय गांधी का खतना भी किया गया था.
विकीपीडिया में दावा किया गया है कि - इंदिरा से शादी से पहले, फिरोज के कमला नेहरु से संबंधो की भी अफवाहे उड़ी थी. कुछ शरारती लोगों ने इलाहाबाद में इनके बारे में पोस्टर भी लगा दिए. जेल में बंद जवाहरलाल नेहरू ने इस बारे में खोजबीन के लिए रफ़ी अहमद किदवई को इलाहाबाद भेजा लेकिन किदवई ने इसे को पूरी तरह से बेबुनियाद पाया. लेकिन इसके बाबजूद नेहरु आजीवन कमला और फिरोज से नाराज बने रहे .
एक बार "मीनू मसानी" आनंद भवन में मेहमान थे. वो नाश्ता कर रहे थे कि अचानक नेहरू ने उनकी तरफ़ मुड़ कर कहा था, मानू क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि कोई मेरी पत्नी के प्रेम में भी फंस सकता है? मीनू ने तपाक से जवाब दिया, मैं ख़ुद उनके प्रेम में पड़ सकता हूँ. इस पर कमला तो मुस्कराने लगीं, लेकिन नेहरू का चेहरा गुस्से से लाल हो गया."
फिरोज गांधी ने कांग्रेस में रहते हुए भी कांग्रेसियों के भ्रष्टचार के खिलाफ आवाज उठाई थी. फिरोज गांधी को भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाला पहला व्यक्ति माना जाता है. उन्होंने अपने युग के आर्थिक घोटाले (मूंदड़ा कांड, जीप घोटाला) का पर्दाफाश किया था और उसके कारण तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णामचारी को इस्तीफा देना पड़ा था.

किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसका अंतिम संस्कार उसके धार्मिक रीत रिवाज के अनुसार करने का प्रावधान थे. हिन्दुओं में मृत शरीर को अग्नि में जलाया जाता है, मुस्लिम्स में दफनाया जाता है तथा पारसियों में चील कौओं को खिलाया जाता है. "दैनिक मुंसिफ" का दावा है कि - फिरोज गांधी को मुस्लिम रीत रिवाज से, इलाहाबाद के कब्रिस्तान में दफनाया गया था.

Sunday, 11 June 2017

उनाकोटि शिव मंदिर श्रंखला ( उनाकोटि, कैलाश शहर, त्रिपुरा )

भारत का नार्थ ईष्ट अनेको रहस्य समेटे हुए है. उनमे एक बहुत बड़ा रहस्य है "उनाकोटि". इस स्थान को ज्यादा प्रचार नहीं मिला है वरना इसको दुनिया के सात अजूबों में स्थान मिलना चाहिए था. वर्तमान केंद्र सरकार और त्रिपुरा सरकार ने नार्थईस्ट में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए, उनाकोटि के बारे में शेष भारत को जागरूक करना प्रारम्भ किया है.
इस बर्ष 26-जनवरी की निकाली गई त्रिपुरा की झांकी का थीम भी उनाकोटि को रखा गया था. उनाकोटि का अर्थ होता है करोड़ में एक कम. यहाँ पर भगवान शिव की गाथाओं के ऊपर, एक करोड़ में एक कम ( अर्थात - 99,99,999 ) मूर्तियाँ बनी हुई हैं. इनमे में कुछ को विशाल पहाडी चट्टानों पर उकेरा गया है तथा कुछ को पत्थर के बड़े टुकड़ों पर बनाया गया है.
ऐसा माना जाता है कि - माता सती के द्वारा अपने पिता के यग्य में भष्म होकर प्राण त्याग देने के बाद, भगवान् शिव उनके शव को अपने कंधे पर रखकर, तांडव करते हुए विश्व में विचरण करने लगे, जिससे दुनिया में प्रलय आने की संभावना हो गई, तब भगवान् विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शव के टुकड़े करना प्रारम्भ कर दिया .
माता सती के शव के अंग जहाँ जहाँ गिरे वे स्थान शक्ति पीठ कहलाते हैं. उनका आखिरी अंग गुवाहाटी के पास कामाख्या में गिरा था. उसके बाद भगवान् शिव का मोह समाप्त हो गया और उन्होंने तांडव को रोक दिया, परन्तु वे बिना कुछ कहे त्रिपुरा के घने जंगल में समाधि लेकर, तपस्या में लीन हो गए. उसके बाद ही शिव को "त्रिपुरारी" भी कहा जाने लगा.
उन दिनों एक राक्षस "तारकासुर" ने धरती पर आतंक मचाना शुरू कर दिया था. उसको कोई मार नहीं सकता था क्योंकि उसे वरदान प्राप्त था कि - केवल भगवान् शिव का पुत्र ही उसका वध कर सकता है और भगवान शिव का कोई पुत्र था नहीं. इसी बीच माता सती ने "देवी पार्वती" के रूप में दोबारा जन्म ले लिया, परन्तु भगवान् शिव अपनी समाधि में ही लींन रहे.
माता पार्वती शिव को पुनः पाने के लिए तप करने लगी. भगवान् शिव में कामना को जगाने के लिए और उनकी तपस्या भंग करने लिए, देवताओं ने "कामदेव" को भेजा. कामदेव और रति ने उनके तप को भंग तो कर दिया, लेकिन शिव के क्रोधित होकर अपना तीसरा नेत्र खोलने से, कामदेव वहीँ भस्म हो गया. क्रोध शांत होने पर देवताओं ने उनको सब समझाया. कामदेव के नाम पर ही नार्थईस्ट का यह क्षेत्र कामरूप कहलाता है.

तब त्रिपुरा के उसी क्षेत्र में माता पार्वती और भगवान शिव का विवाह हुआ और कालांतर में उनके पुत्र कार्तिकेय के हाथों तारकासुर का बध हुआ. कहा जाता है कि - जब भगवान् शिव समाधि में लीन थे, तब कल्लू कुम्हार नामक एक मूर्तिकार ने ने उनकी बहुत सेवा की थी. माता पार्वती और शिव के विवाह में भी उसने बहुत योगदान दिया था.
जब भगवान् शिव वहां से अपने कैलाशधाम को जाने लगे, तो कल्लू कुम्हार ने भी उनके साथ चलते की जिद की. भगवान् शिव उसको सीधे मना भी नहीं कर सकते थे और साथ ले जाना भी संभव नहीं था. इसलिए उन्होंने कल्लू कुम्हार से कहा कि - अगर तुम एक रात में एक करोड़ मूर्तियाँ बना दो, तो हम तुमको भी अपने साथ कैलाश धाम ले जायेंगे.
भगवान् शिव के सानिध्य में रहने से कल्लू को भी दिव्य शक्तिया प्राप्त हो चुकी थीं. उसने उन शक्तियों का प्रयोग करके रातों रात एक करोड़ मूर्तियों का निर्माण कर दिया. लेकिन सुबह जब उनकी गिनती की गई तो, एक करोड़ में एक कम पाई गई. तब भगवान शिव ने कल्लू से कहा कि - तुम यही रहो, यहाँ आने वाला प्रत्येक व्यक्ति तुमको मेरे साथ साथ याद करेगा.
शिव पुराण में भी इस स्थान का जिक्र है. भगवान् शिव के कैलाशधाम जाने के बाद, कल्लू कुम्हार उस स्थान की देखभाल करने लगा. यह स्थान पौराणिक काल का प्रमुख तीर्थ स्थल बन गया था, परन्तु कालान्तर में पूर्वोत्तर में बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ने के बाद, यह स्थान गुमनामी में खो गया. विधर्मियों के शासन और सुदूर क्षेत्र में होने से लोग इसे भूलने लगे.
त्रिपुरा सरकार और वर्तमान केंद्र सरकार ने इस स्थान को महत्वपूर्ण धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का सकल्प लिया है. इस स्थान पर अच्छी सुविधाए मिलने के बाद देशवासी निश्चित रूप से वहां जाना पसंद करेंगे. यदि ऐसा होता है तो पूर्वोत्तर को शेष भारत से सांस्क्रतिक रूप से जोड़ने में यह स्थान बहुत ही सहायक साबित होगा.

Friday, 9 June 2017

जब राष्ट्र संकट में हो, तो राष्ट्रभक्त किसी निमंत्रण की प्रतीक्षा नही करते.

मगध पर मौर्य वंश का 10 वां राजा "वृहदरथ" राज करता था. वह बहुत ही कायरता वाली मानशिकता का व्यक्ति था. लेकिन अपनी कायरता को छुपाने के लिए अपने आपको अहिंसा का पुजारी बताता था. उसके शासन में सेना को कोई सम्मान नहीं था.
उसके सेनापति का नाम था पुश्यमित्र शुंग. सेनापति पुश्यमित्र शुंग बहुत ही वीर, साहसी और दूरदर्शी था. उन्ही दिनों यवनों ने भारत पर आक्रमण कर दिया. सेनापति पुश्यमित्र ने राजा "वृहदरथ" से युद्ध करने की अनुमति मागी लेकिन राजा ने मना कर दिया.
राजा "वृहदरथ" का कहना था कि - हम यवनों को महात्मा बुद्ध के उपदेश सुनाकर, अहिंसा के रास्ते पर ले आयेंगे. लेकिन इधर यवन मारकाट मचाते हुए लगातार भारत पर चढ़े आ रहे थे. तब सेनापति पुश्यमित्र शुंग ने बिना अनुमति यवनों का रास्ता रोक लिया.
भारत की सेना ने यवनों का संहार कर दिया. सेनापति पुश्यमित्र शुंग ने न तो किसी भी यवन को भागने दिया और न ही किसी यवन को बंदी बनाया. उसने पूरी यवन सेना का बध कर दिया. विजय का समाचार पाकर भी "वृहदरथ" अपने सेनापति पुश्यमित्र से नाराज रहा.
युद्ध की समाप्ति पर सेनापति पुश्यमित्र शुंग ने सैनिको के पथ संचलन (परेड) का कार्यक्रम रखा, जिसमे राजा "वृहदरथ" को सैनिको को बधाई और पुरुष्कार देने थे लेकिन राजा ऐसा करने के बजाय राजाज्ञा उलंघन के लिए सेनापति की आलोचना करने लगा.
वृहदरथ ने पूछा - अहिंसा का अनुसरण करने वाले राज्य में तुमने किसकी आज्ञा से यवनों पर आक्रमण किया. इस पर क्रोधित होकर सेनापति पुश्यमित्र शुंग ने कहा जब - जब राष्ट्र संकट से घिरा हो तो राष्ट्रभक्त किसी निमंत्रण पत्र की प्रतीक्षा नही करते.
और यह कहकर अपनी तलवार के एक ही वार से राजा वृहदरथ का सर काट दिया.एक पल को सन्नाटा छा गया. तब सेनापति ने आगे बढ़कर कहा - " न तो वृहदरथ महत्वपूर्ण था और न मैं महत्वपूर्ण हूँ, अगर महत्व है तो सिर्फ और सिर्फ मातृभूमि का है."
पुश्यमित्र शुंग के ऐसे बचन सुनकर सेना और आम जनता सेनापति की जय जयकार करने लगी और मंत्री परिषद् ने पुश्यमित्र शुंग को अपना नया राजा घोषित कर दिया. इस प्रकार मौर्यवंश का साम्राज्य ख़त्म हुआ और "शुंग वंश" का सूत्रपात हुआ.

Wednesday, 31 May 2017

पुष्यमित्र शुंग

सनातन धर्म के महान रक्षक “
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चक्रवर्त्ती “सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य” और उनके पोते “सम्राट अशोक” ने अपने बाहुवल और राजगुरु चाणक्य के बुद्धिबल के योग से एक शक्तिशाली साम्राज्य खडा किया था. लेकिन अशोक का मन युद्ध से उचट जाने और बौद्ध बन जाने के बाद, सनातन धर्म की उपेक्षा होने लगी तथा बौद्ध मत को महिमामंडित तथा बौद्धों का तुष्टीकरण होने लगा.

सनातन धर्म को मानने वालों को, अपना धर्म छोकर बौद्ध बनने पर मजबूर किया जाने लगा था.अशोक के शासनकाल में तो लोग मजबूरी में खामोश रहे लेकिन अशोक के कमजोर उत्तराधिकारियों के समय में अनेको राजा सर उठाने लगे. मौर्यवंश के सबसे कमजोर शासक “वृहदरथ” के समय तक बिदर्भ, कलिंग, स्यालकोट जैसे कई राज्य स्वतंत्र हो गए.

अहिसावादी होने के कारण बौद्ध लोग सेना तथा सैनिकों को सम्मान नहीं देते है इस कारण सेना में भी बौद्ध शासको के खिलाफ “बगावत” की भावना पनपने लगी थी. साम्राज्य पर मौर्य बंश की पकड़ कमजोर होने लगी थी. “वृहदरथ” के कुशासन से परेशान प्रजा, राजा “वृहदरथ” से ज्यादा उसके सेनापति “पुष्यमित्र शुंग” को पसंद करती थी.
सेना और जनता का दिल जीत चुके सेनापति पुष्यमित्र शुंग” ने एक दिन राजा वृहदरथ का बध कर दिया और स्वयं राजा बन गया. देश की जनता और सेना राजा “वृहदरथ” इतना ज्यादा निराश थी कि – उसने ख़ुशी से “पुष्यमित्र शुंग” को अपना राजा स्वीकार कर लिया. राजा बनते ही “पुष्यमित्र शुंग” ने सनातन धर्म को पुनः स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया.
“पुष्यमित्र शुंग” जन्म से ब्राह्मण था और कर्म से क्षत्रीय. उसने सेना को पुनः सगठित किया और स्वतंत्र हो चुके बिदर्भ, कलिंग, स्यालकोट, आदि राज्यों को फिर से मगध में मिला लिया. “पुष्यमित्र शुंग” के समय में यवनों के भी कई हमले हुये मगर अपनी वीरता और चतुराई से उसने हर हमले को नाकाम कर यवनों को भागने पर मजबूर कर दिया. “पुष्यमित्र शुंग”  के शासन काल में बौद्ध बने सनातनियों ने पुनः घर वापसी कर ली 
“पुष्यमित्र शुंग” ने वैदिक / सनातन धर्म की स्थापना के लिए बहुत काम किये. उसने जगह जगह मंदिर और यग्यशालाओं का निर्माण किया. बौद्ध शासन में बंन्द कर दिए गए प्राचीन वैदिक / सनातन धर्म के अनुष्ठान करने प्रारम्भ कर दिए गए. अपने राज्य का विस्तार करने के लिए उसने रामायण में वर्णित “अश्वमेघ यग्य” का दो बार आयोजन किया.
इस यग्य के प्रधान पुरोहित महर्षि “पतंजली” थे. उनके यग्य के घोड़े को सिन्धू नदी के तट पर यवनों ने पकड़ लिया था तब उनके पौत्र “वसुमित्र” ने भीषण युद्ध में यवनों को परास्त कर घोड़े को छुडाया और सिंध तक मगध राज्य का विस्तार किया. कुछ बर्ष बाद उन्होंने पुनः अश्वमेघ यग्य किया, लेकिन तब किसी ने घोड़े को पकड़ने का साहस नहीं किया.
उनके समय में योग और आयुर्वेद का बहुत विकास हुआ. सड़कों के किनारे छायादार ब्रक्ष लगवाये गए. मार्ग में हर पांच कोस की दूरी के बाद एक छोटी सी चौकी बनाई जहाँ व्यापारी अपने काफिले के साथ सुरक्षित रूप से, रात्री विश्राम कर सकें. “पुष्यमित्र शुंग” के शासन काल में भारत पुनः एक शक्तिशाली और सम्रद्ध राष्ट्र बन गया था.

पुष्यमित्र की महानता का सबसे बड़ा परिचय इस बात से मिलता है कि - उसके राज में सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार करते हुए भी, कभी महात्मा बुद्ध का अपमान नहीं किया गया और बल्कि महात्मा बुद्ध को भी विष्णु का अवतार घोषित कर, उनको भगवान् का दर्जा दिया गया. उसके राज में किसी भी बौद्ध मठ और स्तूप में कोई छेड़छाड़ की गई.
“पुष्यमित्र शुंग” में बौद्ध मठों और स्तूपों को भी भगवान का घर कह कर सम्मान दिया गया और उनको भी तीर्थ घोषित किया गया. पुष्यमित्र के शासन काल में बौद्ध बने ज्यादातर सनातनियों ने पुनः घर वापसी कर ली थी लेकिन वे लोग सनातन धर्म के देवी देवताओं की तरह, भगवान् बुद्ध की पूजा करने के लिए भी स्वतंत्र थे
पुष्यमित्र ने 36 वर्ष (185-149 ई. पू.) तक राज्य किया. उसका साम्राज्य हिमालय से नर्मदा नदी तक और सिन्धु से पूर्वी समुद्र तक विस्तृत था. पुष्यमित्र एवं उसके उत्तराधिकारियों के शासनकाल में लगाए गए शिलालेखों से उसके समय में विशाल, मजबूत और सम्रद्ध भारतबर्ष का परिचय मिलता है. सनातन धर्म के महान रक्षक की जय हो.

गुरु अर्जुनदेव

गुरु अर्जुनदेव के शहीदी दिवस ( जेष्ठ शुक्ल चतुर्थी ) पर भावभीनी श्रद्धांजली
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सिक्ख गुरु परम्परा में "गुरु अर्जुनदेव" पांचवें स्थान पर आते हैं. गुरु अर्जन देव सिक्खों के चौथे गुरु, "गुरु रामदास" के पुत्र थे. उनका जन्म 15 अप्रैल 1563 गोइंद्वाल साहब में हुआ था. वे सन 1581 ई. में गुरू गद्दी पर बैठे थे . पवित्र ग्रन्थ 'गुरु ग्रंथ साहब' आज जिस रूप में उपलब्ध है, उसका संपादन "गुरु अर्जुनदेव" जी ने ही किया था.
आध्यात्मिक जगत में "गुरु अर्जुनदेव" जी को बहुत ऊंचा स्थान प्राप्त है. उन्हें ब्रह्मज्ञानी भी कहा जाता है. ग्रंथ साहिब का संपादन गुरु अर्जुन देव जी ने भाई गुरदास की सहायता से 1604 में किया था. गुरुग्रंथ साहिब में तीस रागों में गुरु जी की वाणी संकलित है. गणना की दृष्टि से श्री गुरुग्रंथ साहिब में सर्वाधिक वाणी पंचम गुरु की ही है.
अमृतसर के स्वर्ण मंदिर और तरन तारन के भव्य गुरुद्वारे के साथ विशाल सरोवर बनवाने का श्रेय भी उनको को ही जाता है. गुरु अर्जुन देव का बहुत ज्यादा प्रभाव था. उनके शिष्यों में सिक्ख और हिन्दुओं के अलावा बहुत से मुस्लिम भी शामिल हो गए थे. गुरु जी का बढ़ता प्रभाव सत्ता से नजदीकी वाले (अ)धार्मिक नेताओं को रास नहीं आ रहा था.
उन दिनों दिल्ली पर अकबर का शासन था. कुछ असामाजिक तत्वों ने अकबर बादशाह के पास यह शिकायत की कि - ग्रंथ में इस्लाम के खिलाफ लिखा गया है. अकबर ने जांच करने पर शिकायत को झूठा पाया, लेकिन अकबर का पुत्र जहांगीर गुरु अर्जुन देव के खिलाफ ही रहा और उनके खिलाफ कार्यवाही करने का मौक़ा तलाश करने लगा.
अकबर की म्रत्यु के बाद जहांगीर दिल्ली का शासक बना. वह बहुत ही ज्यादा कट्टर था, उसे अपने धर्म के अलावा, कोई अन्य कोई धर्म पसंद नहीं था. जहाँगीर ने अपने चापलूस "चंदू" के माध्यम से कहलवाया कि - अपने ग्रन्थ में मोहमद साहिब की स्तुति लिखनी होगी, जिसे गुरु अर्जुन देव ने अस्वीकार कर दिया.
इसी बीच जहाँगीर के एक बेटे खुसरो ने बगावत कर दी थी. खुसरो ने गुरु अर्जुन देव से सहायता मांगी. जहाँगीर को यह शक था कि - गुरू जी ने बाग़ी शहजादा खुसरो की मदद की थी. शेखुलर इतिहासकार जिस जहाँगीर को इन्साफ का पुजारी बताते है, उस जहाँगीर ने बिना "गुरु जी" पक्ष जाने को यातना देकर मारने का फरमान दे दिया.
जहागीर के चमचे "चंदू" ने गुरु जी को अकेले बुलाकर लालच दिया कि - अगर आप मेरी बेटी का रिश्ता अपने बेटे के साथ कर दें और अपने ग्रंथ में मोहमद साहिब की स्तुति लिखने को तैयार हों तो मैं आपकी सजा माफ़ करा दूंगा. इस पर गुरुजी ने कहा - प्राणी मात्र के उद्धार के लिए हमें करतार से जो प्रेरणा मिलती है इसमें हम केवल वही लिख सकतें हैं.
तब उनको गर्म तबे पर बिठाया गया, गर्म रेत डाली गई, देग में गर्म पानी में उबाला गया मगर गुरुजी सारी यातनाएं झेलने के बाद भी अधर्मियों के आगे नहीं झुके. अगले दिन फिर जहाँगीर का चमचा "कमीना चंदू" फिर अपनी बात मनाने के लिए गुरु जी के पास पहुँचा तो गुरु जी ने उससे रावी में स्नान करने की इच्छा व्यक्त की.
अनुमति मिलने पर गुरु जी पांच सिखों सहित रावी तट पर आ गए और "जपुजी साहिब" का पाठ करके "भाई लंगाह" को कहा कि - अब हमरी परलोक गमन कि तैयारी है. आप जी श्री हरिगोबिंद को धैर्य देना और कहना कि शोक नहीं करना, करतार का हुकम मानना. हमारे शरीर को जल प्रवाह ही करना, संस्कार नहीं करना.
इसके पश्चात गुरु जी ने रावी में प्रवेश करके अपना शरीर त्याग दिया. उस दिन ज्येष्ठ सुदी चौथ संवत 1553 विक्रमी थी. गुरु जी का ज्योति ज्योत समाने का सारे शहर में बड़ा शोक बनाया गया. गुरु जी के शरीर त्यागने के स्थान पर गुरुद्वारा "ढ़ेरा साहिब" लाहौर के शाही किले के पास ही विद्यमान है. गुरु जी की धर्मनिष्ठा को कोटि कोटि नमन

महारानी अहिल्याबाई होलकर

रानी अहिल्याबाई छोटे से राज्य इंदौर की रानी थी, लेकिन उन्होंने जिस तरह से अपने राज्य का कुशल संचालन किया तथा उसे सशक्त और सम्रद्ध बनाया, उसके लिए उनका नाम महान साम्राज्ञी के रूप में लिया जाता है. उन्होंने मुग़ल काल में तोड़े गए अनेको मंदिरों का पुनरुद्धार कराया था, इसके लिए उनको हिन्दू ह्रदय साम्राज्ञी भी कहा जाता है.
अहिल्याबाई का जन्म 31 मई सन् 1725 में एक साधारण परिवार में हुआ था, लेकिन उनकी विद्वता से प्रभावित होकर, इन्दौर के महाराजा "मल्हार राव होल्कर" ने अपने पुत्र "खंडेराव" का विवाह उनसे से करवा दिया. उनके एक पुत्र (मालेराव) और एक पुत्री (मुक्ताबाई) थी. राजा मल्हार राव ने अपनी पुत्रबधू को सैन्य प्रशिक्षण भी दिल्बाया.

जब वे मात्र 29 बर्ष की थीं और बच्चे भी बहुत छोटे थे, तब ही सन 1754 में उनके पति "खंडेराव" का देहांत हो गया. पति के देहांत के बाद उन्होंने राज्य का संचालन सम्हाला और अपने स्वसुर के मार्गदर्शन में, उन्होंने इतनी कुशलता से राज्य का प्रशासन चलाया कि - उनकी गणना आज दुनिया के आदर्श शासकों में की जाती हैं.
रानी अहिल्याबाई भगवान शिव की भक्त थीं. उन्होंने भगवान् शिव को राज्य का राजा घोषित किया था तथा स्वयं उनकी सेविका बनकर राज्य का संचालन किया. उनका रहन-सहन बिल्कुल सादा था. जितनी कुशकता से वे राज्य का संचालन करती थी उतनी ही निष्ठा से वे भगवान का पूजन और श्रेष्ठ धर्मग्रंथो का अध्ययन करती थीं.
उन्होंने अपने राज्य के प्रशासन को जिला, तहसील और पंचायत में बाँट दिया. जिलों का कार्य उनके मंत्री देखते थे लेकिन अंतिम निर्णय रानी अहिल्याबाई का ही होता था. उनके शासन में व्यवसाय का बहुत विस्तार हुआ. दूर दूर से आकर कारीगर वहां बसने लगे और देखते ही देखते मालवा बस्त्र निर्माण का केंद्र बन गया.
उस समय नियम था कि पति की म्रत्यु के बाद यदि पुत्र न हो तो सम्पति पर सरकार का कब्जा हो जाता था उन्होंने विधवा को सम्पत्ति का अधिकार दिलवाया. वे युद्ध के समय में हाथी पर बैठकर स्वयं युद्ध का नेत्रत्व करती थीं. वे भगवान शिव की भक्ते थीं और इसलिए उन्हों ने 1777 में विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया.
इसके अलावा उन्होंने काशी, गया, सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, द्वारिका, बद्रीनारायण, रामेश्वर, जगन्नाथ पुरी इत्यादि प्रसिद्ध तीर्थस्थानों पर मंदिर बनवाए और तीर्थयात्रियों के लिए धर्म शालाएं खुलवायीं. कलकत्ता से बनारस तक की सड़क, बनारस में अन्नपूर्णा का मन्दिर , गया में विष्णु मन्दिर उनके बनवाये हुए हैं.
इसके अतिरिक्त इन्होंने अनेको नदियों पर घाट बनवाए, कुओं औरबावड़ियों का निर्माण करवाया, मार्ग बनवाए, भूखों के लिए अन्नक्षेत्र (लंगर) खोले, प्यासों के लिए प्याऊ बिठलाईं, मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति की तथा शास्त्रों के मनन-चिंतन और 
प्रवचन की भी अनेकों व्यवस्थाएं कीं. 13 अगस्त सन् 1795 को उनका स्वर्गवास हो गया.

Sunday, 28 May 2017

गौ-ह्त्या का उद्देश्य

गौ-ह्त्या का उद्देश्य : सस्ता मांस नहीं बल्कि हिन्दुओं को अपमानित करना है
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भारत में प्राचीन काल में गौ-हत्या होती थी या नहीं, यह विवाद का बिषय हो सकता है लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि - महाभारत काल (श्री कृष्ण के समय) से गौ-ह्त्या पूर्ण रूप से प्रतिबंधित हो गई थी और गायों को पूजने की परम्परा बन गई थी. तब से लेकर अब तक भारतीयों द्वारा गाय को देवी का दर्जा मिला हुआ है.
भारत में गौ-हत्या और गौ-मांस भक्षण मोहम्मद गौरी के आक्रमण के बाद प्रारम्भ हुआ. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की सलाह मानकर, गायों को आगे रखकर हिन्दुओं पर हमला करके ही गौरी ने बिजय पाई थी. उसने हारे हुए हिन्दुओ को मुसलमान समय, उनकी धार्मिक आस्था को तहस नहस करने के लिए गौ-मांस खिलाया था.
हिन्दुओं को गौ-मांस खिलाने का उद्देश्य, प्रोटीन खिलाकर तगड़ा बनाना नहीं था बल्कि उनकी धार्मिक आस्था को मटियामेट करना था. जैसे कभी किसी से लड़ाई होने पर किसी के द्वारा किसी की माँ अथवा बहन को गाली देना, उसकी माँ अथवा बहन के साथ कुछ करना नहीं होता है बल्कि सामने वाले बिरोधी के स्वाभिमान पर चोट करना होता है.
पहले कई बार पढने / सुनने को मिलता था कि - बकरीद के मौके पर मुस्लिम बहुल इलाकों में गायों को सरेआम सड़कों पर दौडाया, उनको घायल किया और सरेआम काट दिया. वो उनका कोई धार्मिक रिवाज नहीं था बल्कि हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए किया जाता था. राष्ट्रवादी सरकार बन्ने के बाद ऐसी खबरे आनी बंद हो चुकी हैं.
अंग्रेजों ने भी भारतीयों को अपमानित करने के लिए यही तकनीक इस्तेमाल की. उन्होंने मुह से खोलने बाले कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी लगाई. ऐसा नहीं था कि - गाय और सूअर की चर्बी से कारतूस बढ़िया हो जाता था. उनको तो सिर्फ एक चिकना और गाढा पदार्थ ही चाहिए था, जो खनिज अथवा पेट्रोलियम ग्रीस से भी काम चल सकता था.
अंग्रेजों ने जानबूझकर कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी लगाईं. अगर चर्बी जरुरी थी तो वे चाहते तो दो तरह के कारतूस भी बना सकते थे. दो अलग रंग के पैकेट बना सकते थे. कारतूस के पैकेट लाल हरे दो रंग के बना सकते थे. लाल रंग का पैकेट में सूअर की चर्बी और हरे रंग के पैकेट में गाय की चर्बी लगा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.
अंग्रेज भारतीयों की अंतरआत्मा को कुचलने, उनको गुलाम होने का बार-बार अहेसास कराने के लिए गाय और सूअर की चर्बी बाला कारतूस बनाते थे. आज भी जो लोग गौ-ह्त्या करते हैं या गौ-मांस की वकालत करते हैं उनका उद्देश मांस नहीं बल्कि हिन्दुओं को अपमानित करना तथा हिन्दुओं के स्वाभिमान को कुचलना है है.
आज केरल में कांग्रेसियों ने गाय के बछड़े को काटा है और उसका वीडियों वायरल किया है. ऐसा करके उन्होंने और कुछ नहीं बल्कि केंद्र की भाजपा सरकार को चुनौती दी है कि - आप चाहे कुछ भी कर लो हमें रोक नहीं पाओगे. ऐसी हरकतें करके कांग्रेस मुसलमानों को दिखाना चाहती है कि - केवल वही भाजपा को टक्कर देने में सक्षम है.